UPSC NCERT Class 12th Economy Notes Free

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कक्षा -XII : समष्टि अर्थशास्त्र : एक परिचय

1.परिचय
2.राष्ट्रीय आय का लेखांकन
3.मुद्रा और बैंकिंग
4.आय निर्धारण
5.सरकारी बजट एवं अर्थव्यवस्था
6.खुली अर्थव्यवस्था : समष्टि अर्थशास्त्र

Class 12th Economy Notes Chapter-1 परिचय

समष्टि अर्थशास्त्र में ‘आर्थिक एजेंट’ के संदर्भ में

  • आर्थिक इकाई अथवा आर्थिक एजेंट से तात्पर्य उन व्यक्तियों अथवा संस्थाओं से है जो आर्थिक निर्णय लेते हैं। वे उपभोक्ता हो सकते हैं जो यह निर्णय लेते हैं कि ‘क्या’ और ‘कितना’ उपभोग करना है। वे वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादक भी हो सकते हैं जो यह निर्णय लेते है कि ‘क्या’ उत्पादन करना है और ‘कितना’ करना है। वे सरकार, निगम, बैंक जैसी संस्थाएँ भी हो सकती हैं जो विभिन्न प्रकार के आर्थिक निर्णय लेते हैं जैसे कितना खर्च करना है, साख पर कितना ब्याज दर लेना है, कितना कर लगाना है।

▪︎ समष्टि अर्थशास्त्र का एक अलग शाखा के रूप में उद्भव ब्रिटिश अर्थशास्त्री ‘जॉन मेनार्ड कीन्स’ की प्रसिद्ध पुस्तक ‘द जनरल थ्योरी ऑफ एम्प्लॉयमेंट, इंटरेस्ट एंड मनी’ के 1936 ई. में प्रकाशित होने के बाद हुआ।

▪︎ वैश्विक आर्थिक महामंदी का दौर वर्ष 1929 में शुरू हुआ था। 1929 की महामंदी और उसके बाद के वर्षों में यह देखा गया कि यूरोप और उत्तरी अमेरिका के देशों में निर्गत और रोज़गार के स्तरों में भारी गिरावट आई।

▪︎ समष्टि अर्थशास्त्र का जनक ब्रिटिश अर्थशास्त्री ‘जॉन मेनार्ड न कीन्स’ को माना जाता है।

▪︎ वर्ष 1929 की महामंदी और उसके बाद के वर्षों में देखा गया। कि यूरोप और उत्तरी अमेरिका के देशों में निर्गत और रोजगार के स्तरों में भारी गिरावट आई। इसका प्रभाव दुनिया के अन्य देशों पर भी पड़ा। बाज़ार में वस्तुओं की मांग कम थी और कई कारखाने बेकार पड़े थे, श्रमिकों को काम से निकाल दिया गया था। संयुक्त राज्य अमेरिका में 1929 से 1933 तक बेरोज़गारी की दर 3 प्रतिशत से बढ़कर 25 प्रतिशत हो गई। उस अवधि के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका में समस्त निर्गत (Aggregate Output) में लगभग 33 प्रतिशत की गिरावट आई।

▪︎ बेरोज़गारी की दर की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है। कि लोगों की संख्या जो काम करने के लिये इच्छुक हैं किंतु काम नहीं करते हैं, में लोगों की कुल संख्या जो काम करने के इच्छुक हैं और काम करते हैं, से भाग देकर जो भागफल प्राप्त होता है। पूजीवादी अर्थव्यवस्था को बाजार अर्थव्यवस्था के नाम से भी जाना जाता है।

▪︎ पूंजीवादी देश में उत्पादन क्रियाकलाप मुख्य रूप से पूंजीवादी उद्यमियों के द्वारा किये जाते हैं। किसी विशिष्ट पूंजीवादी उद्यम में एक या अनेक उद्यमी होते हैं। वे उद्यम को चलाने के लिये स्वयं पूंजी की पूर्ति करते हैं या वे पूंजी उधार लेते हैं। उत्पादन के संचालन के लिये उन्हें प्राकृतिक संसाधनों की भी आवश्यकता पड़ती है। इनमें से कुछ संसाधनों का उपयोग उत्पादन प्रक्रिया में होता है (जैसे-कच्चा माल) तथा कुछ का स्थायी पूंजी के रूप में रहता है (जैसे-भूखंड)।

▪︎ पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में उद्यमी द्वारा उद्यम को चलाने के लिये प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग भूखंड और कच्चे माल के रूप में किया जाता है। उत्पादन के संचालन के लिये उन्हें मानव श्रम की आवश्यकता होती है। भूमि, श्रम, पूंजी की सहायता से निर्गत का उत्पादन करने के बाद उद्यमी उत्पाद को बाजार में बेच देता है इससे प्राप्त मुद्रा को संप्राप्ति कहते हैं। उद्यमी संप्राप्ति का प्रयोग मशीन खरीदने और नए कारखाने लगाने के लिये करते हैं ताकि उत्पादन का विस्तार हो। उत्पादन क्षमता में वृद्धि लाने के लिये जो व्यय किया जाता है, उसे ‘निवेश व्यय’ कहते हैं।

