कक्षा-VI हमारे अतीत-I | |
1. | क्या, कब, कहाँ और कैसे? |
2. | आरंभिक मानव की खोज में |
3. | भोजन : संग्रह से उत्पादन तक |
4. | आरंभिक नगर |
5. | क्या बताती हैं हमें किताबें और कब्रें |
6. | राज्य, राजा और एक प्राचीन गणराज्य |
7. | नए प्रश्न नए विचार |
8. | अशोकः एक अनोखा सम्राट जिसने युद्ध का त्याग किया |
9. | खुशहाल गाँव और समृद्ध शहर |
10. | व्यापारी, राजा और तीर्थयात्री |
11. | नए साम्राज्य और राज्य |
12. | इमारतें, चित्र तथा किताबें |
1. क्या, कब, कहाँ और कैसे?
गेहूँ और जौ की फसलों के संदर्भ में
- सर्वप्रथम मनुष्य ने गेहूँ और जौ उपजाना आरंभ (लगभग 8000 वर्ष पूर्व) किया।
- इन फसलों को उपजाने का कार्य सुलेमान और किरथर पहाड़ी क्षेत्रों में हुआ
- गेहूँ और जो उपजाने के प्राचीनतम साक्ष्य मेहरगढ़ (बलूचिस्तान) से प्राप्त होते हैं।
- नवीनतम तथ्यों के अनुसार, चावल उपजाने के प्राचीनतम साक्ष्य सन्त कबीरनगर के लहुरादेव में पाए गए हैं। ये साक्ष्य लगभग 9000 से 8000 वर्ष पूर्व के हैं।
- गारो तथा मध्य भारत के विंध्य पहाड़ी क्षेत्र अन्य कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ कृषि का विकास हुआ।
भारतीय उपमहाद्वीप के संदर्भ में
- लगभग 4700 वर्ष पूर्व सिन्धु व उसकी सहायक नदियों के किनारे आरम्भिक नगरों का विकास हुआ। इन्हीं नगरों में विकसित सभ्यता सिन्धु सभ्यता के नाम से जानी गई।
- गंगा व इसकी सहायक नदियों के किनारे नगरों का विकास लगभग 2500 वर्ष पूर्व हुआ यानी सिन्धु नदी के किनारे सभ्यताएँ पहले विकसित हुई।
• गंगा नदी के दक्षिण में इसकी सहायक नदी सोन के आस-पास का क्षेत्र प्राचीन काल में मगध कहलाता था।
• मगध प्राचीन काल का पहला बड़ा राज्य था। इसके शासक बहुत शक्तिशाली थे, उन्होंने एक विशाल राज्य स्थापित किया था।
• मगध साम्राज्य का उत्कर्ष ई.पू. छठवीं शताब्दी में हुआ था। मगध साम्राज्य को वास्तविक संस्थापक (लगभग 544-492 ई.पू.) बिम्बिसार था।
भारत देश के नाम के संदर्भ में
- उत्तर-पश्चिम की ओर से आने वाले ईरानियों और यूनानियों ने सिन्धु को हिंदोस अथवा इदोंस कहा । उन्होंने इस नदी के पूर्व में स्थित भूमि प्रदेश को इंडिया’ कहा।
- ‘भरत’ नाम का प्रयोग उत्तर-पश्चिम में रहने वाले लोगों के एक समूह के लिये किया जाता था। इस समूह का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। ऋग्वेद संस्कृत की आरम्भिक कृति है जो लगभग 3500 वर्ष पुरानी है। बाद में इसी भरत समूह के नाम का प्रयोग देश के लिये होने लगा।
पाण्डुलिपियों के संदर्भ में
- अतीत में हाथ से लिखी गई पुस्तकें पाण्डुलिपि कहलाती थीं।
- अंग्रेजी में पाण्डुलिपि के लिये मैन्युस्क्रिप्ट शब्द का प्रयोग होता है जो लैटिन भाषा के शब्द “मेनू’ (जिसका अर्थ ‘हाथ’ है) से निकला है।
- पाण्डुलिपियाँ ताड़ के पत्तों को काटकर अथवा हिमालयी क्षेत्र में उगने वाले भूर्ज नामक पेड़ की छाल से विशेष तरीके से तैयार भोज पत्र पर लिखी जाती थीं
- पाण्डुलिपियाँ मंदिरों और विहारों के अतिरिक्त अन्य स्थानों से भी प्राप्त हुई है। साथ हो ये पाण्डुलिपियों विभिन्न प्राचीन भाषाओं में प्राप्त हुई है जिनमे संस्कृत, प्राकृत और तमिल भी शामिल हैं।
अभिलेखों के संदर्भ में
- कभी-कभी शासक अथवा अन्य लोग अपने आदेशों को इस तरह उत्कीर्ण करवाते थे ताकि लोग उन्हें देख व पढ़ सकें तथा उनका पालन कर सकें।
- ऐसे लेख जो पत्थर अथवा धातु जैसी अपेक्षाकृत कठोर सतह पर उत्कीर्ण किये जाते थे, वे अभिलेख कहलाते हैं।
- अभिलेखों में राजाओं, रानियों व अन्य लोगों के देश कार्य विवरण विषय आदि का उल्लेख किया जाता था।
▪︎ अशोक का कांधार अभिलेख इस क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली यूनानी तथा अरामाइक नामक दो भिन्न लिपियों तथा भाषाओं में लिखा गया है।
▪︎ ईसा मसीह के जन्म के पूर्व की सभी तिथियाँ ई.पू. (ईसा पूर्व) के रूप में जानी जाती हैं।
▪︎ वर्ष की गणना ईसाई धर्म प्रवर्तक ईसा मसीह के जन्म की तिथि से की जाती है।
▪︎ ई.पू. को अंग्रेजी में ‘बिफोर क्राइस्ट’ (BC) कहते हैं।
▪︎ हिन्दी में वर्तमान में तिथि प्रयोग में ‘ई’ का चलन है जिसे अंग्रेजी में ए.डी. (एनोडॉमिनी कहा जाता है।
▪︎ बी.सी.ई. का अर्थ ‘बिफोर कॉमन पूरा’ तथा सी.ई. का अर्थ ‘कॉमन पूरा’ होता है।
▪︎ बी.पी. का प्रयोग बिफोर प्रेजेंट’ के लिये किया जाता है।
2. आरंभिक मानव की खोज में
▪︎ भीमबेटका, दुरंगी और कुरनूल की गुफाओं से मनुष्य के आखेटक व खाद्य संग्राहक होने के प्रमाण मिले हैं। ये तीनों पुरापाषाणिक पुरास्थल हैं, जबकि निशंद नवपाषाणिक पुरास्थल है।
▪︎ हुरंगी और कुरनूल गुफाएँ तुंगभद्रा नदी के किनारे स्थित हैं।
नवपाषाणिक पुरास्थल |
मेहरगढ़ |
बुर्जहोम |
कोल्डिहा |
दाओजली हेडिंग |
महागढ़ा |
पुरापाषाणकालीन पाषाण औजारों के निर्माण के संदर्भ में
• पुरापाषाण काल में पत्थर के औजार बनाए जाने के स्थान को ‘उद्योग स्थल’ कहते हैं। कभी-कभ लोग इन स्थलों पर अधिक समय तक रहा करते थे।
पाषाण उपकरण निर्माण हेतु 2 तकनीकों का प्रयोग होता था।
- पहली तकनीक इसको ‘पत्थर से पत्थर टकरा (Impinge Stone to Stone) कहा जाता है। इसमें एक पत्थर को हाथ में पकड़कर दूसरे पत्थर से हथौड़ी की तरह चोट करके शल्क निकाले जाते थे।
- दूसरी तकनीक इसको ‘दबाव शुल्क तकनीक’ (Pressure flaking)कहा जाता है। इसमें क्रोड को एक स्थिर सतह पर टिका देते हैं और इस क्रोड पर हड्डी या पत्थर रखकर उस पर हथौड़ीनुमा पत्थर से शल्क निकाले जाते थे।
▪︎कुरनूल गुफा से राख के अवशेष मिले हैं। इससे स्पष्ट होता है। कि मुरापाषाणिक आरम्भिक लोग आग से परिचित थे।
मध्यपाषाण युग में जलवायु परिवर्तन से आए नए बदलावों के संदर्भ में
■ लगभग 12000 वर्ष पूर्व आए पर्यावरणीय बदलाव के काल को मध्यपाषाण युग अथवा मेसोलिथ कहते हैं।
- इस युग में जलवायु में आए बदलाव से जो तापमान वृद्धि हुई उससे घास वाले मैदान बनने लगे। घास क्षेत्र बढ़ने से घास खाने वाले जीव भी बने।
- मछली इसी काल में भोजन का महत्त्वपूर्ण स्रोत बनी।
- गेहूँ, जौ व धान प्राकृतिक रूप से उगने लगे, अतः लोगों ने इन्हें इकट्ठा किया व समय के साथ इन्हें खुद उपजाना सीख लिया।
▪︎ मानव सभ्यता के आरम्भिक काल अर्थात् प्रागैतिहासिक काल को तीन भागों-पुरापाषाण काल, मध्यपाषाण काल और नवपाषाण काल में बाँटा गया है। महापाषाण काल दक्षिण भारत में विशाल पाषाण खण्डों की बनी समाधियों से सबंधित है।
▪︎ भीमबेटका वर्तमान मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित है। यहाँ से प्रागैतिहासिक शैल चित्रकला के कुछ सुन्दर उदाहरण मिलते हैं।
• भीमबेटका को प्रागैतिहासिककालीन चित्रकला से संबंधित किया जाता हैं, जबकि अजंता तथा बाघ की शैलकृत गुफा चित्रकला मौर्य काल के बाद की (ऐतिहासिककालीन) है। अमरावती अपने स्तूपों के लिये प्रसिद्ध है जिसे शुंगकालीन या सातवाहनकालीन माना जाता है।
पुरापाषाण काल | 20 लाख वर्ष पूर्व से 12000 वर्ष पूर्व |
मध्यपाषाण काल | 12000 वर्ष पूर्व से 10000 वर्ष पूर्व |
महापाषाण काल | 2500 वर्ष पूर्व से 1900 वर्ष पूर्व |
उत्तरपाषाण काल | शुरुआत 10000 वर्ष पूर्व |
▪︎ लगभग 12000 वर्ष पूर्व से लेकर 10000 वर्ष पूर्व तक के काल को मध्यपाषाण काल कहा जाता है। इस काल के पायाण औजार आमतौर पर बहुत छोटे होते थे। इन्हें ‘माइक्रोलिथ’ यानी ‘लघुपाषाण’ कहा जाता है।
• प्रायः इन औजारों में हट्टियों या लकड़ियों के मुद्दे लगे हसिया और आरो जैसे औजार मिलते थे साथ-साथ पुराण युग वाले औजार भी इस दौरान बनाए जाते रहे।
हुँस्गी के संदर्भ में
• कर्नाटक में स्थित पुरापाषाणकालीन स्थल है। यहाँ से प्राप्त कुछ पुरास्थलों से अलग-अलग कार्यों में प्रयोग किये जाने वाले कई औजार मिले हैं।
•हुँस्गी में अधिकांश औज़ार ‘गुन्ह पत्थरों से बनाए जाते थे न कि बलुआ पत्थरों से ।
भारत में शुतुरमुर्ग के साक्ष्यों के संदर्भ में
•भारत में शुतुरमुर्ग के होने के प्राचीनतम प्रमाण पुरापाषाण काल से प्राप्त हुए हैं। ये अवशेष ‘पटने’ नामक पुरास्थल जो महाराष्ट्र में स्थित है. से मिले हैं।
• इनके अड़ों के छिल्कों पर चित्रांकन और इनसे मनके बनाने का प्रमाण भी मिलता है।
• हाल ही में 25000 वर्ष पुराने शुतुरमुर्ग के अंहों के राजस्थान के ‘बूंदी’ से भी प्राप्त हुए है।
3. भोजन संग्रह से उत्पादन तक
▪︎ सबसे पहले जिस जानवर को पालतू बनाया गया वह कुत्ता था इसके बाद मनुष्य ने भेड़ व बकरी को पालतू बनाया।
▪︎ पुरातत्त्वविदों को शुरुआती कृषकों और पशुपालकों के होने के साक्ष्य
पैय्यमपल्ली |
हल्लूर |
महागढ़ा |
गुफकाल |
बुर्जहोम |
उपरोक्त सभी स्थान नवपाषाणकालीन पुरास्थल हैं। इन सभी स्थानों से शुरुआती कृषकों और पशुपालकों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
पुरास्थल | अवस्थिति |
मेहरगढ़ | पाकिस्तान |
कोल्डिहवा | उत्तर प्रदेश |
चिराद | बिहार |
गुफकाल | कश्मीर |
▪︎ मेहरगढ़ पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रान्त में स्थित है। यहाँ से गेहूँ और जा के अवशेष मिले हैं। मेहरगढ़ में पुरातत्त्वविदों को विभिन्न प्रस्तरों से अनेक जानवरों के अवशेष मिले हैं। इनमें हिरण तथा सूअर जैसे जंगली जानवरों की हड्डियाँ सबसे निचले प्रस्तर से मिली हैं। उसके बाद के स्तरों से भेड़ और बकरियों तथा उसके ऊपर ज्यादातर मवेशियों की हड्डियां मिली हैं। इससे लगता है कि ये लोग मवेशी पालने लगे थे।
• कोल्डिहवा उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले (वर्तमान प्रयागराज) में अवस्थित है। यहाँ से चावल और जानवरों की हड्डियों के टुकड़े प्राप्त हुए हैं।
•चिरांद आधुनिक बिहार राज्य में अवस्थित है। यहाँ से गेहूँ, हरे चने,जो, भैंस और बैल के अवशेष मिले हैं।
•गुफकाल आधुनिक कश्मीर में स्थित है। यहाँ से गेहूँ और दलहन के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
▪︎ महागदा वर्तमान उत्तर प्रदेश में अवस्थित है। इस पुरास्थल से चावल और मवेशी (मिट्टी पर खुरों के निशान के रूप में) के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
• बुर्जहोम वर्तमान कश्मीर में स्थित है। यहाँ से गेहूँ और दलहन, कुत्ते, मवेशी, भैंस, भेड़ और बकरी के होने के साक्ष्य मिले हैं।
• हल्लूर वर्तमान कर्नाटक में स्थित है। यहाँ से पुरातत्त्वविदों को यार बाजरा, मवेशी, भेड़, बकरी और सूअर के साक्ष्य मिले हैं।
•पैय्यमपल्ली वर्तमान तमिलनाडु राज्य में स्थित है। यहाँ से काला चना, ज्वार बाजरा, मवेशी, भेड़ और सूअर के अवशेष पाए गए हैं।
• हल्लूर कर्नाटक तथा पैव्यमपल्ली तमिलनाडु में अवस्थित है परंतु NCERT (कक्षा-6) में दोनों पुरास्थलों को आंध्र प्रदेश में स्थित बताया गया है।
