UPSC FREE NCERT Class 11th Economics Notes Hindi

UPSC NCERT Class 11th Economics Notes :

कक्षा -XI : भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास

इकाई-1: विकास नीतियाँ और अनुभव (1947-90)
1.स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था
2.भारतीय अर्थव्यवस्था (1950-90)
इकाई-1 आर्थिक सुधार 1991 से
3.उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण : एक समीक्षा
इकाई -III : भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान चुनौतियाँ
4.निर्धनता
5.भारत में मानव पूंजी का निर्माण
6.ग्रामीण विकास
7.रोजगार-संवृद्धि, अनौपचारीकरण एवं अन्य मुद्दे
8.आधारिक संरचना
9.पर्यावरण और धारणीय विकास
इकाई-1 -IV: भारत और इसके पड़ोसी देशों के तुलनात्मक विकास अनुभव
10.भारत और इसके पड़ोसी देशों के तुलनात्मक विकास अनुभव

Class 11th Economics Notes Chapter 1 : स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था

औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत भारत में आर्थिक विकास के संबंध में

  • औपनिवेशिक काल में देश की अर्थव्यवस्था में विभिन्न प्रकार की विनिर्माण संबंधी गतिविधियाँ हो रही थीं। सूती व रेशमी वस्त्रों, धातु आधारित तथा बहुमूल्य मणि-रत्न आदि से जुड़ी शिल्पकलाओं के केंद्र के रूप में भारत विश्व भर में विख्यात हो चुका था।
  • औपनिवेशिक शासकों की आर्थिक नीतियों ने भारत की अर्थव्यवस्था के मूल रूप को ही बदल डाला। अब भारत, इंग्लैंड को कच्चे माल की आपूर्ति करने वाला देश बन कर रह गया था।
  • औपनिवेशिक शासकों की आर्थिक नीतियाँ शासित देश और वहाँ के लोगों के आर्थिक विकास से नहीं बल्कि इंग्लैंड के आर्थिक हितों के संरक्षण और संवर्धन से प्रेरित थीं। उदाहरणस्वरूप, बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारत की राष्ट्रीय आय की वार्षिक संवृद्धि दर 2 प्रतिशत से कम थी जबकि प्रतिव्यक्ति उत्पादन वृद्धि दर मात्र आधा प्रतिशत ही थी। 
  • अंग्रेजी शासन की स्थापना से पूर्व भारत की अपनी स्वतंत्र अर्थव्यवस्था थी, परंतु औपनिवेशिक शासन द्वारा अपनाई गई नीतियों ने भारत की अर्थव्यवस्था के मूल रूप को बदल कर रख दिया।

ब्रिटिश शासन के अंतर्गत ‘कृषि की दशा के संदर्भ में

  • इस काल में भारत मूलतः कृषि आधारित अर्थव्यवस्था बना रहा कृषि अधीन क्षेत्र के प्रसार के कारण कुल कृषि उत्पादन में वृद्धि देखी गई। इस काल में देश के कुछ क्षेत्रों में कृषि के व्यवसायीकरण के कारण
  • नगदी फसलों की उच्च उत्पादकता के लाभ किसानों को नहीं मिल पाते थे परंतु व्यवसायीकरण हो रहा था। इस काल में कृषि उत्पादकता में कमी निरंतर आती रही। इसकी वजह भू-व्यवस्था प्रणालियों को माना जा सकता है, जो पूरे बंगाल प्रेसीडेंसी में लागू थी। यह एक जमींदारी व्यवस्था थी।

औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत कृषि के संदर्भ में

  • ब्रिटिश औपनिवेशिक शासनकाल के अंतर्गत कृषि क्षेत्र में वृद्धि के कारण कुल कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई। परंतु कृषि उत्पादकता में कमी आती रही। कृषि क्षेत्रक की गतिहीनता का मुख्य कारण औपनिवेशिक शासन द्वारा लागू की गई भू-राजस्व प्रणालियों को ही माना जा सकता है।
  • ब्रिटिश औपनिवेशिक शासनकाल के अंतर्गत भारत मूलतः एक कृषि अर्थव्यवस्था ही बना रहा। देश की 85 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में बसी थी और प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से आजीविका के लिये कृषि पर निर्भर थी।
  • ब्रिटिश शासकों ने भारत का वि-औद्योगीकरण किया, जिसमें उनका दोहरा उद्देश्य छिपा हुआ था। एक तो वे भारत को इंग्लैंड में विकसित हो रहे आधुनिक उद्योगों के लिये कच्चे माल का निर्यातक बनाना चाहते थे। दूसरे वे उन उद्योगों के उत्पादन के लिये भारत को ही एक विशाल बाजार भी बनाना चाहते थे।

ब्रिटिश शासन के अंतर्गत वि-औद्योगीकरण के पीछे औपनिवेशिक शासकों के उद्देश्यों के संदर्भ में

  • भारत के औद्योगिक क्षेत्र में यद्यपि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में कुछ आधुनिक उद्योगों की स्थापना हुई परंतु भारत में भावी औद्योगीकरण को प्रोत्साहित करने हेतु पूंजीगत उद्योगों का प्रायः अभाव ही बना रहा। पूंजीगत उद्योग वे होते हैं, जो तात्कालिक उपभोग में काम आने वाली वस्तुओं के उत्पादन के लिये मशीनों तथा कलपुर्जों का निर्माण करते हैं। भारत में हो रहे वि-औद्योगीकरण के पीछे विदेशी अथवा औपनिवेशिक शासकों का दोहरा उद्देश्य था। एक तो वे भारत को इंग्लैंड में विकसित हो रहे आधुनिक उद्योगों के लिये कच्चे माल का निर्यातक बनाना चाहते थे, दूसरे वे इंग्लैंड में विकसित हो रहे उन्हीं आधुनिक उद्योगों के उत्पादन के लिये भारत को ही एक विशाल बाज़ार भी बनाना चाहते थे। इस प्रकार उन उद्योगों के प्रसार के सहारे वे अपने देश के लिये अधिकतम लाभ सुनिश्चित करना चाहते थे।
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ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारत की जनांकिकीय परिस्थिति के संबंध में

  • ब्रिटिश शासन के अंतर्गत जनांकिकीय परिस्थिति में सकल मृत्युदर बहुत ऊँची थी साथ ही शिशु मृत्यु दर भी उच्च थी तथा जीवन प्रत्याशा का स्तर था।
  •  मृत्यु दर: एक विशिष्ट जनसंख्या या क्षेत्र के लिये एक हजार लोगों की संख्या की एक विशिष्ट अवधि (1 वर्ष) के दौरान होने वाली मृत्यु को ‘मृत्यु दर’ कहते हैं। 
  • शिशु मृत्यु दर : प्रति एक हजार जीवित जन्मे शिशुओं में से एक वर्ष या इससे कम उम्र में मर जाने वाले शिशुओं की संख्या को ‘शिशु मृत्यु दर’ कहते हैं।
  •  जीवन प्रत्याशा: एक दी गई उम्र के बाद जीवन के शेष बचे वर्षों की औसत संख्या को ‘जीवन प्रत्याशा’ कहते हैं।

औपनिवेशिक शासनकाल में विदेशी व्यापार के संदर्भ में

  • ब्रिटिश काल में भारतीय आयात- निर्यात में निर्यात का आकार आयात के आकार से बड़ा बना रहा अर्थात् निर्यात अधिशेष की स्थिति बनी रही. परंतु इस अधिशेष से भारतीय अर्थव्यवस्था को भारी हानि हुई। इससे देश में सोने और चांदी के प्रवाह पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा। असल में इसका प्रयोग तो अंग्रेज़ों की भारत पर शासन करने के लिये गढ़ी गई। व्यवस्था का खर्च उठाने में हो जाता था। औपनिवेशिक सरकार द्वारा अपनाई गई वस्तु उत्पादन, व्यापार और सीमा शुल्क की प्रतिबंधकारी नीतियों का भारत के विदेशी व्यापार की संरचना, स्वरूप और आकार पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। जिसके कारण भारत कच्चे उत्पाद जैसे रेशम कपास, ऊन, नील और पटसन आदि का निर्यातक होकर रह गया साथ ही यह सूती, रेशमी, ऊनी वस्त्रों जैसी अंतिम उपभोक्ता वस्तुओं और इंग्लैंड के कारखानों में बनी हल्की मशीनों आदि का आयातक भी बन गया।
औपनिवेशिक काल में विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रकों में कार्यशील श्रमिकों का अनुपात जनसंख्या के आधार पर निम्न प्रकार से था-
क्षेत्रसंलग्न जनसंख्या
कृषि70-75%
सेवा15-20%
विनिर्माण10%

▪︎ औपनिवेशिक शासनकाल में भारत की जनसंख्या का विस्तृत ब्यौरा सबसे पहले 1881 की जनगणना से एकत्र किया गया। वर्ष 1921 के पूर्व का भारत जनांकिकीय संक्रमण के प्रथम सोपान में था। द्वितीय सोपान का आरंभ 1921 के बाद से माना जाता है। इस समय तक भारत की जनसंख्या न तो बहुत विशाल थी न ही उसकी संवृद्धि दर बहुत अधिक थी। 

▪︎ इस काल में सकल मृत्यु दर बहुत ऊँची थी, विशेष रूप से शिशु मृत्यु दर तो चौंकाने वाली थी। पर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव, बार-बार आने वाली प्राकृतिक आपदाओं और अकाल ने जनसामान्य को बहुत ही निर्धन बना दिया और इसके कारण उच्च मृत्यु दर का सामना करना पड़ा।

▪︎ अंग्रेजों ने 1850 ई. में भारत में रेलों का आरंभ किया था। रेलों के माध्यम से भारत की अर्थव्यवस्था की संरचना में कुछ महत्त्वपूर्ण बदलाव दिखे। एक तो इससे लोगों के बीच भू-क्षेत्रीय और सांस्कृतिक व्यवधान कम हुए साथ ही कृषि के व्यवसायीकरण को बढ़ावा मिला। इस प्रकार जनसामान्य को मिले सांस्कृतिक लाभ तो व्यापक हुए परंतु देश की आर्थिक हानि कम नहीं हुई।