▪︎ समष्टि अर्थशास्त्र में अर्थव्यवस्था को परिवार, फर्म, सरकार और बाह्य क्षेत्रक इन चार क्षेत्रकों के रूप में देखा जाता है।

▪︎ विश्व के लगभग सभी देश बाह्य व्यापार करते हैं। बाह्य क्षेत्र से व्यापार तीन प्रकार से हो सकता है-

(i) आयात: कोई देश जब विश्व के अन्य देशों से वस्तुएँ खरीदता है. तो इसे आयात कहते हैं।

(ii) निर्यात: जब कोई देश अपनी घरेलू वस्तु विश्व के अन्य देशों में बेचता है, तो उसे निर्यात कहते हैं।

(iii) पूंजी प्रवाह : किसी देश की अर्थव्यवस्था में विदेशी पूंजी का भी प्रवाह हो सकता है अथवा कोई देश विदेशों में भी पूंजी का निर्यात कर सकता है।

▪︎ जिस देश में अधिकांश उत्पादन पूंजीवादी फर्मों द्वारा किया जाता है उसे पूंजीवादी देश कहते हैं। वे फर्में जिनमें बाज़ार के लिये उत्पादन, उत्पादन के कारकों का निजी स्वामित्व, पूंजी का निरंतर संचय, एक दी गई कीमत, जिसे मज़दूरी की दर कहते हैं, पर श्रम का क्रय और विक्रय किया जाता है उन्हें पूंजीवादी फर्मों की विशेषताओं के अंतर्गत शामिल किया जाता है।

▪︎ श्रमिकों की सेवाओं का क्रय-विक्रय एक निश्चित कीमत पर होता है, जिसे मज़दूरी की दर कहते हैं, जबकि श्रम का क्रय-विक्रय जिस दर पर किया जाता है, उसे श्रमिक की मजदूरी दर कहते हैं।

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के संदर्भ में

  • किसी एक वर्ष के अंत में उत्पादकों के पास जो टिकाऊ और गैर-टिकाऊ वस्तुओं का स्टॉक होता है उसे पूंजी स्टॉक कहते हैं। उत्पादन इकाइयों को फर्म कहा जाता है। उद्यमी द्वारा वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन कर बाजार में उनको बेचने तथा लाभ प्राप्त करने को निर्गत कहा जाता है।
  • समष्टि अर्थशास्त्र में अर्थव्यवस्था को चार क्षेत्रकों के संयोग के रूप में देखा जाता है। किसी अर्थव्यवस्था में फर्म और सरकार के अतिरिक्त दूसरा जो बड़ा क्षेत्र होता है उसे पारिवारिक क्षेत्रक कहते हैं। यहाँ परिवार से तात्पर्य एकल व्यक्तिगत उपभोक्ता जो अपने उपभोग से संबंधित निर्णय अथवा कई व्यक्तियों के समूह, जिसके उपभोग से संबंधित निर्णय संयुक्त रूप से लिये जाते से है।
  • किसी भी उद्यमी को उत्पादन के संचालन के लिये जिस तरह प्राकृतिक संसाधन की आवश्यकता पड़ती है उसी तरह उत्पादन के संचालन के लिये उद्यमी को मानव श्रम के महत्त्वपूर्ण अंश की आवश्यकता होती है, जिसे श्रम के रूप में सूचित किया जाता है।

Class 12th Economy Notes Chapter-2 राष्ट्रीय आय का लेखांकन

▪︎ आधुनिक अर्थशास्त्र को एक विषय के रूप में स्थापित करने वाले अर्थशास्त्रियों में अग्रणी एडम स्मिथ ने अपनी सबसे महत्त्वपूर्ण कृति को ‘एन इनक्वायरी इंटू द नेचर एंड कॉज़ेज़ ऑफ द वेल्थ ऑफ नेशंस’ का नाम दिया।

▪︎ अंतिम वस्तुओं को दो भागों में बाँटा जा सकता है- उपभोग वस्तुएँ और पूंजीगत वस्तुएँ। आहार और वस्त्र जैसी वस्तुएँ तथा मनोरंजन जैसी सेवाओं का उपभोग उसी समय होता है, जब अंतिम उपभोक्ताओं के द्वारा उनको क्रय किया जाता है। इन्हें उपभोग वस्तुएँ या उपभोक्ता वस्तुएँ कहते हैं (इसमें सेवाएँ भी सम्मिलित हैं, किंतु सुविधा की दृष्टि से हम उन्हें उपभोक्ता वस्तुएँ कहते हैं)

▪︎ पूंजीगत वस्तुओं की नियमित टूट-फूट का समायोजन करने के क्रम में सकल निवेश के मूल्य से किये गए लोप को ‘मूल्यह्रास’ कहते हैं।