पुरातत्त्वविदों को कुछ पुरास्थलों पर झोपड़ियों और घरों के निशान मिले हैं। बुर्जहोम पुरास्थल से प्राप्त ऐसे साक्ष्यों के संदर्भ में
- बुर्जहोम वर्तमान , कश्मीर में अवस्थित है। यहाँ के लोग गड्ढे के नीचे घर बनाते थे। इन घरों को गर्तावास कहा जाता है। इनमें नीचे उतरने के लिये सीढ़ियाँ होती थी। इससे उन्हें ठंड से सुरक्षा मिलती थी।
- झोपड़ियों के अन्दर और बाहर (दोनों जगह) आग जलाने की जगहें । थी। इससे ऐसा लगता है कि लोग मौसम के अनुसार घर के अन्दर या बाहर खाना पकाते होंगे।
नवपाषाण युग के संदर्भ में
नवपाषाण युग से प्राप्त उपकरण पुरापाषाण युग से भिन्न हैं। इसी कारण इस युग को नवपाषाण युग कहा गया है।
• इनमें से कुछ औजारों में धार को अधिक पैना करने के लिये पॉलिशचढ़ जाती थी
• कुछ औजार हड्डियों से भी बनाए जाते थे। इस काल में पुरापाषाणिक औजारों का निर्माण और प्रयोग भी होता था।
• चीजों को पीसने के लिये ओखली व मूसल का प्रयोग इस काल में किया जाता था जो आज हजारों सालों बाद भी प्रयोग में लाए जाते हैं।
इस काल के पुरास्थलों से विभिन्न प्रकार के मिट्टी के बर्तन मिले हैं। कभी-कभी इन पर अलंकरण भी किया जाता था जिनका उपयोग “चीजें रखने के लिये किया जाता था। धीरे-धीरे लोग बर्तनों का प्रयोग खाना बनाने के लिये भी करने लगे।
▪︎ नेवपाषाण काल में मनुष्य ने कपड़े बुनना सीख लिया था, इसके लिये कपास जैसे आवश्यक पौधे उगाने में अब मनुष्य सक्षम हो गया था।
▪︎ मेहरगढ़ किरथर पहाड़ियों में स्थित बोलन दरें के समीप एक हरा-भरा समतल स्थान है।
• ये वर्तमान पाकिस्तान के बलुचिस्तान प्रांत में स्थित है।
• ईरान जाने के लिये बोलन दर्श एक महत्त्वपूर्ण मार्ग है।
▪︎ मृत्यु के बाद सामान्यतया मृतक के सगे संबंधी उसके प्रति सम्मान जताते थे। लोगों की आस्था थी कि मृत्यु के बाद भी जीवन होता है। इसलिये कब्रों में मृतकों के साथ कुछ सामान भी रखे जाते थे। मेहरगढ़ से ऐसी कब्रें मिली हैं।
▪︎ मेहरगढ़ से प्राप्त एक कब्र में एक मृतक के साथ एक बकरी को भी दफनाया गया था। यहाँ के लोगों की आस्था थी कि.. के बाद भी जीवन होता है। सम्भवतः इसे परलोक में मृतक के खाने के लिये रखा गया था।
दाओजली हेडिंग चीन और म्यांमार की ओर जाने वाले रास्ते में ब्रह्मपुत्र की घाटी की एक पहाड़ी पर स्थित है।
- ‘यहाँ से ‘काष्ठाश्म’ के औजार और बर्तन भी प्राप्त हुए हैं। ‘काष्ठाश्म’ उस अति प्राचीन लकड़ी को कहते हैं जो सख्त होकर पत्थर बन गई हैं।
- यहाँ से मूसल और खरल जैसे उपकरण प्राप्त हुए हैं, जिससे पता चलता है कि यहाँ के लोग भोजन के लिये अनाज उगाते थे।
- दाओजली हेडिंग से ‘जेडाइट’ पत्थर भी प्राप्त हुआ है। पुरातत्त्वविदों का मानना है कि संभवतः यह पत्थर चीन से आया होगा।
चताल ह्यूक’ पुरास्थल के संदर्भ में
- नवपाषाण युग के सबसे प्रसिद्ध पुरास्थलों में एक चताल हाक तुर्की में है।
- यहाँ दूर-दराज स्थानों से कई चीजें उपयोग के लिये लाई जाती थीं जैसे सीरिया से लाया गया चकमक पत्थर, लाल सागर की कोड़ियाँ तथा भूमध्यसागर की सीपियाँ
▪︎ मेहरगढ़ संभवतः वह स्थान है जहाँ के स्त्री पुरुषों ने इस इलाके में सबसे पहले जौ, गेहूँ उगाना और भेड़, बकरी पालना सीखा।
• मेहरगढ़ से ही चौकोर एवं आयताकार घरों के अवशेष मिले है। प्रत्येक घर में चार या उससे ज्यादा कमरे हैं, जिनमें से कुछ संभवतः भंडारण के काम आते होंगे।
4. आरंभिक नगर
• हड़प्पा पुरास्थल की खोज सबसे पहले हुई थी। लगभग 80 वर्ष पूर्व पुरातत्त्वविदों ने इस स्थल को इंदा। चूंकि इस नगर की खोज सबसे पहले हुई थी, इसलिये बाद में मिलने वाले सभी ऐसे पुरास्थलों में जो इमारतें और चीजें मिली उन्हें हड़प्पा सभ्यता की इमारत और चीजें कहते हैं।
• इस शहर का निर्माण लगभग 4700 वर्ष पूर्व हुआ था। कालक्रम की दृष्टि से यह सभ्यता मिस्र एवं मेसोपोटामिया की प्राचीन सभ्यताओं के समकालिक थी।
▪︎ लगभग 150 वर्ष पूर्व जब पंजाब में रेलवे लाइन बिछाई जा रही थी तो इस काम में जुटे इंजीनियरों को अचानक हड़प्पा पुरास्थल मिला जो कि आधुनिक पाकिस्तान में है। ▪︎इंजीनियरों ने अच्छी ईंटों की तलाश में हड़प्पा के खंडहरों से हजारों ईंटे उखाड़ ली। इससे कई इमारतें पूरी तरह नष्ट हो गई।
हड़प्पा सभ्यता के नगरों की विशेषता के संदर्भ में
- इन नगरों में से कई नगरों को दो या उससे अधिक हिस्सों में विभाजित किया गया था।
- सामान्यतः पश्चिमी भाग छोटा, लेकिन ऊँचाई पर और पूर्वी हिस्सा बड़ा लेकिन निचले इलाके में बना था।
- पुरातत्वविदों ने ऊँचाई वाले भाग को नगर-दुर्ग और निचले हिस्से को निचला-नगर कहा।
- इसके दोनों “हिस्सों की चारदीवारियाँ पक्की ईंटों की बनाई गई थीं। ईंटें इतनी अच्छी थीं कि हजारों सालों बाद भी उनकी दीवार खड़ी रहीं।
- दीवारों को मजबूत रखने के लिये विशेष प्रकार से इनकी चिनाई की जाती थी।
मोहनजोदड़ो में खास तालाब बनाया गया था जिसे पुरातत्त्वविदों द्वारा ‘महान स्नानागार’ कहा गया। इस स्नानागार की विशेषताओं के संदर्भ में
- इस तालाब को बनाने में ईंट और प्लास्टर का इस्तेमाल किया गया था।
- इसमें पानी का रिसाव रोकने के लिये प्लास्टर के ऊपर चारकोल की परत चढ़ाई गई थी।
- इसमें दोनों तरफ से उतरने के लिये सीढ़ियाँ बनाई गई थीं और चारों ओर कमरे बनाए गए थे।
- इस स्नानागर को भरने के लिये पानी कुएँ से निकाला जाता था। उपयोग के बाद इसे खाली कर दिया जाता था। शायद यहाँ विशिष्ट नागरिक विशेष ‘अवसरों पर स्नान किया करते थे।
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त नगरों के संदर्भ में
- हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त विभिन्न नगरों में से कालीबंगा व लोथल जैसे नगरों से अग्निकुण्ड मिले हैं, जहाँ संभवतः यह किये जाते थे।
- हा मोहनजोदड़ो और लोथल जैसे कुछ नगरों में बड़े-बड़े भंडारगृह मिले है। कई या नगरों से मिट्टी के खिलौने भी मिले हैं।
- हड़प्पा नगर आधुनिक पाकिस्तान के पंजाब और सिन्ध प्रांतों तथा भारत के गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब प्रांतों में मिले हैं।
- इन सभी स्थलों में पुरातत्त्वविदों को अनोखी वस्तुएँ मिली हैं, जैसे- मिट्टी के लाल बर्तन जिन पर काले रंग के चित्र बने थे, पत्थर के बाट, मुहरें, मनके, तांबे के उपकरण और पत्थर के लंबे ब्लेड आदि।”
- हड़प्पा सभ्यता में घर, नाले और सड़कों का निर्माण योजनाबद्ध तरीके से एक साथ ही किया जाता था।
- इन नगरों के घर आमतौर पर एक या दो मंजिल के होते थे।
- अधिकांश घरों में एक अलग स्नानागार होता था और कुछ घरों में कुएँ भी होते थे।
- हर नाली में हल्की ढलान होती थी ताकि पानी आसानी से बह सके।
- इनमें से कई नगरों में नाले ढके हुए होते थे।
- नालों के ढके होने के कारण इनमें जगह-जगह पर मेनहोल बनाए गए थे, जिनके जरिये इनकी देखभाल की जा सके
- अक्सर घरों की नालियों को सड़कों की नालियों से जोड़ दिया जाता था जो बाद में बड़े नालों में मिल जाती थीं।
- यहाँ के घरों के आँगन के चारों ओर कमरे बनाए गए थे
हड़प्पा के नगरीय जीवन के संदर्भ में
- हड़प्पा के नगरों में नगर की खास इमारतों की योजना में जुटे रहने वाले लोग यहाँ के शासक थे। ये शासक लोगों को भेजकर दूर-दूर से धातु बहुमूल्य पत्थर और अन्य उपयोगो चीजें मंगवाते थे। अतः यहाँ शासक व नगरवासी व्यापार भी करते थे।
- नगरों में शासक वर्ग के अलावा लिपिक व शिल्पकार भी रहते थे। लिपिक ‘मुहरों’ पर तो लिखते ही थे और शायद अन्य चीसों पर भी लिखते थे।
- शिल्पकार (स्त्री-पुरुष) अपने घरों या किसी उद्योग स्थल पर तरह-तरह की चीजें बनाते थे।
हड़प्पा से प्राप्त बाट और मनकों के संदर्भ में
- मनकों के निर्माण में कार्नीलियन पत्थरों का प्रयोग हुआ था।
- हड़प्पा के नगरों में बाट बनाने के लिये सामान्यतः चर्ट पत्थर का प्रयोग किया गया। था न कि चूना पत्थर का। इन्हें शायद बहुमूल्य पत्थर और धातुओं को तौलने के लिये बनाया गया था।
▪︎ मोहनजोदड़ो से एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति की पत्थर से बनी मूर्ति मिली थी। इसमें उसे कढ़ाईदार वस्त्र पहने दिखाया गया है।
▪︎ सूती वस्त्र के साक्ष्य मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुए हैं।
हड़प्पीय नगर शिल्प के संदर्भ में
- पुरातत्त्वविदों को अनेक चीजें हड़प्पा स्थलों से प्राप्त हुई हैं। उनमें अधिकतर पत्थर, शंख, तांबे, कांसे, सोने और चांदी जैसी धातुओं से बनाई गई थीं।
- इन प्राप्त चीज़ों से पता चलता है कि सोने और चांदी से गहने और बर्तन बनाए जाते थे।
- तांबे और कांसे से औजार, हथियार, गहने और बर्तन बनाए जाते है।
- हड़प्पा सभ्यता के लोग पत्थर की मुहरें बनाते थे। इन आयताकार मुहरों पर सामान्यतः जानवरों के चित्र मिलते हैं।
- अधिकांश वस्तुओं का निर्माण प्रशिक्षित विशेषज्ञों द्वारा किया गया विशेषज्ञ खास चीजें बनाने के लिये प्रशिक्षण लेते थे, जैसे-पत्थर तराशना, मटके चमकाना या मुहरों पर पच्चीकारी।
- हड़प्पा सभ्यता के लोग काले रंग से डिजाइन किये हुए खूबसूरत लाल मिट्टी के बर्तन बनाते थे।
- इन बर्तनों के ऊपरी हिस्सों में लाल रंग की पुताई कर दी जाती थी। तथा निचले हिस्से में काले रंग से विभिन्न प्रकार की चित्रकारी जाती थी।
▪︎ लगभग 7000 वर्ष पूर्व मेहरगढ़ में कपास की खेती होती थी।
• मोहनजोदड़ों से कपड़े के टुकड़ों के अवशेष, चांदी के एक फूलदान के ढक्कन तथा कुछ अन्य तांबे की वस्तुओं से चिपके हुए मिले हैं। यहाँ से प्राप्त पक्की मिट्टी तथा फेन्स से बनी तकलियाँ सूत कताई का संकेत देती हैं।
हड़प्पा काल में प्रयोग किये जाने वाले ‘फेयन्स’ के सन्दर्भ में
- हड़प्पा काल में फेर्येन्स से मनके, चूड़ियाँ, बाले और छोटे बर्तन बनाए जाते थे।
- पत्थर और शंख प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं, लेकिन फेन्स को कृत्रिम रूप से तैयार किया जाता है। बालू या स्फटिक पत्थरों के चूर्ण की गोंद में मिलाकर उनसे वस्तुएँ बनाई जाती थी। उसके बाद उन वस्तुओं पर एक चिकनी परत चढ़ाई जाती थी। इस चिकनी परत के रंग प्रायः नीले या हल्के समुद्री हरे होते थे।
हड़प्पा सभ्यता में लोगों द्वारा किये जाने वाले आयात के संदर्भ में
आयातित वस्तु | स्थान |
तांबा | राजस्थान |
टिन | अफगानिस्तान |
सोना | कर्नाटक |
बहुमूल्य पत्थर | गुजरात |
- हड़प्पा सभ्यता के लोग तांबे का आयात आज के राजस्थान से करते थे। पश्चिम एशियाई देश ओमान से भी तांबे का आयात किया जाता था।
- इस काल में दिन का आयात आधुनिक ईरान और अफगानिस्तान से किया जाता था।
- यहाँ सोने का आयात आधुनिक कर्नाटक और बहुमूल्य पत्थर का आयात गुजरात, ईरान और अफगानिस्तान से किया जाता था।.
