कक्षा-VIII हमारे अतीत-III | |
1. | कैसे, कब और कहाँ |
2. | व्यापार से साम्राज्य तक कंपनी की सत्ता स्थापित होती है |
3. | ग्रामीण क्षेत्र पर शासन चलाना |
4. | आदिवासी, दीकु और एक स्वर्ण युग की कल्पना |
5. | जब जनता बगावत करती है 1857 और उसके बाद |
6. | बुनकर, लोहा बनाने वाले और फैक्ट्री मालिक |
7. | देशी जनता” को सभ्य बनाना राष्ट्र को शिक्षित करना |
8. | महिलाएँ जाति एवं एवं सुधार |
9. | राष्ट्रीय आंदोलन का संघटन : 1870 के दशक से 1947 तक |
10. | स्वतंत्रता के बाद |
कैसे, कब और कहाँ
ब्रिटिश काल के संदर्भ में
- रॉबर्ट क्लाइव ने जेम्स रेनेल को हिन्दुस्तान के नक्शे तैयार करने का काम सौंपा था। भारत पर अंग्रेजों की विजय के समर्थक रेनेल को वर्चस्व स्थापित करने की प्रक्रिया में नक्शे तैयार करना महत्त्वपूर्ण लगता था।
- वारेन हेस्टिंग्स 1773 में गवर्नर जनरल बना था जो कि भारत का पहला गवर्नर जनरल था। रॉबर्ट क्लाइव बंगाल का गवर्नर था।
- भारत का अंतिम गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन था।
- 1817 में स्कॉटलैंड के अर्थशास्त्री और राजनीतिक दार्शनिक जेम्स मिल ने तीन विशाल खंडों में ‘ए हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ नामक पुस्तक लिखी।
- इस किताब में उन्होंने भारत के इतिहास को हिंदू, मुस्लिम और ब्रिटिश,इन तीन काल खंडों में बाँटा था।
- मिल को लगता था कि सभी एशियाई समाज सभ्यता के मामले में यूरोप से पीछे हैं और ब्रिटिश शासन भारत को सभ्यता की राह पर ले जा सकता था। मिल ने तो यहाँ तक सुझाव दिया था कि अंग्रेजों को भारत के सारे भू-भाग पर कब्जा कर लेना चाहिये ताकि भारतीय जनता को ज्ञान और सुखी जीवन प्रदान किया जा सके। वह मानता था कि अंग्रेजों की मदद के बिना हिन्दुस्तान प्रगति नहीं कर सकता।
- अंग्रेजों को लगता था कि तमाम अहम दस्तावेजों और पत्रों को संभालकर रखना जरूरी है, लिहाजा उन्होंने महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों को बचाकर रखने के लिये अभिलेखागार और संग्रहालय जैसे संस्थान बनाए। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में प्रशासन की एक शाखा से दूसरी शाखा के पास भेजे गए पत्रों और ज्ञापनों को आप आज भी अभिलेखागारों में देख सकते हैं। उन्नीसवीं सदी के शुरुआती सालों में इन दस्तावेज़ों की सावधानीपूर्वक नकलें बनाई जाती थीं। उन्हें खुशनवीसी के माहिर लिखिते थे।
- खुशनवीसी या सुलेखनवीस ऐसे लोग होते हैं जो बहुत सुंदर ढंग से चीजें लिखते हैं।
- अंग्रेजी शासन द्वारा तैयार किए गए सरकारी रिकॉर्ड इतिहासकारों का एक महत्त्वपूर्ण साधन होते हैं। अंग्रेजों को मान्यता थी की चीज़ों को लिखना बहुत महत्त्वपूर्ण होता है।
व्यापार से साम्राज्य तक कंपनी की सत्ता स्थापित होती है
भारत में यूरोपीय व्यापारिक शक्तियों के आगमन का सही क्रम इस प्रकार है-
पुर्तगाली > डच > अंग्रेज़ > डेन > फ्राँसीसी |
▪︎ वास्को डी गामा एक पुर्तगाली खोजी यात्री था। इसने 1498 में पहली बार यूरोप से भारत पहुँचने का समुद्री मार्ग खोजा था।
ईस्ट इंडिया कंपनी के संदर्भ में
- सन् 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम से चार्टर अर्थात् इजाजतनामा हासिल किया, जिससे कंपनी को पूरब से व्यापार करने का एकाधिकार मिल गया।
- इसका अर्थ था कि इंग्लैंड की कोई और व्यापारिक कंपनी इस इलाके में ईस्ट इंडिया कंपनी से होड़ नहीं कर सकती थी, लेकिन यह शाही दस्तावेज दूसरी यूरोपीय ताकतों को पूरब के बाजारों में आने से नहीं रोक सकता था।
- इस काल खंड में यूरोप के बाजारों में भारत के बने बारीक सूती कपड़े और रेशम की जबरदस्त मांग थी। इसके अलावा काली मिर्च, लौंग, इलायची और दालचीनी की भी जबरदस्त मांग रहती थी।
- पुर्तगाली अंग्रेजों से पहले भारत आए और इस समय तक उन्होंने भारत के पश्चिमी तट पर अपनी उपस्थित दर्ज करा दी थी। वे गोवा में अपना ठिकाना बना चुके थे।
- 1696 तक कंपनी ने अपनी फैक्ट्रियों तथा आस-पास बसी आबादी के चारों तरफ किला बनाना शुरू कर दिया था। दो साल बाद उसने मुगल अफसरों को रिश्वत देकर तीन गाँवों की जमींदारी भी खरीद ली। इनमें से एक गाँव कालीकाता था जो बाद में कलकत्ता बना।
- कंपनी ने मुगल बादशाह औरंगजेब को इस बात के लिये तैयार कर लिया कि वह कंपनी को बिना शुल्क चुकाए व्यापार करने का फरमान जारी कर दे। औरंगजेब के इस फरमान से केवल कंपनी को ही शुल्क मुक्त व्यापार का अधिकार मिला था। कंपनी के जो अफसर निजी तौर पर व्यापार चलाते थे उन्हें यह छूट नहीं थी लेकिन उन्होंने भी शुल्क चुकाने से इनकार कर दिया, जिससे बंगाल में राजस्व वसूली बहुत कम हो गई।
- नवाबों में सबसे पहले मुर्शिदकुली खान नवाब बना। मुर्शिदकुली खान के बाद अलीवर्दी खान नवाब की गद्दी पर बैठा। 1756 में अलीवर्दी खान की मृत्यु के बाद सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना।
ईस्ट इंडिया कंपनी और बंगाल के नवाबों के मध्य युद्ध के कारणों के संदर्भ में
- बंगाल के नवाब शक्तिशाली शासक थे। उन्होंने कंपनी को रियायतें देने से मना कर दिया तथा व्यापार का अधिकार देने के बदले कंपनी से नजराने मांगे।
- उन्होंने कंपनी को सिक्के ढालने का अधिकार नहीं दिया और उसकी किलेबंदी को बढ़ाने से रोक दिया। कंपनी पर धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए उन्होंने दलील दी कि उसकी वजह से बंगाल सरकार की राजस्व वसूली कम होती जा रही है और नवाबों की ताकत कमजोर पड़ रही है।
- कंपनी नवाब के राज्य के आंतरिक मामलों में टांग अड़ाती थी। साथ ही कंपनी का कहना था कि स्थानीय अधिकारियों की बेतुकी मांगों से कंपनी का व्यापार तबाह हो रहा है।
- ये टकराव दिनोंदिन गंभीर होते गए। अंततः इन टकरावों की परिणति प्लासी के प्रसिद्ध युद्ध के रूप में हुई।
प्लासी के युद्ध के संदर्भ में
- प्लासी का युद्ध 1757 में हुआ। इसमें बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के खिलाफ रॉबर्ट क्लाइव ने कंपनी की सेना का नेतृत्व किया। इस युद्ध में सिराजुद्दौला की हार हुई।
- सिराजुद्दौला के सेनापतियों में से एक मीर जाफर की टुकड़ियों ने कंपनी का साथ देते हुए इस युद्ध में हिस्सा नहीं लिया जो उसकी हार का बहुत बड़ा कारण था।
- प्लासी की जंग के बाद सिराजुद्दौला को मार दिया गया तथा मीर जाफर को नवाब बना दिया गया।
बक्सर के युद्ध के संदर्भ में
- बक्सर का युद्ध 1764 में कंपनी और मीर कासिम के मध्य लड़ा गया। इस युद्ध में कंपनी की जीत हुई। अतः कथन । गलत है।
- कंपनी की जीत के बाद मीर जाफर को दोबारा नवाब बनाया गया।
- इस युद्ध के बाद नवाब को हर महीने पाँच लाख रुपए कंपनी को चुकाना तय कर दिया गया।
ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल की दीवानी प्राप्त होने के संदर्भ में
- 12 अगस्त, 1765 को मुगल सम्राट ने कंपनी को बंगाल का दीवान नियुक्त किया था न कि बंगाल के नवाब ने, अतः कथन 1 गलत है। दीवानी मिलने के कारण कंपनी को बंगाल के विशाल राजस्व संसाधनों। पर नियंत्रण मिल गया।
- उस समय तक कंपनी को भारत में ज्यादातर चीजें ब्रिटेन से लाए गए सोने और चांदी के बदले खरीदनी पड़ती थीं, क्योंकि उस समय ब्रिटेन के पास भारत में बेचने के लिये कोई चीज़ नहीं थी।
- प्लासी की जंग के बाद ब्रिटेन से सोने की निकासी कम होने लगी। थी और बंगाल की दीवानी मिलने के बाद तो ब्रिटेन से सोना लाने की ज़रूरत ही नहीं रही। अब भारत से होने वाली आमदनी से ही कंपनी अपने खर्चे चला सकती थी।
बक्सर के युद्ध के बाद कंपनी ने भारतीय रियासतों में रेजिडेंट तैनात कर दिये। इन रेजिडेंटों के संदर्भ में
- कंपनी द्वारा तैनात ये रेजिडेंट कंपनी के राजनीतिक या व्यावसायिक प्रतिनिधि होते थे। उनका काम कंपनी के हितों की रक्षा करना और उन्हें आगे बढ़ाना था।
- रेजिडेंट के माध्यम से कंपनी के अधिकारी भारतीय राज्यों के भीतरी मामलों में भी दखल देने लगे थे। अगला राजा कौन होगा, किस पद पर किसको बैठाया जाएगा. इस तरह की चीजें भी कंपनी के अफसर ही तय करना चाहते थे।
सहायक संधि’ के संदर्भ में
- कंपनी द्वारा भारतीय राज्यों पर कब्जे की प्रक्रिया में ‘सहायक संधि’ | का प्रयोग किया गया, जिसके तहत इसे स्वीकार करने वाली रियायतें अपनी स्वतंत्र सेना नहीं रख सकती थीं। उन्हें कंपनी की तरफ से सुरक्षा मिलती थी और सहायक सेना’ के रख-रखाव के लिये वे कंपनी को पैसा देती थीं।
- अगर भारतीय शासक ये रकम अदा करने में चूक जाते थे तो जुर्माने के तौर पर उनका इलाका कंपनी अपने कब्जे में ले लेती थी। उदाहरण के लिये गवर्नर-जनरल वेलेजली (1798-1805) के समय अवध के नवाब को 1801 में अपना आधा इलाका कंपनी को सौंपने के लिये मजबूर किया गया। इसी आधार पर हैदराबाद के भी कई इलाके छीन लिये गए।
मैसूर रियासत के संदर्भ में
- हैदरअली (शासनकाल 1761 से 1782) और उसके पुत्र टीपू सुल्तान (शासनकाल 1782-1799) के समय मालाबार तट पर होने वाला व्यापार मैसूर रियासत के नियंत्रण में था। यहाँ से कंपनी काली मिर्च और इलायची खरीदती थी। अतः कथन 1 सही है।