▪︎ किसी व्यक्ति के पास वस्तुओं को खरीदने की क्षमता आय से होती है। आय की प्राप्ति कोई व्यक्ति श्रमिक (मज़दूरी) अथवा उद्यमी (लाभ) अथवा भूस्वामी (लगान) अथवा पूंजीवादी (ब्याज) के रूप में प्राप्त करता है। संक्षेप में, उत्पादन के कारकों के स्वामी के रूप में लोग जो आय प्राप्त करते हैं, उनका उपयोग वे वस्तु और सेवाओं की अपनी मांग की पूर्ति के लिये करते हैं।

▪︎ वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के दौरान चार प्रकार के मौलिक योगदान किये जा सकते हैं। वे इस प्रकार हैं-

(i) मानवीय श्रम का योगदान

(ii) पूंजी का योगदान

(iii) उद्यमवृत्ति का योगदान

(iv) स्थिर प्राकृतिक संसाधनों का योगदान

▪︎ किसी फर्म के निवल योगदान को जिस शब्द से सूचित किया जाता है, उसे मूल्यवर्धित कहते हैं।

UPSC NCERT Class 12th Economy Notes Hindi
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[सरल अर्थव्यवस्था में आय का वर्तुल प्रवाह]

वस्तुओं और सेवाओं के समस्त मूल्य को प्रदर्शित करते हुए मुद्रा का एक ही परिणाम वर्तुल पथ पर गमन करता है। यदि हम वस्तु और सेवाओं के समस्त मूल्यों का एक वर्ष के दौरान आकलन करना चाहें, तो आरेख में निर्देशित किसी बिंदु-रेखाओं पर अंकित प्रवाह का वार्षिक मूल्य की माप कर सकते हैं। हम सभी फर्मों द्वारा उत्पादित अंतिम वस्तुओं और सेवाओं के समस्त मूल्यों का मूल्यांकन करते हुए (A पर) प्रवाह का मापन कर सकते हैं। यह विधि व्यय विधि कहलाएगी। यदि हम (B पर) सभी फर्मों द्वारा उत्पादित वस्तुओं तथा सेवाओं के समस्त मूल्यों की माप करते हैं तो यह विधि उत्पाद विधि कहलाएगी। (C पर) सभी कारक अदायगियों के कुल योग का मापन आय विधि कहलाएगी।

▪︎ सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) में किसी घरेलू अर्थव्यवस्था के अंतर्गत एक वर्ष के दौरान अंतिम वस्तुओं और सेवाओं के समस्त उत्पादन की माप की जाती है। किंतु इसका संपूर्ण उत्पादन देश की जनता को प्राप्त नहीं हो सकता है।

उदाहरण के लिये, भारत के नागरिक सऊदी अरब में मज़दूरी अर्जित  करते हैं जो सऊदी अरब के सकल घरेलू उत्पाद में शामिल होगा। विधिक रूप से वह एक भारतीय है।

▪︎ यदि सकल राष्ट्रीय उत्पाद से मूल्यह्रास को घटाते हैं तो समस्त  आय की जो माप प्राप्त होती है उसे निवल राष्ट्रीय उत्पाद कहते हैं। इसे हम निम्नांकित सूत्र के अनुसार समझ सकते हैं-

(निवल राष्ट्रीय उत्पाद = सकल राष्ट्रीय उत्पाद –   मूल्यह्रास)

इसी प्रकार,

(सकल राष्ट्रीय उत्पाद = सकल घरेलू उत्पाद + विदेशों से प्राप्त निवल कारक आय )

 अतः सकल घरेलू उत्पाद में विदेशों से प्राप्त निवल कारक आय जोड़ने पर तथा घरेलू अर्थव्यवस्था में शेष विश्व के उत्पादन के कारकों द्वारा अर्जित आय को सकल राष्ट्रीय उत्पाद कहते हैं।

▪︎ कारक लागत पर प्राप्त निवल राष्ट्रीय उत्पाद को राष्ट्रीय आय कहते हैं।

▪︎ जिस वर्ष की कीमतों का प्रयोग वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद की गणना में किया जाता है उसे अर्थव्यवस्था में आधार वर्ष माना जाता है।

▪︎ जब किसी अर्थव्यवस्था में बिना किसी मौद्रिक लाभ के कोई व्यक्ति अपनी सेवाओं का निष्पादन करता है, तो उसे गैर-मौद्रिक विनिमय के अंतर्गत शामिल किया जाता है। उदाहरण के लिये, महिलाएँ जो अपने घरों में घरेलू सेवाओं का निष्पादन करती हैं और उसके लिये उन्हें कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता।

▪︎ मुद्रा की सहायता के बिना अनौपचारिक क्षेत्रक में जो विनिमय होता है, उसे वस्तु विनिमय कहते हैं। बाह्य कारणों से तात्पर्य किसी फर्म या व्यक्ति के लाभ (हानि) से है, जिससे दूसरा पक्ष प्रभावित होता है। जिसे भुगतान नहीं किया जाता है। बाह्य कारणों का कोई बाज़ार नहीं होता है, जिसमें उनको खरीदा या बेचा जा सके।  जबकि निजी आय = निजी क्षेत्र को उपगत होने वाले घरेलू उत्पाद से प्राप्त कारक आय + राष्ट्रीय ऋण ब्याज + विदेशों से प्राप्त निवल कारक आय + सरकार से चालू ऋण अंतरण + शेष विश्व से अन्य निवल अंतरण।