हड़प्पा काल के गाँवों के संदर्भ में
- लोग नगरों के अलावा गाँवों में भी रहते थे। इनमें कृषक और चरवाहे प्रमुख थे। ये लोग ही खाने का सामान शासकों, लेखकों व दस्तकारों को देते थे।
- हड़प्पा के लोग गेहूं, जौ, दाले, मटर, धान, तिल और सरसों उगाते थे।
- हल का प्रयोग (जुलाई के लिये) एक नई बात थी। ये हल लकड़ी के बने होते थे। अतः तो नहीं बच पाए किंतु हल के आकार के मिट्टी के खिलौने यहाँ से मिले है।
- इस क्षेत्र में वर्षा कम होती है इस कारण सिंचाई के लिये पर्याप्त जल वर्षा से प्राप्त नहीं होता था। यहाँ सिंचाई के लिये लोगों ने पानी का संचय किया होगा और आवश्यकता पड़ने पर उससे फसलों की सिंचाई की होगी।
हड़प्पा संस्कृति की बस्ती | नदी जिस पर अवस्थित है |
हड़प्पा | रावी |
मोहनजोदड़ो | सिन्धु |
कालीबंगा | घग्गर |
लोथल | भोगवा |
- हड़प्पा स्थल सिन्धु की सहायक रावी नदी के तट पर तथा मोहनजोदड़ो सिन्धु नदी के तट पर स्थित है।
- वहीं कालीबंगा घग्गर नदी के तट पर तथा लोथल साबरमती की सहायक भोगवा नदी के तट पर स्थित है।
- हड़प्पा सभ्यता का धौलावीरा नगर गुजरात में कच्छ के इलाके में खदिर बेत के किनारे बसा था। यहाँ साफ पानी मिलता था और जमीन उपजाऊ थी।
- हड़प्पा सभ्यता का लोथल नगर गुजरात राज्य में स्थित है। यह नगर ऐसे स्थान पर बसा था, जहाँ कीमती पत्थर जैसा कच्चा माल आसानी से मिल जाता था।
- यह पत्थरों, शंखों और धातुओं से बनाई गई चीज़ों का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था।
• धौलावीरा भारतीय उपमहाद्वीप का चौथा विशालतम और भारत का सबसे विशाल हड़प्पाकालीन नगर है।
•जहाँ हड़प्पा सभ्यता के अन्य नगर दो भागों में विभक्त थे वहीं धौलावीरा नगर को तीन भागों में बाँटा गया था। इसके हर एक हिस्से के चारों और पत्थर की ऊँची-ऊँची दीवार बनाई गई थी। इसके अन्दर जाने के लिये बड़े-बड़े प्रवेश द्वार थे।
• यहाँ सार्वजनिक कार्यक्रमों के लिये एक खुला मैदान था। • यहाँ मिले कुछ अवशेषों में हड़प्पा लिपि के बड़े-बड़े अक्षरों को पत्थरों में ख़ुदा पाया गया है। इन अभिलेखों को सम्भवतः लकड़ी में जड़ा गया था। यह एक अनोखा अवशेष है, क्योंकि आमतौर पर हड़प्पा के लेख मुहर जैसी छोटी वस्तुओं पर पाए जाते हैं।
लोथल नगर के संदर्भ में
- लोथल साबरमती नदी की एक सहायक नदी (भोगवा नदी के तट पर अवस्थित है न कि माही नदी के किनारे।
- यहाँ एक बन्दरगाह था जहाँ समुद्र के रास्ते आने वाले जहाजों के रुकने के लिये तालाब बना था। इस तालाब से जहाजों पर माल चढ़ाया उतारा जाता था।
- यहाँ एक भंडारगृह भी था। इस भंडारगृह से कई मुहरें और मुद्रांकन मिले हैं।
- यहाँ पर एक इमारत मिली है जहाँ मनके बनाने का काम होता था। पत्थर के टुकड़े, अधबने मनके, मनके बनाने वाले उपकरण और तैयार मनके भी यहाँ मिले हैं।
हड़प्पाकालीन मुहर (मुद्रा) और मुहरबंदी के संदर्भ में
- हड़प्पाकालीन मुहर (मुद्रा) का प्रयोग सामान से भरे उन डिब्बों व थैलों को चिह्नित करने के लिये किया जाता था जो एक जगह से दूसरी जगह भेजे जाते थे।
- थैलों को बंद करने के बाद उनके मुहानों पर गीली मिट्टी पोतकर उन पर मुहर लगाई जाती थी। मुहर की छाप को ही मुहरबंदी अथवा मुद्रांकन कहते हैं। अगर छाप टूटी हुई नहीं होती थी तो यह साबित हो जाता था कि सामान के साथ छेड़-छाड़ नहीं हुई है।
▪︎ हड़प्पा के पतन के कारणों के विषय में विभिन्न विद्वानों ने मत दिये हैं। जिनमें नदियों का सूखना, ईंटे पकाने के लिये ईंधन की जरूरतों और मवेशियों के बड़े-बड़े झुण्डों की चारा जरूरतों के कारण जंगलों का विनाश और शासकों का नियंत्रण समाप्त होना, तीनों कारण सम्मिलित हैं। ये मत अलग-अलग विद्वानों द्वारा अलग-अलग तर्कों के साथ दिये गए हैं।
• जो भी हुआ हो परिवर्तन का असर स्पष्ट दिखाई देता है। आधुनिक पाकिस्तान के सिन्ध और पंजाब की बस्तियाँ उजड़ गई थीं। कई लोग पूर्व और दक्षिण के क्षेत्रों की नई बस्तियों में जाकर बस गए।
• इसके लगभग 1400 वर्ष के बाद (लगभग 2500 वर्ष पूर्व) नए नगरों। का विकास हुआ।
5. क्या बताती हैं हमें किताबें और कब्रें
▪︎ वेद संख्या में चार हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। इनमें सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद है, जिसकी रचना लगभग 3500 वर्ष पूर्व हुई।
• ऋग्वेद में एक हज़ार से अधिक प्रार्थनाएँ हैं जिन्हें सूक्त कहा गया है। सूक्त का मतलब है, ‘अच्छी तरह से बोला गया।’
• ये सूक्त विभिन्न देवी-देवताओं की स्तुति में रचे गए हैं। इनमें 3 देवता बहुत महत्त्वपूर्ण हैं- अग्नि, इन्द्र और सोम। अग्नि आग के देवता, इन्द्र युद्ध के देवता और सोम वनस्पतियों के अधिपति हैं।
ऋग्वेद के संदर्भ में
- वैदिक प्रार्थनाओं की रचना ऋषियों द्वारा की गई थी। आचार्य विद्यार्थियों को इन्हें अक्षरों, शब्दों और वाक्यों में बाँटकर, सस्वर पाठ कंठस्थ करवाते थे।
- अधिकांश सूक्तों के रचयिता, सीखने और सिखाने वाले पुरुष थे। कुछ प्रार्थनाओं की रचना महिलाओं ने भी की थी।
- ऋग्वेद की भाषा प्राकू संस्कृत या वैदिक संस्कृत कहलाती है। ये संस्कृत वर्तमान में स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली संस्कृत से थोड़ी भिन्न है।
- ऋग्वेद का उच्चारण और श्रवण किया जाता था न कि इन्हें पढ़ा जाता था। रचना के कई सदियों बाद इसे पहली बार लिखा गया। इसे छापने का काम तो लगभग 200 वर्ष पूर्व ही हुआ।
- ऋग्वेद में सरस्वती, सिन्धु और उसकी सहायक इदियों (व्यास, सतलज व अन्य) का वर्णन कई बार हुआ है परंतु गंगा और यमुना का उल्लेख सिर्फ एक बार हुआ है।
- ऋग्वेद में सर्वाधिक वर्णित नदी ‘सिंधु’ है तथा सर्वाधिक पवित्र नदी ‘सरस्वती’ है।
भाषा | भाषा परिवार |
संस्कृत | भारोपीय (भारत-यूरोपीय) भाषा परिवार |
पूर्वोत्तर क्षेत्रों की भाषा | तिब्बत- बर्मा भाषा परिवार |
मलयालम | द्रविड़ भाषा परिवार |
मध्य भारत की भाषा | ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार |
▪︎ संस्कृत भाषा भारोपीय भाषा परिवार का हिस्सा है। भारत की कई भाषाएँ, जैसे- असमिया, गुजराती, हिन्दी, कश्मीरी और सिंधी, एशियाई भाषाएँ, जैसे- फारसी तथा यूरोप की बहुत-सी भाषाएँ जैसे- अंग्रेजी, फारसी, जर्मन, यूनानी, इतालवी, स्पेनिश आदि इस परिवार से जुड़ी हुई हैं। इन्हें एक भाषा परिवार इसलिये कहा जाता है क्योंकि आरंभ में उनमें कई शब्द एक जैसे थे। उदाहरण के लिये ‘मातृ’ (संस्कृत), ‘माँ’ (हिन्दी) और मदर (अंग्रेजी)।
- भारतीय उपमहाद्वीप में दूसरे भाषा-परिवार की भाषाएँ भी बोली जाती हैं। पूर्वोत्तर प्रदेशों में तिब्बत बर्मा परिवार की भाषा बोली जाती है।
- तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम भाषाएँ द्रविड़ परिवार की भाषाएँ हैं।
- जबकि झारखंड और मध्य भारत के कई हिस्सों में बोली जाने वाली भाषाएँ ऑस्ट्रो-एशियाटिक परिवार से जुड़ी हैं।
ऋग्वैदिक युद्धों के संदर्भ में
- ऋग्वेद में मवेशियों, बच्चों (खासकर पुत्रों) और घोड़ों की प्राप्ति) के लिये अनेक प्रार्थनाएँ हैं। घोड़ों को लड़ाई में रथ खींचने के काम में लाया जाता था।
- इन लड़ाईयों में मवेशी जीतकर लाए जाते थे। लड़ाईयाँ वैसी जमीन के लिये भी लड़ी जाती थीं जहाँ अच्छे चारागाह हों या जहाँ पर ‘जौ’ जैसी जल्दी तैयार हो जाने वाली फसलों को उपजाया जा सकता हो।।
- कुछ लड़ाईयाँ पानी के स्रोतों और लोगों को बंदी बनाने के लिये भी लड़ी जाती थीं।
- युद्ध में जीते गए धन का कुछ भाग सरदार रख लेते थे तथा कुछ हिस्सा पुरोहितों को दिया जाता था। शेष धन आम लोगों में बाँटा जाता। था। कुछ धन यज्ञ के लिये भी प्रयुक्त होता था।
- यज्ञ की आग में घी, अनाज और कभी-कभी जानवरों की आहुति भी दी जाती थी।
- अधिकांश पुरुष इन युद्धों में भाग लेते थे। इस समय कोई स्थायी सेना नहीं होती थी, लेकिन लोग सभाओं में मिलते-जुलते थे और युद्ध व शांति के विषय में सलाह-मशविरा करते थे। वहाँ ये ऐसे लोगों को अपना सरदार चुनते थे जो बहादुर और कुशल योद्धा हों।
ऋग्वैदिक काल में काम के आधार पर वर्गीकृत दो समूहों पुरोहित व राजा के संदर्भ में
- पुरोहित को ही कभी-कभी ब्राह्मण कहा जाता था। ये यज्ञ और अनुष्ठान करते थे।
- ऋग्वैदिक काल के राजा न तो बड़ी राजधानियों और महलों में रहते थे न इनके पास सेना थी और न ही ये कर वसूलते थे। यही नहीं राजा की मृत्यु के बाद उसका बेटा अपने आप ही शासक नहीं बन जाता था, क्योंकि राजा एक प्रकार का सरदार था उसकी शक्तियाँ सीमित थीं। आभास होता है कि कबीले की आम सभा जो समिति कहलाती थी. अपने राजा को चुनती थी।
- ऋग्वैदिक काल में जनता या पूरे समुदाय के लिये दो शब्दों ‘जन और ‘विश्’ का प्रयोग होता था। ‘वैश्य’ शब्द ‘विश्’ से ही निकला है।
- ऋग्वेद में विश् और जनों के नाम मिलते हैं इसलिये हमें पुरु-जन या विशु भरत जन या विश, यदु-जन या विशु जैसे कई उल्लेख मिलते हैं।
- आर्य लोग अपने विरोधियों को ‘दास’ या ‘दस्यु’ कहते थे। दस्यु वे लोग थे जो यज्ञ नहीं करते थे और शायद दूसरी भाषाएँ बोलते थे।
- बाद के समय में दास (स्त्रीलिंग दासी) शब्द का मतलब ‘गुलाम’ हो गया। उन्हें उनके मालिक की सम्पत्ति माना जाता था। जो भी काम मालिक चाहते थे उन्हें यह सब करना पड़ता था।
▪︎ जिस युग में उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिम में ऋग्वेद की रचना हो रही थी उसी समय कुछ अन्य जगहों पर महापाषाणिक कब्रें बनाने की प्रथा का विकास हो रहा था। महापाषाणिक कब्रों की प्रथा के संदर्भ में
- कब बनाने के लिये बड़े-बड़े पत्थरों का प्रयोग ही महापाषाण (महा बड़ा, पाषाणः पत्थर) कहलायां । ये शिलाखंड दफन करने की जगह पर लोगों द्वारा बड़े अच्छे ढंग से लगाए गए थे।
- महापाषाण कब्रें बनाने की प्रथा लगभग 3000 वर्ष पूर्व शुरू हुई। यह प्रथा दक्कन, दक्षिण भारत, उत्तर-पूर्वी भारत और कश्मीर में प्रचलित थी।
- कुछ महापाषाण जमीन के ऊपर ही दिख जाते हैं। कुछ महापाषाण जमीन के भीतर भी होते हैं।
- इस तरह के महापाषाणिक कब्रों को ताबूत शवाधान (सिस्ट) कहा जाता है।
- कभी गोलाकार सजाए हुए पत्थर और कभी अकेला खड़ा हुआ पत्थर ही एकमात्र प्रमाण है जो जमीन के अंदर की कब्रों को दर्शाते हैं।
- इन कब्रों में सामान्यतः काले-लाल मिट्टी के बर्तनों को मृतकों | के साथ दफनाया जाता था। यह एक ऐसी समानता है जो लगभग सभी महापापाणिक कब्रों में मिलती है।