- 1785 में टीपू सुल्तान ने अपनी रियासत में पड़ने वाले बंदरगाहों से चंदन की लकड़ी, काली मिर्च और इलायची का निर्यात रोका तथा स्थानीय सौदागरों को भी कंपनी के साथ व्यापार करने से रोक दिया।
- टीपू को ‘शेर-ए-मैसूर’ के नाम से जाना जाता था तथा उसके राजसी झंडे पर भी शेर की तस्वीर होती थी।
- टीपू सुल्तान ने भारत में रहने वाले फ्राँसीसी व्यापारियों से घनिष्ठ संबंध विकसित किये और उनकी मदद से अपनी सेना का आधुनिकीकरण किया।
आंग्ल मैसूर युद्धों के संदर्भ में
मैसूर के साथ अंग्रेजों के चार युद्ध हुए | |
प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध | (1767 से 1769) |
द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध | (1780 से 1784) |
तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध | (1790 से 1992) |
चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध | (1799) |
- 1792 में मराठों, हैदराबाद के निसाम और कंपनी की संयुक्त फौजों के हमले के बाद टीपू सुल्तान को अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी। इस संधि के तहत उसके दो बेटों को अंग्रेजों ने बंधक के रूप में अपने पास रख लिया।
- चौथे अर्थात् श्रीरंगपट्टम के आखिरी युद्ध में कंपनी को सफलता मिली और टीपू अपनी राजधानी की रक्षा करते हुए मारा गया। इसके बाद मैसूर का राजकाज पुराने वोडियार राजवंश के हाथों में सौंप दिया गया। इसके साथ ही मैसूर पर भी सहायक संधि थोप दी गई।
मराठों के संदर्भ में
- 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई अहमद शाह अब्दाली और मराठों के बीच में हार के बाद दिल्ली से देश का शासन चलाने का मराठों का सपना चूर-चूर हो गया।
- युद्ध के बाद मराठा क्षेत्रों को कई राज्यों में बाँट दिया गया। इन राज्यों की बागडोर सिंधिया, होल्कर, गायकवाड़ और भोंसले जैसे राजवंशों के हाथों में थी। ये सारे सरदार एक पेशवा (सर्वोच्च मंत्री) के अंतर्गत एक कन्फेडरेसी के सदस्य थे। पेशवा इस राज्यमंडल का सैनिक और प्रशासकीय प्रमुख सही है। होता था और पुणे में रहता था।
- प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध 1782 में सालबाई की संधि के साथ खत्म हुआ, जिसमें कोई पक्ष नहीं जीत पाया इसलिये कथन 3 गलत है। दूसरे आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-05) के परिणामस्वरूप 1803 में देवगाँव की संधि हुई तथा उड़ीसा और यमुना के उत्तर में स्थित आगरा। व दिल्ली सहित कई भू-भाग अंग्रेजों के कब्जे में आ गए।
- 1817-19 के तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध में मराठों की ताकत को पूरी तरह कुचल दिया गया तथा पेशवा को पुणे से हटाकर कानपुर के पास बिठूर में पेंशन पर भेज दिया गया।
▪︎ कंपनी को भय था कि कहीं रूस का प्रभाव पूरे एशिया में फैलकर उत्तर-पश्चिम से भारत को भी अपनी चपेट में न ले ले। इसी डर के चलते अंग्रेज उत्तर-पश्चिमी भारत पर भी अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे।
• उन्होंने 1838 से 1842 के बीच अफगानिस्तान के साथ एक लंबी लड़ाई लड़ी और वहाँ अप्रत्यक्ष कंपनी शासन स्थापित कर लिया।
• 1843 में सिंध भी अंग्रेजों के कब्जे में आ गया। 1839 में रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद पंजाब से अंग्रेजों की दो लंबी लड़ाइयाँ हुई और आखिरकार 1849 में अंग्रेजों ने पंजाब का भी अधिग्रहण कर लिया।
लॉर्ड डलहौजी की ‘विलय नीति’ के संदर्भ में
- ब्रिटिश काल में अधिग्रहण की आखिरी बड़ी लहर 1848 से 1856 के बीच गवर्नर जनरल बने लॉर्ड डलहौजी के शासनकाल में चली। डलहौजी ने नई नीति अपनाई, जिसे ‘विलय नीति’ का नाम दिया गया। • इस नीति के अनुसार यदि किसी शासक की मृत्यु हो जाती है और उसका कोई पुरुष वारिस नहीं है तो उसकी रियासत हड़प कर ली जाती थी, यानी वह कंपनी के भू-भाग का हिस्सा बन जाती थी।
- इस सिद्धांत के आधार पर सबसे पहले सतारा (1848) का विलय हुआ। इसके बाद संबलपुर (1850) वर्तमान छत्तीसगढ़ का उदयपुर (1852), झाँसी और नागपुर का विलय हुआ।
- 1856 में कंपनी ने अवध को अपने नियंत्रण में ले लिया तथा तर्क दिया कि वे अवध की जनता को नवाब के ‘कुशासन’ से आज़ाद कराने के लिये ‘कर्त्तव्य से बंधे हुए हैं इसलिये वे अवध पर कब्जा करने को मजबर हैं।
गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के काल में हुए प्रशासनिक सुधारों के संदर्भ में
- वारेन हेस्टिंग्स के समय तीन प्रेसीडेंसियाँ (प्रशासनिक इकाइयाँ) बंगाल, मद्रास और बंबई थीं। हर एक का शासन गवर्नर के पास होता था।। सबसे ऊपर गवर्नर जनरल होता था। गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स में कई प्रशासकीय सुधार किये। न्याय के क्षेत्र में उसके सुधार खासतौर से उल्लेखनीय थे।
- 1772 में एक नई व्यवस्था के तहत उसने प्रत्येक जिले में दो अदालतो एक फौजदारी और एक दीवानी अदालत की स्थापना की। दीवानी अदालतों के मुखिया यूरोपीय जिला कलेक्टर होते थे। फौजदारी अदालत अभी भी काजी (एक न्यायाधीश) और मुफ्ती (मुस्लिम समुदाय का एक न्यायविद् जो कानूनों की व्याख्या करता है) के ही अंतर्गत थी. लेकिन वे भी कलेक्टर की निगरानी में काम करते थे।
- 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट के तहत एक सर्वोच्च न्यायालय (1774 में) की स्थापना की गई। इसके अलावा कलकत्ता में अपीलीय अदालत ‘सदर निज़ामत अदालत’ की भी स्थापना की गई।
अंग्रेश गवर्नरों के संदर्भ में
- रॉबर्ट क्लाइव को गवर्नर के अपने दूसरे कार्यकाल में कंपनी के भीतर फैले भ्रष्टाचार को खत्म करने का काम सौंपा गया था, लेकिन कार्यकाल पूरा होने पर वह 1767 में भारत से रवाना हुआ तो यहाँ उसकी संपत्ति 401, 102 पौंड के बराबर थी। अतः 1772 में ब्रिटिश संसद में उसे खुद भ्रष्टाचार के आरोपों पर अपनी सफाई देनी पड़ी। उसे इस मामले से बरी तो कर दिया गया, लेकिन 1774 में उसने आत्महत्या कर ली।
- वारेन हेस्टिंग्स के वापस लौटने पर ऐडमंड बर्क ने उस पर बंगाल का शासन सही ढंग से न चला पाने का आरोप जड़ दिया। इस आरोप के चलते हेस्टिंग्स पर ब्रिटिश संसद में महाभियोग का मुकदमा चलाया गया जो सात साल तक चला।
- उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में कंपनी क्षेत्रीय विस्तार की आक्रामक नीति पर चल रही थी। लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813 से 1823 तक गवर्नर जनरल) के नेतृत्व में ‘सर्वोच्चता’ की एक नई नीति शुरू की गई। कंपनी का दावा था कि उसकी सत्ता सर्वोच्च है इसलिये वह भारतीय राज्यों से ऊपर है।
- रानी चेन्नम्मा ने कित्तूर में अंग्रेज-विरोधी आंदोलन का नेतृत्व शुरू किया जिस कारण 1824 में उन्हें गिरफ्तार किया गया और 1829 में जेल में उनकी मृत्यु हो गई। चेन्नम्मा के बाद कित्तूर स्थित संगोली के एक गरीब चौकीदार रायन्ना ने ये प्रतिरोध जारी रखा। चौतरफा समर्थन और सहायता से उसने बहुत सारे ब्रिटिश शिविरों और दस्तावेजों को नष्ट कर दिया था। आखिरकार उसे भी अंग्रेज़ों ने पकड़कर 1830 में फाँसी पर लटका दिया।
ग्रामीण क्षेत्र पर शासन चलाना
18वीं सदी के द्वितीयार्द्ध में बंगाल के संदर्भ में
- बंगाल की दीवानी मिलने के बाद अंग्रेजों की नीतियों से बंगाल की अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फँसती जा रही थी। इसी बीच 1770 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा। इसमें बंगाल में एक करोड़ लोगों की मौत हो गई जो कि बंगाल की आबादी का लगभग एक-तिहाई था।
- अर्थव्यवस्था में अपना राजस्व तय करने के लिये ही 1793 ई. में कंपनी ने स्थायी बंदोबस्त लागू किया। इस समय गवर्नर-जनरल लार्ड कॉर्नवालिस था।
स्थायी बंदोबस्त के संदर्भ में
- स्थायी बंदोवस्त की शर्तों के हिसाब से राजाओं और तालुकदारों को जमींदारों के रूप में मान्यता दी गई। उन्हें किसानों से लगान वसूलने और कंपनी को राजस्व चुकाने का जिम्मा सौंपा गया।
- इस व्यवस्था में जमींदारों की ओर से चुकाई जाने वाली राशि स्थायी रूप से तय कर दी गई थी। इसका मतलब यह था कि भविष्य में कभी भी उसमें इजाफा नहीं किया जाएगा। परंतु यह शर्त केवल जमींदारों के लिये थी न कि किसानों के लिये जमींदार किसान से लगान की मांग बढ़ा सकते थे। ऐसा इसलिये था क्योंकि अंग्रेजों को लगता था कि राज्य की ओर से राजस्व की मांग बढ़ने वाली नहीं थी इसलिये जमींदार बढ़ते उत्पादन से फायदे में रहेंगे और जमीन सुधार पर ध्यान देंगे। परंतु जमींदारों ने ऐसा नहीं किया। किसान को जो लगान चुकाना था वह बहुत ज्यादा था और जमीन पर उसका अधिकार भी सुरक्षित नहीं था। ऐसे में किसान कर्ज में फँस जाता था तथा उत्पादन घटने से लगान भी नहीं चुका पाता था।
- जो जमींदार राजस्व चुकाने में विफल हो जाता था उसकी जमींदारी छीन ली जाती थी।
महालवाड़ी बंदोबस्त के संदर्भ में
- बंगाल प्रेसीडेंसी के उत्तर-पश्चिमी प्रांतों के लिये होल्ट मैकेंजी नामक अंग्रेज ने एक नई व्यवस्था महालवाड़ी बंदोबस्त तैयार की जिसे 1822 में लागू किया गया।
