1. | भारत और बाहरी दुनिया |
2. | उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल (आठवीं से दसवीं सदी तक) |
3. | चोल साम्राज्य (नवीं से बारहवीं सदी तक) |
4. | आर्थिक तथा सामाजिक जीवन, शिक्षा और धार्मिक विश्वास (800-1200 ई.) |
5. | संघर्ष का युग (लगभग 1000-1200 ई.) |
6. | दिल्ली सल्तनत – I ( लगभग 1200-1400 ई.) मामलूक सुल्तान) |
7. | दिल्ली सल्तनत – II ( लगभग 1200-1400 ई.) (खिलजी और तुगलक) |
8. | दिल्ली सल्तनत के अधीन शासन और आर्थिक तथा सामाजिक जीवन |
9. | विजयनगर और बहमनियों का काल तथापुर्तगालियों का आगमन (1350-1565 ई.) |
10. | उत्तर भारत में साम्राज्य के लिये संघर्ष-1 (लगभग 1400-1525 ) |
1. भारत और बाहरी
फ्यूडलिज्म या सामंतवाद के संदर्भ में
- फ्यूडलित्म शब्द लैटिन भाषा के ‘फ्यूडम’ से बना है।
- सामंती व्यवस्था में सरकार में ‘भूस्वामी अभिजात वर्ग’ का बोलबाला रहता था ध्यान देने योग्य है कि यह ऐसा अभिजात वर्ग नहीं था जिसका द्वार दूसरों के लिये पूरी तरह बंद रहता हो।
- भारत में पाँचवी सदी में दशमलव प्रणाली का विकास हुआ। इसी काल में यह अरबों तक पहुँची। नवीं सदी में अरब गणितज्ञ अलख्वारिज्म ने इसे अरब में लोकप्रिय बनाया। बारहवीं सदी में एक ईसाई ‘अबेलाई’ के माध्यम से यूरोप पहुँची। वहाँ ये ‘अरब अंक पद्धति’ के रूप में प्रसिद्ध हुई।
तांग साम्राज्य के संदर्भ में
- तांग शासन के अधीन 8वीं से 9वीं सदी में चीन का समाज और वहाँ की संस्कृति प्रगति के चरमोत्कर्ष पर थे। इन्होंने मध्य एशिया में सिकियांग के बहुत बड़े हिस्से पर, जिसमें काशगर भी शामिल था. तक प्रभुत्व स्थापित कर लिया था।
- इन शासकों ने रेशम मार्ग से जमीन के रास्ते होने वाले व्यापार में काफी बढ़ोत्तरी की। यह रेशम के साथ-साथ उत्तम कोटि के चीनी मिट्टी के बर्तन और संग्यशब (जेड) नामक पत्थर की पच्चीकारी वाली चीजें पश्चिम एशिया, यूरोप और भारत को निर्यात करते थे।
शैलेंद्र साम्राज्य के संबंध में
- शैलेंद्र शासकों के चोलों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध थे।
- शैलेंद्र शासकों ने सुमात्रा के निकट पालेमबांग में अपनी राजधानी बनाई, जो पहले से ही संस्कृत व बौद्ध अध्ययन का अनुसंधान केंद्र था। इन्होंने बोरोबुदूर में बुद्ध को समर्पित एक मंदिर बनवाया।
- कंबोज शासकों ने कंबोडिया और अन्नाम तक अपना प्रभुत्व स्थापित किया था, जो 15वीं सदी तक कायम रहा। इस काल में साम्राज्य को सांस्कृतिक और आर्थिक समृद्धि चरमोत्कर्ष पर थी। इन्होंने कोडिया में अंकोरबाट के मंदिर का निर्माण करवाया।
- इन्होंने मंदिर निर्माण 10वीं सदी में आरंभ किया और प्रत्येक शासक अपनी स्मृति को स्थायित्व देने के लिये एक के बाद एक मंदिर बनवाते रहे। इसमें अकोरवाट का मंदिर सबसे बड़ा है। इसमें तीन किलोमीटर के छतदार गलियारे हैं जो देवी-देवताओं तथा अप्सराओं की मूर्तियों से सजे है। जिसके चौखानों में महाभारत और रामायण के दृश्य अंकित किये गए हैं।
- खलीफा अल-मैमून ने यूनानी, बैजतिआई, मिस्र, ईरानी और भारतीय इत्यादि सभ्यताओं के ज्ञान-विज्ञान का अरबी भाषा में अनुवाद करने के लिये बगदाद में बैत-उल-हिकमत (ज्ञान गृह) की स्थापना की थी।
- यूरोप में सामंती व्यवस्था की दो विशेषताएँ थीं जिसमें पहली सर्फडम, कृषि दासता की प्रथा थी और दूसरी मेनर की व्यवस्था, मेनर वह इमारत या दुर्ग होता था, जहाँ लॉर्ड रहता था।
- कंपस (दिशा सूचक यंत्र) का आविष्कार चीन द्वारा किया गया. जो अरब संसार से होकर यूरोप पहुँचा
मध्यकालीन नाम | वर्तमान नाम |
टोकिन | उत्तर वियतनाम |
अन्नाम | दक्षिण वियतनाम |
सियाम | थाइलैंड |