- इनके साथ ही विभिन्न कन्नों में लोहे के औजार और हथियार, घोड़े के कंकाल और सामान तथा पत्थर और सोने के गहने भी प्राप्त हुए हैं।
- ब्रह्मगिरि में एक व्यक्ति की कब्र में 33 सोने के मनके और शंख पाए गए जबकि दूसरे कंकालों के पास सिर्फ कुछ मिट्टी के बर्तन ही पाए गए जो उस व्यक्ति की सामाजिक स्थिति की भिन्नता को दर्शाता है। कुछ कब्रों में एक ही परिवार के लोगों को एक ही स्थान पर अलग-अलग समय दफनाया गया था। बाद में मरने वाले लोगों को परिवार के सदस्य की पहले से बनी कब्रों में लाकर दफनाया जाता था। कब्रों को पहचानने के लिये उस पर गोलाकार या खड़े पत्थर के चिह्न बनाए जाते थे। कब्र के अन्दर प्रवेश करने के लिये एक बड़ा रास्ता (बड़ा सुराख) होता था जिसे ‘पोर्ट-होल’ कहा जाता है न कि डेथ होल।
इनामगाँव भीमा की सहायक नदी ‘घोड़’ के किनारे एक जगह है। इस जगह पर 3600 से 2700 वर्ष पूर्व लोग रहते थे।
- यहाँ से प्राप्त कब्रों से अनेक जानकारी मिलती है। यहाँ वयस्क लोगों को प्रायः सीधा लेटाकर दफनाया जाता था तथा उनका सिर उत्तर की ओर होता था। कई बार उन्हें घर के अंदर ही दफनाया जाता था। ऐसे बर्तन जिसमें शायद खाना और पानी हों, दफनाए गए शव के पास रखे जाते थे।
आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व चरक नाम के प्रसिद्ध वैद्य हुए थे। उन्होंने चिकित्सा शास्त्र पर ‘चरक संहिता’ नाम की किताब लिखी।
- वे कहते हैं कि मनुष्य के शरीर में 360 हड्डियाँ होती हैं जो आधुनिक शरीर रचना विज्ञान की 206 हड्डियों से काफी ज्यादा हैं। संभवतः चरक ने अपनी गिनती में दांत, हड्डियों के जोड़ और कार्टिलेज को जोड़कर यह संख्या बताई थी।
6. राज्य, राजा और एक प्राचीन गणराज्य
ऋग्वेद सबसे पुराना है। ऋग्वेद के काल को ऋग्वैदिक काल के नाम से जानते हैं।
• सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण, उपनिषद तथा अन्य कई ग्रंथों के ऋग्वेद के बाद रचे होने के कारण इन्हें उत्तर वैदिक ग्रंथ कहा जाता है।
•ये ग्रंथ उत्तर भारत में, खासकर गंगा-यमुना क्षेत्र में रचे गए।
• पुरोहितों द्वारा रचित इन ग्रंथों में विभिन्न प्रकार के अनुष्ठान और उनके संपादन की विधियाँ बताई गई हैं। इनमें सामाजिक नियमों के बारे में भी बताया गया है।
वैदिक कालीन वर्ण विभाजन | वर्ण आधारित कार्य विभाजन |
ब्राह्मण | यज्ञ |
शूद्र | सेवा |
वैश्य | व्यापार |
क्षत्रिय | रक्षा |
- वैदिक काल में पुरोहितों ने लोगों को चार वर्गों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में विभाजित किया था जिसे वर्ण कहते हैं।
- प्रत्येक के अलग-अलग कार्य निर्धारित थे। प्रथम वर्ग ब्राह्मणों का था जो वेदों का अध्ययन-अध्यापन और यज्ञ करते थे। दूसरे थे क्षत्रिय जो शासक वर्ग था इनका कार्य युद्ध व लोगों की रक्षा करना था।
- तीसरे स्थान पर विश् या वैश्य थे जिसके अन्तर्गत कृषक, पशुपालक और व्यापारी आते थे।
- शूद्रों का स्थान अंतिम था। अन्य तीनों वर्णों की सेवा इनका कार्य था।
▪︎ उत्तर वैदिक काल में प्रायः औरतों को भी शूद्रों के समान माना गया था। सामान्यतः महिलाओं तथा शूद्रों को वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं था।
वैदिक काल के संदर्भ में
- वैदिक काल में क्षत्रिय और वैश्य दोनों को यज्ञ करने का अधिकार था।
- अछूत की अवधारणा वैदिक काल के बाद में आई। उत्तर वैदिक काल तक शूद्रों को अछूत नहीं माना जाता था। बाद के काल में शिल्पकार, शिकारी. भोजन संग्राहक तथा शवों को जलाने व दफनाने वाले लोगों को अछूत माना गया।
- वैदिक काल के अन्त तक (उत्तर वैदिक काल में) सभी वर्णों का निर्धारण जन्म के आधार पर ही होने लगा था। उदाहरण के तौर पर ब्राह्मण माता-पिता की संतान ब्राह्मण ही होती थी।
- कई लोगों ने ब्राह्मणों द्वारा बनाई हुई इस वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया। कुछ राजा स्वयं को पुरोहित से श्रेष्ठ मानते थे। कुछ लोग जन्म के आधार पर वर्ण-निर्धारण सही नहीं मानते थे।
- इसके अतिरिक्त कुछ लोग व्यवसाय के आधार पर लोगों के बीच भेदभाव उचित नहीं समझते थे जबकि कुछ लोग चाहते थे कि अनुष्ठान संपन्न करने का अधिकार सबका हो। कई लोगों ने छुआछूत की आलोचना की।
- वहीं इस उपमहाद्वीप के पूर्वोत्तर क्षेत्र जैसे कई इलाकों में सामाजिक-आर्थिक असमानता बहुत कम थी। यहाँ पुरोहितों का प्रभाव भी बहुत सीमित था।
महायज्ञों को करने वाले राजा आगे चलकर जन के राजा न होकर जनपदों के राजा माने जाने लगे।
- जनपद का शाब्दिक अर्थ ‘जन के बसने की जगह’ होता है।
- पुरातत्त्वविदों ने इन जनपदों की कई बस्तियों की खुदाई की है। दिल्ली। में पुराना किला, उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हस्तिनापुर और एटा के पास अतरंजीखेड़ा इनमें प्रमुख हैं।
- जनपदों के लोग चावल, गेहूँ, धान, जौ, दालों, गन्ना, तिल तथा सरसों जैसी फसलें उगाते थे।
- इन पुरास्थलों में कुछ विशेष प्रकार के बर्तन मिले हैं, जिन्हें ‘चित्रित धूसर पात्र’ के रूप में जाना जाता है।
- यहाँ से प्राप्त ये बर्तन कुछ धूसर और कुछ लाल रंग के होते थे।
- चित्रित धूसर पात्रों पर की गई चित्रकारी आमतौर पर सरल रेखाओं तथा ज्यामितीय आकृतियों के रूप में है।
महाजनपदों के संदर्भ में
- लगभग 2500 वर्ष पूर्व कुछ जनपद अधिक महत्त्वपूर्ण हो गए। इन्हें महाजनपद कहा जाने लगा।
- अधिकतर महाजनपदों की एक राजधानी होती थी। कई राजधानियोंमें किलेबंदी की गई थी। ये किलेबंदी आक्रमण से सुरक्षा करती थी। ये राजाओं की समृद्धि और वैभव को भी दर्शाती थी। अब राजा सेना रखने लगे थे। सिपाहियों को वेतन देकर पूरे साल रखा जाता था। कुछ भुगतान आहत सिक्कों के रूप में होता था न कि संपूर्ण भुगतान।
- महाजनपदों के राजाओं को विशाल किलों और बड़ी सेना के लिये प्रचुर संसाधनों और इनके लिये पर्याप्त कर्मचारियों की आवश्यकता होती थी। अतः राजा लोगों द्वारा समय-समय पर दिये जाने वाले उपहारों पर निर्भर न रहकर अब नियमित रूप से कर वसूलने लगे।
- फसलों पर लगाए गए कर महत्त्वपूर्ण थे, क्योंकि अधिकांश लोग कृषक ही थे। प्रायः उपज का 1/6वाँ हिस्सा कर के रूप में निर्धारित किया जाता था, जिसे ‘भाग’ कहा जाता था। अतः कथन । गलत है।
- कारीगरों के ऊपर भी कर लगाए गए थे जो प्रायः श्रम के रूप में चुकाए जाते थे। जैसे कि एक बुनकर, लोहार या सुनार को राजा के लिये महीने में एक दिन काम करना पड़ता था।
- पशुपालकों को जानवरों या उनके उत्पाद के रूप में कर देना पड़ता था।
- व्यापारियों को सामान खरीदने-बेचने पर भी कर देना पड़ता था।
- आखेटकों व संग्राहकों को जंगल से प्राप्त वस्तुएँ राजा को कर के रूप में देनी होती थी
- कौशाम्बी नगर आधुनिक उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में स्थित था।
- यहाँ से किले की दीवार के अवशेष मिले हैं। इसके एक भाग का निर्माण संभवत: 2500 वर्ष पूर्व हुआ था।
- कौशाम्बी प्राचीन काल में वत्स महाजनपद की राजधानी थी।
महाजनपदीय युग में कृषि क्षेत्र में दो बड़े परिवर्तन आए थे। इन परिवर्तनों के संदर्भ में
- हल के फाल अब लोहे के बनने लगे। इससे कठोर जमीन को लकड़ी के फाल की तुलना में आसानी से जोता जा सकता था। इससे फसल की उपज बढ़ गई।
- लोगों ने धान के बीज छिड़ककर उपजाने के बजाय धान के पौध रोपण की प्रक्रिया सीख ली थी। इससे पहले की तुलना में बहुत अधिक पौधे जीवित रहते व पैदावार ज्यादा होती थी।
- इसमें कमरतोड़ परिश्रम लगता था। ये काम अधिकतर दास, दासी तथा भूमिहीन खेतिहर मजदूर (कम्मकार) करते थे।
मगध के संदर्भ में
- लगभग 200 सालों के भीतर मगध सबसे महत्त्वपूर्ण जनपद बन गया। गंगा और सोन नदियाँ मगध से होकर बहती थीं। अतः ये नदियाँ यातायात, जल वितरण और जमीन को उपजाऊ बनाने के लिये महत्त्वपूर्ण थीं।
- मगध का एक हिस्सा जंगलों से भरा था। यहाँ से सेना के लिये हाथी, रथ, गाड़ियों और घरों के लिये लकड़ियाँ प्राप्त होती थीं।
- इन क्षेत्रों में लौह अयस्क की खदानें हैं जो मजबूत औजार और हथियार बनाने के लिये उपयोगी थे।
- बिम्बिसार, अजातशत्रु और महापद्मनंद मगध के महत्त्वपूर्ण राजा थे जबकि प्रसेनजित कोशल महाजनपद का राजा था।
- बिहार में राजगृह (आधुनिक राजगीर) कई सालों तक मगध की राजधानी बनी रही। बाद में पाटलिपुत्र (आज का पटना) को राजधानी बनाया गया, जबकि श्रावस्ती कोशल महाजनपद की राजधानी थी।
- मगध के निकट ही राज्य था, जिसकी राजधानी वैशाली (बिहार) थी। यहाँ अलग किस्म की शासन व्यवस्था थी जिसे गण या संघ कहते थे।
- मथुरा सूरसेन, कौशाम्बी – वत्स और चम्पा-अंग महाजनपद की राजधानी थी।
सिकंदर द्वारा अपने विश्व-विजय अभियान के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में मगध की ओर कूच करने के संदर्भ में
- 2300 वर्ष पूर्व मेसिडोनिया का राजा सिकंदर विश्व-विजय करना चाहता था। पूरी तरह सफल न होने पर भी यह मिस्र और पश्चिमी एशिया के कुछ राज्यों को जीतता हुआ भारतीय उपमहाद्वीप में व्यास नदी के किनारे तक पहुँच गया।
- जब उसने मगध की ओर कूच करना चाहा तो उसके सिपाहियों ने इंकार कर दिया। वे इस बात से भयभीत थे कि भारत के शासकों के पास पैदल, रथ और हाथियों की बहुत बड़ी सेना थी।
गण या संघ के संदर्भ में
- गण शब्द का प्रयोग कई सदस्यों वाले समूह के लिये किया जाता था। संघ शब्द का तात्पर्य संगठन या सभा से है।
- गण या संघ में एक से अधिक शासक होते थे। प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था। ये सभी मिलकर विभिन्न अनुष्ठानों को संपन्न करते थे।
- ये सभाओं में बैठकर बहस, बातचीत और वाद-विवाद के जरिये फैसले लेते थे।
- स्त्रियाँ, दास तथा कम्मकार इन सभाओं में हिस्सा नहीं ले सकते थे।
- बुद्ध और महावीर दोनों ही गण या संघ से संबंधित थे। बौद्ध साहित्य में संघ के जीवन का बहुत ही सजीव वर्णन मिलता है।
- कई शक्तिशाली राजा इन संघों को जीतना चाहते थे।
- इसके बावजूद उनका राज्य अब से लगभग 1500 वर्ष पूर्व तक चलता रहा। इसके बाद गुप्त शासकों ने गण और संघ पर विजय प्राप्त कर उन्हें राज्य में मिला लिया।
- दीप निकाय एक प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथ है, जिसमें बुद्ध के कई व्याख्यान दिये गए हैं। इन्हें लगभग 2300 वर्ष पूर्व लिखा गया था।
- अजातशत्रु वज्जि संघ पर आक्रमण करना चाहता था। उसने उस विषय पर सलाह के लिये अपने एक मंत्री को बुद्ध था। अजातशत्रु के उस मंत्री का नाम वस्सकार था?