- इसमें महाल को राजस्व की इकाई तय किया गया जिसका अर्थ एक गाँव या गाँवों का एक समूह था। इसमें गाँव के एक-एक खेत के अनुमानित राजस्व को जोड़कर हर गाँव या ग्राम समूह (महाल) से वसूल होने वाले राजस्व का हिसाब लगाया जाता था।
- इसमें राजस्व को स्थायी रूप से तय नहीं किया गया, बल्कि उसमें समय-समय पर संशोधनों की गुंजाइश रखी गई। इसमें राजस्व इकट्ठा करने और उसे कंपनी को अदा करने का जिम्मा जमींदार के बजाय गाँव के मुखिया को सौपा गया।
रैयतवाड़ी व्यवस्था के संदर्भ में
- रैयतवाड़ी व्यवस्था मुख्य रूप से दक्षिण भारतीय क्षेत्रों में लागू की गई। कैप्टन एलेक्ज़ेंडर रोड ने टीपू सुल्तान के साथ चले युद्धों के बाद कंपनियों द्वारा कब्जे में लिये गए कुछ इलाकों में इस व्यवस्था को आजमा कर भी देख लिया था।
- टॉमस मुनरो ने इस व्यवस्था को विकसित किया था अतः इसे मुनरो व्यवस्था भी कहते हैं। धीरे-धीरे पूरे दक्षिणी भारत पर यही व्यवस्था लागू कर दी गई।
- रीड और मुनरो को लगता था कि दक्षिण में परंपरागत जमींदार नहीं थे। इसलिये उनका तर्क यह था कि सीधे किसानों (रैयतों) से ही बंदोबस्त करना चाहिये जो पीढ़ियों से जमीन पर खेती करते आ रहे हैं।
ब्रिटिश भारत में नील की खेती के संदर्भ में
- अंग्रेज भारत में अपनी जरूरत के हिसाब से विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न फसलों की खेती करा रहे थे जिसमें नील और अफीम भी शामिल हैं। नील एक उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उगने वाली फसल है। अन्य फसलों में कुछ निम्नलिखित हैं-
बंगाल में पटसन | असम में चाय |
संयुक्त प्रांत में गन्ना | पंजाब में गेहूँ |
महाराष्ट्र व पंजाब में कपास | मद्रास में चावल |
- यूरोप के ‘वोड’ नामक पौधे की तुलना में ‘नील’ का पौधा बेहतर रंग देता था जिस कारण भारतीय नील की यूरोप में बहुत मांग थी। भारत के आंध्र प्रदेश के बुनकरों द्वारा बनाए गए कलमकारी छापे से लेकर ब्रिटेन के कलाकारों द्वारा बनाए जाने वाले विभिन्न फूल वाले छापों में नील का प्रयोग होता था।
- नील की खेती के दो मुख्य तरीके थे- निज और रैयती। निज खेती व्यवस्था में बागान मालिक या तो खुद अपनी ज़मीन में या जमीन खरीदकर या भाड़े पर लेकर मजदूरों द्वारा खेती कराते थे। रैयती व्यवस्था के तहत बागान मालिक गाँव मुखियाओं या रैयतों के साथ एक अनुबंध करते थे। जो अनुबंध पर दस्तखत करता था उसे नील उगाने के लिये कम ब्याज पर कर्जा मिलता था। कर्ज लेने वाले को कम-से-कम 25 प्रतिशत ज़मीन पर नील उगाना होता था। बागान मालिक बीज और उपकरण देते थे जबकि बुआई और देखभाल काश्तकार करता था।
- नील के साथ परेशानी यह थी कि उसकी जड़ें बहुत गहरी होती थीं। और वह मिट्टी की सारी ताकत खींच लेती थी। इसलिये नील की। कटाई के बाद वहाँ धान की खेती नहीं की जा सकती थी।
ब्रिटिश काल में बागान मालिकों तथा नील की खेती करने वाली रैयत के मध्य टकरावों के संदर्भ में
- 1859 में नील रैयतों को लगा कि बागान मालिकों के खिलाफ बगावत में उन्हें स्थानीय जमींदारों और मुखिया का भी समर्थन मिल सकता है अतः मार्च 1859 में बंगाल के हजारों रैयतों ने नील की खेती से इनकार कर नील विद्रोह शुरू कर दिया।
- विद्रोह के व्यापक होने पर नील उत्पादन व्यवस्था की जाँच करने के लिये एक नील आयोग बना जिसने बागान मालिकों को दोषी पाया, जोर-जबद्रस्ती के लिये उनकी आलोचना की। आयोग ने कहा कि नील की खेती रैयत के लिये फायदे का सौदा नहीं है। आयोग ने रैयतों से कहा कि वे मौजूदा अनुबंधों को पूरा करें लेकिन आगे वे चाहें तो नील की खेती बंद कर सकते हैं।
- जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो बिहार के एक किसान ने उन्हें चंपारण आकर नील किसानों की दुद्रशा को देखने का न्योता दिया। 1917 में महात्मा गांधी ने इस दौरे के बाद नील बागान मालिकों के खिलाफ चंपारण आंदोलन की शुरुआत की थी।
आदिवासी, दीकु और एक स्वर्ण युग की कल्पना
ब्रिटिश काल में झूम खेती के संदर्भ में
- झूम खेती घुमंतू खेती को कहा जाता है। इसमें लोग जंगलों में छोटे भूखंडों के पेड़ों के ऊपरी हिस्सों को काटकर तथा वहीं की बास व झाड़ियों को जलाकर साफ कर देते थे। राख को ज़मीन पर फैला देते थे फिर उसकी खुदाई कर बीज बिखेर कर खेती करते थे। कुछ वर्षों तक (प्रायः दो या तीन वर्ष तक जब तक मिट्टी में उर्वरता विद्यमान रहती है इस भूमि पर खेती की जाती है। इसके पश्चात् वे दूसरी जगह चले जाते थे। जहाँ से उन्होंने अभी फसल काटी थी वह जगह कई सालों तक परती (कुछ समय के लिये बिना खेती के छोड़ दी जाने वाली ज़मीन ताकि उसकी मिट्टी दोबारा उपजाऊ हो जाए) पड़ी रहती थी।
- घुमंतू किसान सामान्यतः पूर्वोत्तर और मध्य भारत की पर्वतीय व जंगली पट्टियों में रहते थे। भारत के कुछ अन्य हिस्सों में भी घुमंतू किसान रहते हैं। गुजरात के बहुत सारे वन क्षेत्रों में यह अभी भी जारी है। गुजरात की भील जनजाति भी घुमंतू खेती करती है।
- उड़ीसा (वर्तमान ओडिशा) के जंगलों में रहने वाले खोंड तथा डोंगरिया एवं मध्य भारत के बैगा शिकारी और संग्राहक जनजातियाँ हैं।ब्रिटिश काल में स्थानीय बुनकरों और चमड़ा कारीगरों को कपड़े व चमड़े की रँगाई के लिये कुसुम और पलाश के फूलों की जरूरत होती थी तो वे इन्हीं संग्राहक जनजातियों से ही कहते थे।
- गोंड (मध्य भारत), संथाल (झारखंड) जैसी अनेक जनजातियाँ एक जगह ठहरकर खेती करती थीं। बहुत सारे समुदायों में मुंडाओं की तरह जमीन पूरे कबीले की संपत्ति होती थी। ब्रिटिश अफसरों को एक जगह ठहरकर खेती करने वाली ऐसी जनजातियाँ शिकारी-संग्राहक या घुमंतू खेती करने वाली जनजातियों से अधिक सभ्य लगती थीं।
- पंजाब के पहाड़ों में रहने वाले वन गुज्जर और आंध्र प्रदेश के लबाड़िया आदि समुदाय गाय-भैंस के झुंड पालते थे। कुल्लू (हिमाचल प्रदेश) के गद्दी समुदाय के लोग गड़रिये थे और कश्मीर के बकरवाल बकरियाँ पालते थे।
- भील (गुजरात व अन्य कई क्षेत्रों में भी) और नागा (नागालैंड) जैसी कई जनजातियाँ घुमंतू कृषि करती थीं। इन्हें स्थायी रूप से बसाने के लिये अंग्रेजों ने ज़मीन को मापकर प्रत्येक व्यक्ति का हिस्सा और लगान तय किया। उन्होंने कुछ किसानों को भूस्वामी और दूसरों को पट्टेदार घोषित किया।
जनजाति | विशेषता |
गोंड और संथाल | एक जगह ठहरकर खेती करने वाले |
खोंड और बैगा | शिकारी और संग्राहक |
गद्दी और लबाड़िया | पशुपालक |
भील और नागा | झूम खेती |
- अंग्रेजों के आने से पहले अनेक स्थानों पर आदिवासी मुखियाओं की अपनी पुलिस होती थी तथा ज़मीन और प्रबंधन के स्थानीय नियम वे खुद बनाते थे, परंतु अंग्रेजों के आने के बाद इनका जमीन पर मालिकाना हक तो बना रहा परंतु प्रशासनिक शक्तियाँ छिन गईं।
- इन मुखियाओं को ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा बनाए गए नियमों को मानने के लिये बाध्य कर दिया गया। उन्हें अंग्रेजों को नज़राना देना पड़ता था और अंग्रेज़ों के प्रतिनिधि की हैसियत से अपने समूहों को अनुशासन में रखना होता था।
▪︎उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दियों के दौरान देश के विभिन्न भागों में जनजातीय समूहों ने बदलते कानूनों, अपने व्यवहार पर लगी पाबंदियों, नए करों और व्यापारियों व महाजनों द्वारा किये जा रहे शोषण के खिलाफ कई बार विद्रोह किये। ऐसे विद्रोहों के संदर्भ में निम्नलिखित क्रम है
कोल > विद्रोह संथाल विद्रोह > बस्तर विद्रोह > वर्ली विद्रोह |
¤1831-32 में कोल आदिवासियों ने और 1855 में संथालों ने विद्रोह किया था। मध्य भारत में बस्तर विद्रोह 1910 में हुआ और 1940 में महाराष्ट्र में वर्ली विद्रोह हुआ। इसी प्रकार 1906 में भी सोंग्रम संगमा द्वारा असम में और 1930 के दशक में मध्य प्रांत में वन सत्याग्रह हुआ था।
बिरसा मुंडा के आंदोलन के संदर्भ में
- बिरसा का जन्म मुंडा परिवार में हुआ था। मुंडा एक जनजातीय समूह है जो छोटानागपुर में रहता है। विरसा के समर्थकों में क्षेत्र के दूसरे आदिवासी- संथाल और उराँव भी शामिल थे। बिरसा ने अपने समर्थकों को दीकुओं (बाहरी लोगों) के उत्पीड़न से आजाद कराने के लिये आंदोलन किया।
- बिरसा का आंदोलन आदिवासी समाज को सुधारने का आंदोलन था। उसने मुंडाओं से आह्वान किया कि वे शराब पीना छोड़ दें, गाँवों को साफ रखें और डायन व जादू-टोने में विश्वास न करें। बिरसा ने ईसाई मिशनरियों और हिंदू जमींदारों का भी लगातार विरोध किया। वह उन्हें बाहर का मानता था जो मुंडा जीवन शैली नष्ट कर रहे थे।
- अंग्रेज़ों को बिरसा आंदोलन के राजनीतिक उद्देश्यों से बहुत ज्यादा परेशानी थी। यह आंदोलन मिशनरियों, महाजनों, हिंदू भूस्वामियों और सरकार को बाहर निकालकर बिरसा के नेतृत्व में मुंडा राज स्थापित करना चाहता था।
- सफेद झंडा बिरसा राज का प्रतीक था। सन् 1900 में बिरसा की हैजे से मृत्यु हो गई और आंदोलन ठंडा पड़ गया।