औपनिवेशिक शासनकाल में व्यावसायिक और आधारिक संरचना के संदर्भ में

  • औपनिवेशिक शासनकाल के अंतर्गत देश में रेलों, पत्तनों, जल परिवहन और डाक तार जैसी सेवाओं का विकास हुआ परंतु इसका उद्देश्य जन-सामान्य को अधिक सुविधाएँ देना नहीं बल्कि औपनिवेशिक हितों को साधना था। सड़कों तथा रेलों, आंतरिक व्यापार और समुद्री जलमार्गो का विकास सेनाओं के आवागमन एवं कच्चे माल को बंदरगाह तक पहुँचाने के लिये किया गया जबकि तार व्यवस्था का विकास कानून व्यवस्था को मजबूती प्रदान करने के लिये किया गया। 
  • रेलों की शुरुआत भले ही जनमानस को सुविधा देने के लिये नहीं की गई थी, परंतु फिर भी इसने भारत की अर्थव्यवस्था की संरचना को दो महत्त्वपूर्ण तरीकों से प्रभावित किया। एक तो इससे भारतीय कृषि के व्यवसायीकरण को बढ़ावा मिला; दूसरा इसने लोगों को भू-क्षेत्रीय एवं सांस्कृतिक व्यवधानों को कम कर आसानी से लंबी यात्राएँ करने के अवसर दिये। कृषि व्यवसायीकरण का भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था के स्वरूप पर विपरीत प्रभाव पड़ा। भारत का निर्यात तो बढ़ा, परंतु इसका लाभ भारतवासियों को नहीं मिला। अतः सांस्कृतिक लाभ देते हुए भी ये | देश की आर्थिक हानि की भरपाई में सक्षम नहीं थे। 
  • कृषि सबसे बड़ा व्यवसाय था, जो 70 से 75 प्रतिशत जनसंख्या को रोज़गार देता था जबकि विनिर्माण तथा सेवा क्षेत्रकों में क्रमशः 10 प्रतिशत और 15 से 20 प्रतिशत जन समुदाय को रोजगार मिल पा रहा

▪︎ प्राचीन समय से भारत एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक देश था परंतु औपनिवेशिक सरकार द्वारा अपनाई गई वस्तु उत्पादन, व्यापार और सीमाशुल्क की प्रतिबंधकारी नीतियों का भारत के विदेशी व्यापार की संरचना, स्वरूप और आकार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारत के सकल घरेलू उत्पाद में औद्योगिक | क्षेत्रक की संवृद्धि दर बहुत ही कम रही।

ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारतीय उद्योगों के संदर्भ में

  • ब्रिटिश शासनकाल में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत में आधुनिक उद्योगों की स्थापना होने लगी थी। भारतीय उद्योगों की स्थापना के बाद वृद्धि तीव्र गति से नहीं हुई। 
  • भारत में सर्वप्रथम सूती कपड़ा मिलें प्राय: भारतीय उद्यमियों द्वारा देश के पश्चिमी क्षेत्र (महाराष्ट्र और गुजरात) में लगाई गई थीं।
  • ब्रिटिश शासनकाल में भारत विभिन्न प्रकार के कच्चे उत्पाद, जैसे- रेशम, कपास, ऊन, चीनी, नील और पटसन आदि का निर्यात करता था। साथ ही भारत तैयार सूती, रेशमी, ऊनी वस्त्रों जैसी अंतिम उपभोक्ता वस्तुओं का आयातक भी हो गया था।

ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारत के विवेश व्यापार के संबंध में

  • ब्रिटिश शासकों ने व्यावहारिक रूप से भारत के आयात-निर्यात के व्यापार पर एकाधिकार जमाए रखा था।
  • भारत का सिर्फ आधे से अधिक व्यापार इंग्लैंड तक सीमित था। 
  • स्वेज नहर के व्यापारिक मार्ग खुलने से भारत के व्यापार पर अंग्रेजी नियंत्रण और भी सख्त हो गया था। 

नोट: स्वेज नहर उत्तर-पूर्वी मिस्र में उत्तर-दक्षिण की ओर प्रवाहित होने वाला कृत्रिम जलमार्ग है, जो पोर्ट सईद को स्वेज़ की खाड़ी से जोड़ता है। इसे 1869 ई. में खोला गया था तथा इसे भारत और इंग्लैंड के बीच एक राजमार्ग के रूप में प्रयोग किया गया था।

  • ब्रिटिश भारत की जनसंख्या के विस्तृत आँकड़े सर्वप्रथम 1881 ई. की जनगणना के तहत एकत्रित किये गए थे। 1921 ई. में हुई जनगणना के समय न ही भारत की जनसंख्या विशाल थी और न ही उसकी संवृद्धि दर बहुत अधिक थी।

स्वतंत्रता से पूर्व भारत की ‘राष्ट्रीय तथा प्रतिव्यक्ति आय के आकलनकर्त्ताओं में

  • औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत की राष्ट्रीय एवं प्रतिव्यक्ति आय का आकलन दादाभाई नौरोजी, फिडले शिराज, डॉ. वी.के.आर.वी. राव तथा आर. सी. देसाई द्वारा प्रमुख रूप से किया गया था, जिसमें डॉ. राव द्वारा लगाए गए अनुमान महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।
  • भारत में टाटा आयरन एवं स्टील कंपनी (टिस्को) की स्थापना 1907 ई. में जमशेदपुर में की गई थी, जो अब झारखंड राज्य में स्थित है।

वि – औद्योगीकरण के संदर्भ में

  • वि-औद्योगीकरण की नीति ब्रिटिश शासकों द्वारा अपनाई गई। नीति थी जिससे वे अपने दोहरे उद्देश्य पूरे करना चाहते थे। वि-औद्योगीकरण से देश की विश्व प्रसिद्ध शिल्पकलाओं का पतन हो गया और उनकी जगह कोई अन्य आधुनिक उद्योग नहीं ले पाया। ब्रिटिश शासक भारत को, इंग्लैंड में विकसित हो रहे आधुनिक उद्योगों के लिये कच्चे माल का निर्यातक तथा उन उद्योगों के उत्पादन के लिये भारत को एक विशाल बाज़ार बनाना चाहते थे। अतः उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत कच्चे माल का निर्यातक तथा तैयार माल का आयातक बनकर उभरा था।
  • नोट: वि-औद्योगीकरण किसी देश या क्षेत्र में औद्योगिक क्रियाकलापों का कम होना तथा उससे संबंधित सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन है। यह औद्योगीकरण की उल्टी प्रक्रिया है। वि-औद्योगीकरण में विशेष रूप से भारी उद्योगों या निर्माण उद्योगों में कमी आती है। इसमें उत्पादन गिरता है, आर्थिक संकट उत्पन्न होता है और एक नई अर्थव्यवस्था को जन्म देता है।

ब्रिटिशकालीन पूंजीगत उद्योगों के संदर्भ में

  • भारत में भावी औद्योगीकरण को प्रोत्साहित करने हेतु पूंजीगत उद्योगों का प्रायः अभाव रहा। अतः यह तात्कालिक उपभोग में काम करने वाली वस्तुओं के उत्पादन के लिये मशीनों व कलपुर्जो के निर्माणकर्त्ता बन कर रह गए थे। अतः कथन । सत्य है। इस क्षेत्र की एक महत्त्वपूर्ण कमी यह रही कि यह रेल, विद्युत उत्पादन, संचार, बंदरगाहों और विभागीय उपक्रमों तक सीमित रहा। 
  • पूंजीगत उद्योग की संवृद्धि दर बहुत ही कम रही तथा सकल घरेलू उत्पाद तथा सार्वजनिक क्षेत्र में इनका योगदान नगण्य रहा।
व्यक्तिसंबंधित पुस्तकें
राजेंद्र प्रसादइंडिया डिवाइडेड
रमेश चंद्रइकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया
बी. एच. बाडेन पॉवेलद लैंड सिस्टम ऑफ ब्रिटिश इंडिया
अमर्त्य सेनगरीबी और अकाल
  • औपनिवेशिक शासन के दौरान आधारिक संरचना में शामिल प्रमुख क्षेत्रों- रेलों, पत्तनों, जल परिवहन व डाक-तार आदि का विकास हुआ, जिससे सेनाओं के आवागमन में सुविधा हुई तथा कच्चा माल रेलवे व पत्तनों तक आसानी से पहुँचाया जा सका।

Class 11th Economics Notes Chapter 2 : भारतीय अर्थव्यवस्था (1950-90)