▪︎ अप्रत्यक्ष कर एक प्रकार का ऐसा कर है जिसका अंतिम भार किसी व्यक्ति पर प्रत्यक्ष रूप से नहीं पड़ता है। अतः अप्रत्यक्ष कर वस्तुओं और सेवाओं पर आरोपित किये जाते हैं।

▪︎ सकल घरेलू उत्पाद और सकल राष्ट्रीय उत्पाद में मुख्य अंतर विदेशों से प्राप्त शुद्ध साधन आय का है।

▪︎ एक वर्ष के भीतर घरेलू सीमा में उत्पादित अंतिम वस्तुओं तथा सेवाओं को सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) कहते हैं।

Class 12th Economy Notes Chapter-3 मुद्रा और बैंकिंग

मुद्रा’ के संदर्भ में

  • मुद्रा की सर्वप्रमुख भूमिका यह है कि वह ‘विनिमय के माध्यम’ के रूप में कार्य करती है। बड़ी अर्थव्यवस्था में वस्तु विनिमय अत्यंत कठिन है क्योंकि उच्च कीमतों के कारण व्यक्तियों को अपने आधिक्य के विनिमय के लिये योग्य व्यक्तियों की तलाश करनी होगी। मुद्रा सुविधाजनक लेखा की एक इकाई के रूप में भी कार्य करती है।
  • सोना , भू-संपत्ति , बंधपत्र ,मकान उपर्युक्त सभी परिसंपत्तियाँ मूल्य संचय का कार्य कर सकती। हैं। भविष्य में उपयोग के लिये मुद्रा के रूप में धन का संचय किया। जाता है। मुद्रा के इस कार्य को मूल्य का संचय कहा जाता है।
  • मुद्रा की मध्यस्थता के बिना वस्तुओं के विनिमय को वस्तु विनिमय कहते हैं।
  • मुद्रा सभी प्रकार की परिसंपत्तियों में सबसे तरल संपत्ति इस अर्थ में है कि यह सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य है और इसका किसी दूसरी वस्तु के रूप में आसानी से विनिमय किया जा सकता है।

▪︎ मुद्रा धारण करने का मुख्य प्रयोजन संव्यवहारों को जारी रखना है। दूसरे शब्दों में कहें तो मुद्रा की मांग वस्तुतः संव्यवहारों को पूरा करते. के लिये ही की जाती है। संव्यवहार प्रयोजन के अंतर्गत फर्मों तथा गृहस्थों द्वारा अपने दिन-प्रतिदिन के लेन-देन के लिये की गई मुद्रा की मांग को रखा जाता है। किसी अर्थव्यवस्था में इकाई अवधि में संव्यवहार के लिये मुद्रा की मांग संव्यवहार की कुल मात्रा का अंश मात्र होती है। अतः सामान्य अर्थों में मुद्रा की संव्यवहार मांग, M+ को निम्नलिखित रूप में लिखा जा सकता है-

          M= k.T.

जहाँ,

M= संव्यवहार के लिये मुद्रा की मांग

T = एक इकाई समयावधि में अर्थव्यवस्था में संव्यवहार का कुल मूल्य (मौद्रिक)

 k = धनात्मक अंश है।

▪︎ मुद्रा की एक इकाई का एक इकाई अवधि में जितनी बार हस्तांतरण होता है, उसे मुद्रा का संचलन वेग कहते हैं।

▪︎ प्रतीकात्मक रूप में बंधपत्र ऐसे कागज हैं जो एक समयावधि के उपरांत भविष्य में मौद्रिक प्रतिफल की धारा का वादा करते हैं। सरकार अथवा फर्म जनता से लिये गए उधार के लिये इन कागजों को जारी करते हैं और बाज़ार में इन्हें खरीदा बेचा जा सकता है।

▪︎ भारत में करेंसी नोट भारतीय रिजर्व बैंक जारी करता है जो कि भारत का मौद्रिक प्राधिकरण है।

▪︎ भारत में सिक्के जारी करने के लिये भारत सरकार स्वयं

उत्तरदायी है।

▪︎ करेंसी नोट और सिक्कों को कागजी मुद्रा माना जाता करेंसी नोट और सिक्कों के अतिरिक्त, व्यावसायिक बैंकों में लोगों द्वारा जमा किये गए बचत खाते और चालू खाते को भी मुद्रा कहा जाता है, क्योंकि इन खातों में आहरित चेकों का उपयोग संव्यवहार के लिये किया जाता है।

▪︎ ऐसी जमा को मांग जमा कहते हैं, जो खाताधारक की मांग पर बैंक द्वारा भुगतान योग्य होती है।