•जैसे ही अंग्रेजों ने जंगलों के भीतर आदिवासियों के रहने पर पाबंदी लगा दी. उनके सामने यह समस्या पैदा हो गई कि रेलवे स्लीपर्स (लकड़ी के क्षैतिज तख्ते जिन पर पटरियाँ बिछाई जाती हैं) के लिये पेड़ काटने और लकड़ी को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिये मजदूरों का इंतजाम कहाँ से किया जाए? उन्होंने तय किया कि झूम काश्तकारों को जंगल में जमीन के छोटे टुकड़े दिये जाएंगे और उन्हें वहाँ खेती करने की भी छूट होगी बशर्ते गाँव में रहने वालों को वन विभाग के लिये मजदूरी करनी होगी। इस तरह उन्होंने सस्ते श्रम की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये वन गाँव बसा दिए।
• यह झूम काश्तकारों को जंगल में खेती करने की छूट देने का कारण नहीं था।
जब जनता बगावत करती है
कंपनी द्वारा मुगल बादशाह और उसके प्रभाव को समाप्त करने संबंधी उठाए गए कदमों के संदर्भ में
- कंपनी ने मुगलों के शासन को खत्म करने की पूरी योजना बना ली थी। इसी के तहत कंपनी द्वारा जारी किये गए सिक्कों पर से मुगल बादशाह का नाम हटा दिया गया।
- उन्नीसवी सदी के प्रथमार्द्ध (1849) में गवर्नर जनरल डलहौजी ने ऐलान किया कि बहादुरशाह जफर की मृत्यु के बाद बादशाह के परिवार को। लाल किले से निकाल कर उसे दिल्ली में कहीं और बसाया जाएगा।
- 1856 में गवर्नर जनरल कैनिंग ने फैसला किया कि बहादुरशाह जफर आखिरी मुगल बादशाह होंगे। उनकी मृत्यु के बाद उनके किसी भी वंशज को बादशाह नहीं माना जाएगा। उन्हें केवल राजकुमारों के रूप में मान्यता दी जाएगी।
▪︎ 1857 आते-आते मुगल बादशाह, नवाब, जमींदार, किसान और सिपाही सभी अंग्रेजों की नीतियों से परेशान थे। इनमें किसान और जमींदार भारी-भरकम लगान और कर वसूली के सख्त तौर-तरीकों से परेशान थे। बहुत सारे किसान महाजनों के कर्ज में डूब चुके थे तो बहुत सारे जमींदारों की जमीनें छीन ली गई थीं।
• कंपनी के कई नए नियमों से सिपाहियों में असंतोष बढ़ रहा था। ये नियम उनकी धार्मिक भावनाओं और आस्थाओं को ठेस पहुँचा रहे थे। उदाहरण के लिये उस समय बहुत से लोगों और सिपाहियों को लगता था कि समुद्र यात्रा से उनका धर्म और जाति भ्रष्ट हो जाएंगे। फिर भी कंपनी ने लड़ने के लिये समुद्र के रास्ते उन्हें बर्मा जाने का आदेश दिया।
• कुछ वर्षों बाद मुँह से खींचे जाने वाले कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी के प्रयोग की बात फैल गई, जिससे सिपाही बहुत अधिक भड़क गए तथा यह कारण 1857 के विद्रोह के तात्कालिक कारणों में से एक बन गया।
• अंग्रेजों ने भारतीय समाज को सुधारने के क्रम में सती प्रथा को रोकने तथा विधवा विवाह को बढ़ावा देने के लिये कानून बनाए। ईसाई । मिशनरियों को खुलकर काम करने की छूट दे दी। ऐसे प्रयासों से बहुत सारे भारतीयों को यकीन हो गया कि अंग्रेज उनका धर्म, उनके सामाजिक रीति-रिवाज और परंपरागत जीवन शैली को नष्ट कर रहे है जिस कारण वे अंग्रेजों से अधिक रुष्ट हो गए।
▪︎29 मार्च, 1857 को युवा सिपाही मंगल पांडे को बैरकपुर में अपने अफसरों पर हमला करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया तथा मुकदमा चलाकर अप्रैल 1857 में फाँसी पर लटका दिया गया। इसके बाद मेरठ में तैनात कुछ सिपाहियों ने नए कारतूसों के साथ फौजी अभ्यास से मना कर दिया क्योंकि उनको लगता था कि इन पर गाय और सूअर की चर्बी लगी है। इसके लिये 9 मई को 85 सैनिकों को 10-10 साल की सजा दी गई। 10 मई को मेरठ में तैनात दूसरे सिपाहियों ने मेरठ की जेल पर धावा बोलकर वहाँ से सिपाहियों को आज़ाद कराया। 10 मई की रात को ही कुछ सैनिकों की टोली ने दिल्ली पहुँचकर मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को अपना नेता घोषित कर दिया और 11 मई की सुबह से ही ये विद्रोह शुरू हो गया।
▪︎ 1857 के विद्रोह के दौरान स्वर्गीय पेशवा बाजीराव के दतक पुत्र नाना साहेब ने कानपुर से ब्रिटिश सैनिकों को खदेड़ा और खुद को पेशवा तथा बहादुरशाह जफर के तहत गवर्नर घोषित किया।
• लखनऊ की गद्दी से हटा दिये गए नवाब वाजिद अली शाह के बेटे बिरजिस कद्र को नवाब घोषित कर दिया गया। उनकी माँ बेगम हजरत महल ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोहों को बढ़ावा देने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।
• झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई ने नाना साहेब के सेनापति ताँत्या टोपे के साथ मिलकर अंग्रेजों को भारी चुनौती दी।
• मध्य प्रदेश के मांडला क्षेत्र में राजगढ़ की रानी अवंति बाई लोधी ने 4000 सैनिकों की फौज तैयार की और अंग्रेजों के खिलाफ उसका नेतृत्व किया।
• फैजाबाद में मौलवी अहमदुल्ला शाह ने नेतृत्व की कमान सँभाली।
• बिहार के एक पुराने ज़मींदार कुँवर सिंह ने भी विद्रोही सिपाहियों का नेतृत्व करते हुए महीनों तक अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी।
• विद्रोह बहुत व्यापक था. परंतु अंत में अंग्रेज़ सफल हुए। सितंबर 1857 में दिल्ली दोबारा अंग्रेजों के कब्जे में आ गई। बहादुरशाह और उनकी पत्नी बेगम जीनत महल को अक्तूबर 1858 में रंगून जेल में भेज दिया गया। इसी जेल में 1862 में बहादुरशाह जफर ने अंतिम साँस ली।
• मार्च 1858 में लखनऊ अंग्रेजों के कब्जे में चला गया। जून 1858 में रानी लक्ष्मीबाई की शिकस्त हुई और उन्हें मार दिया गया। ऐसा ही रानी अवंति बाई लोधी के साथ हुआ।
1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों द्वारा किये गए अहम बदलावों के संदर्भ में
- ब्रिटिश संसद ने 1858 में एक नया कानून पारित किया और ईस्ट इंडिया कंपनी के सारे अधिकार ब्रिटिश साम्राज्य के हाथ में सौंप दिये ताकि भारतीय मामलों को ज्यादा बेहतर ढंग से सँभाला जा सके। ब्रिटिश मंत्रिमंडल के एक सदस्य को भारत राज्य के सचिव के रूप में नियुक्त किया गया। उसे भारत के शासन से संबंधित मामलों को सँभालने का ज़िम्मा सौंपा गया। उसे सलाह देने के लिये एक परिषद् का गठन किया गया, जिसे इंडिया काउंसिल कहा जाता था।
- भारत के गवर्नर जनरल को वायसराय का ओहदा दिया गया। इस प्रकार उसे इंग्लैंड के राजा रानी का निजी प्रतिनिधि घोषित कर दिया गया। फलस्वरूप, अंग्रेज सरकार ने भारत के शासन की जिम्मेदारी सीधे अपने हाथों में ले ली।
- देश के सभी शासकों को भरोसा दिया गया कि भविष्य में कभी भी उनके भूक्षेत्र पर कब्जा नहीं किया जाएगा। उन्हें अपनी रियासत अपने वंशजों, यहाँ तक कि दत्तक पुत्रों को सौंपने की छूट दे दी गई, लेकिन उन्हें इस बात के लिये प्रेरित किया गया कि वे ब्रिटेन की रानी को अपना अधिपति स्वीकार करें। इस तरह, भारतीय शासकों को ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन शासन चलाने की छूट दी गई।
- सेना में भारतीय सिपाहियों का अनुपात कम करने और यूरोपीय सिपाहियों की संख्या बढ़ाने का फैसला लिया गया। यह भी तय किया गया कि अवध, बिहार, मध्य भारत और दक्षिण भारत के सिपाहियों को भर्ती करने की बजाय अब गोरखा, सिखों और पठानों में से ज्यादा सिपाही भर्ती किये जाएंगे।
- मुसलमानों की जमीनें और संपत्ति बड़े पैमाने पर जब्त की गई। उन्हें
- संदेह व शत्रुता के भाव से देखा जाने लगा। अंग्रेजों को लगता था कि यह विद्रोह उन्होंने ही खड़ा किया था। अतः कथन 4 सही है। • अंग्रेजों ने फैसला किया कि वे भारत के लोगों के धर्म और सामाजिक रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
- भूस्वामियों और जमींदारों की रक्षा करने तथा जमीन पर उनके अधिकारों को स्थायित्व देने के लिये नीतियाँ बनाई गई।
- इस प्रकार, 1857 के बाद इतिहास का एक नया चरण शुरू हुआ।
बुनकर, लोहा बनाने वाले और फैक्ट्री मालिक
भारतीय कपड़े और विश्व बाज़ार के संदर्भ में
- अठारहवीं सदी की शुरुआत में यूरोप में भारतीय कपड़े की इतनी अधिक मांग थी कि इंग्लैंड के रईस ही नहीं, बल्कि खुद महारानी भी भारतीय कपड़ों से बने परिधान पहनती थीं।
- मसालों की तलाश में आए पुर्तगालियों ने सबसे पहले केरल के कालीकट में डेरा डाला और यहाँ से वे मसालों के साथ सूती कपड़ा भी ले गए। इस सूती कपड़े को उन्होंने कैलिको कहा जो बाद में हर तरह के सूती कपड़े के लिये प्रयोग किया जाने लगा।
- भारतीय कपड़े की लोकप्रियता से इंग्लैंड के ऊन और रेशम व्यापारी बेचैन थे जिनके दबाव में 1720 में ब्रिटिश सरकार ने इंग्लैंड में छापेदार सूती कपड़े के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने के लिये एक कानून पारित कर दिया। संयोगवश इस कानून को भी कैलिको अधिनियम ही कहा। जाता था।
- बंडाना शैली के कपड़े अधिकांशतः राजस्थान और गुजरात में बनाए जाते थे। बंगाल में स्थित ढाका और संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) स्थित लखनऊ जामदानी बुनाई के सबसे महत्त्वपूर्ण केंद्र थे। ढाका अठारहवीं सदी में सबसे महत्त्वपूर्ण कपड़ा उत्पादन केंद्र था। पटोला बुनाई सूरत, अहमदाबाद और पाटन में होती थी।
- ब्रिटेन में सूती कपड़ा उद्योग के विकास से उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में भारतीय कपड़ा उत्पादकों को यूरोप और अमेरिका जैसे बाजारों में ब्रिटिश उद्योगों से आए कपड़े का मुकाबला करना पड़ता था। साथ ही भारत से इंग्लैंड को कपड़े का निर्यात मुश्किल होता जा रहा था क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने भारत से आने वाले कपड़े पर भारी सीमा शुल्क थोप दिये थे।