  • स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने एक आर्थिक पद्धति की | कल्पना की, जिसमें समाजवाद और पूँजीवाद की विशेषताएँ सम्मिलित थीं। इसकी परिणति मिश्रित अर्थव्यवस्था मॉडल के रूप में हुई।
  • मिश्रित अर्थव्यवस्था में निजी एवं सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों की सहभागिता होती है अर्थात् सरकार व बाज़ार मिलकर निर्धारित करते हैं। कि क्या उत्पादन किया जाए, किस प्रकार उत्पादन हो तथा किस प्रकार वितरण किया जाए। मिश्रित अर्थव्यवस्था में बाज़ार उन्हीं वस्तुओं और सेवाओं को सुलभ कराता है, जिसका वह अच्छा उत्पादन कर सकता है तथा सरकार उन आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं को सुलभ कराती है। जिन्हें बाजार सुलभ कराने में विफल रहता है।
  • समाजवाद में वस्तुओं और सेवाओं का वितरण लोगों की आवश्यकता के आधार पर होता है न कि उनकी क्रय क्षमता के आधार पर। इसके विपरीत इसमें निजी संपत्ति का कोई स्थान नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक वस्तु राज्य की संपत्ति होती है। समाजवादी अर्थव्यवस्था में सरकार निर्णय करती है कि समाज की आवश्यकताओं के अनुसार भिन्न वस्तुओं का उत्पादन हो। समाजवादी व्यवस्था में यह माना जाता है कि सरकार यह जानती है कि देश के लोगों के हित में क्या है, इसलिये लोगों की वैयक्तिक इच्छाओं को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है। सरकार ही यह निर्णय करती है कि वस्तुओं का उत्पादन तथा वितरण किस प्रकार किया जाए।समाजवादी अर्थव्यवस्था में अधिकतर आर्थिक गतिविधियाँ सामाजिक सिद्धांत द्वारा निर्देशित होती हैं।
  • पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से संबंधित है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में वस्तुओं की मांग और पूर्ति बाजार की शक्तियों पर निर्भर करती है। इस व्यवस्था में उत्पादित वस्तुओं का विभिन्न व्यक्तियों के बीच वितरण उनकी क्रय क्षमता के आधार पर होता है।
  • वर्ष 1950 में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में योजना आयोग की स्थापना की गई। इसी के साथ भारत में पंचवर्षीय योजनाओं के युग का सूत्रपात हुआ।
  • भारत में द्वितीय पंचवर्षीय योजना प्रसिद्ध सांख्यिकीविद् प्रशांत चंद्र महालनोबिस के योजना संबंधी दृष्टिकोण पर आधारित थी। इस कारण | इस पंचवर्षीय योजना को महालनोबिस मॉडल पर आधारित योजना कहा जाता है।
  • भारत देश के सकल घरेलू उत्पाद में सर्वाधिक योगदान सेवा क्षेत्र का है। (स्रोत- आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19) एक वर्ष में देश में उत्पादित हुई सभी वस्तुओं और सेवाओं का अंतिम
  • बाजार मूल्य, उस देश का सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) होता है।
  • स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश की भू-धारण पद्धति में ज़मींदार जागीरदार आदि का वर्चस्व था। कृषि में समानता लाने के लिये भू-सुधारों की आवश्यकता हुई, जिसका मुख्य उद्देश्य जोतों के स्वामित्व में परिवर्तन करना था। स्वतंत्रता के एक वर्ष बाद ही देश में बिचौलियों के उन्मूलन व वास्तविक कृषकों को ही भूमि का स्वामी बनाने जैसे कदम उठाए गए। भू-सुधार कानून में अनेक कमियाँ होने के कारण अधिकतर ज़मींदारों ने अपनी भूमि पर अधिकार बनाए रखा, किंतु केरल व पश्चिम  बंगाल की सरकारें वास्तविक किसान को भूमि देने की नीति के प्रति प्रतिबद्ध थीं. इसी कारण इन प्रांतों में भू-सुधार कार्यक्रमों को विशेष सफलता मिली।
  • औपनिवेशिक काल का कृषि गतिरोध हरित क्रांति के आरंभ होने से स्थायी रूप से समाप्त हो गया। हरित क्रांति के पहले चरण में (लगभग 1960 के दशक के मध्य से 1970 के दशक के मध्य तक) HYV बीजों का प्रयोग पंजाब, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे अधिक समृद्ध राज्यों तक ही सीमित रहा।

हरित क्रांति के परिणामों के संबंध में

  • हरित क्रांति का तात्पर्य, कृषि क्षेत्र में उच्च पैदावार वाली किस्मों के बीजों (HYV) के प्रयोग से है। आरंभ में HYV बीजों के प्रयोग से केवल गेहूँ व चावल के उत्पादन में वृद्धि हुई। कृषि में HYV बीजों के प्रयोग के लिये पर्याप्त मात्रा में उर्वरकों, कीटनाशकों तथा निश्चित जल पूर्ति की आवश्यकता होती थी। इन आगतों का सही अनुपात में प्रयोग होना भी महत्त्वपूर्ण है। 
  • हरित क्रांति काल में किसान गेहूं और चावल के अतिरिक्त उत्पादन का अच्छा खासा भाग बाज़ार में बेच रहे थे इसके फलस्वरूप खाद्यान की कीमतों में उपभोग की अन्य वस्तुओं की अपेक्षा कमी आई।

▪︎ द्वितीय पंचवर्षीय योजना में अर्थव्यवस्था के समाजवादी स्वरूप का आधार तैयार करने का प्रयास किया गया। द्वितीय पंचवर्षीय योजना में अर्थव्यवस्था को समाजवाद के पथ पर अग्रसर करने के लिये यह निर्णय लिया गया कि सरकार अर्थव्यवस्था में बड़े तथा भारी उद्योगों पर नियंत्रण रखेगी। इसका अर्थ था कि राज्य उन उद्योगों पर पूरा नियंत्रण रखेगा, जो अर्थव्यवस्था के लिये महत्त्वपूर्ण थे। निजी क्षेत्रक की नीतियाँ। सार्वजनिक क्षेत्रक की नीतियों की अनुपूरक होंगी और सार्वजनिक क्षेत्रक अर्थव्यवस्था में अग्रणी भूमिका निभाएंगे।

▪︎ औद्योगिक नीति प्रस्ताव, 1956 के अंतर्गत निजी क्षेत्र के उद्योगों के लिये ‘लाइसेंस पद्धति’ लागू की गई। 

भारी उद्योगों पर नियंत्रण रखने के राज्य के लक्ष्य के अनुसार औद्योगिक नीति प्रस्ताव, 1956 को अंगीकार किया गया। इस प्रस्ताव को द्वितीय पंचवर्षीय योजना का आधार बनाया गया। इस प्रस्ताव के अनुसार उद्योगों को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया-

  • प्रथम वर्ग में वे उद्योग शामिल थे, जिन पर राज्य का स्वामित्व था। 
  • दूसरे वर्ग में वे उद्योग शामिल थे, जिनके लिये निजी क्षेत्रक, सरकारी क्षेत्रक के साथ मिल कर प्रयास कर सकते थे. परंतु जिनमें नई इकाइयों को शुरू करने की एकमात्र जिम्मेदारी राज्य की होती।
  • तीसरे वर्ग में वे उद्योग शामिल थे, जो निजी क्षेत्रक के अंतर्गत आते थे यद्यपि निजी क्षेत्रक में आने वाले उद्योगों का भी एक वर्ग था, लेकिन इस क्षेत्रक को लाइसेंस पद्धति के माध्यम से राज्य के नियंत्रण में रखा गया। नए उद्योगों को तब तक अनुमति नहीं दी जाती थी, जब तक सरकार से लाइसेंस नहीं प्राप्त कर लिया जाता था। यदि उद्योग पिछड़े क्षेत्रों में लगाए गए, तो लाइसेंस प्राप्त करना आसान था। इसके अतिरिक्त उन इकाइयों को कुछ रियायतें जैसे, कर लाभ तथा कम प्रशुल्क पर बिजली दी गई। इस नीति का उद्देश्य क्षेत्रीय समानता को बढ़ावा देना था। 
  •  वर्तमान उद्योग को भी उत्पादन बढ़ाने या विविध प्रकार की वस्तुओं की नई किस्मों का उत्पादन करने के लिये लाइसेंस प्राप्त करना होता था। इसका अर्थ यह सुनिश्चित करना था कि उत्पादित वस्तुओं की मात्रा अर्थव्यवस्था में अपेक्षित मात्रा से अधिक न हो।

▪︎ 1955 में ग्राम तथा लघु उद्योग समिति का गठन किया गया. जिसे कर्वे समिति भी कहा जाता था। इस समिति ने इस बात की संभावना पर विचार किया कि ग्राम विकास को प्रोत्साहित करने के लिये लघु उद्योगों का प्रयोग किया जाए। लघु उद्योग की परिभाषा किसी इकाई की परिसंपत्तियों के लिये दिये जाने वाले अधिकतम निवेश के संदर्भ में दी जाती है। समय के साथ-साथ निवेश की सीमा भी बदलती रही है।

▪︎ आयात प्रतिस्थापन नीति का उद्देश्य आयात को हतोत्साहित कर ज़रूरत के सामान की आपूर्ति घरेलू उत्पादन द्वारा करना है। स्वतंत्रता के बाद अपनाई गई औद्योगिक नीति, व्यापारिक नीति से घनिष्ठ रूप से संबद्ध थी। प्रथम सात पंचवर्षीय योजनाओं में व्यापार की विशेषता अंतर्मुखी व्यापार नीति थी। तकनीकी रूप से इस नीति को आयात प्रतिस्थापन कहा जाता है।

पंचवर्षीय योजनाओं के प्रमुख लक्ष्य संवृद्धि के संदर्भ में

  • पंचवर्षीय योजनाओं के प्रमुख लक्ष्य- संवृद्धि, आधुनिकीकरण, आत्मनिर्भरता और समानता थे।
  • संवृद्धि का अर्थ है देश में वस्तुओं और सेवाओं की उत्पादन क्षमता में वृद्धि। इसका अभिप्रायः उत्पादक पूंजी के अधिक भंडार, परिवहन तथा बैंकिंग आदि सहायक सेवाओं का विस्तार या उत्पादक पूंजी तथा सेवाओं की दक्षता में वृद्धि से है। 
  • अर्थशास्त्र की भाषा में आर्थिक संवृद्धि का प्रामाणिक सूचक सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी) में निरंतर वृद्धि है। जी.डी.पी. एक वर्ष की अवधि में देश में हुए सभी वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन का बाजार मूल्य होता है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भू-सुधारों की आवश्यकता के संदर्भ में

  • स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश की भू-धारण पद्धति में ज़मींदार जागीरदार आदि का वर्चस्व था। ये खेतों में कोई सुधार किये बिना मात्र लगान की वसूली किया करते थे। परिणामस्वरूप, कृषि क्षेत्रक की उत्पादकता निम्न हो गई। कृषि क्षेत्रक की निम्न उत्पादकता के कारण भारत को संयुक्त राज्य अमेरिका से अनाज का आयात करना पड़ा। कृषि में समानता लाने के लिये भू-सुधारों की आवश्यकता हुई जिसका मुख्य ध्येय स्रोतों के स्वामित्व में परिवर्तन करना था।
  • समानता को बढ़ाने के लिये भूमि की अधिकतम सीमा निर्धारण नीति लागू की गई। इसका अर्थ है किसी व्यक्ति की कृषि भूमि के स्वामित्व की अधिकतम सीमा का निर्धारण करना। इस नीति का उद्देश्य कुछ लोगों में भू-स्वामित्व के संकेंद्रण को कम करना था। अधिकतम भूमि सीमा निर्धारण कानून में अनेक बाधाएँ आईं। ज़मींदारों ने इस कानून को न्यायालयों में चुनौती दी जिसके कारण इसे लागू करने में देर हुई। इस अवधि में ये अपनी भूमि निकट संबंधियों आदि के नाम पर कराकर कानून से बच गए। कानून में भी अनेक कमियाँ थीं, जिनका बड़े ज़मींदारों ने भूमि पर अधिकार बनाए रखने के लिये लाभ उठाया।
  • स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत के उद्योगपतियों के पास हमारी अर्थव्यवस्था के विकास हेतु उद्योगों में निवेश करने के लिये अपेक्षित पूंजी नहीं थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय बाज़ार भी इतना बड़ा नहीं था जिसमें उद्योगपतियों को मुख्य परियोजनाएँ शुरू करने के लिये प्रोत्साहन मिलता।
  • नीति-निर्माताओं के समक्ष एक बहुत बड़ा प्रश्न स्वतंत्रता प्राप्ति के समय यह था कि औद्योगिक विकास में सरकार और निजी क्षेत्र की क्या भूमिका होनी चाहिये। द्वितीय पंचवर्षीय योजना में यह निर्णय लिया गया कि सरकार अर्थव्यवस्था में बड़े तथा भारी उद्योगों का नियंत्रण करेगी अर्थात् राज्य उन उद्योगों पर पूरा नियंत्रण रखेगा, जो अर्थव्यवस्था के लिये महत्त्वपूर्ण थे। निजी क्षेत्रक की नीतियाँ सार्वजनिक क्षेत्रक की नीतियों की अनुपूरक होंगी और सार्वजनिक क्षेत्रक अग्रणी भूमिका निभाएगा।