एथेंस में प्रजातंत्र या गणतंत्र के संदर्भ में
- यह व्यवस्था लगभग 200 सालों तक चलती रही। वहाँ 30 से ऊपर के उन सभी पुरुषों को पूर्ण नागरिकता प्राप्त थी, जो दास नहीं था वहाँ एक सभा थी जो महत्त्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लेने के लिये साल भर में कम-से-कम 40 बार बुलायी जाती थी। इस सभा में सभी नागरिक भाग ले सकते थे।
- यहाँ पर औरतों को नागरिक का दर्जा नहीं मिलता था। व्यापारियों तथा शिल्कारों के रूप में एथेंस में रहने और काम करने वाले बहुत से विदेशियों को भी एवं यहाँ पर खाद्यानों खेतों, घरों और कार्यशालाओं में काम कर रहे दासों को भी नागरिक अधिकार नहीं मिले थे।
7. नए प्रश्न नए विचार
▪︎ बुद्ध का जन्म लगभग 2500 वर्ष पूर्व हुआ। ये शाक्य गण के क्षत्रिय राजकुमार थे।
▪︎बुद्ध को बोधगया (बिहार) में पीपल के वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ। वाराणसी के निकट सारनाथ में सर्वप्रथम बुद्ध द्वारा उपदेश दिया गया था। इसी घटना की स्मृति में यहाँ स्तूप का निर्माण हुआ। बुद्ध ने अपनी शिक्षा सामान्य लोगों को प्राकृत भाषा में दी ताकि लोग उसे आसानी से समझ सकें परंतु इनका लेखन कार्य सामान्यतः पालि भाषा में हुआ। बुद्ध की मृत्यु कुशीनारा नामक स्थान पर हुई।
▪संघ भिक्षु भिक्षुणियों का संगठन था जहाँ पर का त्याग करने वाले लोग एक साथ रह सकते थे।
• संघ में रहने वाले बौद्ध भिक्षुओं और भिक्षुणियों के लिये बनाए गए नियम ‘विनयपिटक’ नामक ग्रंथ में उल्लिखित हैं।
▪︎ विनयपिटक से पता चलता है कि संघ में सभी व्यक्ति प्रवेश ले सकते थे। पुरुषों और स्त्रियों के रहने के लिये अलग व्यवस्था थी।
▪︎संघ में प्रवेश के लिये बच्चों को अपने माता-पिता से, दासों को अपने स्वामियों से, राजकर्मियों को अपने राजा से और कर्जदारों को अपने देनदारों से अनुमति लेनी होती थी।
• विवाहित स्त्री को संघ में प्रवेश के लिये अपने पति से अनुमति लेना आवश्यक था, न कि माता-पिता से।
कुछ शैलकृत गुफाओं को बिहार कहते हैं। बिहार के संदर्भ में
- बिहार बौद्ध भिक्षुओं और भिक्षुणियों की शरणस्थली थी जो बाद में निवास स्थल में बदल गया।
- प्रायः किसी धनी व्यापारी, राजा अथवा भू-स्वामी द्वारा दान में दी गई भूमि पर विहार का निर्माण होता था।
- महाराष्ट्र में स्थित कार्ल की गुफा विहार का उदाहरण है।
बुद्ध की शिक्षाओं के संदर्भ में
- बुद्ध ने जीवन में दुःख का कारण तृष्णा (लालसा) को बताया।
- उन्होंने आत्मसंयम का मार्ग बताकर तृष्णा से मुक्ति का उपाय बताया।
जैन शब्द ‘जिन’ शब्द से निकला है जिसका अर्थ है ‘विजेता’।
• महावीर ने कहा था ‘सभी जीव जीना चाहते हैं सभी के लिये जीवन प्रिय है’। अतः दोनों कथन सही हैं।
• महावीर स्वामी का जन्म लगभग 2500 वर्ष पूर्व हुआ था। ये वज्जि संघ के लिच्छवि कुल के क्षत्रिय राजकुमार थे।
• महावीर ने 30 वर्ष की उम्र में घर छोड़ा और जंगल में रहने लगे। 12 वर्ष का कठिन और एकाकी जीवन व्यतीत करने के बाद उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ।
▪︎साधारण जन भी महावीर और उनके अनुयायियों की शिक्षाओं को समझ सके।
▪︎महावीर और उनके अनुयायियों ने अपनी शिक्षा प्राकृत भाषा में दी।
▪︎सामान्य बोल चाल की भाषा ही प्राकृत भाषा कहलाती थी। प्रचलन क्षेत्र के आधार पर ही उनके अलग-अलग नाम थे, जैसे- मगध में बोली जाने वाली प्राकृत भाषा ‘मागधी’ कहलाती थी।
• महावीर ने अपनी शिक्षा के लिये प्राकृत भाषा का चुनाव किया ताकि आम जन उन्हें समझ सकें
▪︎ जैन धर्म का समर्थन मुख्यतः व्यापारियों द्वारा किया गया।
▪︎ किसानों के लिये जैन धर्म के नियमों का पालन अत्यंत कठिन था, क्योंकि फसल की रक्षा के लिये उन्हें कीड़े-मकौड़ों को मारना पड़ता था।
▪︎बाद की सदियों में उत्तर भारत के साथ-साथ जैन धर्म का विस्तार गुजरात, तमिलनाडु और कर्नाटक में भी हुआ ।
▪︎ जैन धर्म को वर्तमान में उपलब्ध शिक्षाओं का लेखन 1500 वर्ष पूर्व गुजरात के वल्लभी नामक स्थान पर हुआ था।
जैन नाम से जाने गए महावीर के अनुयायियों के संदर्भ में
- उन्हें भोजन के लिये भिक्षा मांगकर सादा जीवन बिताना होता था।
- उन्हें पूरी तरह ईमानदारी से रहने तथा चोरी न करने की सख्त हिदायत थी।
- उन्हें ब्रह्मचर्य का पालन करना होता था। पुरुषों को वस्त्रों सहित सब कुछ त्याग देना पड़ता था ।
- इन्हीं कारणों से अधिकांश व्यक्तियों के लिये ऐसे कड़े नियमों का पालन कठिन था। फिर भी हजारों व्यक्तियों | ने नई जीवन शैली को जानने और सीखने के लिये अपने घरों को छोड़ दिया।
▪︎बुद्ध और जैन के युग में ही कुछ अन्य विद्वान भी खोज कर रहे थे उन्हीं प्रसिद्ध विद्वानों में से एक विद्वान पाणिनि ने एक महत्त्वपूर्ण रचना की। संस्कृत भाषा की यह रचना संबंधित है- व्याकरण से
▪︎ इन सूत्रों का प्रयोग कर उन्होंने संस्कृत भाषा के प्रयोगों के नियम लघु सूत्रों के रूप में लिखे तथा ‘अष्टाध्यायी’ नामक पुस्तक की रचना की जो कि व्याकरण से संबंधित है।
आश्रम व्यवस्था | उद्देश्य |
ब्रह्मचर्य | सादा जीवन बिताकर वेदों का अध्ययन करना |
गृहस्थ | विवाह कर गृहस्थ के रूप में रहन |
वानप्रस्थ | जंगल में रहकर साधना |
सन्यास | सब कुछ त्यागकर सन्यासी बन जाना |
- आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत चार आश्रमों की व्यवस्था की गई थी- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास।
- ब्रह्मचर्य के अंतर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य से यह अपेक्षा की जाती थी कि इस चरण के दौरान वे सादा जीवन बिताकर वेदों का अध्ययन करेंगे।
- गृहस्थ आश्रम के अंतर्गत उन्हें विवाह कर एक गृहस्थ के रूप में रहना होता था। वानप्रस्थ के अंतर्गत उन्हें जंगल में रहकर साधना करनी थी। अंततः उन्हें सब कुछ त्यागकर सन्यासी बन जाना था।
▪︎आश्रम व्यवस्था में प्रायः स्त्रियों को वेद पढ़ने क अनुमति नहीं थी।
▪︎उन्हें अपने पतियों द्वारा पालन किये जाने वाले आश्रम के नियमों का ही अनुसरण करना होता था
▪︎जिस समय बुद्ध उपदेश दे रहे थे उसी समय या उससे भी थोड़ा पहले दूसरे अन्य चिंतक भी कठिन प्रश्नों का उत्तर ढूँढने का प्रयास कर रहे थे। ये चिंतक उपनिषदों से संबंधित थे।
▪︎इन ग्रंथों में अध्यापकों और विद्यार्थियों के बीच बातचीत का संकलन किया गया है।
उपनिषद् उत्तर वैदिक ग्रंथों का हिस्सा है।
- इसका शाब्दिक अर्थ ‘गुरु के समीप बैठना है। इन ग्रंथों में अध्यापकों और विद्यार्थियों के बीच बातचीत का संकलन
- किया गया है। प्रायः ये विचार सामान्य वार्तालाप के रूप में प्रस्तुत किये गए हैं।
- इन चिंतकों में अधिकांश का यह मानना था कि इस विश्व में कुछ तो ऐसा है जो कि स्थायी है और मृत्यु के बाद भी बचा रहता है।
- उन्होंने इसका वर्णन आत्मा तथा ब्रह्म अथवा सार्वभौम आत्मा के रूप में किया है। वे मानते थे कि अंततः आत्मा तथा ब्रह्म एक ही हैं।
उपनिषदों में संकलित वार्तालापों/चर्चाओं के संदर्भ में
- इन चर्चाओं में भाग लेने वाले अधिकांश पुरुष ब्राह्मण तथा राजा होते थे।
- इनमें कभी-कभी गार्गी जैसी स्त्री-विचारकों का भी उल्लेख मिलता है।
- विद्वत्ता के लिये प्रसिद्ध गार्गी राज दरबारों में होने वाले वाद-विवाद में भाग लिया करती थीं।
- निर्धन व्यक्ति इस तरह के वाद-विवाद में बहुत कम ही हिस्सा लेते थे।
- इस तरह का एक प्रसिद्ध अपवाद सत्यकाम जाबाल का है। सत्यकाम जाबाल का नाम उसकी दासी माँ के नाम पर पड़ा था।
- सत्यकाम के मन में सत्य जानने की तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न हुई। गौतम नामक एक ब्राह्मण ने उन्हें अपने विद्यार्थी के रूप में स्वीकार किया। बाद में वे अपने समय के सर्वाधिक प्रसिद्ध विचारकों में से एक बन गए।
- उपनिषदों के कई विचारों का विकास बाद में प्रसिद्ध विचारक शंकराचार्य के द्वारा किया गया।
जरथुस्त्र एक ईरानी पैगम्बर थे। उनकी शिक्षाओं के संदर्भ में
- जरथुस्त्र ईरानी पैगम्बर थे। उनकी शिक्षाओं का संकलन ‘जेन्द-अवेस्ता’ नामक ग्रंथ में मिलता है। जेन्द-अवेस्ता की भाषा तथा इसमें वर्णित रीति-रिवाज, वेदों की भाषा और रीति-रिवाजों से काफी मिलते-जुलते हैं।
- जरथुस्त्र की मूल शिक्षा का सूत्र है: ‘सद्-विचार, सद्-वचन तथा सद् कार्य’ अर्थात् ‘हे ईश्वर! बल, सत्य-प्रधानता एवं सद्-विचार प्रदान कीजिये, जिनके जरिये हम शान्ति बना सकें।’
- एक हज़ार से अधिक वर्ष तक जरथुस्त्रवाद ईरान का एक प्रमुख धर्म रहा। बाद में कुछ जरथुस्त्रवादी ईरान से आकर गुजरात और महाराष्ट्र के तटीय नगरों में बस गए। वे लोग ही आज के पारसियों के पूर्वज हैं।।
- जातक कथाएँ वे कहानियाँ हैं जो आम लोगों में प्रचलित थीं। इनका संकलन बौद्ध भिक्षुओं द्वारा किया गया था।
8. अशोकः एक अनोखा सम्राट जिसने युद्ध का त्याग किया
▪︎ मौर्य साम्राज्य की स्थापना लगभग 2300 साल पहले हुई थी। इसका संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य था।
▪︎ कौटिल्य ने अर्थशास्त्र तथा पाणिनी ने अष्टाध्यायी की रचना की थी।
• मालविकाग्निमित्रम् और अभिज्ञानशाकुन्तलम् कालिदास की रचनाएँ हैं।
▪︎ मौर्य साम्राज्य के तीनों महत्त्वपूर्ण राजाओं का वंशानुक्रम निम्नलिखित हैं- चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार, अशोक।
▪︎ अशोक विन्दुसार का पुत्र था तथा बिन्दुसार चन्द्रगुप्त का
▪︎मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी।
▪︎ उज्जैन, तक्षशिला और पाटलिपुत्र मौर्य साम्राज्य के महत्त्वपूर्ण नगर थे। तक्षशिला उत्तर-पश्चिम और मध्य एशिया के लिये आने-जाने का मार्ग था। उज्जैन उत्तरी भारत से दक्षिणी भारत जाने वाले रास्ते में पड़ता था।
▪︎ अशोक के शिलालेख कंधार, लम्पक, मनसेहरा, शहबाजगढ़ी, कलसी, टोपरा, मेरठ, बहापुर (दिल्ली), लुम्बिनी, रामपुरवा, लौरिया. अरराज, गुज्जर, सारनाथ, कौशाम्बी, रूपनाथ, साँची, पनगुरिया, गिरनार, जीगड़ (कलिंग), सोपारा, सन्नाति मस्की, येरागुडि और ब्रह्मगिरि इन सभी स्थानों से प्राप्त हुए हैं।
▪︎ कर नियमित ढंग से इकट्ठे किये जाते थे वहीं नजराना अनियमित रूप से जब भी संभव हो, इकट्ठा किया जाता था।
▪︎ ऐसे नजराने विविध चीजों के रूप में प्रायः ऐसे लोगों से लिये जाते थे जो स्वेच्छा से इसे देते थे।
मौर्य प्रशासन के संदर्भ में
- कुछ हद तक छोटे क्षेत्रों या प्रांतों | पर पाटलिपुत्र से नियंत्रण रखा जाता था और वहाँ राजकुमारों को राज्यपाल के रूप में भेजा जाता था।
- पाटलिपुत्र और उसके आस-पास के इलाकों पर सम्राट का सीधा नियंत्रण था। यहाँ कर वसूली के लिये राजा द्वारा अधिकारी नियुक्त किये जाते थे।
- जो राजा के आदेशों का उल्लंघन करते थे, अधिकारी उन्हें सजा भी देते थे। इनमें कई अधिकारियों को वेतन भी दिया जाता था।
- अधिकारियों के क्रियाकलापों पर नजर रखने के लिये जासूस होते थे। अनेक संदेशवाहक संदेश पहुँचाने के लिये एक जगह से दूसरी जगह घूमते थे।
- मौर्य साम्राज्य में छोटे प्रांतों पर प्रांतीय राजधानियों द्वारा नियंत्रण रखा जाता था। उज्जैन और तक्षशिला | प्रांतीय राजधानियाँ थीं।