आदेश मुद्रा-वह मुद्रा जिसका कोई आंतरिक मूल्य नहीं होता है।
व्यापक मुद्रा-संकुचित मुद्रा + व्यावसायिक बैंकों और डाकघर बचत संगठन द्वारा रखी गई आवधिक जमा ।
वैध मुद्रा-मौद्रिक प्राधिकरण (जैसे-भारत में आरबीआई) अथवा सरकार
द्वारा जारी मुद्रा, जिसे लेने से कोई इंकार नहीं कर सकता ।

▪︎ भारतीय रिज़र्व बैंक के पास ‘बैंकों के बैंक’ और सरकार के बैंकर के रूप में कार्य करने का अधिकार तथा उत्तरदायित्व दोनों के लिये विधिक अधिकार/विधिक प्रावधान हैं।

▪︎ अर्थव्यवस्था के लिये सर्वाधिक उपयुक्त मौद्रिक नीति नियंत्रक का संचालन करने के लिये आरबीआई एक स्वतंत्र प्राधिकरण है। आरबीआई मौद्रिक नीति के संचालन के लिये जिन लिखतों (टूल्स) का उपयोग करती है वे इस प्रकार हैं-

(i) रेपो दर

(ii) रिवर्स रेपो दर

(iii) बैंक दर

(iv) नकदी आरक्षित निधि अनुपात (सी.आर.आर.)

(v) साविधिक चलनिधि अनुपात (एस.एल.आर.)

 (vi) खुली बाजार कार्रवाई (ओ.एम.ओ.)

(vii) बाजार स्थिरीकरण योजना (एम.एस.एस)

(viii) कॉरिडोर

(ix) सीमांत स्थायी सुविधा (एम.एस.एफ.) 

(x) चलनिधि समायोजन सुविधा (एल.ए.एफ.)

नोट: मौद्रिक नीति समिति (एम.पी.सी): भारत सरकार द्वारा गठित एक समिति है जिसका गठन ब्याज दर निर्धारण को उपयोगी एवं पारदर्शी बनाने के लिये 27 जून, 2016 को किया गया था। आरबीआई एक्ट प्रावधानों के अनुसार, मौद्रिक समिति के छह सदस्यों में से तीन सदस्य आरबीआई से होते हैं और तीन सदस्यों की नियुक्ति भारत सरकार करती । है। रिज़र्व बैंक के गवर्नर इस समिति के पदेन अध्यक्ष हैं, जबकि डिप्टी गवर्नर प्रभारी के तौर पर काम करते हैं।

▪︎ आरक्षित जमा अनुपात : लोग अपने बैंक खाते में जो मुद्रा जमा करते हैं, उसका एक अंश आरक्षित मुद्रा के रूप में रखकर शेष राशि को बैंक विविध निवेश परियोजनाओं को कर्ज के रूप में देती है। व्यावसायिक बैंक अपनी कुल जमा का जो अनुपात आरक्षित निधियों के रूप में रखते हैं, उसे आरक्षित निधि जमा अनुपात (RDR) कहा जाता है।

उच्च शक्तिशाली मुद्रा: भारतीय रिज़र्व बैंक की देश की मौद्रिक प्राधिकरण की संपूर्ण देयता को मौद्रिक आधार या उच्च शक्तिशाली मुद्रा कहते हैं। इसमें करेंसी (आम जनता के साथ संचरण में नोट और करेंसी तथा व्यावसायिक बैंक की कोष्ठ नकदी राशि) तथा व्यावसायिक बैंक और भारत सरकार द्वारा भारतीय रिज़र्व बैंक में रखी गई जमा आते हैं।

▪︎ भारतीय रिज़र्व बैंक व्यावसायिक बैंकों के पास लाभप्रद आरक्षित जमा अनुपात (RDR) को बनाए रखने के लिये विविध नीति-साधनों का उपयोग करता है। पहला साधन आरक्षित नकद अनुपात है जिसके अनुसार। व्यावसायिक बैंकों को भारतीय रिज़र्व बैंक के पास जमा अपनी राशि के एक अंश को रखना होता है। दूसरा साधन सांविधिक चलनिधि अनुपात है. बैंकों को निर्दिष्ट तरल परिसंपत्तियों के रूप में अपने कुल मांग और आवधिक जमा के दिये हुए अंश को बनाए रखना पड़ता है। इन अनुपातों के अतिरिक्त भारतीय रिज़र्व बैंक आरक्षित जमा अनुपात को नियंत्रित करने के लिये एक निश्चित ब्याज दर का प्रयोग करता है, जिसे बैंक दर कहते हैं।

▪︎ बैंक दर ब्याज की दर है जो व्यावसायिक बैंक भारतीय रिज़र्व बैंक को आरक्षित निधि की कमी की स्थिति में रिज़र्व बैंक से प्राप्त ऋण पर ब्याज अदा करता है।