Class 11th Economics Notes Chapter 3 : उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण : एक समीक्षा

▪︎ 1990 के दशक में भारत सरकार द्वारा वित्तीय संकट का सामना करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और विकास बैंक (आई.बी. आर.डी.) जिसे सामान्यतः विश्व बैंक के नाम से जाना जाता है और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से 7 बिलियन डॉलर का ऋण लिया गया था।

▪︎ वर्ष 1991 में भारत को विदेशी ऋणों के मामले में संकट का सामना करना पड़ा। सरकार अपने विदेशी ऋण के भुगतान करने की स्थिति में नहीं थी। पेट्रोल आदि आवश्यक वस्तुओं के आयात के लिये सामान्य रूप से रखा गया विदेशी मुद्रा रिजर्व, पंद्रह दिनों के लिये आवश्यक आयात के भुगतान योग्य भी नहीं बचा था। इस संकट को आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि ने और भी गहन बना दिया था

▪︎ भारत सरकार ने नई आर्थिक नीति की घोषणा 1991 में की थी। 90 के दशक में जब भारत सरकार के पास आवश्यक वस्तुओं के आयात के लिये भी विदेशी मुद्रा नहीं बची थी तब उस स्थिति में सरकार ने विश्व बैंक और आई.एम.एफ. का दरवाजा खटखटाया। इस वित्तीय संकट का सामना करने के लिये इन संस्थानों द्वारा कुछ शर्तों जैसे- सरकार उदारीकरण करेगी, निजी क्षेत्रों पर लगे प्रतिबंधों को हटाएगी तथा अनेक क्षेत्रों में सरकारी हस्तक्षेप कम करेगी के साथ भारत को ऋण दिया गया।

नई आर्थिक नीति के तहत औद्योगिक क्षेत्र में किये गए सुधारों से संबंधित

  • सार्वजनिक क्षेत्रक के लिये सुरक्षित उद्योगों के लिये प्रतिरक्षा उपकरण, परमाणु ऊर्जा उत्पादन और रेल परिवहन बचे हैं। लघु उद्योगों द्वारा उत्पादित | अनेक वस्तुएँ भी अब अनारक्षित श्रेणी में आ गई हैं। अनेक उद्योगों में अब बाज़ार को कीमतों के निर्धारण की अनुमति मिल गई है। 1991 के बाद से आरंभ हुई सुधार नीतियों ने इनमें से अनेक प्रतिबंधों की समाप्त कर दिया। एल्कोहल, सिगरेट, जोखिम भरे रसायनों, औद्योगिक विस्फोटकों, इलेक्ट्रॉनिकी, विमानन तथा औषधि-भेषज, इन उत्पाद श्रेणियों को छोड़कर अन्य सभी उद्योगों के लिये लाइसेंसिंग व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया।
  • निजीकरण का तात्पर्य है, किसी सार्वजनिक उपक्रम के स्वामित्व या प्रबंधन का सरकार द्वारा त्याग। सरकारी कंपनियाँ निजी क्षेत्रक की कंपनियों में दो प्रकार से परिवर्तित हो रही हैं-

(क) सरकार का सार्वजनिक कंपनी के स्वामित्व और प्रबंधन से बाहर होना। 

(ख) सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को सीधे बेच दिया जाना।

▪︎ सार्वजनिक क्षेत्रक के उद्यमों द्वारा जनसामान्य को इक्विटी की बिक्री के माध्यम से निजीकरण को ‘विनिवेश’ कहा जाता है। सरकार के अनुसार इस प्रकार की बिक्री का मुख्य ध्येय वित्तीय अनुशासन बढ़ाना और आधुनिकीकरण में सहायता देना था। सरकार द्वारा यह भी अपेक्षा की गई थी कि पूंजी और प्रबंधन क्षमताओं का उपयोग इन सार्वजनिक उद्यमों के निष्पादन को सुधारने में प्रभावोत्पादक सिद्ध होगा। सरकार को आशा थी कि निजीकरण से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के अंतर्वाह को बढ़ावा मिलेगा।

▪︎ आर्थिक गतिविधियों के नियमन के लिये बनाए गए नियम-कानून ही संवृद्धि और विकास के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा बन गए। उदारीकरण इन्हीं प्रतिबंधों को दूर कर अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को मुक्त करने की नीति थी। वैसे तो औद्योगिक लाइसेंस प्रणाली आयात-निर्यात नीति, तकनीकी उन्नयन, राजकोषीय और विदेश नीतियों में उदारीकरण 1980 के दशक में भी आरंभ किये गए थे। किंतु 1991 में आरंभ की गई सुधारवादी नीतियाँ कहीं अधिक व्यापक थीं।

▪︎ सरकार आयात के परिमाण को सीमित करने के लिये कोटा, सब्सिडी और प्रशुल्क का प्रयोग करती है। कोटे में वस्तुओं की मात्रा निर्दिष्ट होती है, जिन्हें आयात किया जा सकता है। सब्सिडी के तहत निर्यात को बढ़ावा दिया जाता है, साथ ही प्रशुल्क आयातित वस्तुओं पर लगाया गया कर है। प्रशुल्क लगाने पर आयातित वस्तुएँ अधिक महँगी हो जाती हैं, जो वस्तुओं के आयात को हतोत्साहित करती हैं।

▪︎ प्रशुल्क एवं व्यापार संबंधी सामान्य समझौते (General Agreement on Tariffs and Trade-GATT) के स्थान पर 1995 में विश्व व्यापार संगठन (WTO) की स्थापना की गई। GATT की रचना विश्व व्यापार प्रशासक के रूप में 23 देशों ने मिलकर 1948 में की थी।

▪︎ विश्व व्यापार संगठन का उद्देश्य, विश्व व्यापार में सभी देशों को समान अवसर उपलब्ध कराना है। विश्व व्यापार संगठन का ध्येय ऐसी नियम आधारित व्यवस्था की स्थापना करना है, जिसमें कोई देश मनमाने ढंग से व्यापार के मार्ग में बाधाएँ खड़ी नहीं कर पाए। साथ ही इसका ध्येय सेवाओं के सृजन और व्यापार को प्रोत्साहन देना भी है, ताकि विश्व के संसाधनों का इष्टतम स्तर पर प्रयोग हो और पर्यावरण का भी संरक्षण हो सके।

1991 में अपनाई गई नई आर्थिक नीतियों के परिणामों के संदर्भ में

  • 1991 में अपनाई गई आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप कृषि और उद्योगों की संवृद्धि दरों में कुछ गिरावट आई। आर्थिक कार्यों से कृषि को कोई लाभ नहीं हो पाया और कृषि की संवृद्धि दर कम होती गई। औद्योगिक संवृद्धि की दर में भी शिथिलता आई। यह औद्योगिक उत्पादों | की गिरती हुई मांग के कारण रही। मांग में गिरावट के कई कारण रहे. जैसे- सस्ते आयात, आधारिक संरचना में अपर्याप्त निवेश आदि। अर्थव्यवस्था के खुलने से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश तथा विदेशी विनिमय रिजर्व में तेजी से वृद्धि हुई।

Class 11th Economics Notes Chapter 4 : निर्धनता

▪︎ निर्धनता के आकलन की सरकारी विधियों की सीमाओं के कारण अनेक विद्वानों ने वैकल्पिक विधियों का प्रयोग करने के प्रयास किये हैं। निर्धनता के आकलन हेतु नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने एक सूचकांक का विकास किया, जिसे ‘सेन सूचकांक’ के नाम से जाना जाता है।

किसी भी देश में निर्धनता उस देश की अर्थव्यवस्था में व्याप्त निम्न समस्याओं के कारण भी हो सकती है-

  1.  निम्न पूंजी निर्माण 
  2.  आधारिक संरचनाओं का अभाव 
  3.  मांग का अभाव 
  4. अत्यधिक जनसंख्या का दबाव 
  5. सामाजिक / कल्याण व्यवस्था का अभाव।

▪︎ भारत में वर्तमान में (2011-12) 21.9 प्रतिशत (26.93 करोड़) लोग गरीबी रेखा से नीचे रहकर निर्धनता का जीवन जीवन जी रहे (तेंदुलकर रिपोर्ट) हैं। जिनके पास मूलभूत आवश्यकताओं का बेहद अभाव है, उनके पास न ही पेट भरने के लिये भोजन है और न ही रहने के लिये मकान। स्वास्थ्य, शिक्षा, हिंसा से रक्षा जोखिमों में तीव्रता तथा सामाजिक-राजनीतिक भागीदारी से वे अभी तक वंचित हैं।

▪︎ विद्वानों द्वारा ग्रामीण निर्धन की पहचान ऐसे वर्ग से की गई है, जो प्रायः भूमिहीन कृषि श्रमिक होते हैं या छोटी जोत वाले किसान होते हैं। कुछ ऐसे भूमिहीन मजदूर भी होते हैं जो दूसरों की ज़मीन में काश्तकार की भाँति खेती करते हैं। शहरी क्षेत्रों में अधिकांश निर्धन वह वर्ग है जो वैकल्पिक रोजगार एवं निर्वाह की तलाश में शहर को पलायन करते हैं। यही स्वनियोजित लोग सड़कों के किनारे, गलियों में एवं रेड़ी-पटरी पर सामान बेचते हुए दिखाई पड़ते हैं।