- कुछ हद तक पाटलिपुत्र (राजधानी) से इन क्षेत्रों में, राजकुमारों को राज्यपाल के रूप में भेजकर नियंत्रण रखा जाता था। परंतु इन जगहों पर स्थानीय परम्पराओं और नियमों को ही माना जाता था।
- मौर्य शासक आवागमन के मार्गों पर नियंत्रण रखने का प्रयास करते थे। यहाँ से उन्हें संसाधन, कर और नजराना/भेंट के रूप में प्राप्त होता था।
- अर्थशास्त्र में यह लिखा है कि उत्तर-पश्चिम कंबल के लिये और दक्षिण भारत सोने और कीमती पत्थरों के लिये प्रसिद्ध था। संभव है कि यहाँ से संसाधन नजराने के रूप में एकत्रित किये जाते थे
- मेगस्थनीज चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में यूनानी राजा सेल्यूकस निकेटर का राजदूत था।
- डिमेकस/डायमेकस बिन्दुसार के समय भारत आया था। फाह्यान चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के काल में भारत आया था। जबकि ह्वेनसांग हर्ष के काल से संबंधित है।
- मेगस्थनीज के वर्णन से पता चलता है कि सम्राट सोने की पालकी में जनता के सामने ले जाया जाता था तथा उसके जनता के सामने आने पर शोभा यात्रा के रूप में जश्न मनाया जाता था।
- अंगरक्षक अलंकृत हथियों पर सवार होते थे। कुछ अंगरक्षक पेड़ों को लेकर चलते थे। इन पर प्रशिक्षित तोतों का एक झुंड होता था जो सम्राट के सिर के चारों तरफ चक्कर लगाता रहता था।
- राजा को हमेशा डर रहता था कि कोई उसकी हत्या न करें। इसलिये राजा हथियारबन्द महिलाओं से घिरा रहता था। उसके खाना खाने से पहले खास नौकर उस खाने को चखते थे। वे लगातार दो रात एक ही कमरे में नहीं सोते थे।
- उज्जैन उत्तरी भारत से दक्षिणी भारत जाने के मार्ग में पड़ता था जबकि तक्षशिला उत्तर-पश्चिम और मध्य एशिया के लिये आने-जाने का मार्ग था।
- अर्थशास्त्र में चन्द्रगुप्त के नहीं बल्कि कौटिल्य के विचार हैं। अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य का ही अन्य नाम चाणक्य था। उसे विष्णुगुप्त के नाम से भी जाना जाता था।
अशोक के संबंध में
- अशोक ऐसा पहला शासक था जिसने अभिलेखों द्वारा जनता “तक अपना संदेश पहुँचाने की कोशिश की।
- अशोक के स्यादातर अभिलेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में है न कि खरोष्ठी लिपि में।
- कलिंग तटवर्ती उड़ीसा का प्राचीन नाम है। अशोक ने अपने एक अभिलेख में कलिंग युद्ध का वर्णन किया हैं। उसने कहा है कि ‘राजा बनने के आठ साल बाद मैंने कलिंग विजय की। लगभग डेढ़ लाख लोग बंदी बना लिये गए एक लाख से भी ज्यादा लोग मारे गए। इससे मुझे अपार दुःख हुआ।
धम्म’ के संदर्भ में
- कलिंग युद्ध में जन हानि से दुखी होकर अशोक ने ‘धम्म’ का पालन करने एवं दूसरों को इसकी शिक्षा देने का निश्चय किया।
- कलिंग अभिलेख में ‘धम्म’ के विषय में अशोक ने कहा है। | कि ‘मैं मानता हूँ कि धम्म के माध्यम से लोगों का दिल जीतना बलपूर्वक | विषय पाने से ज्यादा अच्छा है। मैं यह अभिलेख भविष्य के लिये एक संदेश के रूप में इसलिये उत्कीर्ण कर रहा हूँ ताकि मेरे बाद मेरे बेटे और पोते भी युद्ध न करें। इसके बदले उन्हें यह सोचना चाहिये कि धम्म को कैसे बढ़ाया जाए।’ ‘धम्म’ शब्द संस्कृत के ‘धर्म’ शब्द का प्राकृत रूप है।
- अशोक ने जगह-जगह जाकर लोगों को शिक्षा देने के लिये अधिकारियों की नियुक्ति की।
- अशोक द्वारा धम्म की शिक्षा देने के लिये नियुक्त किये गए अधिकारी ‘धम्म महामात’ कहलाते थे।
धम्म के प्रचार के लिये अशोक ने जिन साधनों का प्रयोग किया उनके संदर्भ में
- अशोक ने अपने संदेश कई स्थानों पर शिलाओं और स्तंभों पर खुदवाए
- उसने अधिकारियों को आदेश दिया कि वे राजा के संदेशों को उन लोगों को पढ़कर सुनाएँ जो खुद पढ़ नहीं सकते थे।
- अशोक ने धम्म के विचारों को प्रसारित करने के लिये सीरिया, मिस्र, ग्रीस तथा श्रीलंका में भी दूत भेजे।
▪︎ आधुनिक भारत को स्थादातर लिपियाँ जैसे- देवनागरी, तमिल, बाला, मलयालम सभी ब्राह्मी लिपि से ही उत्पन्न हुई हैं।
▪︎ विभिन्न अवसरों पर किये जाने वाले अनुष्ठान और कर्मकाण्ड किसी काम के नहीं हैं।
•उसने कर्मकाण्ड के स्थान पर दूसरी रीतियाँ बताई। ये रीतियाँ हैं- अपने दासों और नौकरों के साथ अच्छा व्यवहार करना, बड़ों का आदर करना, सभी जीवों पर दया करना और ब्राह्मणों तथा श्रमणों को दान देना।
• अशोक ने बच्चों के जन्म, यात्राएँ। शुरू करने, विवाह आदि अवसरों पर किये जाने वाले अनुष्ठान व कर्मकाण्ड के स्थान पर मानवता का संदेश अपनी प्रजा को दिया। जिसमें जीवों पर दवा ब्राह्मणों व श्रमणों को दान, दासों व नौकरों से अच्छा व्यवहार सभी सम्मिलित हैं।
9. खुशहाल गाँव और समृद्ध शहर
▪︎लगभग 2500 वर्ष पूर्व कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिये महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए, क्योंकि समृद्ध गांवों के बिना राजाओं तथा उनके राज्यों का रे रहना मुश्किल था।
▪︎ऋषि के विकास में लोहे के फूल का प्रयोग और धान की रोपाई कुछ नए तरीके थे जो बहुत कारगर साबित हुए। उसी तरह सिंचाई भी काफी उपयोगी साबित हुई। इस समय सिंचाई के लिये नहरे कुएँ, तालाब तथा कृत्रिम जलाशय बनाए गए।
ग्रामवासी | नाम |
बड़े भूस्वामी | बेल्लाल |
हलवा | उणवार |
भूमिहीन मजदूर / दास | कडैसियार/अदिमई |
प्रधान व्यक्ति | ग्राम भोजक |
- भारतीय उपमहाद्वीप के दक्षिणी तथा उत्तरी हिस्सों के अधिकांश गाँवों में (2300 वर्ष पूर्व) कम-से-कम तीन तरह के लोग रहते थे। जिसमें तमिल क्षेत्र में भूस्वामियों को ‘वेल्लाल’, साधारण हलवाहों को ‘उणवार’ भूमिहीन मजदूर और दास ‘कडैसियार’ और ‘अदिमई’ कहलाते थे। देश के उत्तरी हिस्से में, गाँव का प्रधान व्यक्ति भोजक कहलाता था।
▪︎ गाँव का प्रधान व्यक्ति ‘ग्राम-भोजक’ कहलाता था। यह पद अनुवांशिक था। ग्राम भोजक के पद पर आमतौर पर गाँव का सबसे बड़ा | भू-स्वामी होता था। प्रभावशाली होने के कारण प्रायः राजा भी कर वसूलने का काम इन्हें ही सौंप देते थे। ये न्यायाधीश का और कभी-कभी पुलिस का काम भी करते थे।
• ग्राम भोजकों के अलावा अन्य स्वतंत्र कृषक भी होते थे, जिन्हें ‘गृहपति’ कहते थे न कि भूपति। इनमें ज्यादातर छोटे किसान थे।
•इसके अतिरिक्त गाँवों में भूमिहीन व्यक्तियों में दारा और कर्मकार होते. थे। ये दूसरों की जमीन पर काम करके अपनी जीविका चलाते थे। अधिकांश गाँवों में लोहार, कुम्हार, बढ़ई तथा बुनकर जैसे कुछ शिल्पकार भी होते थे।
•तमिल की प्राचीनतम रचनाओं को ‘संगम साहित्य’ कहते हैं। इनकी रचना लगभग 2300 वर्ष पूर्व की गई थी। इन्हें संगम इसलिये कहा जाता है क्योंकि मदुरै के कवियों के सम्मेलनों में इनका संकलन किया जाता था।
भरूच बन्दरगाह से होने वाले आयात-निर्यात के संदर्भ में
- एक अज्ञात यूनानी नाविक द्वारा बेरिगाजा पत्तन का विवरण दिया गया है। बेरिगाजा भरूच का यूनानी नाम है।
- यहाँ आयातित वस्तुओं में हाथीदाँत शामिल नहीं है। हाथीदाँत भारत से निर्यात किया जाता था। अन्य सभी जानकारियाँ सही हैं।
- यहाँ आने वाले लोग राजा के लिये चांदी के बर्तन, गायक किशोर, सुंदर औरतें अच्छी शराब तथा उत्कृष्ट महीन कपड़े जैसे अनेक विशेष उपहार लाते थे।
विनिमय के साधनों के संदर्भ में
- सबसे पुराने सिक्के आहत सिक्के थे जो लगभग 500 वर्ष चलून में रहे। चांदी या सोने पर विभिन्न आकृतियों को आहत कर बनाए जाने के कारण इन्हें आहत सिक्का कहा जाता था।
- संगम साहित्य में वर्णित एक कविता से पता चलता है कि उस समय वस्तु विनिमय भी चलन में था।
- मथुरा 2500 साल से भी अधिक समय से एक महत्त्वपूर्ण नगर रहा है क्योंकि यह यातायात और व्यापार के दो मुख्य मार्गों पर स्थित था। इनमें से एक मार्ग उत्तर-पश्चिम से पूरब की ओर, दूसरा उत्तर से दक्षिण की ओर जाने वाला था।
- शहूर के चारों ओर किलेबंदी थी. इसमें अनेक मंदिर थे। आस-पास के किसान तथा पशुपालक शहर में रहने वालों के लिये भोजन जुटाते थे। मथुरा बेहतरीन मूर्तियाँ बनाने का केन्द्र भी था।
- लगभग 2000 वर्ष पूर्व मथुरा कुषाणों की दूसरी राजधानी बनी। | मथुरा एक धार्मिक केन्द्र भी रहा है। यहाँ बौद्ध विहार और जैन मंदिर हैं। यह कृष्ण भक्ति का महत्वपूर्ण केन्द्र था।
प्राचीन नगरीय शिल्प तथा कपड़ा उत्पादन के संदर्भ में
- नगरीय पुरास्थलों से बहुत पतले और सुन्दर वर्तन प्राप्त हुए हैं। जिन्हें उत्तरी काले चमकीले पात्र कहा जाता है। क्योंकि ये ज्यादातर उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में मिले हैं। ये प्रायः काले रंग के होते हैं और इनमें एक खास चमक होती है
- उत्तर में वाराणसी और दक्षिण में मदुरै कपड़ा उत्पादन के प्रसिद्ध केन्द्र थे जहाँ स्त्री व पुरुष दोनों काम करते थे।
प्राचीन नगरों में श्रेणियों के संदर्भ में
- प्राचीन नगरों में शिल्पकार और व्यापारी अपने-अपने संघ बनाने लगे थे, जिन्हें श्रेणी कहते थे। ये संयुक्त नहीं बल्कि अलग-अलग थीं।
- शिल्पकारों की श्रेणियों का काम प्रशिक्षण देना, कच्चा माल उपलब्ध कराना तथा तैयार माल का वितरण करना था जबकि व्यापारियों की श्रेणियाँ व्यापार संचालन करती थीं।
- श्रेणियाँ बैंकों के रूप में काम करती थीं, जहाँ लोग पैसे जमा रखते थे। इस धन का निवेश लाभ के लिये किया जाता था। उससे मिले लाभ का कुछ हिस्सा जमा करने वाले को लौटा दिया जाता था या फिर मठ आदि धार्मिक संस्थानों को दिया जाता था।
अरिकामेडु नामक प्राचीन पत्तन
- अरिकामेडु पुदुच्चेरी में अवस्थित है। लगभग 2200 से 1900 साल पहले अरिकामेड एक पत्तन था, यहाँ ईंटों से बना एक ढाँचा मिला है जो सम्भवतः गोदामू रहा हो।
- यहाँ भूमध्य सागरीय क्षेत्र के ‘एफोरा’ जैसे पात्र मिले हैं। इनमें शराब या तेल जैसे तरल पदार्थ रखे जा सकते थे। इनमें दोनों तरफ पकड़ने के लिये हत्था भी लगा था।
- ‘यहाँ ‘एरेटाइन’ जैसे मुहर लगे लाल चमकदार बर्तन भी मिले हैं। इन्हें इटली के एक शहर के नाम पर ‘एरेटाइन’ पात्र के नाम से जाना जाता है। इसे मुहर लगे साँच पर गीली चिकनी मिट्टी को दबाकर बनाया जाता था।
- कुछ ऐसे वर्तन भी मिले हैं, जिनका डिजाइन तो रोम का था. किन्तु वे यहीं बनाए जाते थे। यहाँ रोमन लॅप, शीशे के बर्तन तथा रत्न भी मिले हैं।
- साथ ही छोटे-छोटे कुण्ड भी मिले हैं, जो सम्भवतः कपड़े की रंगाई के पात्र रहे होंगे। यहाँ पर शीशे और अर्ध- बहुमूल्य पत्थरों से मनक बनाने के पर्याप्त साक्ष्य मिले हैं।
- प्रारंभ में तमिल भाषा के लिये ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया जाता था। कई बर्तनों पर ब्राह्मी लिपि में अभिलेख मिले हैं इसलिये इन्हें तमिल ब्राह्मी अभिलेख भी कहा जाता है।
- अरिकोमेद का रोमन नाम पोका था। अरिकामे रा मूलित और मुजरिम सभी प्राचीन काल के महत्वपूर्ण पतन थे।
- व्यापार के संदर्भ में दक्षिण भारत के पत्तन काली मिर्च तथा अन्य मसालों के नियति की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थे।
- मौयों के बाद अनेक विदेशी शासक हुए जिसमें हिन्द-यवन पहले तथा शक दूसरे थे।
- शकों के बाद हिन्द पार्थियन या पहलव और उसके बाद कुषाणों का शासन स्थापित हुआ।
10. व्यापारी, राजा और तीर्थयात्री
संगमकालीन व्यापार के संदर्भ में