▪︎ एक रुपये के नोट पर वित्त सचिव के हस्ताक्षर होते हैं।

▪︎ वह दर जिस पर आरबीआई बैंकों से उधार लेता है, उसे रिवर्स रेपो दर कहते हैं।

Class 12th Economy Notes Chapter-4 आय निर्धारण

▪︎ अतिरिक्त उपभोग और अतिरिक्त आय के अनुपात को सीमांत उपभोग प्रवृत्ति (मार्जिनल प्रोपेन्सिटि कंस्यूम) कहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो, जब आय में परिवर्तन के कारण उपभोग में भी परिवर्तन होता है तो इस अनुपात को सीमांत उपभोग प्रवृत्ति कहते हैं। इसमें बढ़ी हुई आय के लाभ को उपभोग पर खर्च किया जाता है। अतः सीमांत उपभोग प्रवृत्ति कुल अतिरिक्त आय का वह अंश है, जो कि लोग उपभोग में प्रयोग करते हैं। उपभोग में परिवर्तन (C) को आय में परिवर्तन (Y) से भाग करके सीमांत उपभोग प्रवृत्ति (MPC) को प्राप्त किया जा सकता है।

▪︎ निवेश को भौतिक पूंजी स्टॉक (जैसेकि मशीन, भवन, सड़क इत्यादि)

में वृद्धि और उत्पादक माल-सूची (तैयार माल का स्टॉक) में परिवर्तन के रूप में परिभाषित किया जाता है। योजनागत निवेश के मूल्य को प्रत्याशित निवेश कहते हैं। उत्पादकों का निवेश संबंधी निर्णय जैसेकि नए मशीन की खरीद, अधिकांशतः व्याज़ की बाज़ार दर पर निर्भर करता है। प्रत्याशित निवेश मांग को हम इस प्रकार लिख सकते हैं:

I = Ī

जहाँ, I धनात्मक स्थिरांक है। Ī दिये हुए वर्ष में अर्थव्यवस्था में स्वायत्त (दिया हुआ अथवा बहिर्जात) निवेश को प्रदर्शित करता है।

Class 12th Economy Notes Chapter-5 सरकारी बजट एवं अर्थव्यवस्था

▪︎ मिश्रित अर्थव्यवस्था में निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रक शामिल किये जाते हैं।

▪︎ सार्वजनिक वस्तुओं के अंतर्गत राष्ट्रीय प्रतिरक्षा, सड़क. लोक प्रशासन आदि को शामिल किया जाता है।

▪︎ कपड़े, कार, खाद्य पदार्थ को निजी वस्तुओं के अंतर्गत शामिल किया जाता है।

▪︎ सार्वजनिक वस्तुओं का लाभ किसी उपभोक्ता विशेष तक ही सीमित नहीं रहता है बल्कि इसका लाभ सबको मिलता है, किंतु किसी निजी वस्तु के मामले में ऐसा नहीं होता है। उदाहरण के लिये, यदि कोई व्यक्ति एक चॉकलेट का उपभोग करता है तो ये वस्तु किसी दूसरे व्यक्ति को उपलब्ध नहीं होती। निजी वस्तुओं के मामलों में जो कोई वस्तु के लिये भुगतान नहीं करता है, वह इसके लाभों से वंचित रहता है। यदि आप किसी थियेटर का टिकट नहीं खरीदें, तो आप उस फिल्म को देखने से वंचित रहते हैं। जबकि सार्वजनिक वस्तुओं के मामले में किसी वस्तु से किसी को वंचित नहीं किया जा सकता है (वे अवर्ज्य हैं)।

▪︎ सार्वजनिक प्रावधान का तात्पर्य है कि इनका वित्त प्रबंधन बजट के माध्यम से होता है तथा बिना किसी प्रत्यक्ष भुगतान के मुफ्त में उपलब्ध होता है। इन वस्तुओं का उत्पादन पूर्णतः सरकारी प्रबंधन के अंतर्गत हो सकता है अथवा निजी क्षेत्र के द्वारा ।

▪︎ सरकार की अनुमानित प्राप्तियों और व्ययों का विवरण संसद के समक्ष प्रस्तुत करना एक संवैधानिक प्रावधान है इसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद-112 में है।

▪︎ भारत का वित्तीय वर्ष 1 अप्रैल से 31 मार्च तक होता है।

राजस्व व्ययः राजस्व व्यय केंद्र सरकार का भौतिक या वित्तीय परिसंपत्तियों के सृजन के अतिरिक्त अन्य उद्देश्यों के लिये किया गया व्यय है। राजस्व व्यय का संबंध सरकारी विभागों के सामान्य कार्यों तथा विविध सेवाओं, सरकार की उपगत ऋण ब्याज अदायगी, राज्य सरकारों और अन्य दलों का प्रदत्त अनुदानों आदि पर किये गए व्यय से होता है। अतः युग्म 1 सुमेलित नहीं है।

पूंजीगत व्ययः पूंजीगत व्यय के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण, भवन निर्माण, मशीनरी, उपकरण, शेयरों में निवेश और केंद्र सरकार के द्वारा राज्य सरकारों एवं संघ शासित प्रदेशों, सार्वजनिक उपक्रमों तथा अन्य पक्षों को प्रदान किये गए ऋण और अग्रिम संबंधी व्ययों को शामिल किया जाता है।