▪︎ स्वतंत्रता से पहले भारत में सर्वप्रथम दादाभाई नौरोजी ने निर्धनता की अवधारणा पर विचार किया था। इसके साथ ही उन्होंने जेल में कैदियों को दिये जा रहे भोजन का बाजार कीमतों पर मूल्यांकन कर ‘जेल की निर्वाह लागत’ का भी आकलन किया था।

▪︎ चिरकालिक निर्धन’ से तात्पर्य अनियत मज़दूर से है, जो या तो सदैव निर्धनता की स्थिति में रहते हैं या वह निर्धन जिनके पास कभी-कभी धन आ जाता है।

‘अल्पकालिक निर्धन’ वर्ग में चक्रीय निर्धन या अनियमित निर्धन शामिल हैं, जो यदा-कदा बदनसीबी की वजह से निर्धन होते हैं। ‘गैर-निर्धन’ वे लोग होते हैं, जो कभी गरीब नहीं होते हैं।

▪︎ भारत में निर्धनता को मापने के लिये अनेक विधियों को अपनाया गया। है, उनमें से एक विधि न्यूनतम कैलोरी उपभोग के मौद्रिक मान का निर्धारण करना भी है, जिसमें ग्रामीण गरीबों के लिये उनकी मेहनत के आधार पर प्रतिदिन 2400 कैलोरी तथा शहरी गरीबों को उनकी मेहनत के आधार पर प्रतिदिन 2100 कैलोरी की आवश्यकता होती है।

नोट: न्यूनतम कैलोरी उपभोग के आधार पर भारत में निर्धनता रेखा का आकलन वाई.के. अलघ समिति की रिपोर्ट के आधार पर किया गया। इस समिति का गठन 1977 में योजना आयोग (वर्तमान में नीति आयोग) द्वारा किया गया और इसने 1979 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी।

▪︎ भारत में निर्धनों की संख्या का आकलन निर्धनता रेखा से नीचे के जनानुपात द्वारा किया जाता है। इसे ही व्यक्ति गणना अनुपात विधि कहते हैं।

भारतीय निर्धनता के संदर्भ में

  • भारत में निर्धनता के विषय में आधिकारिक आँकड़े पहले योजना आयोग द्वारा उपलब्ध कराए जाते थे, परंतु 1 जनवरी, 2015 से योजना आयोग का स्थान नीति आयोग (NITI Aayog) ने ले लिया। भारत में निर्धनता का आकलन राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) द्वारा उपभोग व्यय के आधार पर किया जाता है।
  • समग्र निर्धनता वैयक्तिक निर्धनता का योग है। किसी देश की निर्धनता वहाँ की अर्थव्यवस्था में व्याप्त विभिन्न समस्याओं के कारण होती है. जिनमें निम्न पूंजी निर्माण, आधारिक संरचनाओं का अभाव, माँग का अभाव, जनसंख्या का दबाव और सामाजिक कल्याण संबंधी व्यवस्थाओं का अभाव आदि शामिल हैं।
  • निर्धनता का संबंध रोजगार से भी है लेकिन रोजगार उपलब्धता की पूर्ति होती रहती है, तो ऋणग्रस्तता का सामना नहीं करना पड़ता है। रखने में अपना योगदान देती है।
  • भारत में सर्वाधिक अनियत मजदूर निर्धनता से प्रभावित हैं। ये रोजगार सुरक्षा, परिसंपत्तियाँ, वांछित कार्य कौशल का अभाव, पर्याप्त निर्वाह और अवसर हेतु अधिशेष के अभाव से अनियत मज़दूर ही रहते हैं।

हरित क्रांति के संबंध में

  • भारत में प्रथम बार हरित क्रांति लगभग (1960-70) के दशक में प्रारंभ की गई थी, जिससे भौगोलिक दूरियाँ अधिक बढ़ गई थीं। इससे छोटी जोत वाले किसान तथा बड़ी जोत वाले किसानों के बीच उपज संबंधी फासला काफी बढ़ गया था, जिससे असामनता का विकास हुआ। 
  • हरित क्रांति ने कुछ क्षेत्रों जैसे पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश को तो धनी बना दिया, परंतु इससे अन्य राज्यों खासतौर से दक्षिणी राज्यों में निर्धनता अधिक उत्पन्न हो गई थी।

स्वयं सहायता समूहों के संदर्भ में

  • भारत द्वारा 1990 में नई आर्थिक नीति अपनाई गई इससे पहले सरकार द्वारा विभिन्न निर्धनता संबंधी कार्यक्रमों में वित्तीय मदद उपलब्ध कराई जाती थी, परंतु 1990 के बाद स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से छोटे उद्योगों या स्वयं के कार्य हेतु वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है। अतः इसका प्रारंभ 1990 के दशक के बाद हुआ। 
  • इनको अपनी ही बचत एकत्र करके परस्पर उधार देने हेतु प्रोत्साहित किया। जाता है। 
  • इन्हें सरकार भी बैंकों के माध्यम से आंशिक वित्तीय सहायता मुहैया कराती है। 
  • ये समूह स्वरोजगार कार्यक्रम के लिये ऋण उपलब्ध कराते हैं।
निर्धनता संबंधी कार्यसंबंधित लक्ष्य
काम के बदले अनाज कार्यक्रमसभी निर्धन परिवारों को भोजन उपलब्ध कराना (नोट: वर्तमान में इस योजना को ‘मनरेगा’ में समाहित कर दिया गया है)
ग्रामीण रोजगार सृजन कार्यक्रमगाँवों और छोटे कस्बों में स्वरोजगार का सृजन करना।
प्रधानमंत्री रोजगार योजनाग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में निम्न आय वर्ग के परिवारों के शिक्षित बेरोजगारों, छोटे उद्यम हेतु वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना।
(नोट: प्रधानमंत्री रोजगार योजना और ग्रामीण रोजगार सृजन कार्यक्रम को मिलाकर वर्ष 2008 में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में सूक्ष्म उद्यमों की स्थापना के माध्यम से रोज़गार अवसर के सृजन के उद्देश्य से ‘प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम’ नामक एक नया ऋण संबंधी सब्सिडी कार्यक्रम अनुमोदित किया गया।)
स्वर्णजयंती शहरी रोजगार योजनाशहरी क्षेत्रों में स्वरोजगार तथा
मजदूरी पर रोजगार के अधिक अवसरों का सृजन करना। (नोट: आवास और शहरी गरीबी उपशमन मंत्रालय द्वारा वर्ष 2013 को स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना के स्थान पर राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन का आरंभ किया गया। इसे दीन दयाल अंत्योदय योजना शहरी आजीविका मिशन (डी.ए.वाई.एन.यू.एल.एम.) के नाम से जाना जाता है।)
  • भारत ने स्वतंत्रता पश्चात् निर्धनता निवारण हेतु त्रि-आयामी नीति को अपनाया था, जिसमें पहली संवृद्धि आधारित रणनीति, दूसरी रोजगार संबंधी योजनाओं को प्रेरित करने की नीति तथा तीसरा न्यूनतम आधारभूत सुविधाएँ। उपलब्ध कराने पर आधारित थी जिससे बढ़ती हुई निर्धनता पर काबू पाया जा सके।
  • भारत में निर्धनता निवारण हेतु लोगों को न्यूनतम आधारभूत सुविधाएँ। उपलब्ध कराने के लिये अनेक कार्यक्रम चलाए गए हैं, जिससे गरीबों के भोजन और पोषण की स्थिति में सुधार लाया जा सके। इस हेतु कई योजनाएँ जैसे- एकीकृत बाल विकास योजना, मध्यावकाश भोजन योजना, सार्वजनिक वितरण व्यवस्था, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना आदि इस दिशा में किये जा रहे प्रयासों में शामिल हैं।

नरेगा’ के संदर्भ में

  • अगस्त 2005 में संसद में एक विधेयक पारित करके नरेगा (राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम) को अपनाया गया। इस अधिनियम का उद्देश्य प्रत्येक ग्रामीण परिवार के इच्छुक वयस्क को
  • एक वित्तीय वर्ष में 100 दिनों का रोज़गार उपलब्ध कराना है। 2 अक्तूबर, 2009 को इसे महात्मा गांधी के नाम पर ‘मनरेगा’ नाम दिया गया था। इसमें ग्राम सभा तथा ग्राम पंचायतों की मुख्य भूमिका निगरानी कार्य हेतु है।

▪︎ भारत में भूमि तथा परिसंपत्तियों के वितरण संबंधी विषमताओं के कारण प्रत्यक्ष निर्धनता निवारण कार्यक्रम का लाभ प्रायः गैर-निर्धन वर्ग के लोग उठा लेते हैं, क्योंकि यह सरकार और बैंक अधिकारियों द्वारा चलाए जाते हैं, जिसमें चेतना प्रशिक्षण का अभाव पाया जाता है साथ ही भ्रष्टाचार और स्थानीय सशक्त वर्गों का दबाव, संसाधनों का दुरुपयोग आदि कारक उत्तरदायी हैं, जो गरीबों तक इन कार्यक्रमों का लाभ नहीं पहुँचने देते हैं।

Class 11th Economics Notes Chapter 5 : भारत में मानव पूंजी का निर्माण

▪︎ भौतिक पूंजी निर्माण मुख्यतः एक आर्थिक और तकनीकी प्रक्रिया है। जबकि मानव पूंजी निर्माण आंशिक रूप से एक सामाजिक प्रक्रिया है।

भौतिक पूंजी किसी भी अन्य वस्तु की भाँति दृश्य होती है। उसे किसी भी वस्तु की तरह बाजार में बेचा जा सकता है। मानव पूंजी अदृश्य होती है यह धारक के शरीर में रची-बसी होती है। बाजार में मानव पूंजी को बेचा नहीं जा सकता है, केवल उसकी सेवाओं की बिक्री की जा सकती है।

▪︎ आर्थिक संवृद्धि का अर्थ देश की वास्तविक राष्ट्रीय आय में वृद्धि से होता है। एक शिक्षित व्यक्ति का श्रम- कौशल अशिक्षित की अपेक्षा अधिक होता है। इसी कारण वह अपेक्षाकृत अधिक आय अर्जित कर पाता है। इसलिये स्वाभाविक ही है कि किसी शिक्षित व्यक्ति का योगदान अशिक्षित की तुलना में आर्थिक संवृद्धि में कहीं अधिक होगा। 