- 13वीं सदी में मंगोलों ने चीन पर शासन किया। तभी उन्होंने टॉकिन और अन्नाम पर भी अपना नियंत्रण स्थापित किया। उत्तर कोरिया को जीतते हुए उन्होंने विशाल साम्राज्य स्थापित किया।
2. उत्तर भारत तीन साम्राज्यों का काल(आठवीं से दसवीं सदी तक )
- 8वीं से 10वीं सदी के बीच भारत में पाल (पूर्वी भारत), प्रतिहार (पश्चिमी भारत और ऊपरी गंगा घाटी) और राष्ट्रकूटों (दक्कन) ने शासन किया। उपर्युक्त तीनों में सबसे दीर्घायु ‘राष्ट्रकूट’ साम्राज्य था। जिसने आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में विकास हेतु उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच सेतु का काम किया।
- पाल वंश की स्थापना 750 ई. में गोपाल ने की थी।
- 770 ई. में गोपाल की मृत्यु हो जाने के बाद उसके पुत्र धर्मपाल ने 810 ई. तक शासन किया। धर्मपाल को राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने पराजित किया। इससे पहले ध्रुव प्रतिहारों को भी शिकस्त दे चुका था।
- आठवीं सदी के मध्य से लेकर लगभग सौ वर्षों तक पूर्वी भारत | में पाल शासकों का वर्चस्व रहा। उसी काल में अरब व्यापारी सुलेमान | | ने भारत की यात्रा की। उसने पाल राज्य को रूहमा या धर्म (यानी धर्मपाल का संक्षिप्त रूप) कहा।
- पाल शासकों के तिब्बत के साथ घनिष्ठ सांस्कृतिक संबंध थे। संतरक्षित और दीपांकर जैसे बौद्ध विद्वानों को तिब्बत में आमंत्रित किया गया और उन्होंने वहाँ बौद्ध धर्म के नए रूप का प्रचार किया।
- पालों का दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापार काफी लाभदायक था। इससे साम्राज्य में संपन्नता आई । अतः दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ पालों के व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध थे।
- उस समय दक्षिण-पूर्व एशिया में शैलेंद्र शासकों का वर्चस्व था। उन्होंने पाल दरबार में कई दूत भेजे और नालंदा में एक विहार बनाने की अनुमति मांगी।
- विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना धर्मपाल ने की थी। धर्मपाल ने नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरुद्धार भी कराया।
- प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक और इस राजवंश का महान शासक भोज था।
- एक अभिलेख के अनुसार इसका राज्य सतलुज नदी के पूर्वी किनार तक फैला हुआ था।
- इसे मिहिरभोज भी कहा जाता था। यह विष्णु भक्त था। अतः इसके सिक्कों पर ‘आदिवराह’ शब्द अंकित है।
- प्रतिहारों के पास भारत में सबसे अच्छी अश्वारोही सेना थी। उन दिनों मध्य एशिया और अरब देशों से घोड़ों का आयात भारतीय व्यापार का एक महत्त्वपूर्ण अंग था।
- बगदाद निवासी अलमसूदी ने 915-16 ई. के बीच गुजरात की यात्रा की। उस समय गुजरात में प्रतिहार शासकों की शक्ति का बोलबाला था। उसने गुर्जर प्रतिहार राज्य को ‘अल-जुजर’ कहा।
- सुलेमान एक अरब व्यापारी था, जो नवीं सदी के मध्य में भारत आया था। उस समय पूर्वी भारत में पाल वंश का शासन था।
- वेनिस का यात्री मार्कोपोली था, जिसने चीन की यात्रा की थी।
- दक्कन में राष्ट्रकूट राजवंश की स्थापना दतिदुर्ग ने की थी।
- आधुनिक शोलापुर के निकट मान्यखेट या मालखेड़ को उसने अपनी राजधानी बनाया तथा उत्तरी महाराष्ट्र के पूरे प्रदेश पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया।
- राष्ट्रकूट राजवंश के अंतिम प्रतापी राजा कृष्ण तृतीय ने चोल राजा परांतक को परास्त करके चोल साम्राज्य के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया और इसके उपरांत वह दक्षिण में रामेश्वरम् की ओर बढ़ा और वहाँ तक के प्रदेशों को जीतकर एक विजय स्तंभ स्थापित किया एवं एक मंदिर का निर्माण कराया।