- ऐसे प्रभाव भारतीय कपड़ा उद्योग को पतन की ओर ले गए। 1830 के दशक तक भारतीय बाजार ब्रिटेन में बने सूती कपड़े से भर गए और 1880 के दशक तक स्थिति यह हो गई थी कि भारत लोग जितना सूती कपड़ा पहनते थे उसमें दो-तिहाई ब्रिटेन का बना होता था।
- ऐसे प्रभावों के बाद भी भारतीय कपड़ा बुनकरी पूरी तरह खत्म नहीं हुई, क्योंकि कपड़ों की कुछ किस्में मशीनों पर नहीं बन सकती थीं। अतः पश्चिमी भारत में शोलापुर और दक्षिणी भारत में मदुरा उन्नीसवीं सदी के आखिर में बुनकरी के नए महत्त्वपूर्ण केंद्र बनकर सामने आए।
- बाद में राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी ने भी लोगों से आह्वान किया कि वे आयातित कपड़े का बहिष्कार करें और हाथ से कते सूत और हाथ से बुने कपड़े ही पहनें। इस तरह खादी राष्ट्रवाद का प्रतीक बनती चली गई और 1931 में चरखे को भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के तिरंगे झंडे की बीच वाली पट्टी में जगह दी गई।
- भारत में औद्योगिक सूती वस्त्रोत्पादन की पहली लहर प्रथम विश्व युद्ध के समय दिखाई दी जब ब्रिटेन से आने वाले कपड़े की मात्रा में काफी कमी आ गई थी और सैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिये भारतीय कारखानों से कपड़े का उत्पादन बढ़ाने की मांग की जाने लगी।
- सूती कपड़े की तरह लोहे एवं इस्पात के मामले में भी औद्योगिक विस्तार तभी शुरू हुआ जब भारत में ब्रिटिश आयात गिरने लगा और भारतीय वस्तुओं की मांग बढ़ी।
- टीपू सुल्तान की तलवार की धार इतनी पैनी थी कि वह लौह-कवच को भी आसानी से चीर सकती थी। इस तलवार में यह गुण कार्बन की अधिक मात्रा वाली वुट्ज नामक स्टील से पैदा हुआ था जो उस समय पूरे दक्षिण भारत में बनाई जाती थी। टीपू सुल्तान की तलवार की एक विशेषता यह भी थी कि उसकी मूठ पर कुरान की आयतें लिखी हुई थीं।
- भारत में पहली सूती कपड़ा मिल 1854 में बंबई में स्थापित हुई थी। यह कताई मिल थी।
- भिलाई स्टील संयंत्र के लिये अयस्क की आपूर्ति का स्रोत ढूँढ़ने में सहायता करने वाला समुदाय अगरिया समुदाय था। अगरिया जैसे कई समुदाय लोहा बनाने में माहिर थे। इन्होंने दुनिया के सबसे बेहतरीन लौह अयस्क भंडारों में से एक राजहरा पहाड़ियों को ढूँढ़ने में भी भूवैज्ञानिक चार्ल्स वेल्ड और जमशेदजी टाटा के बड़े बेटे की सहायता की थी।
- बंगाल का तांती एक प्रसिद्ध बुनकर समुदाय है। इसके अतिरिक्त उत्तर भारत के जुलाहे या मोमिन, दक्षिण भारत के साले व कैकोल्लार तथा देवांग समुदाय भी बुनकरी के लिये प्रसिद्ध थे।
- टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी (टिस्को) की स्थापना जमशेदपुर में सुवर्णरेखा नदी के तट पर हुई जिसमें 1912 से स्टील का उत्पादन होने लगा।
भारत में की जाने वाली बुनाई तथा इससे संबंधित शहरों के संदर्भ में
- पटोला बुनाई सूरत, अहमदाबाद और पाटन में होती थी। इंडोनेशिया में इस बुनाई का भारी बाज़ार था और वहाँ यह स्थानीय बुनाई परंपरा का हिस्सा बन गई।
- जामदानी एक तरह का बारीक मलमल होता है जिस पर करघे में सजावटी चिह्न बुने जाते हैं। इनका रंग प्राय: स्लेटी और सफेद होता है। आमतौर पर सूती और सोने के धागों का इस्तेमाल किया जाता था। बंगाल में स्थित ढाका और उत्तर प्रदेश स्थित लखनऊ जामदानी बुनाई। के सबसे महत्त्वपूर्ण केंद्र थे।
- बंडाना शैली के कपड़े अधिकांशतः राजस्थान और गुजरात में बनाए जाते थे।
देशी जनता’ को सभ्य बनाना राष्ट्र को शिक्षित करना
शिक्षा में प्राच्यवाद के संदर्भ में
- प्राच्यवादी (एशिया की भाषा और संस्कृति का गहन ज्ञान रखने वाले) मानते थे कि अंग्रेज़ों को पश्चिमी ज्ञान की बजाय भारतीय ज्ञान को ही प्रोत्साहित करना चाहिये। वे मानते थे हिंदुओं और मुसलमानों को वही पढ़ाया जाना चाहिये जिससे वे पहले से परिचित हैं और जिसे वे आदर एवं महत्त्व देते हैं। केवल तभी अंग्रेज़ ‘देशी जनता’ का दिल जीत सकते हैं और केवल तभी अजनबी शासक अपनी प्रजा से आदर की उम्मीद कर सकते हैं।
- विलियम जोन्स 1783 में भारत आए। ये कंपनी द्वारा स्थापित सुप्रीम कोर्ट के जूनियर जज के पद पर कार्यरत थे। ये एक भाषाविद् तथा विचारों से प्राच्यवादी थे। हैनरी टॉमस कोलब्रुक और नैथेनियल हॉलहेड भी प्राच्यवादी थे। ये सभी भारतीय साहित्यों को समझकर उनके अनुवाद में लगे हुए थे।
- वारेन हेस्टिंग्स प्राच्यवादियों के भारी समर्थक थे।
- प्राच्यवादियों के विचारों को ध्यान में रखकर ही 1781 में अरबी, फारसी, इस्लामिक कानून के अध्ययन को बढ़ावा देने के लिये कलकत्ता। में एक मदरसा खोला गया। इसी क्रम में 1791 में बनारस में हिंदू कॉलेज की स्थापना की गई, ताकि वहाँ प्राचीन संस्कृत ग्रंथों की शिक्षा | दी जा सके और देश का शासन चलाने में मदद मिले।
- विलियम जोन्स ने हैनरी टॉमस कोलब्रुक और नैथेनियल हॉलहेड के साथ मिलकर एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल का गठन किया और ‘एशियाटिक रिसर्च’ नामक शोध पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया।
प्राच्यवादियों का विरोध और पश्चिमी शिक्षा का समर्थन के संदर्भ में
- प्राच्यवाद के विरोधी मानते थे कि पूर्वी समाजों का ज्ञान त्रुटियों से भरा हुआ और अवैज्ञानिक है। उनके अनुसार पूर्वी साहित्य अगंभीर और सतही है।
- प्राच्यवादियों पर हमला करने वालों में जेम्स मिल और थॉमस बैबिंगटन मैकॉले प्रमुख थे।
- जेम्स मिल का मानना था कि अंग्रेज़ों को देशी जनता को खुश करने और ‘उसका दिल जीतने के लिये जनता की इच्छा के हिसाब से या उसकी भावनाओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा नहीं देनी चाहिये। उनकी राय में शिक्षा के ज़रिये उपयोगी और व्यावहारिक चीज़ों का ज्ञान दिया जाना चाहिये। इसलिये भारतीयों को पढ़ाया जाना चाहिये कि पश्चिम ने किस तरह की वैज्ञानिक और तकनीकी सफलताएँ हासिल कर ली हैं।
•थॉमस बैबिंगटन मैकॉले प्राच्य शिक्षा का विरोधी तथा पाश्चात्य शिक्षा का समर्थक था। वह भारत को असभ्य देश मानता था। उसका कहना था कि एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय का केवल एक खाना ही भारत और अरब के समूचे देशी साहित्य के बराबर है।
वुड्स डिस्पैच के संदर्भ में
- 1854 में लंदन स्थित कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने भारतीय गवर्नर जनरल को कंपनी के नियंत्रक मंडल के अध्यक्ष चार्ल्स वुड के नाम से एक नोट भेजा, जिसे वुड का नीतिपत्र (वुड्स डिस्पैच) के नाम से जाना जाता है।
- इस दस्तावेज़ में भारत में लागू की जाने वाली शिक्षा नीति की रूपरेखा स्पष्ट करते हुए एक बार फिर प्राच्यवादी ज्ञान के स्थान पर यूरोपीय शिक्षा को अपनाने के फायदे बताए गए।
- वुड के नीतिपत्र में तर्क दिया गया कि यूरोपीय शिक्षा से भारतीयों के नैतिक चरित्र का उत्थान होगा, वे सत्यवादी और ईमानदार बनेंगे. फलस्वरूप कंपनी के पास भरोसेमंद कर्मचारियों की कमी नहीं रहेगी।
- इस दस्तावेज़ में व्यवसाय के लिये शिक्षा का तर्क भी था। जिसमें कहा गया था कि यदि भारतीयों को यूरोपीय शिक्षा और जीवन-शैली से अवगत कराया गया तो उनकी रुचियों और आकांक्षाओं में भी बदलाव आएगा तथा ब्रिटिश वस्तुओं की मांग पैदा होगी क्योंकि तब यहाँ के लोग यूरोप में बनी चीजों को अपनाना और खरीदना शुरू कर देंगे।
उन्नीसवीं सदी में भारतीय शिक्षा और कंपनी के संदर्भ में
- उन्नीसवीं सदी में भारत में सक्रिय ईसाई प्रचारकों ने व्यावहारिक शिक्षा के पक्ष में दिये जा तर्कों का घोर विरोध किया। प्रचारकों का मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य लोगों के नैतिक चरित्र में सुधार लाना होता है और नैतिक उत्थान केवल ईसाई शिक्षा के जरिये ही संभव है।
- 1830 के दशक में स्कॉटलैंड से आए ईसाई प्रचारक विलियम एडम को कंपनी ने देशी स्कूलों में शिक्षा की प्रगति पर रिपोर्ट तैयार करने का काम दिया था। इस रिपोर्ट के अनुसार बंगाल और बिहार में एक लाख से अधिक पाठशालाएँ हैं तथा इनमें पढ़ने वाले बच्चों की कुल संख्या 20 लाख से भी अधिक थी। एडम ने पाया कि यह प्रणाली स्थानीय आवश्यकताओं के लिये काफी अनुकूल है।
- उन्नीसवीं सदी के मध्य तक कंपनी का ध्यान मुख्य रूप से उच्च शिक्षा पर था परंतु 1854 के बाद उसने देशी शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाने का प्रयास किया।
उन्नीसवीं सदी में भारतीय विचारकों और शिक्षा के संदर्भ में
- महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर पश्चिमी शिक्षा के विरुद्ध थे, लेकिन दोनों के बीच फर्क भी था। गांधीजी पश्चिमी सभ्यता और मशीनों व प्रौद्योगिकी की उपासना के कट्टर आलोचक थे। टैगोर आधुनिक पश्चिमी सभ्यता और भारतीय परंपरा के श्रेष्ठ तत्त्वों का सम्मिश्रण चाहते थे।
- शांतिनिकेतन संस्था की शुरुआत रवींद्रनाथ टैगोर ने 1901 में की थी।
- यह कलकत्ता से 100 किलोमीटर दूर एक ग्रामीण परिवेश में स्थित था।
उन्नीसवीं सदी तक की देशी शिक्षा व्यवस्था के संबंध में
- ईसाई प्रचारक विलियम एडम ने देशी शिक्षा के संबंध में कंपनी को सौंपी अपनी रिपोर्ट में निम्न बातें बताई हैं:
- उस समय की पाठशालाओं के बहुत छोटे-छोटे केंद्र थे जिनमें आमतौर पर 20 से ज्यादा विद्यार्थी नहीं होते थे। फिर भी इन पाठशालाओं में पढ़ने वाले बच्चों की कुल संख्या काफी बड़ी थी। ये पाठशालाएँ संपन्न लोगों या स्थानीय समुदाय द्वारा चलायी जा रही थी।
- शिक्षा का तरीका काफी लचीला था। बच्चों की फीस उनके माँ-बाप की आमदनी से तय होती थी। अमीरों को ज्यादा और गरीबों को कम फीस देनी पड़ती थी। लचीली प्रणाली स्थानीय आवश्यकताओं के लिये। काफी अनुकूल थी। उदाहरण- फसलों की कटाई के समय कक्षाएँ बंद हो जाती थीं। इसका परिणाम यह था कि साधारण काश्तकारों के। बच्चे भी पढ़ाई कर सकते थे। शिक्षा मौखिक होती थी और क्या पढ़ाना है यह बात विद्यार्थियों की जरूरतों को देखते हुए गुरु ही तय करते थे।
महिलाएँ, जाति एवं सुधार
▪︎ राजा राम मोहन राय (1772-1833) देश में पश्चिमी शिक्षा का प्रसार करने और महिलाओं के लिये अधिक स्वतंत्रता व समानता के पक्षधर थे। उनके प्रयासों के फलस्वरूप 1829 में सती प्रथा पर पाबंदी लगाई गई।
• प्रसिद्ध समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रयासों से 1856 में विधवा विवाह के पक्ष में कानून पारित किया गया। विद्यासागर ने कलकत्ता में लड़कियों के लिये स्कूल भी खोला। इसके अतिरिक्त विधवा विवाह के समर्थन में मद्रास प्रेसीडेंसी के तेलुगू भाषी इलाकों में वीरेशलिंगम पंतुलु ने एक संगठन बनाया।
• बाल विवाह निषेध अधिनियम 1929 में पारित किया गया। इस कानून के अनुसार 18 साल से कम उम्र के लड़के और 16 साल से कम उम्र की लड़की की शादी नहीं की जा सकती थी।
▪︎आर्य समाज की स्थापना दयानंद सरस्वती ने 1875 में की थी। आर्य समाज ने हिंदू धर्म को सुधारने का प्रयास किया। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद ने भी विधवा विवाह का समर्थन किया था। उन्नीसवीं सदी के आखिरी हिस्से में आर्य समाज द्वारा महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रयासों के क्रम में पंजाब में लड़कियों के लिये स्कूल भी खोले।
▪︎ ब्रिटिश काल में महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रयासों के क्रम में ही बहुत सारी महिलाओं ने समाज में महिलाओं की स्थिति पर अपने आलोचनात्मक विचार प्रकट किये। पूना में घर पर ही रहकर शिक्षा प्राप्त करने वाली ताराबाई शिंदे ने ‘स्त्रीपुरुषतुलना’ नाम से एक किताब प्रकाशित की जिसमें पुरुषों और महिलाओं के बीच मौजूद सामाजिक भेदभाव की आलोचना की गई थी।
• बेगम रुकैया सखावत बीसवीं सदी के शुरुआती दौर की एक प्रभावशाली महिला थीं। इन्होंने कलकत्ता और पटना में मुस्लिम लड़कियों के लिये। स्कूल खोले।
• मुमताज अली भी एक समाज सुधारक थीं। इन्होंने कुरान शरीफ की आयतों का हवाला देते हुए महिलाओं को भी शिक्षा का अधिकार दिये जाने की वकालत की।
• संस्कृत की महान विद्वान पंडिता रमाबाई का मानना था कि हिंदू धर्म महिलाओं का दमन करता है। उन्होंने ऊँची जातियों की हिंदू महिलाओं की दुद्रशा पर एक किताब भी लिखी थी। उन्होंने पूना में एक विधवागृह की स्थापना भी की।
ब्रिटिश काल में जाति और समाज सुधार के प्रयासों के संदर्भ में
- ब्रिटिश काल में जाति और समाज सुधार के अनेक प्रयास किये गए। इसी क्रम में राजा राम मोहन राय ने जाति व्यवस्था की आलोचना करने वाले एक पुराने बौद्ध ग्रंथ का अनुवाद किया।
- प्रार्थना समाज भक्ति परंपरा का समर्थक था जिसमें सभी जातियों की आध्यात्मिक समानता पर जोर दिया गया था।
- जाति उन्मूलन के लिये काम करने हेतु बंबई में 1840 में परमहंसमंडली का गठन किया गया।
- इन सुधारकों और सुधार संगठनों के सदस्यों में बहुत सारे ऊँची जातियों के लोग शामिल थे।
•मदिगा आंध्र प्रदेश में एक महत्त्वपूर्ण ‘अछूत’ जाति रही है। ये लोग पशुओं के शवों को साफ करने, चमड़ा तैयार करने और चप्पल-जूतियाँ सीने में माहिर थे। मदिगा समुदाय दक्षिण भारत के अन्य राज्यों (तेलंगाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु) में भी बसते हैं।
• महार समुदाय महाराष्ट्र और आस-पास के राज्यों में रहता है। यह महाराष्ट्र में अनुसूचित जातियों का सबसे बड़ा समूह है। इस समूह के लोग अछूत माने जाते थे। जातिगत सुधार आंदोलनों के बड़े नेताओं में से एक डॉ. बी. आर. अंबेडकर महार समुदाय से ही थे।
• दुबला समुदाय गुजरात में वास करता है। इस समुदाय के लोग ब्रिटिश काल में सवर्ण ज़मींदारों के यहाँ मज़दूरी करते थे।
ब्रिटिश काल में न्याय और समानता के लिये हुए प्रयासों के संदर्भ
- सतनामी आंदोलन की शुरुआत मध्य भारत में हुई थी। घासीदास जो कि एक निम्न जाति के व्यक्ति थे, ने आंदोलन शुरू किया था। इस आंदोलन के सदस्यों ने चमड़े का काम करने वालों को संगठित किया।
- पूर्वी बंगाल में हरिदास ठाकुर के मतुआ पंथ ने ‘निम्न’ जाति के चांडाल काश्तकारों के बीच काम किया। अतः कथन 2 सही है। हरिदास ने जाति व्यवस्था को सही ठहराने वाले ब्राह्मणवादी ग्रंथों पर सवाल उठाए। ऐझावा निम्न जाति के श्री नारायण गुरु ने अपने लोगों के बीच एकता का आदर्श रखा।
- निम्न जाति नेताओं में ज्योतिराव फुले (जन्म 1827) सबसे मुखर नेताओं में से एक थे। इनके द्वारा स्थापित किये गए सत्यशोधक समाज संगठन ने जातीय समानता के समर्थन में मुहिम चलाई।
▪︎ 1873 में ज्योतिराव फुले ने गुलामगीरी (गुलामी) नामक किताब लिखी। इससे लगभग दस साल पहले अमेरिकी गृहयुद्ध हो चुका था जिसके फलस्वरूप अमेरिका में दास प्रथा खत्म कर दी गई थी। फुले ने यह पुस्तक उन सभी अमेरिकियों को समर्पित की जिन्होंने गुलामों को मुक्ति दिलाने के लिये संघर्ष किया था। उन्नीसवीं सदी के आखिरी हिस्से में ज्योतिराव फुले द्वारा महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रयासों के क्रम में महाराष्ट्र में लड़कियों के लिये स्कूल भी खोला गया।
ब्रिटिश काल में गैर-ब्राह्मण आंदोलन से संबंधित ई. वी. रामास्वामी के संदर्भ में
- ब्रिटिश काल में गैर-ब्राह्मण आंदोलन बीसवीं सदी के आरंभ में शुरू हुआ। पेरियार के नाम से प्रसिद्ध ई.वी. रामास्वामी नायकर ने अछूतों के हितों को ध्यान में रखते हुए स्वाभिमान आंदोलन शुरू किया। पेरियार उस समय के एक महान दलित नेता थे।
- पेरियार हिंदू वेद-पुराणों के कट्टर आलोचक थे। खासतौर से मनु द्वारा रचित संहिता, भगवद्गीता और रामायण के वे कटु आलोचक थे।
▪︎ राजा राम मोहन राय के संगठन ब्रह्म सभा का नाम ही बाद में ब्रह्म समाज पड़ा। यह संस्था सभी प्रकार की मूर्ति पूजा और बलि के विरुद्ध थी और इसके अनुयायी उपनिषदों में विश्वास रखते थे। इसके सदस्यों को अन्य धार्मिक प्रथाओं या परंपराओं की आलोचना करने का अधिकार नहीं था।
• यंग बंगाल मूवमेंट की शुरुआत हेनरी लुई विवियन डेरोजियो ने की थी। वे 1820 में हिंदू कॉलेज कलकत्ता में अध्यापक थे। इस मूवमेंट में उनके विद्यार्थियों ने परंपराओं और रीति-रिवाजों पर उँगली उठाई. महिलाओं के लिये शिक्षा की मांग की और सोच व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये अभियान चलाया।
• रामकृष्ण मिशन का नाम स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस के नाम पर रखा गया था। यह मिशन समाज सेवा और निस्वार्थ श्रम के जरिये मुक्ति के लक्ष्य पर जोर देता
▪︎ वेद समाज की स्थापना मद्रास (चेन्नई) में 1864 में हुई। यह ब्रह्म समाज से प्रेरित था। इसने जातिगत भेदभाव को समाप्त करने और विधवा विवाह तथा महिला शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिये काम किया। इसके सदस्य एक ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते थे। इन्होंने रूढ़िवादी हिंदुत्व के अंधविश्वासों और अनुष्ठानों की सख्त निंदा की।
• अलीगढ़ आंदोलन की शुरुआत सर सैयद अहमद खाँ के नेतृत्व में अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश) से हुई।
• सैयद अहमद खाँ द्वारा 1875 में अलीगढ़ में खोले गए मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज को ही बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नाम से जाना गया। यहाँ मुसलमानों को पश्चिमी विज्ञान के साथ-साथ विभिन्न विषयों की आधुनिक शिक्षा दी जाती थी। अलीगढ़ आंदोलन का शैक्षणिक सुधारों के क्षेत्र में गहरा प्रभाव रहा है।
• सिखों के सुधारवादी संगठन के रूप में सिंह सभाओं की स्थापना 1873 में अमृतसर से शुरू हुई थी। बाद 1879 में लाहौर में भी सिंह सभा का गठन किया गया। इन सभाओं ने सिख धर्म को अंधविश्वासों, जातीय भेदभाव और ऐसे आचरण जिसे वे गैर-सिख समझती थीं, से मुक्त कराने का प्रयास किया। उन्होंने सिखों को शिक्षा के लिये प्रोत्साहित किया जिसमें अक्सर आधुनिक ज्ञान के साथ-साथ सिख धर्म के सिद्धांतों को भी पढ़ाया जाता था।
प्रार्थना समाज के संदर्भ में
- 1867 में बंबई में स्थापित प्रार्थना समाज ने जातीय बंधनों को खत्म करने और बाल विवाह उन्मूलन के लिये प्रयास किये। प्रार्थना समाज भक्ति परंपरा का समर्थक था जिसमें सभी जातियों की आध्यात्मिक समानता पर जोर दिया गया था।