एक स्वस्थ व्यक्ति अधिक समय तक व्यवधान रहित श्रम की पूर्ति कर सकता है। इसलिये स्वास्थ्य भी आर्थिक संवृद्धि का एक महत्त्वपूर्ण कारक बन जाता है। 

मानव पूंजी में निवेश, विशेषतौर पर शिक्षा तथा स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश से विकास की प्रक्रिया तेज होने के साथ-साथ देश की आर्थिक संवृद्धि में वृद्धि होगी।

मानव विकास’ से संबंधित

  • मानव विकास इस विचार पर आधारित है कि शिक्षा और स्वास्थ्य मानव कल्याण के अभिन्न अंग हैं क्योंकि व्यक्ति में इससे पढ़ने-लिखने तथा सुदीर्घ जीवन यापन की क्षमता आती है, तभी वह ऐसे अन्य चयन कर पाने में सक्षम हो पाता है, जिन्हें वह महत्त्वपूर्ण मानता है।
  • मानव पूंजी का विचार मानव को किसी साध्य की प्राप्ति का साधन मानता है। यह साध्य उत्पादकता में वृद्धि का है। इस मतानुसार शिक्षा और स्वास्थ्य | पर किया निवेश अनुत्पादक है अगर उससे वस्तुओं और सेवाओं के निर्गम में वृद्धि न हो। मानव विकास के परिप्रेक्ष्य में मानव स्वयं ही साध्य भी है। भले शिक्षा, स्वास्थ्य आदि में निवेश से श्रम की आय उत्पादकता में सुधार नहीं हो किंतु इनके माध्यम से मानव कल्याण का संवर्धन होना चाहिये।

▪︎ शिक्षा में निवेश को मानव पूंजी का एक प्रमुख स्रोत माना जाता है। इसके अतिरिक्त कार्य के दौरान प्रशिक्षण, प्रबंधन तथा सूचना प्रतिषेधी आयुर्विज्ञान (टीकाकरण) चिकित्सीय आयुर्विज्ञान तथा सामाजिक आयुर्विज्ञान और इनके साथ-साथ स्वच्छ जल का प्रावधान आदि स्वास्थ्य व्यय के विभिन्न रूप हैं। स्वास्थ्य पर किया गया व्यय स्वस्थ श्रमबल की पूर्ति को बढ़ाता है और इसी कारण यह मानव पूंजी निर्माण का प्रमुख स्रोत माना जाता है।

▪︎ भारत में ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर प्रवसन मुख्यतः गाँवों में बेरोजगारी के उच्च स्तर के कारण ही होता है। विकल्प में दिये गए अन्य दोनों कारण भी ग्रामीण से शहरों की ओर पलायन/ प्रवसन के जिम्मेदार कारक हैं परंतु सर्वप्रमुख नहीं।

▪︎ विश्व स्तरीय संवृद्धि केंद्र’ नामक रिपोर्ट का प्रकाशन जर्मनी के ड्यूश बैंक द्वारा किया जाता है। इस रिपोर्ट में 2020 तक भारत के विश्व के 4 प्रमुख विकास केंद्रों में से 1 बनकर उभरने की बात की गई थी।

भारत में उच्चतर शिक्षा के संबंध में

  • भारत में शिक्षा का पिरामिड बहुत ही नुकीला है जो दर्शाता है कि उच्चतर | शिक्षा स्तर तक बहुत कम लोग पहुँच पाते हैं। यहीं नहीं, शिक्षित युवाओं की बेरोजगारी दर भी उच्चतम है। ‘राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय के आँकड़ों के अनुसार (माध्यमिक या उससे अधिक) शिक्षा प्राप्त युवाओं में वर्ष 2011-12 में बेरोज़गारी दर 19 प्रतिशत थी।
  • सन् 1998 में भारत सरकार द्वारा नियुक्त तापस मजूमदार समिति ने यह अनुमान लगाया था कि देश के 6-14 आयु वर्ग के सभी बच्चों को स्कूली शिक्षा व्यवस्था में शामिल करने के लिये (1998-99 से 2006-07) के दस वर्षों की अवधि में लगभग ₹1.37 लाख करोड़ व्यय करना होगा।
  • जिस प्रकार एक देश अपने भूमि जैसे भौतिक संसाधनों को कारखानों जैसी भौतिक पूंजी में परिवर्तित कर सकता है, उसी प्रकार यह अपने छात्र रूपी मानव संसाधनों को अभियंता और डॉक्टर जैसी मानव पूंजी में भी परिवर्तित कर सकता है। मानव संसाधन को मानव पूंजी में परिवर्तित करने के लिये मानव पूंजी निवेश की आवश्यकता होती है।

Class 11th Economics Notes Chapter 6 : ग्रामीण विकास

▪︎ भारत के गाँवों में लोग कृषि के साथ-साथ गैर-कृषि उत्पादक गतिविधियों में भी संलग्न हैं। गैर-कृषि उत्पादक क्रियाओं के अंतर्गत खाद्य प्रसंस्करण, स्वास्थ्य सुविधाएँ, शिक्षा, लघुनिर्माण, परिवहन, दुकानदारी आदि को शामिल किया जाता है।

भारत के संदर्भ में जैविक कृषि

  • जैविक कृषि, खेती करने की वह पद्धति है जो पर्यावरणीय संतुलन को पुनः स्थापित करके उसका संरक्षण और संवर्धन करती है।। जैविक कृषि से भारत की परंपरागत कृषि का उन्मूलन नहीं होगा बल्कि खेती करने का तरीका बदलेगा और रासायनिक खादों एवं कीटनाशक दवाओं के स्थान पर जैविक खाद या प्राकृतिक खादों को बढ़ावा मिलेगा जो पर्यावरण हितैषी हैं। स्वस्थ और टिकाऊ कृषि पद्धतियों से देश की कृषि संबंधी प्रोफाइल में बदलाव होगा और देश का स्वास्थ्य सूचकांक भी बदल सकता है।

कृषि की एक पद्धति के रूप में, उद्यानिकी/उद्यान विज्ञान (हॉर्टिकल्चर) के संदर्भ में

  • प्रकृति ने भारत को ऋतुओं और मृदा की विविधता से संपन्न किया है। उसी के आधार पर भारत ने अनेक प्रकार के बागान उत्पादों को अपना लिया है। उद्यानिकी के अंतर्गत फल-सब्जियों, रेशेदार फसलों, सुगंधित पौधों, मसालों, चाय, कॉफी तथा औषधीय पौधों को शामिल किया जाता है।

▪︎ शिवरमन सिंह समिति की सिफारिशों के आधार पर संसद के एक अधिनियम द्वारा 12 जुलाई, 1982 को नाबार्ड की स्थापना की गई थी। यह बैंक संपूर्ण ग्रामीण वित्त व्यवस्था के समन्वय के लिये एक शीर्ष संस्थान है।

▪︎ केरल प्रांत में महिलाओं की ओर उन्मुख एक निर्धनता

निवारक सामुदायिक कार्यक्रम चलाया जा रहा है जिसका नाम कुटुंब श्री है। 1995 में सरकारी बचत एवं साख सोसायटी के रूप में गरीब महिलाओं के लिये इस बचत बैंक की स्थापना की गई थी।

▪︎ स्वतंत्रता के समय तक महाजन और व्यापारी छोटे/सीमांत किसानों और भूमिहीन मजदूरों से बहुत ऊँची दर से ब्याज वसूलने और ऋण खाते में हेराफेरी का ऐसा कुचक्र चला रहे थे, कि वे कभी भी ऋणपाश से मुक्त नहीं हो पाते थे। इन समस्याओं से मुक्ति दिलाने के लिये भारत सरकार ने 1969 में सामाजिक बैंकिंग आरंभ कर एक बड़ा बदलाव करने का प्रयास किया।

▪︎ कृषि विपणन वह प्रक्रिया है जिससे देश भर में उत्पादित कृषि पदार्थों का संग्रहण, भंडारण, प्रसंस्करण, परिवहन, पैकिंग, वर्गीकरण और वितरण आदि किया जाता है।

▪︎ ऑपरेशन फ्लड दूध के अत्यधिक उत्पादन से संबंधित है। देश में दुग्ध उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये इस कार्यक्रम को शुरू किया गया था। तमिलनाडु में महिलाओं को नवीनतम कृषि तकनीकों का प्रशिक्षण देने के लिये ‘तनवा’ नामक परियोजना प्रारंभ की गई है। जैविक खाद्य पदार्थों की बिक्री के आधार पर हरित स्थिति प्रमाण चिह्नों से अलंकृत किया जाता है।

▪︎ एम. एस. स्वामीनाथन शोध प्रतिष्ठान तमिलनाडु के शहर चेन्नई में स्थित है।

ग्रामीण विकास में ग्रामीण बैंकिंग की भूमिका के संदर्भ मे

  • ग्रामीण बैंक की संस्थागत संरचना में अनेक बहु-एजेंसी संस्थान जैसे- व्यावसायिक बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, सहकारी तथा भूमि विकास बैंक हैं। संस्थागत ऋण में ऐसी राशियाँ शामिल की जाती हैं जो इन संस्थानों द्वारा उपलब्ध कराई जाती हैं। ग्रामीण बैंकिंग के विकास में किसानों के संस्थागत ऋण में वृद्धि हुई। बैंकिंग व्यवस्था में त्वरित प्रसार का ग्रामीण कृषि और गैर-कृषि उत्पादन, आय और रोजगार पर सकारात्मक प्रभाव रहा,  विशेष रूप से हरित क्रांति के बाद से किसानों को साख सेवाऐं। और सुविधाएँ देने तथा उनकी उत्पादन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अनेक प्रकार के ऋण देने में ग्रामीण बैंकिंग ने विशेष सहायता प्रदान की है।

Class 11th Economics Notes Chapter 7 : रोजगार संवृद्धि, अनौपचारीकरण एवं अन्य मुद्दे