- व्यापारी इन सामानों को रोम ले जाने के लिये समुद्री जहाजों और सड़कों दोनों मार्गों का प्रयोग करते थे।
- व्यापारियों ने कई समुद्री रास्ते खोज निकाले थे। ये व्यापारी मानसूनी हवा का फायदा उठाकर अपनी यात्रा जल्दी पूरी कर लेते थे। वे अफ्रीका या अरब के पूर्वी तट से इस उपमहाद्वीप के पश्चिमी तट पर पहुँचने के लिये दक्षिणी-पश्चिमी मानसून का सहारा लेना पसंद करते थे।
- व्यापार के प्रमाण हमें संगम कविताओं से भी मिलते हैं।
- संगम कविताओं में ‘मुवेन्दार’ की चर्चा मिलती है।
- मुवेन्दार का अर्थ तीन मुखिया है। इसका प्रयोग तीन शासक परिवारों के लिये किया गया है। ये थे चोल, चेरा जो करीब 2300 वर्ष पूर्व दक्षिण भारत में काफी शक्तिशाली माने जाते थे।
चोल, चेर तथा पांड्य शासकों के संदर्भ में
- चोल, चेर और पांड्य के अपने-अपने दो दो सत्ता केन्द्र थे। इनमें से एक तटीय हिस्से में और दूसरा अंदरूनी हिस्से में था। इन छः केन्द्रों में से दो बहुत महत्त्वपूर्ण थे। एक था चोलों का पत्तन पुहार या कावेरीपत्तनम् और दूसरी थी पांड्यों की राजधानी मदुरै।
- ये तीनों मुखिया (चोल, चेर, पांड्य) लोगों से नियमित कर के बजाय उपहारों की माग करते थे। कभी-कभी सैनिक अभियानों के दौरान आस-पास के इलाकों से शुल्क वसूल करते थे। इनमें कुछ धन अपने पास रखते थे, बाकी अपने समर्थकों, नाते-रिश्तेदारों सिपाहियों तथा कवियों के बीच बाँट देते थे।
▪︎ तीनों मुखियाओं (चोल, चेर, पांड्य) के शासन के लगभग 200 वर्ष बाद ( 2100 वर्ष पूर्व) पश्चिम भारत में सातवाहन नामक राजवंश का प्रभाव बढ़ गया। शातवाहनों का सबसे प्रमुख राजा गौतमी पुत्र श्री सातकणी था। उसके बारे में हमें उसकी माँ, गौतमी बलश्री के एक अभिलेख से पता चलता है। वह और अन्य सभी सातवाहन शासक ‘दक्षिणापथ के स्वामी’ कहे जाते थे। दक्षिणापथ का शाब्दिक अर्थ दक्षिण की ओर जाने वाला रास्ता होता है। पूरे क्षेत्र के लिये वही नाम प्रचलित था।
▪︎ रेशम बनाने की तकनीक का अविष्कार सबसे पहले चीन में लगभग 7000 वर्ष पूर्व हुआ। इस तकनीक को हजारों साल तक उन्होंने दुनिया से छिपाए रखा।
• चीन से पैदल, घोड़ों या ऊँटों पर कुछ लोग दूर-दूर की जगहों पर जाते थे और अपने साथ रेशम के कपड़े भी ले जाते थे। जिस रास्ते से ये लोग यात्रा करते थे वह रेशम मार्ग (सिल्क रूट) के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
▪︎ कभी-कभी चीन के शासक ईरान और पश्चिमी एशिया के शासकों को उपहार के तौर पर रेशमी कपड़े भेजते थे। यहाँ से रेशम के बारे में जानकारी और भी पश्चिम की ओर फैल गई। लगभग 2000 वर्ष पूर्व रोम के शासकों और धनी लोगों के बीच रेशमी कपड़े पहनने का एक फैशन बन गया। इसकी कीमत बहुत ज्यादा थी क्योंकि चीन से इसे लाने में दुर्गम रास्तों से गुजरना पड़ता था तथा रास्ते के आस-पास रहने वाले लोग व्यापारियों से यात्रा शुल्क भी मांगते थे।
▪︎ कुछ शासक रेशम मार्ग के बड़े-बड़े हिस्सों पर अपना नियंत्रण चाहते थे।
▪︎ रेशम मार्ग पर यात्रा कर रहे व्यापारियों से उस क्षेत्र के शासकों को कर, शुल्क तथा तोहफे प्राप्त होते थे।
▪︎ व्यापारियों से प्राप्त इन चीजों के बदले ये शासक इन व्यापारियों को अपने राज्य से गुजरते वक्त लुटेरों के आक्रमणों से सुरक्षा देते थे।
कुषाणों के संदर्भ में
- सिल्क रूट पर नियंत्रण रखने वाले शासकों में सबसे प्रसिद्ध कुषाण थे।
- पेशावर और मथुरा इनके दो मुख्य शक्तिशाली केन्द्र थे।
- इस उपमहाद्वीप में सबसे पहले सोने के सिक्के जारी करने वाले शासकों में कुषाण थे।
- लगभग 2000 वर्ष पूर्व मध्य एशिया तथा पश्चिमोत्तर भारत पर कुषाणों का शासन था। तक्षशिला भी इनके राज्य का हिस्सा था।
- इनके शासन काल में ही सिल्क रूट की एक शाखा मध्य एशिया से होकर सिन्धु नदी के मुहाने के पत्तनों तक जाती थी। फिर यहाँ से जहाजों द्वारा रेशम, पश्चिम की ओर रोमन साम्राज्य तक पहुँचता था।
- कुषाण इस उपमहाद्वीप में सबसे पहले सोने के सिक्के जारी करने वाले शासकों में थे। सिल्क रूट पर यात्रा करने वाले व्यापारी इनका उपयोग करते थे।
कनिष्क के संदर्भ में
- कुषाण ने एक बौद्ध परिषद् का गठन किया, जिसमें एकत्र होकर विद्वान महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार-विमर्श करते थे। बुद्ध की जीवनी बुद्धचरित्र के रचनाकार कवि अश्वघोष, कनिष्क के दूरबार में रहते थे। अश्वघोष तथा अन्य बौद्ध विद्वानों ने अब संस्कृत में लिखना शुरू कर दिया था।
- बुद्ध की जीवनी ‘बुद्धचरित’ के रचनाकार कवि अश्वघोष थे। ये कुषाणों के सबसे प्रसिद्ध शासक कनिष्क के दरबार में रहते थे। अश्वघोष तथा अन्य बौद्ध विद्वानों ने अब संस्कृत में लिखना शुरू कर दिया था।
- पार्श्व और वसुमित्र जैसे बौद्ध दार्शनिक तथा नागार्जुन जैसे विद्वान कनिष्क के दरबार में विद्यमान थे।
मौर्योत्तर काल में बौद्ध धर्म की नई धारा महायान का विकास हुआ। इस नई बौद्ध धारा में आए नए परिवर्तनों के संदर्भ में
- महायान धारा में प्रविष्ट मूर्ति निर्माण के | बदलाव के तहत अब बुद्ध की प्रतिमाएँ बनाई जाने लगीं। इनमें से अधिकांश मथुरा में तो कुछ तक्षशिला में बनाई गई।
- बोधिसत्व उन्हें कहते हैं जो ज्ञान प्राप्ति के बाद एकांतवास करते हुए ध्यान साधना कर सकते थे। इस आस्था में परिवर्तन हुआ अब ऐसा करने के बजाय महायानी लोगों को शिक्षा देने और मदद करने के लिये सांसारिक परिवेश में ही रहना ठीक समझने लगे।
- धीरे-धीरे बोधिसत्व की पूजा काफी लोकप्रिय हो गई और पूरे मध्य एशिया, चीन और बाद में कोरिया तथा जापान तक भी फैल गई।
बौद्ध धर्म के प्रसार के संदर्भ में
- बौद्ध धर्म का प्रसार दक्षिण पूर्व एशिया की ओर श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, इंडोनेशिया और इसके अन्य भागों में भी हुआ। इन क्षेत्रों में ‘थेरवाद’ नामक बौद्ध धर्म कहीं अधिक प्रचलित था जो कि बौद्ध धर्म का आरम्भिक रूप था।
▪︎ भारत की यात्रा पर फा-शिएन (फाह्यान) लगभग 1600 वर्ष पूर्व आश्वन सांगू (इवेनसांग) 1400 वर्ष पूर्व तथा इत्सिंग इसके 50 वर्ष बाद भारत आया। ये सब बुद्ध के जीवन से जुड़ी जगहों और प्रसिद्ध मठों को देखने के लिये भारत आए थे।
▪︎ विष्णु के वराह रूप की मूर्ति एरण, मध्य प्रदेश से प्राप्त हुई है। पुराणों के अनुसार जल में डूबी पृथ्वी को बचाने के लिये विष्णु ने वराह रूप धारण किया था। यहाँ पृथ्वी को एक स्त्री के रूप में दर्शाया। गया है।
भक्ति परम्परा के संदर्भ में
- देवी-देवताओं की पूजा का चलन मौर्योत्तर काल से शुरू हुआ।। इनमें शिव, विष्णु और दुर्गा जैसे देवी-देवता शामिल हैं। इन देवी-देवताओं | को पूजा भक्ति परम्परा के माध्यम से की जाती थी। किसी देवी-देवता ॐ प्रति श्रद्धा को ही भक्ति कहा जाता है।
- भक्ति मार्ग की चर्चा हिन्दुओं के पवित्र ग्रंथ भगवद्गीता में की गई है। भक्ति मार्ग अपनाने वाले लोग आडंबर के साथ पूजा-पाठ करने के बजाए ईश्वर के प्रति लगन और व्यक्तिगत पूजा पर जोर देते थे।
- भक्ति मार्ग अपनाने वालों का मानना था कि अगर आराध्य की सच्चे मन से पूजा की जाए तो वह उसी रूप में दर्शन देंगे, जिसमें भक्त उसे देखना चाहता है। अतः इस विचार की स्वीकृति बढ़ने के साथ कलाकार, देवी-देवताओं की एक से बढ़कर एक खूबसूरत मूर्तियाँ बनाने लगे। भक्ति मार्ग के बढ़ते प्रभाव के काल में ही दक्षिण भारत में लगभग 1400 साल पहले एक शिव भक्त अप्यार ने तमिल में शिवस्तुति की रचना की थी। ये शिवभक्त अप्यार एक बड़ा भूस्वामी (लाल) था।
लगभग 2000 वर्ष पूर्व पश्चिमी एशिया में ईसाई धर्म का उदय हुआ ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसा मसीह का जन्म बेथलेहम में हुआ जो रोमन साम्राज्य का हिस्सा था। उन्होंने स्वयं को इस संसार का उद्धारक बताया।
• ईसा मसीह के उपदेश धीरे-धीरे पश्चिमी एशिया, अफ्रीका तथा यूरोप में फैल गए। ईसा मसीह की मृत्यु के सौ सालों के अंदर ही भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी तट पर पहले ईसाई धर्म प्रचारक, पश्चिमी एशिया से आए।
• केरल के ईसाइयों को ‘सीरियाई ईसाई’ कहा जाता है क्योंकि संभवतः वे पश्चिम एशिया से आए थे, वे विश्व के सबसे पुराने ईसाइयों में से हैं।
दक्षिणापथ के स्वामी – | सातवाहन शासक |
मुवेन्दार – | चोल, चेर एवं पांड्य |
अश्वघोष – | बुद्धचरित |
बोधिसत्व – | महायान बौद्ध धर्म |
श्वेन त्यांग – | चोल, चेर एवं पांड्य |
11. नए साम्राज्य और राज्य
▪︎ हरिषेण समुद्रगुप्त का दरबारी कवि था।
▪︎ इलाहाबाद का अशोक स्तम्भ अभिलेख समुद्रगुप्त के शासन के बारे में जानकारी देता है। इस पर समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण ने संस्कृत भाषा में प्रशंसनात्मक वर्णन प्रस्तुत किया है। इसे लगभग 1200 वर्ष पूर्व लिखा गया था। इसे ही प्रयाग प्रशस्ति या समुद्रगुप्त की प्रशस्ति कहा गया है। प्रशस्ति का अर्थ प्रशंसा होता है। इसमें उसकी विजयों का वर्णन है। इसमें उसे ईश्वर के बराबर बताया गया है। इसमें समुद्रगुप्त की योद्धा और उत्कृष्ट कवि के रूप में भी प्रशंसा की गई है।
• समुद्रगुप्त एक संगीत प्रेमी राजा था वह वीणा भी बजाता था। उसके इस गुण को सिक्कों पर भी दिखाया गया है।
हरिषेण द्वारा वर्णित विभिन्न प्रकार के राजाओं और उनके प्रति समुद्रगुप्त की नीतियों के संदर्भ में
- समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त के सभी नौ शासकों को हराकर उनके राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लिया।
- समुद्रगुप्त के राज्य के पड़ोसी देश (आन्तरिक बेरा ) समुद्रगुप्त के लिये उपहार लाते थे और उसकी आज्ञाओं का पालन करते थे।
- बाहरी राज्यों ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की और अपनी पुत्रियों का विवाह उससे किया।
- दक्षिणापथ के 12 राजाओं ने हारने के बाद समुद्रगुप्त के सामने समर्पण किया था। समुद्रगुप्त ने उन्हें फिर से शासन करने की अनुमति दे दी।
- समुद्रगुप्त के राज्य के पड़ोसी देशों में असम, तटीय बंगाल, नेपाल और उत्तर-पश्चिम के कई गण या संघ आते थे। ये आंतरिक राज्यों के एक घेरे के रूप में समुद्रगुप्त के राज्य से लगे थे। ये समुद्रगुप्त के लिये उपहार लाते थे, उनकी आज्ञा मानते थे तथा उनके दरबार में उपस्थित हुआ करते थे।
- बाह्य इलाके सम्भवत: कुषाण तथा शक वंश के थे। इसमें श्रीलंका के शासक भी थे। इन्होंने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की और अपनी पुत्रियों का विवाह उससे किया।
- समुद्रगुप्त और उसके पिता चंद्रगुप्त प्रथम ने ही महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। समुद्रगुप्त के दादों और परदादा का उल्लेख महाराज के रूप में ही मिलता है।
- समुद्रगुप्त की माँ कुमार देवी थीं जो लिच्छवि गण की थीं।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय को ‘शक-विजेता’ कहा जाता है। उसने पश्चिमी भारत में सैन्य अभियान करके अंतिम शक शासक (रुद्र सिंह-III) को परास्त किया। इस विजय के उपलक्ष्य में मालवा क्षेत्र में व्याघ्र शैली के चाँदी के सिक्के चलाए। ये सिक्के उसी शकों पर विजय के सूचक हैं।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय का दरबार विद्वानों से भरा रहता था। कवि कालिदास और खगोलशास्त्री आर्यभट्ट उसी के दरबार में थे।