- सहिष्णुता की नीति अपनाते हुए उसने मुसलमान व्यापारियों को अपने राज्य में बसने की इजाजत दी और उन्हें इस्लाम के प्रचार की भी छूट दी। इस नोति से उन्हें विदेश व्यापार में भी सहायता मिली।
- खास क्षेत्र असम से संबंधित है।
- प्रागज्योतिषपुर, असम राज्य का पुराना नाम है।
- लाट क्षेत्र वर्तमान में दक्षिण गुजरात में स्थित है।
नाड-गवुण्ड | राजस्व अधिकारी |
छोटे सरदार | भोगपति या सामंत |
मातहत | प्रशासनिक सरदार |
- पत्तल, पाल और प्रतिहार साम्राज्य में विषय से नीचे की एक इकाई थी। जिनका कार्य भू-राजस्व की वसूली और शांति व्यवस्था बनाए रखना था।
3. चोल साम्राज्य (नवीं से बारहवीं सदी तक)
- 850 ई. में यानी 9वीं सदी के अंत में विजयालय के पल्लवों को पराजित करके चोल साम्राज्य की स्थापना की यह पहले पल्लवों का ही सामंत था। इसने पांड्यों की शक्ति को भी छीन लिया था।
- विजयालय ने काँची के पल्लवों को हराने के बाद दक्षिण तमिल देश जिसे टोंड मंडलम कहा जाता था तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
- तंजोर का राजराजेश्वर मंदिर चोल सम्राट राजराज (985 ई.-1014 ई.) के शासनकाल में निर्मित हुआ था। उन्होंने अनेक शिव और विष्णु मंदिर भी बनवाए और चोल शासकों ने मंदिर की दीवारों पर लंबे-लंबे अभिलेख उत्कीर्ण कराने का चलन आरंभ किया, जिसमें वे अपनी जीतों के ऐतिहासिक विवरण लिखवाते थे।
- राजेन्द्र प्रथम ने एक सैनिक अभियान कलिंग के रास्ते बंगाल पर किया था। इसकी सेना ने गंगा को पार करते हुए स्थानीय राजाओ को हराया। उसने इस अभियान में समुद्रगुप्त के मार्ग का अनुसरण किया था और विजय स्मृति के रूप में कावेरी के मुहाने पर एक नई राजधानी बनाई, जिसे गंगईकोड चोलपुरम नाम दिया। अर्थात् गंगा के चोल विजेता
- अपने पिता राजराज की विस्तारवादी नीति को आगे बढ़ाते हुए राजेन्द्र प्रथम ने पांड्य और चेर शासकों पर आक्रमण करके उन्हें अपने साम्राज्य में मिला लिया। उसने अपनी यह विजय श्रीलंका तक जारी रखी और दक्षिण भारत में आरंभिक मध्यकालीन समय तक अपना प्रभुत्व कायम रखा।
- चोलों ने अपनी सैन्य कार्रवाई के बल पर दक्षिण-पूर्व एशिया के शैलेंद्र | शासकों पर आक्रमण किया और उनके कुछ क्षेत्रों को जीतकर अपने अधिकार में किया। उनका उद्देश्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ होने वाले व्यापार पर नियंत्रण स्थापित करना था।
- प्रायः चोल साम्राज्य मंडलों या प्रांतों में विभाजित था और मंडलम, वलनाडुओं और नाडुओं में बँटे होते थे।
- कभी-कभी राजपरिवार के सदस्यों को ही प्रांतीय शासक नियुक्त किया। जाता था और अधिकारियों को आमतौर पर राजस्वदायी भूमिदान द्वारा भुगतान किया जाता था।
- चोल साम्राज्य में व्यापार-वाणिज्य खूब फल-फूल रहे थे और व्यापारियों की कुछ बड़ी-बड़ी श्रेणियाँ थीं, जिन्हें गिल्ड कहते थे। यह श्रेणियाँ मुख्य रूप से जावा एवं सुमात्रा के साथ व्यापार करने के लिये जानी जाती थीं।
- चोलकालीन अभिलेखों से हमें इस साम्राज्य के ग्राम प्रशासन की जानकारी प्राप्त होती है। यह प्रशासन दो इकाइयों में बँटा था उर और महासभा (सभा), जिसमें उर गाँव की आम सभा थी और महासभा अग्रहार गाँवों के वयस्क ब्राह्मण सदस्यों की सभा थी। अग्रहारों में ब्राह्मण लोग निवास करते थे और वहाँ की अधिकांश भूमि लगानमुक्त होती थी।
कैलाश नाथ मंदिर | काँचीपुरम |
होयसलेश्वर मंदिर | हलेबिड |
बृहदेश्वर मंदिर | तंज़ोर |
गोमटेश्वर (मूर्ति) | श्रमणबेलगोला |
- काँची का कैलाश नाथ मंदिर एक हिंदू मंदिर है। इसे पल्लव वंश के राजा राजसिम्हा (नरसिंह वर्मन-II) ने बनवाया था। जिसमें मंदिर के अग्रभाग का निर्माण महेन्द्र वर्मन-तृतीय ने करवाया था। मंदिर में शिव व पार्वती की नृत्य करती हुई मूर्ति आकर्षण का केंद्र है।