पूंजीगत व्यय

  1. योजनागत व्यय
  2. गैर-योजनागत व्यय

पूंजीगत प्राप्तियाँ: सरकार की वे सभी प्राप्तियाँ जो दायित्वों का सृजन या वित्तीय परिसंपत्तियों को कम करती हैं पूंजीगत प्राप्तियाँ कहलाती हैं। इनकी मुख्य मदें सार्वजनिक कर्ज़ हैं, जिसे सरकार द्वारा जनता से लिया जाता है। इसे बाज़ार ऋण-ग्रहण कहते हैं।

▪︎ जब सरकार राजस्व प्राप्ति से अधिक व्यय करती है, तो इस स्थिति को बजटीय घाटा कहते हैं। इस घाटे की पूर्ति के कई उपाय किये जाते हैं, जिनका अर्थव्यवस्था पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है।

▪︎ राजस्व घाटा सरकार की राजस्व प्राप्तियों के ऊपर राजस्व व्यय के अधिशेष को बताता है।

राजस्व घाटा = राजस्व व्यय – राजस्व प्राप्तियाँ राजकोषीय

घाटा सरकार के कुल व्यय और ऋण-ग्रहण को छोड़कर कुल प्राप्तियों का अंतर है।

सकल राजकोषीय घाटा कुल व्यय – (राजस्व प्राप्तियाँ + गैर-ऋण से सृजित पूंजीगत प्राप्तियाँ)

 अथवा

सकल राजकोषीय घाटा निवल घरेलू ऋणग्रहण +भारतीय रिज़र्व बैंक से ऋण ग्रहण + विदेशों से ऋण ग्रहण

सकल राजकोषीय घाटा अर्थव्यवस्था के स्थायित्व और सार्वजनिक क्षेत्र की सुदृढ़ वित्तीय व्यवस्था के लिये एक निर्णायक चर है।

▪︎ जब व्यय और प्राप्तियाँ बराबर होती हैं, उन्हें संतुलित बजट कहा जाता है।

▪︎ बजटीय घाटे के लिये वित्त पोषण या तो करारोपण या ऋण अथवा नोट छापकर किया जाना चाहिये। सरकार प्रायः ऋण-ग्रहण पर आश्रित रहती है, जिसे सरकारी ऋण कहते हैं। घाटे और ऋण की संकल्पनाओं में निकट संबंध होता है। यदि सरकार का ऋण ग्रहण एक वर्ष के बाद दूसरे वर्ष भी जारी रहता है, तो इससे ऋण का संचय होता है और सरकार को ब्याज के रूप में अधिक-से-अधिक भुगतान करना पड़ता है।

 ▪︎ करों में वृद्धि अथवा व्यय में कटौती से सरकारी घाटे में कमी की जा सकती है। भारत में सरकार कर राजस्व में वृद्धि करने के लिये प्रत्यक्ष करों पर ज्यादा भरोसा करती है। सार्वजनिक उपक्रमों के शेयरों की बिक्री के माध्यम से प्राप्तियों में बढ़ोतरी करने का भी एक प्रयास किया गया है।

▪︎ राजकोषीय नीति तीन प्रमुख उद्देश्यों साम्य, संवृद्धि और स्थिरता को प्राप्त करने का प्रयास करती है।

▪︎ यह अधिनियम केंद्र सरकार को राजकोषीय घाटे में सकल घरेलू उत्पाद के 3 प्रतिशत तक और कमी करने के समुचित उपाय करने का आदेश देता है, जिससे 31 मार्च, 2009 तक के राजस्व घाटे को दूर किया जाए और उसके बाद पर्याप्त राजस्व आधिक्य का निर्माण हो।

▪︎ राजकोषीय घाटा सरकार के कुल व्यय और ऋण ग्रहण को छोड़कर कुल प्राप्तियों का अंतर है। राजकोषीय घाटे का वित्त पोषण ऋणग्रहण (भारतीय रिजर्व बैंक या अन्य देवताओं) के द्वारा किया जाता है।

Class 12th Economy Notes Chapter-6 खुली अर्थव्यवस्था: समष्टि अर्थशास्त्र

▪︎ खुली अर्थव्यवस्था एक ऐसी अर्थव्यवस्था है, जिसमें अन्य राष्ट्रों के साथ वस्तुओं और सेवाओं तथा बहुधा वित्तीय परिसंपत्तियों का भी व्यापार किया। जाता है। उदाहरण के लिये, भारतीय नागरिक विश्व के अन्य देशों में उत्पादित वस्तुओं का उपभोग करते हैं तथा हमारे उत्पादन का कुछ भाग विदेशों को निर्यात किया जाता है। अतः विदेशी व्यापार भारत की समस्त मांग को प्रभावित करता है।

▪︎ अदायगी-संतुलन (बैलेंस ऑफ पेमेंट) में किसी एक देश के निवासियों और शेष विश्व के बीच वस्तुओं, सेवाओं और परिसंपत्तियों का लेन-देन दर्ज होता है। अदायगी-संतुलन के दो मुख्य खाते होते हैं- 1. चालू खाता, 2. पूंजी खाता।