- प्रार्थना समाज ने महिलाओं की शिक्षा को प्रोत्साहित किया और विधवा विवाह पर लगी पाबंदी के खिलाफ आवाज उठाई।प्रार्थना समाज की बैठकों में हिंदू, बौद्ध और ईसाई ग्रंथों पर विचार-विमर्श किया जाता था।
मंदिर प्रवेश आंदोलन के संदर्भ में
- सन् 1927 में अंबेडकर ने मंदिर प्रवेश आंदोलन शुरु किया जिसमें महार जाति के लोगों ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया। ब्राह्मण पुजारी। इस बात पर बहुत आग-बबूला हुए कि दलित भी मंदिर के जलाशय का पानी इस्तेमाल कर रहे हैं।
राष्ट्रीय आंदोलन का संघटन : 1870 के दशक से 1947 तक
•1870 और 1880 के दशकों में ब्रिटिश शासन द्वारा पारित अनेक कानूनों के कारण अंग्रेजों के प्रति असंतोष और अधिक गहरा हुआ। 1878 में आर्म्स एक्ट पारित किया गया जिसके जरिये भारतीयों द्वारा अपने पास हथियार रखने का अधिकार छीन लिया गया।
• उसी साल वर्नाकुलर प्रेस एक्ट भी पारित किया गया जिसमें प्रावधान। किया गया कि अगर किसी अखबार में कोई आपत्तिजनक चीज छपती है तो सरकार उसकी प्रिंटिंग प्रेस सहित सारी संपत्ति को जब्त कर सकती है।
• 1883 में सरकार ने इल्बर्ट बिल लागू करने का प्रयास किया। इस विधेयक में प्रावधान किया गया था कि भारतीय न्यायाधीश भी ब्रिटिश या यूरोपीय व्यक्तियों के मुकदमे सुन सकते हैं, ताकि भारत में काम करने वाले अंग्रेज और भारतीय न्यायाधीशों के बीच समानता स्थापित की जा सके। अंग्रेजों के विरोध के कारण इसे वापस ले लिया गया।
▪︎ 1885 में देश भर के 72 प्रतिनिधियों ने बंबई में सभा करके भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस की स्थापना की। अपने पहले बीस सालों में कॉन्ग्रेस अपने उद्देश्य और तरीकों के लिहाज से ‘मध्यम मार्गी’ पार्टी थी। इस दौरान कॉन्ग्रेस ने सरकार और शासन में भारतीयों को और अधिक जगह दिये जाने के लिये आवाज उठाई।
▪︎ पॉवर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ दादाभाई नौरोजी की पुस्तक है। इसमें ब्रिटिश शासन के आर्थिक परिणामों की बहुत तीखी आलोचना की गई थी। नौरोजी व्यवसायी और प्रचारक थे। वे लंदन में रहते थे और कुछ समय के लिये ब्रिटिश संसद के सदस्य भी रहे।
▪︎ कॉन्ग्रेस की स्थापना के कुछ वर्षों बाद ही बहुत सारे लोग कॉन्ग्रेस के राजनीतिक तौर-तरीकों पर सवाल खड़ा करने लगे थे। बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब में बिपिनचंद्र पाल, बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय जैसे नेता अधिक आमूल परिवर्तनवादी उद्देश्य और पद्धतियों के अनुरूप काम करने लगे थे। उन्होंने ‘निवेदन की राजनीति’ के लिये नरमपंथियों की आलोचना की और आत्मनिर्भरता तथा रचनात्मक कामों के महत्त्व पर जोर दिया। इनमें से तिलक ने नारा दिया- “स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा!” तिलक के संपादन में निकलने वाला मराठी अखबार ‘केसरी’ भी ब्रिटिश शासन का कट्टर आलोचक था।
बंगाल विभाजन के संदर्भ में
- बंगाल विभाजन (1905) के समय भारत का वायसराय लॉर्ड कर्जन था।
- अंग्रेजों ने विभाजन के लिये ‘प्रशासकीय सुविधा’ का तर्क देते हुए गैर-बंगाली इलाकों को अलग करने की बजाय उसके पूर्वी भाग को अलग करके असम में मिला दिया।
- इस विभाजन के विरोध में जो संघर्ष उपजा उसे स्वदेशी आंदोलन के नाम से जाना जाता है। यह आंदोलन बंगाल में सबसे ताकतवर था परंतु अन्य इलाकों में भी इसकी भारी अनुगूँज सुनाई दी, उदाहरण के लिये, आंध्र के डेल्टा इलाकों में इसे वंदेमातरम् आंदोलन के नाम से जाना जाता था।
मुस्लिम लीग के संदर्भ में
- 1906 में मुसलमान जमींदारों और नवाबों के एक समूह ने ढाका में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग का गठन किया। लीग ने बंगाल विभाजन का समर्थन किया। लीग की मांग थी कि मुसलमानों के लिये अलग निर्वाचिका की व्यवस्था की जाए। 1909 में सरकार ने यह मांग मान लो।
- 1907 में कॉन्ग्रेस दो खेमों में विभाजित हो गई थी। दिसंबर 1915 में दोनों खेमों में एक बार फिर एकता स्थापित हुई। अगले साल कॉन्ग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच ऐतिहासिक लखनऊ समझौते पर दस्तखत हुए और दोनों संगठनों ने देश में प्रतिनिधिक सरकार के गठन के लिये मिलकर काम करने का फैसला लिया।
▪︎ गांधीजी 46 वर्ष की उम्र में 9 जनवरी, 1915 को दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे। वहाँ पर वे नस्लभेदी पाबंदियों के खिलाफ अहिंसक आंदोलन चला चुके थे। भारत में उनके शुरुआती प्रयास चंपारण, खेड़ा और अहमदाबाद के स्थानीय आंदोलनों के रूप में सामने आए। इन आंदोलनों के माध्यम से उनका राजेंद्र प्रसाद और वल्लभ भाई पटेल से परिचय हुआ। 1918 में अहमदाबाद में उन्होंने मिल मज़दूरों की हड़ताल का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया।
• असहयोग आंदोलन की शुरुआत पहली अगस्त 1920 से हुई तथा फरवरी 1922 में चौरी-चौरा में किसानों की एक भीड़ द्वारा की गई हिंसा की घटना के कारण गांधीजी ने अचानक असहयोग आंदोलन वापस ले लिया।
• सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत 6 अप्रैल, 1930 को नमक कानून तोड़ते हुए गांधीजी ने की थी।
● भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत 9 अगस्त, 1942 को हुई। यह एक स्वतः स्फूर्त आंदोलन था। इसी समयावधि के दौरान गांधीजी ने भारतीय जनता से आह्वान किया कि वे ‘करो या मरो’ के सिद्धांत पर चलते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध अहिंसक ढंग से संघर्ष करें।
घटना | समय |
महात्मा गांधी की दक्षिण अफ्रीका से भारत वापसी | 1915 |
असहयोग आंदोलन | 1920 |
सविनय अवज्ञा आंदोलन | 1930 |
भारत छोड़ो आंदोलन | 1942 |
रॉलेट एक्ट के संदर्भ में
- रॉलेट एक्ट अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मूलभूत अधिकारों पर अंकुश लगाने एवं पुलिस को और अधिक अधिकार देने के लिये लागू किया गया था।
- गांधीजी ने इसके विरुद्ध सत्याग्रह शुरु किया तथा लोगों से आह्वान किया कि इस कानून का विरोध करने के लिये 6 अप्रैल 1919 को अहिंसक विरोध दिवस के रूप में, ‘अपमान व याचना’ दिवस के रूप में मनाया जाए और हड़तालें की जाएँ।
- बैशाखी (13 अप्रैल, 1919) के दिन अमृतसर में जनरल डायर द्वारा जलियाँवाला बाग में इस कानून के विरोध में एकत्र लोगों पर गोलियाँ। चलवा दी गई। इस जनसंहार पर रबींद्रनाथ टैगोर ने गुस्सा जताते हुए। ‘नाइटहुड’ की उपाधि वापस लौटा दी।
▪︎ 1920 में अंग्रेज़ों ने तुर्की के सुल्तान (खलीफा) पर बहुत सख्त संधि थोप दी। भारतीय मुसलमान भी चाहते थे कि पुराने ऑटोमन साम्राज्य में स्थित पवित्र मुस्लिम स्थानों पर ख़लीफ़ा का नियंत्रण बना रहे। अतः यह खिलाफत आंदोलन के शुरू होने का मुख्य कारण था।
ब्रिटिश भारत के संदर्भ में
- 1927 में इंग्लैंड की सरकार ने लॉर्ड साइमन की अगुवाई में एक आयोग भारत भेजा। इस आयोग को भारत के राजनीतिक भविष्य का फैसला करना था। परंतु इसमें कोई भी भारतीय प्रतिनिधि नहीं था. जिस कारण इसका बहिष्कार हुआ।
- 1929 में कॉन्ग्रेस ने जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित किया। इसी प्रस्ताव के आधार पर 26 जनवरी 1930 को पूरे देश में स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया गया।
- आजाद हिंद फौज के गठन में रासबिहारी बोस तथा कैप्टन मोहन सिंह ने योगदान दिया था। बाद में सुभाषचंद्र बोस को आजाद हिंद फौज का सर्वोच्च कमांडर नियुक्त करके उनके हाथों में इसकी कमान सौंप दी गई।
- भारतीय जनता के साझा संघर्षों के चलते आखिरकार 1935 में गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट में प्रांतीय स्वायत्तता का प्रावधान किया गया। | इस आधार पर हुए 1937 के चुनावों के परिणाम आने पर 11 में से 7 प्रांतों में कॉन्ग्रेस की सरकार बनी।
- मुस्लिम लीग द्वारा उपमहाद्वीप के मुसलमानों के लिये स्वायत्त व्यवस्था की मांग के पीछे 1937 के चुनाव भी बड़ा कारण रहे। इन चुनावों ने लीग को इस बात का यकीन दिला दिया कि यहाँ मुसलमान अल्पसंख्यक हैं और किसी भी लोकतांत्रिक संरचना में उन्हें हमेशा गौण भूमिका निभानी पड़ेगी। लीग को भय था कि संभव है कि मुसलमानों को प्रतिनिधित्व ही न मिल पाए।
- 1937 में मुस्लिम लीग संयुक्त प्रांत में कॉन्ग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाना चाहती थी परंतु कॉन्ग्रेस ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया जिससे कॉन्ग्रेस और लीग के मध्य फासला और बढ़ गया।
भगत सिंह के संदर्भ में
- भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ मिलकर 1928 में दिल्ली स्थित फिरोजशाह कोटला में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.एस.आर.ए.) की स्थापना की थी। इस संगठन के सदस्यों ने लाला लाजपत राय पर लाठीचार्ज करने वाले सांडर्स नामक पुलिस अफसर की हत्या की थी।
- भगत सिंह ने अपने साथी बी.के. दत्त के साथ 8 अप्रैल, 1929 को केंद्रीय विधान परिषद् में बम फेंका। साथ ही यहाँ फेंके अपने पर्चा में लिखा था कि उनका मकसद जान लेना नहीं बल्कि ‘बहरों को सुनाना’ है। इस घटना के बाद उन पर मुकदमा चलाकर 23 वर्ष की उम्र में ही उन्हें फाँसी दे दी गई।