- होयसलेश्वर मंदिर चालुक्य शैली का उत्कृष्ट मंदिर है, जो होयसलों की राजधानी हलेबिड में स्थित है। इसे होयसल राजवंश के शासकों ने बनवाया।
- चोल शासक राजराज प्रथम ने वृहदेश्वर मंदिर का निर्माण तंजोर में करवाया, जो स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
- श्रमणबेलगोला में स्थापित गोमटेश्वर की मूर्ति इस काल की मूर्तिकला का प्रत्यक्ष प्रमाण देती है।
- चोल काल में दक्षिण भारत ने मूर्तिकला की ऊँचाई को स्पर्श किया, जिसका सबसे अच्छा उदाहरण नटराज की प्रतिमा में देखा जा सकता है। यह प्रतिमाएँ कांस्य से बनी होती थीं।
दक्षिण भारत के संदर्भ में
- छठी से लेकर नवीं सदी तक तमिल देश में अनेक लोकप्रिय संतों का उदय हुआ। इनमें अलवार व नयनार कहे जाने वाले संत विष्णु व शिव के भक्त थे। उन्होंने तमिल तथा उस क्षेत्र से संबंधित अन्य भाषाओं में गीतों और भजनों की रचना की। यही रचनाएँ तिरूमुरई नाम से ग्यारह जिल्दों में संकलित की गई।
- कंबन की रामायण को तमिल साहित्य की उच्चतम कोटि की रचना माना जाता है।
- विद्धान पंचा, पोन्ना और रन्ना को कन्नड़ काव्य का रत्न माना जाता है।
- यह अलवार और नयनार संतों द्वारा लिखी गई रचनाओं का संकलन है जिसे पाँचवें वेद की संज्ञा दी गई है।
राजा | कवि |
चोल | कंबन |
चालुक्य | नन्नैया |
राष्ट्रकूट | पंपा – पोन्ना |
- कंबन ग्यारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध तथा बारहवीं सदी के प्रारंभ तक चोल राजा के दरबार में रहा। इस काल को चोल साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है।
- चालुक्य राजा के दरबार में नन्नैया ने महाभारत का तेलुगू पाठ आरंभ किया, जिसे तेरहवीं सदी में तिक्कन्ना ने पूरा किया।
- राष्ट्रकूट राजाओं ने तेलुगू और कन्नड़ दोनों भाषाओं को संरक्षण दिया। राजा अमोघवर्ष ने कन्नड़ में काव्यशास्त्र लिखा। पंपा, पोन्ना और रन्ना कन्नड़ काव्य के रत्न माने जाते हैं, जो जैन धर्म से प्रभावित थे।
- द्रविड़ शैली के मंदिरों के चारों ओर एक विशाल परिक्रमा पथ होता था जो ऊँची चारदीवारी से घिरा रहता था। चारदीवारियों में जगह-जगह ऊँचे अलंकृत सिंहद्वार बने होते थे जिन्हें गोपुरम कहा जाता था।
4. आर्थिक तथा सामाजिक जीवन, शिक्षा और धार्मिक विश्वास (800-1200 ई.)
- चीन में विदेश व्यापार के लिये कैंटन एक मुख्य समुद्री बंदरगाह था इसी को अरब यात्रियों ने कानफ कहा है।
- भारतीय व्यापारी गिल्डों में संगठित होकर व्यापार करते थे। प्रारंभिक काल से ही मणिग्रामन एवं नानदेसी श्रेणियाँ सक्रिय थीं।
- दक्षिण-पूर्व एशिया के व्यापार में व्यापारियों के पीछे-पीछे पुरोहित भी उन देशों में पहुँचे और उन क्षेत्रों में बौद्ध एवं हिन्दू धर्म का समावेश हुआ न कि हिन्दू और मुस्लिम जावा के बोरोबुदूर का बौद्ध मंदिर तथा कंबोडिया के अंकोरवाट का विष्णु मंदिर दोनों ही इन धर्मों के प्रसार के प्रमाण हैं।
फ्यूडल समाज के संदर्भ में
- फ्यूडल समाज में प्रभुत्व की स्थिति उन लोगों की होती थी जो जमीन को जोतने बोने का काम तो नहीं करते थे, लेकिन अपनी जीविका उसी से प्राप्त करते थे। भारत में फ्यूडल समाज से राजा की स्थिति | कमजोर हुई और वह इनके सरदारों पर निर्भर हो गया।
- छोटे राज्य, गाँवों की अर्थव्यवस्था को प्रश्रय देते थे, जिससे गाँव में समूह या गाँव आत्मनिर्भर होते थे। फ्यूडल सरदारों ने ग्रामीण स्वशासन पर भी अपना प्रभुत्व कायम करके इसे कमजोर बना दिया।
- इनके सरदारों के पास अपनी-अपनी सेनाएँ होती थीं।
प्रारंभिक मध्यकाल में स्त्रियों की दशा के संदर्भ में