▪︎ जब निर्यात आयात से अधिक होता है तो ‘व्यापार आधिक्य’ होता है और जब आयात, निर्यात से अधिक होता है तो ‘व्यापार घाटा’ होता है।

▪︎ सेवाओं के व्यापार को अदृश्य व्यापार भी कहा जाता है।

▪︎ सेवाओं के व्यापार को अदृश्य व्यापार कहा जाता है क्योंकि उसे राष्ट्रीय सीमाओं को पार करते हुए नहीं देखा जा सकता है।

▪︎ गैर-उपदान आय, सेवा व्यापार का एक हिस्सा है। इसके अंतर्गत जहाजरानी, बैंकिंग, बीमा, पर्यटन, सॉफ्टवेयर सेवाएँ आदि आते हैं।

▪︎ वस्तुओं के आयात और निर्यात के संतुलन को व्यापार संतुलन कहते हैं। व्यापार संतुलन में सेवाओं का व्यापार और शुद्ध अंतरण का योग कर हम चालू खाता संतुलन प्राप्त करते हैं।

▪︎ जब अर्थव्यवस्था में व्यापार घाटा और बजटीय घाटा दोनों ही हों, तब उसे दोहरा घाटा कहा जाता है। घाटे से उच्च निजी उपभोग अथवा सरकारी उपभोग प्रतिबिंबित होता है। इन स्थितियों से देश के पूंजी स्टॉक में तेजी से वृद्धि नहीं होगी, जिससे पर्याप्त संवृद्धि हो सके और ऋण की अदायगी की जा सके। परंतु यदि व्यापार घाटे से निवेश में वृद्धि प्रतिबिंबित हो, तो चिंता का कोई कारण नहीं होता क्योंकि इससे पूंजी स्टॉक का अधिक तीव्र गति से निर्माण होगा और भविष्य में निर्गत में वृद्धि होगी

▪︎ विश्व की दूसरी अर्थव्यवस्थाओं के संपर्क में आने से प्रायः तीन प्रकार से हमारे चयन का विस्तार हुआ है-

उपभोक्ताओं और फर्मों को घरेलू एवं विदेशी वस्तुओं के बीच चयन का अवसर मिला है। यह उत्पाद बाजार में सहलग्नता है जो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से उत्पन्न होती है। 

▪︎ निवेशकों को भी घरेलू और विदेशी परिसंपत्तियों के बीच चयन का अवसर प्राप्त होता है। इससे वित्तीय बाज़ार सहलग्नता का निर्माण होता है। फर्मों को उत्पादन के स्थान का चयन करने तथा श्रमिकों को कहाँ काम करें, यह चयन करने की स्वतंत्रता होती है। इसे कारक सहलग्नता कहते हैं।

▪︎ मौद्रिक विनिमय दर में परिवर्तन से वास्तविक विनिमय दर में परिवर्तन होगा और इससे अंतर्राष्ट्रीय सापेक्ष कीमत में भी परिवर्तन होगा। रुपये का मूल्यह्रास होने से विदेशी वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाएंगी और घरेलू वस्तुएँ सस्ती हो जाएंगी। इससे निवल निर्यात बढ़ जाएगा, अतः समस्त मांग बढ़ जाएगी।

▪︎ मुद्रा के मूल्य में गिरावट से उस देश का आयात महंगा हो जाता है और उसका निर्यात सस्ता हो जाता है। किंतु प्रत्येक स्थिति में यह सिद्धांत लाभकारी नहीं होता है।

▪︎ कीमतों में परिवर्तन के प्रभावों से घरेलू उत्पादों की कीमतें मिलती हैं जबकि विदेशी कीमतें स्थिर रहती हैं. इस स्थिति में घरेलू निर्यात बढ़ेगा और समस्त मांग में वृद्धि होगी तथा इससे हमारे निर्गत और आय में भी वृद्धि होगी। इसी प्रकार विदेशी कीमत में वृद्धि से विदेशी उत्पाद अधिक महंगे होने और इससे निवाल निर्यात, घरेलू निर्गत और आय में पुनः वृद्धि होगी।

▪︎ ब्रेटन वुड्स सम्मेलन 1944 में हुआ था।

▪︎ ब्रेटन वुड्स प्रणाली के विखंडन के पहले अनेक घटनाएँ हुई. जैसे- 1967 में पौड का अवमूल्यन, 1968 में डॉलर से सोने की ओर पलायन से द्वि-स्तरीय स्वर्ण बाजार (अधिकृत दर 35 डॉलर प्रति आउंस सोना भी और निजी दर का निर्धारण बाजार द्वारा होता था) का सृजन और अंत में अगस्त 1971 में ब्रिटेन ने मांग की कि अमेरिका अपने डॉलर की धारित निधि के स्वर्ण मूल्य की गारंटी दे। इससे अमेरिका ने डॉलर और सोने के बीच के संबंध का परित्याग करने का निर्णय लिया।

▪︎ जनवरी 1999 में यूरोपीय मौद्रिक संघ का सृजन हुआ।

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