▪︎ सकल राष्ट्रीय उत्पाद में योगदान देने वाले सभी क्रियाकलापों को आर्थिक क्रियाओं में शामिल किया जाता वे सभी व्यक्ति जो आर्थिक क्रियाओं में संलग्न होते हैं, श्रमिक कहलाते हैं, चाहे वे उच्च या निम्न किसी भी स्तर पर कार्य कर रहे हैं। कोई भी व्यक्ति श्रमिक हो सकता है। बीमारी, खराब मौसम, त्यौहार या सामाजिक-धार्मिक उत्सवों के कारण अस्थाई रूप से काम पर नहीं आ पाने वाले व्यक्ति को भी श्रमिक ही माना जाता है।

▪︎ भारत की संसद ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम को 25 अगस्त, 2005 को पारित किया था।

▪︎ जो अपने उद्यम के स्वामी और संचालक हैं, उन्हें स्वनियोजित कहा जाता है। सभी सार्वजनिक क्षेत्रक प्रतिष्ठान तथा 10 या अधिक कर्मचारियों को रोज़गार देने वाले निजी क्षेत्रक प्रतिष्ठान संगठित क्षेत्रक माने जाते हैं। इन प्रतिष्ठानों में काम करने वालों को संगठित क्षेत्रक के कर्मचारी कहा जाता है। जब मज़दूर अन्य लोगों के खेतों में अनियत रूप से कार्य करते हैं और उनके बदले में जो पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं उसे अनियत मज़दूरी कहा जाता है।

▪︎ विभिन्न स्थितियों में श्रमबल के वितरण को देखें तो पिछले चार दशकों (1972-2012) से लोग स्वरोजगार और नियमित वेतन-रोजगार से हटकर अनियत श्रम की ओर बढ़ रहे हैं। विशेषज्ञ इस स्वरोजगार तथा नियमित वेतन से अनियत श्रम रोजगार की ओर जाने की प्रक्रिया को श्रमबल के अनियतिकरण का नाम देते हैं। इससे मजदूरों की दशा बहुत नाजुक हो जाती है।

भारत में अधिकांश श्रमिकों का रोज़गार

  • भारत में अधिकांश श्रमिकों के रोज़गार का स्रोत प्राथमिक क्षेत्रक ही है। द्वितीयक क्षेत्रक लगभग 24 प्रतिशत श्रमबल को नियोजित कर रहा है।
  • प्रथम क्षेत्रक– कृषि एवं संबद्ध क्षेत्र, वानिकी, मत्स्य पालन, खनन एवं उत्खनन।
  • द्वितीय क्षेत्रक विनिर्माण, निर्माण, गैस, जल तथा विद्युत आपूर्ति । 
  • तृतीय क्षेत्रक– सेवा क्षेत्र (व्यापार, होटल तथा रेस्तराँ, परिवहन, संचार तथा भंडारण, वित्तीय सेवाएँ जैसे- बैंकिंग, बीमा; चिकित्सा, रियल एस्टेट आदि)।

सामान्यतया आर्थिक क्रियाओं को आठ विभिन्न औद्योगिक वर्गों में विभाजित करते हैं। ये हैं- कृषि, खनन और उत्खनन, विनिर्माण, विद्युत, गैस एवं जलापूर्ति, निर्माण कार्य, वाणिज्य, परिवहन और भंडारण सेवाएँ।

▪︎ भारत के सकल श्रमबल के बहुत छोटे-से वर्ग को ही नियमित आय मिल पाती है। अपेक्षित पारिश्रमिक न मिलने से श्रमिक रुष्ट होकर अपने अधिकारों की रक्षा करने और रोजगारदाताओं से | बेहतर मजदूरी तथा सामाजिक सुरक्षा उपायों के लिये श्रमिक संघों का निर्माण करते हैं।

▪︎ सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था के लाभ संगठित क्षेत्रक के कर्मचारियों को मिलते हैं। इनकी कमाई भी असंगठित क्षेत्रक के कर्मचारियों से अधिक होती है।

▪︎ बेरोजगारी से संबंधित आँकड़े राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) द्वारा जारी किये जाते हैं।

▪︎ प्रच्छन्न बेरोजगारी में कुछ लोगों की उत्पादकता शून्य होती है। अर्थात् इन लोगों को उस कार्य से हटा भी दिया जाए, तो उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अधिकांशत: भारत के कृषि में फैली बेरोज़गारी को प्रच्छन्न बेरोज़गारी कहते हैं।

श्रमिक जनसंख्या अनुपात के संदर्भ में

  • श्रमिक जनसंख्या अनुपात, जिसका प्रयोग देश में रोजगार की स्थिति के विश्लेषण के लिये सूचक के रूप में किया जाता है, यह जानने के उत्पादन में सक्रिय रूप में योगदान दे रहा है। यदि यह अनुपात अधिक में सहायक है कि जनसंख्या का कितना अनुपात वस्तुओं और सेवाओं है, तो इसका तात्पर्य है कि जनता की काम में भागीदारी अधिक है। यदि ।  यह अनुपात मध्यम या कम हो, तो इसका अर्थ होगा कि देश की जनसंख्या का बहुत अधिक अनुपात प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक क्रियाओं में संलग्न नहीं है। 
  • भारत में श्रमिक जनसंख्या अनुपात का आकलन करने के लिये हमें भारत में कार्य कर रहे सभी श्रमिकों की संख्या को देश की जनसंख्या से भाग कर उसे 100 से गुणा करना होगा।

▪︎ कार्य की आउटसोर्सिंग से तात्पर्य है कि एक बड़ी फर्म के लिये यह लाभप्रद है कि वह अपने विशिष्ट विभागों (जैसे-विधि, कंप्यूटर प्रोग्रामिंग या ग्राहक सेवा अनुभाग) को बंद कर छोटे उद्यमियों को बड़ पैमाने पर छोटे-छोटे रोजगार उपलब्ध कराए जो कि दूसरे देशों में भी स्थित हो सकता है। 

▪︎ भारत के सकल घरेलू उत्पाद तथा रोजगार की वृद्धि दरों के बीच काफी अंतर पाया जाता है। इसका अर्थ यह है कि हम भारतीय अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन के बिना ही अधिक वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करने में सक्षम रहे हैं। इस परिघटना को विद्वान ‘रोजगारविहीन संवृद्धि’ का नाम दे रहे हैं।

8. आधारिक संरचना

▪︎ आधारिक संरचना औद्योगिक व कृषि उत्पादन, घरेलू व विदेशी व्यापार और वाणिज्य के प्रमुख क्षेत्रों में सहयोगी सेवाएँ उपलब्ध कराती। है। इन सेवाओं में सड़क, रेल, बंदरगाह, बिजली घर, दूर-संचार सुविधाएँ. हवाई अड्डे, बांध, सफाई, पेयजल आदि को शामिल किया जाता है।

▪︎ आधारिक सरंचना को दो श्रेणियों में बाँटते हैं- सामाजिक और आर्थिक ऊर्जा, परिवहन और संचार आर्थिक श्रेणी में आते हैं जबकि शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास सामाजिक आधारिक संरचना की श्रेणी में आते हैं।

▪︎ आधारिक संरचना ऐसी सहयोगी प्रणाली है, जिस पर एक आधुनिक औद्योगिक अर्थव्यवस्था की कार्यकुशल कार्यप्रणाली निर्भर करती है। आधुनिक कृषि भी बीजों, कीटनाशक दवाइयों और खाद के तीव्र व बड़े पैमाने पर परिवहन के लिये इस पर निर्भर करती है। इसके लिये यह आधुनिक सड़कों, रेल और जहाज़ी सुविधाओं का उपयोग करती है। वर्तमान समय में कृषि को बहुत बड़े पैमाने पर कार्य करने की आवश्यकता के कारण बीमा और बैंकिंग सुविधाओं पर भी निर्भर होना पड़ता है। अतः आधुनिक अर्थव्यवस्था की कार्यकुशलता के लिये आधारिक संरचना का होना आवश्यक है।

▪︎ किसी भी देश में आय में वृद्धि के साथ-साथ आधारिक संरचना के गठन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आते हैं। अल्प आय वाले देशों के लिये सिंचाई, परिवहन और बिजली जैसी बुनियादी आधारिक संरचना सेवाएँ अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्थाएँ परिपक्व होती हैं। और बुनियादी उपयोग के योग्य मांगों की पूर्ति होती है, वैसे-वैसे अर्थव्यवस्था में कृषि की हिस्सेदारी कम होती जाती है और सेवा से संबंधित आधारिक संरचना की आवश्यकता पड़ती है।

▪︎ सी.एफ.एल. का पूर्ण नाम कॉम्पैक्ट फ्लोरोसेंट लैंप होता है। यह सामान्य बल्बों की अपेक्षा 80 प्रतिशत कम बिजली की खपत करते हैं।

▪︎ ऊर्जा के व्यावसायिक (Commercial) और गैर-व्यावसायिक (Non-commercial) स्रोत होते हैं। गैर-व्यावसायिक स्रोतों में जलाऊ लकड़ी, कृषि का कूड़ा-कचरा (वेस्ट) और सूखा गोवर शामिल किया। जाता है। ये गैर-व्यावसायिक हैं, क्योंकि ये हमें प्रकृति/जंगलों में मिलते हैं। नोटः ऊर्जा के गैर-व्यावसायिक स्रोतों का पुनर्नवीनीकरण हो सकता है।

▪︎ ऊर्जा के व्यावसायिक और गैर-व्यावसायिक स्रोतों को ऊर्जा के पारंपरिक स्रोत कहते हैं। ऊर्जा के तीन और स्रोत हैं, जिन्हें आमतौर पर गैर-पारंपरिक स्रोत कहते हैं, वे हैं: सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और ज्वारीय ऊर्जा । उष्ण प्रदेश होने के कारण भारत में इन तीनों प्रकार की ऊर्जाओं का उत्पादन करने की असीमित संभावनाएँ हैं।

▪︎ भारत में विद्युत का सर्वाधिक उत्पादन थर्मल पावर से किया जाता है। जिसकी कुल विद्युत ऊर्जा उत्पादन में लगभग 63.2% की हिस्सेदारी है। अक्षय ऊर्जा स्रोत (22%), हाइड्रो-नवीकरणीय स्रोत (12.6%) तथा न्यूक्लीयर स्रोत (1.9%) (स्रोत: विद्युत मंत्रालय के नवीनतम आँकड़े 31 जुलाई, 2019 तक कुल संस्थापित क्षमता के अनुसार ) ।