- प्रारंभिक मध्यकाल में स्त्रियों की दशा अत्यंत दयनीय थी। इन्हें मानसिक दृष्टि से हीन माना जाता था। उनका कर्तव्य आँख मूँद कर पति की व उसके परिवार की सेवा करना था।
- उस काल में स्त्रियों के लिये वेद पढ़ना वर्जित था।
- मत्स्य पुराण पति को यह अधिकार देता है कि अगर पत्नी गलती करती है, तो उसे कोड़े या खपच्ची से पीट सकता है।
- छठी सदी में हरिषेण ने अपनी रचना ‘वृहत्कथा कोष’ में भारतीय क्षेत्र की भाषाओं, वेश-भूषा आदि का वर्णन किया है।
- छठी सदी में द्वितीय भास्कर ने ‘लीलावती ग्रंथ’ की रचना की, जो दीर्घकाल तक गणित का मानक ग्रंथ बना रहा।
- पाणिनी की रचना ‘अष्टाध्यायी’ है। ‘न्याय’ गौतम की रचना है।
- चतुर्दान एक जैन सिद्धांत है जिसमें विद्या, आहार, औषधि और आश्रय के दान शामिल हैं।
- बारहवीं सदी में इस धार्मिक आंदोलन का जन्म हुआ। इसे लिंगायत या वीरशैव आंदोलन कहते हैं। इसके संस्थापक बासव व चन्नवासव थे।
- ये कलचुरी दरबार से संबंधित थे। यह शिव के उपासक थे।
- इन्होंने जाति प्रथा का प्रबल विरोध किया और उपवास, भोज, तीर्थ यात्रा तथा यज्ञ को नकार दिया। इन्होंने सामाजिक क्षेत्र में बाल-विवाह | का विरोध किया और विधवा विवाह का समर्थन किया।
शंकराचार्य के संदर्भ में
- शंकराचार्य का जन्म केरल में नवीं सदी में हुआ था। अद्वैतवाद शंकर का दर्शन है। इन्होंने नवीं सदी में जैन व बौद्ध धर्म को चुनौती देते हुए हिन्दू धर्म को नए सिरे से सूत्रबद्ध किया। उन्होंने ईश्वर व उसकी सृष्टि को एक माना और मोक्ष का मार्ग ईश्वर की भक्ति को बताया जिसका आधार ज्ञान है। शंकर ने वेदों को सच्चे ज्ञान के स्रोत के रूप में फिर से प्रतिष्ठित किया।
शंकराचार्य – रामानुज – मध्वाचार्य – वल्लभाचार्य |
- शंकराचार्य का जन्म नवीं सदी में केरल में हुआ था।
- ग्यारहवीं सदी में रामानुज ने मोक्ष मार्ग पाने के लिये भगवतकृपा को महत्त्व दिया।
- रामानुज का अनुसरण करते हुए दक्षिण भारत में मध्वाचार्य तथा उत्तर भारत में वल्लभाचार्य, रामानंद आदि विद्वान चिंतकों ने अपने विचार दिये।
5.. संघर्ष का युग (लगभग 1000 ई. – 1200 ई.)
- नवीं सदी का अंत होते-होते अब्बासी खिलाफत का पतन हो चुका था। खलीफाओं ने एकता को कायम रखने के लिये एक तरीका अपनाया और कहा कि जो सेनापति अपने लिये स्वतंत्र क्षेत्र स्थापित करने में कामयाब हो जाते हैं। उन्हें अमीर-उल-उमरा या सेनापतियों के सेनापति की उपाधि दी जाएगी। अतः अमीर-उल-उमरा स्वतंत्र क्षेत्र स्थापित करने वाले सेनापति थे।
सामानियों के संबंध में
- नवीं सदी के अंतिम दौर में ट्रांस-ऑक्सियाना, खुरासान, और ईरान के कुछ हिस्सों पर सामानियों का शासन था, जो ईरानी मूल के थे।। इन्होंने एक नए सैन्य बल का गठन किया जो गाजी कहलाए। अतः ये एक ईरानी मूल के शासक थे।
- तुर्क लोग प्राकृतिक शक्ति की पूजा करते थे। अतः ये मुसलमानों की निगाह में विधर्मी थे। इसलिये इनकी लड़ाई राज्य की सुरक्षा के साथ-साथ धर्म की रक्षा की भी लड़ाई थी। इसलिये गाजी जितने योद्धा थे उतने ही धर्म के रक्षक भी थे।
- सामानी सूबेदारों में अलप्तगीन नामक एक तुर्क गुलाम भी था। जिसने कालांतर में गजनी को अपनी राजधानी बनाकर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की और मध्य एशियाई जनजातियों से इस्लामी क्षेत्रों की रक्षा का दायित्व भी गजनवियों ने सँभाल लिया।
- 998 ई.-1030 ई. तक गजनी पर शासन करने वाले महमूद को मध्यकालीन इतिहासकार ‘इस्लाम का नायक’ मानते थे। इसने मध्य एशियाई तुर्क जनजातियों से राज्य और धर्म की रक्षा करने के लिये शूरवीरता से उनका सामना किया।