कैबिनेट मिशन के संदर्भ में
- 1946 में ब्रिटिश कैबिनेट ने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग का अध्ययन करने तथा स्वतंत्रता के लिये एक सही राजनीतिक व्यवस्था सुझाने के लिये तीन सदस्यीय मिशन भारत भेजा जिसे कैबिनेट मिशन कहा गया।
- इस परिसंघ ने सुझाव दिया कि भारत अविभाजित रहे और उसे मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को कुछ स्वायत्तता देते हुए एक ढीले-ढाले महासंघ के रूप में संगठित किया जाए। कॉन्ग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ही इस प्रस्ताव से सहमत नहीं थीं, अतः अब देश का विभाजन अवश्यंभावी था।
- कैबिनेट मिशन की विफलता के बाद मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की अपनी मांग मनवाने के लिये जनांदोलन शुरू करने का फैसला किया तथा 16 अगस्त, 1946 को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ मनाने का आह्वान किया। इस दिन कलकत्ता में दंगे भड़क उठे। इन दंगों में हजारों लोग मारे गए। मार्च 1947 तक उत्तर भारत के विभिन्न भागों में भी हिंसा फैल गई थी।
▪︎ सरदार वल्लभभाई पटेल 1931 में कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष रहे थे
▪︎ वयोवृद्ध राष्ट्रवादी और दक्षिण में नमक सत्याग्रह के नेता चक्रवर्ती राजगोपालाचारी 1946 में बनी अंतरिम सरकार के सदस्य थे और स्वतंत्र भारत के पहले भारतीय गवर्नर जनरल रहे। उन्हें लोग राजाजी के नाम से जानते थे।
• मौलाना आजाद का जन्म मक्का में हुआ था। ये हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्के हिमायती थे। इन्होंने जिन्ना के द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का विरोध किया था। जिन्ना 1920 तक हिंदू-मुस्लिम एकता के समर्थन में सक्रिय रहे। लखनऊ समझौता कराने में अहम भूमिका निभाई परंतु 1934 के बाद उन्होंने मुस्लिम लीग को पुनः जीवित किया और अंत में वे पाकिस्तान की स्थापना के सबसे मुख्य प्रवक्ताओं की कतार में जा पहुँचे।
खान अब्दुल गफ्फार खान के संदर्भ में
- खान अब्दुल गफ्फार खान उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत के प्रमुख पश्तून नेताओं में से एक थे। इन्हें बादशाह खान के नाम से भी जाना जाता है। ये खुदाई खिदमतगार संगठन के संस्थापक थे। यह उनके प्रांत के पठानों में लोकप्रिय शक्तिशाली अहिंसक आंदोलन था।
- बादशाह खान भारत विभाजन के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने 1947 में इस फैसले पर मंजूरी देने के लिये कॉन्ग्रेस के अपने साथियों की भर्त्सना की थी।
स्वतंत्रता संघर्ष में शामिल महिलाओं के संदर्भ में
- 1920 के दशक की शुरुआत से ही राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय सरोजनी नायडू दांडी यात्रा के मुख्य नेताओं में से एक थी। कॉन्ग्रेस अध्यक्ष पद पर पहुँचने वाली वह पहली भारतीय महिला थीं।
- कर्नाटक की अंबाबाई ने भी स्वतंत्रता संघर्ष में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनका विवाह 12 साल की उम्र में कर दिया गया था। 16 साल की उम्र में वह विधवा हो गईं। उन्होंने उडीपी में विदेशी कपड़ों और शराब की दुकानों की घेरेबंदी की। उन्हें गिरफ्तार किया गया। जब भी वह जेल से बाहर होतीं तो सभाओं में भाषण देतीं, बुनाई कताई सिखातीं और प्रभात फेरियों का आयोजन करतीं।
स्वतंत्रता के बाद
▪︎ भारत के संविधान रचना के क्रम में दिसंबर 1946 से नवंबर 1949 के बीच लगभग 300 भारतीयों की अनेक बैठकें और चर्चाएँ दिल्ली में हुई। इन्हीं के परिणामस्वरूप संविधान लिखा और 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया।
• संविधान में भारत की उस समय की चुनौतियों और जरूरतों को ध्यान में रखते हुए अनेक प्रावधान किये गए तथा अधिकार दिये गए। इन अधिकारों में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार, सभी नागरिकों की कानून की नजर में समानता, छुआछूत की समाप्ति तथा अछूतों के साथ-साथ आदिवासियों या अनुसूचित जनजातियों को विधायिका और नौकरियों में आरक्षण शामिल हैं।
▪︎ केंद्र और राज्यों के बीच मतभेदों को दूर करने के लिये संविधान। में विभिन्न विषयों को तीन सूचियों में बाँटा गया- केंद्रीय सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची।
• केंद्रीय सूची में कराधान, रक्षा और विदेशी मामलों आदि को रखा गया. जो केंद्र सरकार के अधीन विषय थे। राज्य सूची में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विषय लिये गए थे जिनकी जिम्मेदारी मुख्य रूप से राज्यों पर थी। समवर्ती सूची में वन एवं कृषि आदि ऐसे विषयों को रखा गया था जिनके बारे में केंद्र और राज्य सरकारें, दोनों संयुक्त रूप से फैसला ले सकती थीं।
• संविधान निर्माताओं ने हिंदी को भारत की राजभाषा का दर्जा दिया, जबकि अदालतों, सेवाओं, विभिन्न राज्यों के बीच संचार आदि के लिये अंग्रेजी के इस्तेमाल का फैसला लिया गया था।
▪︎ संविधान की रचना में सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान संभवत: डॉ. भीमराव अंबेडकर का था, जो संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे और जिनके नेतृत्व में दस्तावेज को अंतिम रूप दिया गया।
• संविधान सभा के सामने अपने अंतिम संबोधन में उन्होंने अन्य बातों के साथ कहा था कि नए संविधान के साथ भारत अंतर्विरोधों के एक नए युग में प्रवेश करने जा रहा है। राजनीति में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक व आर्थिक जीवन में हम असमानता की राह पर चलेंगे। राजनीति में हम एक व्यक्ति, वोट और एक मूल्य के सिद्धांत का पालन करेंगे। इसके विपरीत, अपनी सामाजिक एवं आर्थिक संरचना के फलस्वरूप हम सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति, एक मूल्य के सिद्धांत का निषेध करते रहेंगे।
▪︎ तेलुगू भाषियों के हितों के लिये आंध्र राज्य के गठन की मांग करने भूख हड़ताल पर बैठे वयोवृद्ध गांधीवादी पोट्टी श्रीरामुलु का 58 दिन के अनशन के बाद 15 दिसंबर, 1952 को देहांत हो गया, जिससे इतना व्यापक विरोध हुआ कि केंद्र को आखिरकार यह मांग माननी पड़ी और 1 अक्तूबर, 1953 को आंध्र के रूप में एक नए राज्य का गठन हुआ, जो बाद में आंध्र प्रदेश बना।
• आंध्र की स्थापना के बाद अन्य भाषायी समुदाय की मांगों को देखते हुए एक राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया गया, जिसने 1956 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी।
• 1960 में बंबई प्रांत को मराठी और गुजराती भाषी, दो अलग राज्यों में बाँट दिया गया। 1966 में पंजाब का विभाजन हुआ और हरियाणा को अलग राज्य के रूप में मान्यता दी गई।
स्वतंत्रता के बाद भारत के विकास के लिये निश्चित की गई नीतियों के संदर्भ में
- 1950 में सरकार ने आर्थिक विकास के लिये नीतियाँ बनाने और उनको लागू करने के लिये एक ‘योजना आयोग’ का गठन किया।
- 1956 में दूसरी पंचवर्षीय योजना तैयार की गई। इस योजना में इस्पात जैसे भारी उद्योगों और विशाल बांध परियोजनाओं आदि पर सबसे अधिक जोर दिया गया। सोवियत संघ की सहायता से स्थापित भिलाई। स्थित इस्पात कारखाने (छत्तीसगढ़) की स्थापना तथा चंबल नदी पर गांधी सागर बांध इसी का परिणाम हैं।
- प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू नवस्वाधीन भारत के विदेश मंत्री भी थे। उन्होंने इस संदर्भ में स्वतंत्र भारत की विदेश नीति की रूपरेखा तैयार की। गुटनिरपेक्ष आंदोलन इसी विदेश नीति का मूल आधार था।
- 30 जनवरी, 1948 को कट्टर विचारों वाले नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी। वह गांधी जी के इस दृढ़ विचार से मतभेद रखता था कि हिंदुओं और मुसलमानों को सद्भावना बनाते हुए इकट्ठे रहना चाहिये। उसी शाम हक्के-बक्के राष्ट्र ने आकाशवाणी पर जवाहरलाल नेहरू का भावुक भाषण सुना- “दोस्तों, साथियों, हमारी जिंदगी की रोशनी बुझ गई और चारों तरफ अधेरा है… हमारे प्रिय नेता…. राष्ट्रपिता अब नहीं रहे। “
- एच.जे. खांडेकर संविधान सभा के एक सदस्य थे जिन्होंने कहा था, हरिजनों की ‘अक्षमता के लिये’ ऊँची जातियाँ जिम्मेदार हैं। अपने सुविधासंपन्न सहकर्मियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था
- “हमें हज़ारों साल तक दबाकर रखा गया है। आप लोगों ने हमें अपनी सेवा में लगाए रखा और हमें इस कदर दबाया है कि अब न केवल हमारे मस्तिष्क और शरीर बल्कि हमारा हृदय भी काम नहीं करता और न ही हम आगे बढ़ पाने में सक्षम हैं।”
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(Q) भारत के साथ व्यापार के लिए सर्वप्रथम संयुक्त पूँजी कम्पनी किसने आरम्भ की?
ANS.- डचों ने
(Q) वर्ष 1759 में बेदरा का युद्ध किन दो यूरोपीय शक्तियों के मध्य लड़ा गया?
ANS.-डच एवं अंग्रेज
(Q)लंदन में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के गठन के समय भारत का सम्राट कौन था?
ANS.- अकबर
(Q) बंगाल में द्वैध शासन किसके द्वारा लागू किया गया?
ANS.-लॉर्ड क्लाइव के द्वारा
(Q)भारत में न्यायिक सेवा का जन्मदाता किसे माना जाता है?
Ans.-वारेन हेस्टिंग्स