▪︎ भारत की स्वास्थ्य आधारिक संरचना को तीन स्तरों- प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक में विभाजित किया गया है। प्राथमिक क्षेत्रक में स्वास्थ्य समस्याओं का ज्ञान तथा उन्हें पहचानने, रोकने और नियंत्रित करने की विधि, खाद्यपूर्ति तथा उचित पोषण और जल की पर्याप्त पूर्ति, मानसिक स्वास्थ्य का संवर्द्धन और आवश्यक दवाओं का प्रावधान शामिल है। जब एक रोगी की हालत में प्राथमिक चिकित्सा केंद्र में सुधार नहीं हो पाता, तो उसे द्वितीयक या मध्य या उच्च श्रेणी के अस्पतालों में भेजा जाता है। जिन अस्पतालों में शल्य-चिकित्सा, एक्स-रे, ई.सी.जी जैसी बेहतर सुविधाएँ होती हैं, उन्हें माध्यमिक चिकित्सा संस्थाएँ कहते है। तृतीयक स्वास्थ्य क्षेत्रक में गंभीर स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का निपटान किया जाता है।

▪︎ चिकित्सा की भारतीय प्रणाली में 6 व्यवस्थाएँ हैं- आयुर्वेद, योग, यूनानी, सिद्ध, प्राकृतिक चिकित्सा और होम्योपैथी। इनके अंग्रेजी नामों के अनुसार भारतीय प्रणाली को ‘आयुष’ भी कहते हैं। नोट: सोवा-रिग्पा (SOWA-RIGPA) दुनिया की सबसे पुरानी स्वास्थ्य पद्धतियों में से एक है। इसका इतिहास 2500 वर्ष से भी पुराना है। यह हिमालयी क्षेत्रों विशेषकर लेह-लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश. सिक्किम, दार्जिलिंग आदि में प्रचलित है। यह पद्धति दमा, ब्रोंकाइटिस, गठिया जैसे गंभीर रोगों के इलाज में असरदार है।

▪︎ एक देश में स्वास्थ्य की स्थिति का मूल्यांकन शिशु मृत्यु तथा मातृ मृत्यु दरों, जीवन प्रत्याशा व पोषण स्तरों के साथ-साथ संक्रामक रोगों की घटनाओं जैसे सूचकों के द्वारा होता है।

▪︎ विश्व रोग भार (GBD) एक सूचक है, जिसका प्रयोग किसी विशेष रोग के कारण असमय मरने वाले लोगों की संख्या के साथ-साथ रोगों के कारण असमर्थता में बिताए वर्षों की संख्या जानने के लिये करते हैं।

भारत के जी.बी.आई. के आधे से अधिक हिस्से के अंतर्गत अतिसार, पेचिस, मलेरिया और क्षय रोग जैसी संक्रामक बीमारियाँ आती हैं।

Class 11th Economics Notes Chapter 9 : पर्यावरण और धारणीय विकास

▪︎ पर्यावरण के अंतर्गत सभी जैविक और अजैविक तत्त्व आते हैं, जो एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।

पर्यावरण के तत्त्व/घटक

  1. जैविक घटक – उदाहरण: पक्षी, पशु,  पौधे, वन, मत्स्य आदि
  2. अजैविक घटक– उदाहरण: हवा, पानी, भूमि,चट्टान और सूर्य किरण

पर्यावरण चार आवश्यक कार्य करता है-

(क) संसाधनों की पूर्ति करता है, जिसमें नवीकरणीय और गैर-नवीकरणीय दोनों प्रकार के संसाधनों को शामिल किया जाता है।

(ख) यह अवशेषों को समाहित कर लेता है।

(ग) यह जननिक और जैविक विविधता प्रदान करके जीवन का पोषण करता है।

(घ) यह सौंदर्य विषयक सेवाएँ भी प्रदान करता है, जैसे कि कोई सुंदर दृश्य।

▪︎ फोटोवोल्टीय सेलों का उपयोग सौर ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करने के लिये किया जाता है।

▪︎ वैश्विक उष्णता’ पृथ्वी और समुद्र के वातावरण के औसत तापमान में वृद्धि को कहते हैं। वैश्विक उष्णता औद्योगिक क्रांति से ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि के परिणामस्वरूप पृथ्वी के निचले वायुमंडल के औसत तापमान में क्रमिक बढ़ोतरी है। वर्तमान में तथा आने वाले दिनों में वैश्विक उष्णता में अधिकांश मानव-उत्प्रेरित है। यह मानव द्वारा वनविनाश और जीवाश्म ईंधन के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों की वृद्धि के कारण होता है। वायु में कार्बन डाईऑक्साइड, मिथेन गैस तथा दूसरी गैसें (जिनमें गर्माहट को सोखने की क्षमता है) वातावरण में मिलने से हमारे भूमंडल की सतह गर्म हो जाती है जिससे पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी होने लगती है।

▪︎ वैश्विक उष्णता’ के कुछ दीर्घकालीन परिणाम हैं- ध्रुवीय हिम का पिघलना, जिसके परिणामस्वरूप समुद्र स्तर में वृद्धि और बाढ़ का प्रकोप, हिम पिघलाव पर निर्भर पेयजल की पूर्ति में पारिस्थितिक असंतुलन के कारण प्रजातियों की विलुप्ति, उष्णकटिबंधीय तूफानों की बारबारता और उष्णकटिबंधीय रोगों के प्रभाव में बढ़ोतरी। तापमान में अत्यधिक बढ़ोतरी से जलवायु परिवर्तन का संकट गहरा होता जा रहा है। जिसका एक परिणाम कृषि भूमि का ह्रास भी है।

▪︎ मीथेन गैस की उत्पत्ति का स्रोत धान का खेत, आर्द्र भूमि/दलदली भूमि, पशुओं के अपशिष्ट आदि हैं। यह एक प्रमुख ग्रीनहाउस गैस है।

▪︎ भूमि अपक्षय के लिये उत्तरदायी प्रमुख कारण हैं- वन विनाश के फलस्वरूप वनस्पति की हानि, अधारणीय जलाऊ लकड़ी और चारे का निष्कर्षण, खेती-बारी, वन-भूमि का अतिक्रमण, वनों में आग और अत्यधिक चराई, अनुचित फसल चक्र, कृषि रसायन का अनुचित प्रयोग ।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सी.पी.सी.बी.) के कार्यों के संदर्भ में

  • भारत में वायु तथा जल प्रदूषण की समस्याओं से निपटने के लिये सरकार ने 1974 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की स्थापना की। यह बाड जल वायु और भूमि प्रदूषण से संबंधित सूचनाओं का संकलन और वितरण करता है। यह कचड़े / व्यापार निकास और उत्सर्जन के मानक निर्धारित करता है। यह बोर्ड सरकार को जलप्रदूषण की रोकथाम, नियंत्रण और कमी के लिये जल धाराओं द्वारा नदियों और कुओं की स्वच्छता के संवर्धन के लिये तकनीकी सहायता प्रदान करता है। यह बोर्ड जल व वायु प्रदूषण से संबंधित समस्याओं की जाँच व अनुसंधान भी करता है। और ऐसी जाँच व अनुसंधान को प्रयोजित भी करता है।
  • पर्यावरण और अर्थव्यवस्था दोनों एक-दूसरे पर निर्भर और एक-दूसरे के लिये आवश्यक हैं। अतः पर्यावरण पर होने वाले परिणामों की अवहेलना करने वाला विकास उस पर्यावरण का विनाश कर देगा, जो जीवन को धारण करता है। धारणीय विकास की अवधारणा पर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन (यू.एन.सी.ई.डी.) ने बल दिया. जिसने इसे इस प्रकार परिभाषित किया- ‘ऐसा विकास, जो वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं की पूर्ति क्षमता का समझौता किये बिना पूरा करे । ‘
  • ब्रुटलैंड कमीशन ने भावी पीढ़ी को संरक्षित करने पर जोर दिया, यह पर्यावरणविदों के उस तर्क के अनुकूल है, जिसमें उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि हमारा नैतिक दायित्व है कि हम भावी पीढ़ी को एक व्यवस्थित भूमंडल प्रदान करें। चिपको आंदोलन उत्तराखंड के चमोली जिले से 1973 में शुरू किया गया था। यह एक अहिंसात्मक आंदोलन था जिसका उद्देश्य वनों का संरक्षण करना था,
  • अपिको आंदोलन कर्नाटक में चलाया गया था। अधिक शब्द का अर्थ है माहों में धरना। सितंबर 1983 में प्रदेश के सिरसी जिले के सतकानी वन में वृक्ष काटे जा रहे थे। तब 160 स्त्री-पुरुष और बच्चों ने पेड़ों को बाहों में भर लिया और लकड़ी काटने वालों को भागने के लिये मजबूर होना पड़ा। वे अगले 6 सप्ताह तक वन की पहरेदारी करते रहे। इन स्वयंसेवकों ने वृक्षों को तभी छोड़ा, जब वन विभाग के अधिकारियों ने उन्हें आश्वासन दिया कि वृक्ष वैज्ञानिक आधार पर और जिले की वन संबंधी कार्य योजना के तहत काटे जाएंगे।

Class 11th Economics Notes Chapter 10 : भारत और इसके पड़ोसी देशों के तुलनात्मक विकास अनुभव

▪︎ भारत और पाकिस्तान को विभाजित करने वाली रेखा को रेडक्लिफ रेखा कहते हैं। मैकमहोन रेखा भारत और चीन के मध्य खींची गई रेखा है।

▪︎ चीन में 1958 में ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ अभियान शुरू किया गया था जिसका उद्देश्य बड़े पैमाने पर देश का औद्योगीकरण करना था। | इस अभियान के तहत लोगों को अपने घर के पिछले हिस्से में उद्योग लगाने के लिये प्रोत्साहित किया गया।

▪︎  चीन में बड़े पैमाने पर ग्रामीण क्षेत्रों में ‘कम्यून’ प्रारंभ किये गए। कम्यून पद्धति के अंतर्गत लोग सामूहिक रूप से खेती करते थे। 1958 में लगभग 26000 ‘कम्यून’ थे जिनमें प्रायः समस्त कृषक शामिल थे।

▪︎ मानव विकास सूचकांक’ (ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स) की रिपोर्ट को विश्व बैंक द्वारा जारी किया जाता है।

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