- फिरदौसी की रचना शाहनामा है, जो फारसी भाषा में लिखी गई है। सामानी राज्य में फारसी भाषा और साहित्य को प्रोत्साहन मिला। इस ग्रंथ में ईरान और तूरान के बीच के संघर्ष को दिखाया गया है। इसमें प्राचीन ईरानी नायकों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई।
- महमूद गजनी ने खुद दावा किया है कि वह ईरान के पौराणिक राजा अफरासियाब का वंशज है। इन पर इसका इतर असर था कि फारसी भाषा और संस्कृति गजनवी साम्राज्य की भाषा और संस्कृति बन गई।
- महमूद गजनी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किया था। परंतु उसका लक्ष्य भारत में स्थायी मुस्लिम शासन स्थापित करना नहीं था. बल्कि लूटपाट करना था।
- गजनी राजवंश की स्थापना अलप्तगीन ने की थी। इसने गजनी को अपनी राजधानी बनाया। उस समय भारत के उत्तर-पश्चिमी राज्य में हिंदूशाही शासक थे।
- 1001 ई. में महमूद ने जयपाल को हरा दिया। जयपाल के बाद उसके पुत्र आनंदपाल ने पेशावर के निकट वैहिंद में 1008-09 ई. के बीच महमूद के साथ निर्णायक युद्ध लड़ा। इस युद्ध में पंजाब के खोखर जनजाति ने भी आनंदपाल का साथ दिया था, तथापि महमूद की जीत हुई।
- महमूद का भारत पर हमले का उद्देश्य धन लूटना और इस्लाम का यश बढ़ाना था। उसने कन्नौज और सोमनाथ पर आक्रमण करके खुद को ‘बुतशिकन’ अर्थात् मूर्तिभंजक के तौर पर पेश किया।
महमूद गजनी के संदर्भ में
- महमूद गजनी ने 1018 ई. में कन्नौज पर आक्रमण किया। उसके बाद 1025 ई. में सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण करके उसे खूब लूटा। उस समय गुजरात का शासक भीम-II
- महमूद का भारत पर आक्रमण करने का उद्देश्य उत्तर भारत के धनधान्य से पूर्ण मंदिरों और नगरों को लूटना था। ताकि लूटे धन से वह मध्य एशियाई शत्रुओं के खिलाफ संघर्ष जारी रख सके। वह भारत पर शासन नहीं करना चाहता था।
शासक | राज्य |
गहड़वाल | कन्नौज |
चौहान | अजमेर |
परमार | मालवा |
- प्रतिहार साम्राज्य के विघटन के बाद उत्तर भारत में कई राजपूत राज्यों का उदय हुआ। इनमें महत्त्वपूर्ण थे- कन्नौज के गाहड़वाल, मालवा के परमार और अजमेर के चौहान। इनमें गाहडवालों ने पालों को बिहार से निकाल दिया। चौहानों ने गुजरात, पंजाब और दिल्ली तक अपना साम्राज्य फैलाया।
- आठवीं सदी के बाद और दसवीं से बारहवीं सदी के बीच के उत्तर भारत में मंदिर निर्माण चरमोत्कर्ष पर था।
- इस काल में मंदिर निर्माण हेतु नागर शैली प्रचलित थी।
नागर शैली के संदर्भ में
- नागर शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं- गर्भगृह या देउल जिसे कक्ष भी कहते हैं इसकी छत गुबंदनुमा बनी होती थी। मुख्य कक्ष अक्सर वर्गाकार होता था। उसकी प्रत्येक भुजा से लगाकर कक्ष बनवाए जा सकते थे। गर्भगृह के सामने एक मंडप बनवाया जाता था। कभी-कभी मंदिर चारदीवारी से घिरा होता था जिस पर बड़े-बड़े सिंहद्वार होते थे। इस शैली में खजुराहों व भुवनेश्वर के मंदिर बने हुए हैं। खजुराहों के पार्श्वनाथ मंदिर, विश्वनाथ मंदिर और कंदरिया महादेव मंदिर इस शैली की संपूर्ण विशेषताओं को स्थापित करते हैं।
खजुराहो | कंदारिया महादेव मंदिर |
माउंट आबू | जैन मंदिर |
कोणार्क | सूर्य मंदिर |
भुवनेश्वर | लिंगराज मंदिर |
- यह सभी मंदिर नागर शैली में बने हैं। इसमें खजुराहो का पार्श्वनाथ मंदिर एवं विश्वनाथ मंदिर भी शामिल हैं।
ग्यारहवीं सदी में बने उत्तर भारत के मंदिरों के संदर्भ में
- ग्यारहवीं सदी में बने उत्तर भारत के मंदिरों में अत्यधिक विस्तार एवं अलंकरण दिखाई देता है। यह मंदिर इस काल में सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन के केंद्र बन गए थे।
- इन मंदिरों ने अकूत संपत्ति अर्जित कर ली थी। सोमनाथ मंदिर इसका उदाहरण था। यह मंदिर कई-कई गाँवों पर शासन करते थे और व्यवसायिक गतिविधियों में भी भाग लेते थे।