- बाणभट्ट हर्षवर्धन के दरबारी कवि थे। इन्होंने हर्षवर्धन की जीवनी ‘हर्षचरित’ ‘लिखी। जिससे हर्ष के शासन काल और वंशावली का पता चलता है। हर्ष ने लगभग 1400 वर्ष पूर्व शासन किया था।
- चीनी तीर्थ यात्री ह्वेनसांग (श्चैन (साग) हर्ष के काल में भारत आया वह काफी समय के लिये हर्ष के दरबार में भी रहा। उसने यहाँ जो कुछ देखा उसका विस्तृत विवरण दिया है।
- मगध और बंगाल को जीतकर हर्ष को पूर्व में जितनी सफलता मिली थी उतनी अन्य जगहों पर नहीं मिली। जब उसने नर्मदा नदी को | पारकर दक्कन की ओर बढ़ने का प्रयास किया तब चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय ने उसे रोक दिया।
- पल्लवों की राजधानी कांचीपुरम थी। पल्लवों का राज्य कांचीपुरम के आस-पास के क्षेत्रों से लेकर कावेरी नदी के डेल्टा तक फैला था।
- चालुक्यों की पहली राजधानी एहोल जो एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र था, धीरे-धीरे यह एक धार्मिक केंद्र भी बन गया वहाँ कई मंदिर थे। चालुक्यों का राज्य कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच स्थित था। यह क्षेत्र रायचूर दोआब कहलाता है। पुलकेशिन प्रथम के दौरान चालुक्यों की राजधानी बादामी स्थानांतरित की गई थी। बादामी को बातापी के रूप में भी जाना जाता है।
- रविकीर्ति, पुलकेशिन द्वितीय के दरबारी कवि थे। पुलकेशिन द्वितीय सबसे प्रसिद्ध चालुक्य राजा था। उसके बारे में रविकीर्ति द्वारा रचित | प्रशस्ति से पता चलता है। इसमें उसकी चार पीढ़ियों के बारे में बताया गया है।
▪︎ पल्लवों को चोल वंश ने परास्त कर उनके साम्राज्य को चोल साम्राज्य में मिला लिया।
• चालुक्य (बादामी के) को अन्ततः राष्ट्रकूटों ने परास्त किया
दक्षिण भारत में पूर्व मध्यकालीन प्रशासन के संदर्भ में
- दक्षिण भारत में पूर्व मध्यकालीन प्रशासन में कुछ महत्त्वपूर्ण पद अनुवाशिक बन गए तथा कभी-कभी एक ही व्यक्ति कई पदों पर कार्य करता था, जैसे- हरिषेण अपने पिता की तरह महादंडनायक बने। साथ ही उसे कुमारामात्य भी बनाया गया।
- प्रशासन की प्राथमिक इकाई गाँव होते थे न कि नगर ।
- कभी-कभी एक ही व्यक्ति कई महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य करता था। जैसे- हरिषेण ‘महादण्डनायक’ और ‘कुमारामात्य’ होने के साथ-साथ ‘संधिविग्रहिक’ भी थे।
नगर-श्रेष्ठी | मुख्य बैंकर |
सार्थवाह | व्यापारियों काफिले का नेता |
प्रथम-कुलिक | मुख्य बैंकर |
कायस्थ | मुख्य शिल्पकार |
- नगर-श्रेष्ठी, मुख्य बँकर या शहर का व्यापारी होता था।
- सार्थवाह व्यापारियों के काफिले का नेता होता था।
- प्रथम- कुलिक, मुख्य शिल्पकार तथा कायस्थ ‘लिपिकों के प्रधान’ होते थे।
- इन सभी का दक्षिण भारत में (पूर्व मध्यकाल में) स्थानीय प्रशासन में बहुत बोलबाला रहता था।
पूर्व मध्यकालीन सामन्तों के सन्दर्भ में
- इन्हें कोई नियमित वेतन नहीं दिया जाता था। जहाँ शासक दुर्बल होते थे ये स्वतंत्र होने का प्रयास करते थे।
- पूर्व मध्यकाल में सामन्तों को नियमित वेतन नहीं दिया जाता था। बदले में इनमें से कुछ को भूमिदान दिया जाता था।
- दी गई भूमि से ये कर वसूलते थे जिससे वे सेना तथा घोड़ों की देखभाल करते थे। साथ ही वे इससे युद्ध के हथियार जुटाते थे।
दक्षिण भारत के राज्यों की विभिन्न स्थानीय सभाओं के सन्दर्भ में
- पल्लव अभिलेखों में कई स्थानीय सभाओं की चर्चा मिलती है। इनमें से एक था ब्राह्मण भूस्वामियों का संगठन जिसे ‘सभा’ कहते थे। | ये सभाएँ उपसमितियों के जरिये सिंचाई खेतीबाड़ी से जुड़े विभिन्न काम, | सड़क निर्माण, स्थानीय मंदिरों की देखरेख आदि के काम करता थीं।
- जिन क्षेत्रों में भूस्वामी ब्राह्मण नहीं थे वहाँ ‘उर’ नामक ग्राम सभा के होने की बात कही गई है। नगरम् व्यापारियों के एक संगठन का नाम था। सम्भवतः इन सभाओं पर धनी तथा शक्तिशाली भूस्वामियों और व्यापारियों का नियंत्रण था। इनमें बहुत-सी स्थानीय सभाएँ शताब्दियों तक काम करती रहीं।
▪︎ कालिदास का सबसे प्रसिद्ध नाटक अभिज्ञानशाकुन्तलम् दुष्यंत नामक एक राजा और शकुन्तला नाम की एक युवती की एक प्रेम कहानी है।
▪︎ कालिदास अपने नाटकों में राज दरबार के जीवन चित्रण के लिये प्रसिद्ध है। इन नाटकों में एक रोचक बात यह है कि राजा और अधिकांश ब्राह्मणों को संस्कृत बोलते हुए दिखाया गया है, जबकि अन्य लोग तथा महिलाएँ प्राकृत बोलते हुए दिखाए गए हैं
▪︎ पैगम्बर मुहम्मद द्वारा इस्लाम | नामक नए धर्म की शुरुआत लगभग 1400 वर्ष पूर्व की गई थी, जो सौ सालों के दौरान उत्तरी अफ्रीका, स्पेन, ईरान और भारत में फैल गया।
• अरब व्यापारी तथा नाविकों ने भारत और यूरोप के बीच समुद्री व्यापार चढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अतः वे इस उपमहाद्वीप की तटीय बस्तियों से पहले से ही परिचित थे। इसी आवागमन के क्रम में वे अपने साथ इस नए धर्म को भी ले आए।
12. इमारतें, चित्र तथा किताबें
▪︎लगभग 1500 वर्ष पूर्व बने महरौली के लौह स्तंभ में आज तक जंग नहीं लगी है।
▪︎ महरौली का लौह स्तंभ दिल्ली में कुतुब मीनार के परिसर में खड़ा है। इसकी ऊँचाई 7.2 मीटर और वजन 3 टन से भी ज्यादा है। इस पर खुदे अभिलेख से इसके बनने के समय की जानकारी मिलती है। इसमें ‘चंद्र’ नामक एक शासक का जिक्र है जो सम्भवतः गुप्त वंश के थे।
स्तूपों के संदर्भ में
- स्तूप का शाब्दिक अर्थ ‘टीला’ होता है। स्तूप आकार में कभी गोल या लम्बे तो कभी बड़े या छोटे होते हैं। सभी स्तूपों में बुद्ध या उनके अनुयायियों के शरीर के अवशेष अथवा उनके द्वारा प्रयुक्त कोई। चोश एक डिब्बे में रखी जाती थी। इसे ‘धातु-मंजूषा’ कहते थे। स्तूप प्रायः इन्हीं धातु-मंजूषा के ऊपर रखा मिट्टी का टीला होता था। बाद में टीलों को ईंटों से ढक दिया गया। बाद के काल में उस गुम्बदनुमा ढाँचे को तराशे हुए पत्थरों से ढक दिया गया।
- वेदिका में प्रवेश द्वार बने होते थे। रेलिंग तथा तोरण प्रायः मूर्तिकला की सुंदर कलाकृतियों से सजे होते थे। उदाहरण- अमरावती से (लगभग 2000 वर्ष पूर्व के) प्राप्त स्तूप को सजाने के लिये शिलाओं पर चित्र उकेरे गए। स्तूप निर्माण में राजा के अलावा व्यापारी, कृषक, श्रमिक भी योगदान देते थे जैसे हाथी दाँत का काम करने वाले श्रमिकों के संघ ने साँची के एक अलंकृत प्रवेश द्वार (तोरण) को बनवाने का खर्च दिया था।
पूर्व मध्यकालीन आरंभिक हिन्दू मन्दिरों के सन्दर्भ में
- मंदिरों का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग गर्भगृह होता था, जहाँ मुख्य देवी-देवताओं (विष्णु, शिव, दुर्गा आदि) को रखा जाता था। इसी स्थान पर पुरोहित धार्मिक अनुष्ठान करते थे और भक्त पूजा करते थे। गर्भगृह को पवित्र स्थान दिखाने के लिये अकसर उसके ऊपर शिखर बनाए जाते थे। उदाहरण- भीतरगाँव के मन्दिर। अधिकतर मन्दिरों में मण्डप नाम की जगह होती थी। यह एक सभागार होता था, जहाँ लोग इकट्ठा होते थे।
- आरंभिक हिन्दू मन्दिरों में भीतरगाँव के मन्दिर (लगभग 1500 वर्ष पूर्व) महाबलीपुरम के एकाष्मक मन्दिर, एहोल का दुर्गा मन्दिर (लगभग) 1400 वर्ष पूर्व) आदि बहुत प्रसिद्ध हैं। एकाश्म मन्दिरों की विशेषता है कि इन्हें एक ही विशाल शिलाखण्ड को ऊपर से नीचे की ओर तराश कर बनाया जाता था।
पुराणों के संदर्भ में
- पुराणों का पाठ पुजारी मन्दिरों में किया करते थे।
- इनमें पूजा विधियों के साथ-साथ संसार की सृष्टि तथा राजाओं के बारे में भी कहानियाँ हैं।
- अधिकतर पुराण सरल संस्कृत श्लोक में लिखे गए हैं, जिससे सब उन्हें सुन और समझ सकें।
- स्त्रियों तथा शूद्र जिन्हें वेद पढ़ने की अनुमति नहीं थी. वे भी पुराणों को सुन सकते थे। पुराणों का शाब्दिक अर्थ ‘प्राचीन’ है। ये पूर्व मध्यकाल में लिखे गए।
▪︎ पुराणों की कुल संख्या 18 है परंतु मत्स्य पुराण में लिखा है। कि पहले पुराण एक ही था उसी से अन्य सभी पुराण निकले। ब्राह्मण पुराण के अनुसार वेदव्यास ने पुराण संहिता का संकलन किया। विष्णु पुराण से पता चलता है कि व्यास ने अपनी पुराण संहिता अपने शिष्य लोमहर्ष को दी। उग्रश्रवा लोमहर्ष के पुत्र थे। ये भी पुराणों के संकलन से जुड़े थे।
• मखक कश्मीर के एक संस्कृत महाकवि थे। ‘श्री कंठचदि महाकाव्य ‘ तथा ‘मंखकोश’ इनकी रचनाएँ हैं।
•पुराणों के संकलनकर्त्ताओं में से एक ‘व्यास’ द्वारा ही महाभारत का संकलन किया गया था। महाभारत का लेखन कार्य 1500 वर्ष पूर्व किया गया।
▪︎ गणितज्ञ तथा खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने संस्कृत में ‘आर्यभट्टीयम नामक पुस्तक लिखी। ये एक महान ज्योतिषविद् भी थे। उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा कि दिन और रात पृथ्वी के अपनी धुरी पर चक्कर | काटने की वजह से होता है। उन्होंने ग्रहण के बारे में भी वैज्ञानिक तर्क दिया। उन्होंने वृत्त की परिधि को मापने की भी विधि ढूंढ निकाली जो लगभग उतनी ही सही है जितनी आज प्रयुक्त होने वाली विधि।
शून्य के संदर्भ में
- भारत के गणितज्ञों ने शून्य के लिये एक नए चिह्न का आविष्कार किया।
- राम के निवासी शून्य का प्रयोग किये बगैर गिनती करते थे।
- गिनती की यह पद्धति अरबों द्वारा अपनाई गई और तब यूरोप में भी फैल गई। अन्य अंकों का प्रयोग पहले से होता था।
काव्य | रचनाकार |
शिलप्पादिकारम | इलांगो |
मणिमेखलाई | सीतलै सत्तनार |
मेघदूतम् | कालिदास |
रामायण | वाल्मीकि |
- शिलप्पादिकारम् एक प्रसिद्ध तमिल महाकाव्य है जिसकी रचना इलांगो द्वारा (लगभग 1800 वर्ष पूर्व) की गई थी। इसमें कोवलन नामक व्यापारी की कहानी है जो मुहार में रहता था।
- मणिमेखलाई नामक महाकाव्य तमिल के एक व्यापारी सीतलै सत्तनार द्वारा (लगभग 1400 वर्ष पूर्व) लिखा गया था। इसमें कोवलन तथा माधवी की बेटी की कहानी है।
- प्रसिद्ध गीतकाव्य मेघदूतम् कालिदास द्वारा रचित है। इसमें एक विरही प्रेमी बरसात के बादल को अपना संदेशवाहक बनाने की कल्पना करता है। कालिदास अपनी रचनाएँ संस्कृत में लिखते थे।
- प्रसिद्ध संस्कृत महाकाव्य ‘रामायण’ के रचनाकार वाल्मीकि हैं। इसमें कोशल के राजकुमार राम की कथा वर्णित है।
▪︎ कागज का अविष्कार लगभग 1900 वर्ष पूर्व चीन में लून नाम के व्यक्ति ने किया।
▪︎ लगभग 1400 वर्ष पूर्व यह तकनीक कोरिया तक पहुँची। इसके तुरंत बाद ही जापान तक फैल गई। लगभग 1800 वर्ष पूर्व यह बगदाद में पहुँची, फिर बगदाद से यह यूरोप, अफ्रीका और एशिया के अन्य भागों में फैली। इस उपमहाद्वीप में कागज की जानकारी बगदाद से ही आई।
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(Q) नारद स्मृति से किस वंश के विषय में जानकारी मिलती है?
ANS. – गुप्त वंश
(Q) शुंग काल का मानक ग्रंथ किसे कहा जाता है?
ANS. – मनुस्मृति
(Q)स्मृति ग्रंथों में सबसे प्राचीन एवं प्रामाणिक पुस्तक कौन सी मानी जाती है?
ANS.-मनुस्मृति
(Q)विष्णु पुराण किस वंश से सम्बंधित ग्रन्थ है?
ANS.- मौर्य वंश
(Q)मत्स्य पुराण किस वंश से सम्बंधित है?
ANS. – आंध्र सातवाहन वंश से
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