- चालुक्य राजा भीमदेव-I का मंत्री वस्तुपाल एक श्रेष्ठ लेखक था। उसने अनेक विद्धानों को आश्रय दिया और माउंट आबू स्थित दिलवाड़ा के जैन मंदिर को बनवाया।
मुइज्जुद्दीन मुहम्मद-बिन-साम के भारत आक्रमण के संदर्भ में
- मुहज्जुद्दीन मुहम्मद बिन साम (मुहम्मद गौरी) ने 1178 ई. में राजपूताना रेगिस्तान से होकर गुजरात में प्रवेश की कोशिश की लेकिन माउंट आबू के निकट एक लड़ाई में गुजरात के शासक से पराजित हुआ इससे उसकी समझ में आया कि भारत विजय के लिये पंजाब में एक मजबूत आधार कायम करना जरूरी है।
- 1191 ई. में तराइन की लड़ाई में गौरी की फौज पृथ्वीराज चौहान से बुरी तरह पराजित हुई लेकिन 1192 ई. की तराइन की दूसरी लड़ाई में मुहम्मद गौरी की जीत हुई।
- 1192 ई. में मुहम्मद-बिन-साम ने तराइन की लड़ाई लड़ी और वापस गजनी लौट गया तथा अपने विश्वस्त गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत का जीता हुआ राज्य सौंप गया। परंतु 1194 ई. में साम फिर भारत लौटा और यमुना नदी पार करके कन्नौज के निकट चंदावर नामक स्थान पर जयचंद से जमकर युद्ध किया। इसमें जयचंद की हार हुई। अतः चंदावर का युद्ध जयचंद और मुहम्मद बिन साम के बीच लड़ा गया।
- सन 1192 ई. में तराइन की दूसरी लड़ाई लड़ी गई, जो भारतीय इतिहास को नया मोड़ देने वाली लड़ाई मानी गई। इसमें पृथ्वीराज चौहान की हार हुई।
तराइन युद्ध के संबंध में
- द्वितीय तराइन युद्ध के बाद तुर्क सेना ने सरस्वती के निकट पृथ्वीराज को बंदी बना लिया तथा हाँसी, सरस्वती और समाना के किलों पर कब्जा कर लिया।
- पृथ्वीराज को कुछ समय तक मुहम्मद गौरी ने अजमेर पर शासन करने दिया। क्योंकि इसकी जानकारी लड़ाई के बाद मिले सिक्कों से होती है जिसमें एक तरफ ‘पृथ्वीराज’ और उसकी तिथि का उल्लेख है तथा दूसरी तरफ ‘श्री मुहम्मद साम’ लिखा है।
- मध्य एशिया के शासक मोहम्मद गौरी ने भारत में सर्वप्रथम मुल्तान व गुजरात पर आक्रमण किया। उसके बाद 1206 ई. में उसका अंतिम आक्रमण खोखर जाति के विरुद्ध था। इस बीच उसने भारत के कई इलाकों पर आक्रमण करके वहाँ के शासकों को पराजित करके तुर्क शासन स्थापित किया और भारत में केंद्रीय मुस्लिम राजनीतिक व्यवस्था को भी स्थापित किया, जो बाद तक कायम रही।
6. दिल्ली सल्तनत-1 (लगभग 1200 ई.-1400 ई.) (मामलूक सुल्तान)
कुतुबुद्दीन ऐबक के संबंध में
- कुतुबुद्दीन ऐबक एक तुर्क गुलाम था और उसे भारतीय प्रदेशों | का उत्तराधिकार 1206 ई. में गौरी की मृत्यु के बाद मिला था।
- ऐबक ने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया। उसने दिल्ली को कभी भी राजधानी बनाने का रुख नहीं किया।
- ऐबक को तराइन के युद्ध के बाद गौरी ने भारत में सल्तनत के विस्तार हेतु नियुक्त किया था।
- 1206 ई. में गौरी की मृत्यु के बाद ऐबक जो एक तुर्क गुलाम था, ने भारत में गुलाम वंश की स्थापना की।
- कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु 1210 ई. में चोगान खेलते समय घोड़े से गिर जाने से लगी चोट के कारण हुई।
इल्तुतमिश के संदर्भ में
- 1210 ई. में ऐबक की मृत्यु के बाद इल्तुतमिश दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इल्तुतमिश को तुर्कों की भारत-विजय को स्थायित्व प्रदान करने का श्रेय दिया जाता है।
- इल्तुतमिश आरंभिक वर्षों में उत्तर-पश्चिम पर जीत हासिल करना चाहता था, परन्तु गजनी पर ख्वारिज्म शाह की विजय ने उसकी चिंता बढ़ा दी। अब ख्वारिज्म साम्राज्य मध्य एशिया में सर्वाधिक शक्तिशाली हो गया। अतः इस खतरे को टालने के लिये इल्तुतमिश ने लाहौर के लिये कूच किया, और उस पर कब्जा कर लिया।
ख्वारिज्म साम्राज्य के संदर्भ में
- ख्वारिज्म साम्राज्य मध्य एशिया का सबसे शक्तिशाली राज्य था। उसकी पूर्वी सीमा सिंधु नदी तक फैली हुई थी, जो इल्तुतमिश की चिंता का कारण थी।
- 1218 ई. में ख्वारिज्म साम्राज्य को मंगोलों ने नष्ट कर दिया और एक नए साम्राज्य की स्थापना की, जिसकी सीमा चीन से लेकर भूमध्य सागर तथा कैस्पियन सागर से लेकर जक्सार्टिस नदी तक फैली हुई थी।
- जब इल्तुतमिश पश्चिमी इलाकों पर ध्यान दे रहा था तभी बंगाल और बिहार में इवाज ने सुल्तान ग्यासुद्दीन की पदवी धारण की और अपनी आजादी का ऐलान किया। 1226-27 ई. में इवाज लखनौती के निकट इल्तुतमिश के बेटे के खिलाफ लड़ता हुआ मारा गया।
- अपने जीवन के अंतिम वर्ष उत्तराधिकारी को लेकर इल्तुतमिश काफी परेशान था। बेटों को गद्दी लायक न समझ कर उसने रजिया को गद्दी पर बैठाने का फैसला किया और उलेमाओं तथा अमीरों को रजामंद कर लिया।
- रजिया ने तीन वर्ष तक दिल्ली में शासन किया। परन्तु उसी के शासनकाल में सत्ता के लिये राजतंत्र और उन तुर्क सरदारों के बीच संघर्ष आरंभ हो गया, जिन्हें ‘चहलगामी’ कहा जाता था।
- चलहगामी’ तुर्क सरदार थे, जिनसे इल्तुतमिश बहुत आदर से पेश आता था। अतः इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद वे किसी को कठपुतली बनाकर गद्दी पर बिठाना चाहते थे, परन्तु रजिया के गद्दी पर बैठने के बाद इन्होंने विद्रोह कर दिया क्योंकि वह उनकी कठपुतली बनने को तैयार नहीं थी।
- रजिया का विश्वासपात्र अमीर याकूत खाँ अबीसिनिया का निवासी था, जिस पर मेहरबान होने का आरोप तुर्क अमीरों ने रजिया पर लगाया।
- इल्तुतमिश पहला ऐसा मुस्लिम शासक था जिसने अपनी राजधानी लाहौर से दिल्ली स्थानांतरित की।
- तुर्क सरदार उलूग खाँ नं 1265 ई. में दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर अधिकार कर लिया। वह बलबन के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ।।
बलबन के संदर्भ में
- बलबन राजपद की शक्ति और प्रतिष्ठा की वृद्धि हेतु हमेशा प्रयत्नशील रहा। उसने गद्दी पर अपने दावे को मजबूत करने के लिये खुद को ईरानी शहंशाह अफरासियाव का वंशज कहा।
- वह भारत में एक शक्तिशाली कठोर शासक बनकर उभरा और सत्ता की सारी शक्ति अपने हाथों में केंद्रित की। उसने शक्तिशाली सेना भी गठित की।
- दिल्ली सल्तनत के लिये खतरा बने मंगोलो का सामना करने के लिये बलबन ने एक शक्तिशाली केंद्रीकृत सेना संगठित की। उसने एक सैन्य विभाग ‘दीवान-ए-अर्ज’ का पुनर्गठन किया।
- इल्तुतमिश की मृत्यु के समय बलबन सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद का नायब था, जिसे उसने गद्दी हासिल करने में मदद की थी। अतः अपनी स्थिति मजबूत बनाने के लिये बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह महमूद के साथ करा दिया था।
- अमीरों पर नियंत्रण के लिये बलबन ने सजदा और पैबोस रस्म की शुरुआत की, जिसमें सजदा राजा को दंडवत् प्रणाम करना और पैबोस-राजा के कदम चूमना था।
- चंगेज खाँ, ख्वारिज्मी युवराज जलालुद्दीन का पीछा करते हुए सिंधु नदी के तट तक जा पहुँचा था। हालाँकि उसने इसे पार कर भारत पर आक्रमण नहीं किया।
- जब दिल्ली के आसपास के इलाकों तथा दोआब में शांति सुव्यवस्था की स्थिति काफी बिगड़ गई, गंगा-यमुना दोआब तथा अवध की सड़कें चोर डाकुओं से घिरी रहती थीं, आसपास के पूर्वी क्षेत्र में कुछ राजपूत जमींदारों ने किले बना लिये थे और शासन को चुनौती दे रहे थे। इन सबसे निपटने के लिये बलबन ने ‘खून और फौलाद’ की नीति अपनाई तथा बदायूँ के राजपूत गढ़ों को नष्ट कर दिया और सड़कों को साफ कराकर अफगान सिपाही वहाँ नियुक्त कर दिये।
- बलबन ने अपने पुत्र बुगरा खाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त। किया था। उसने दिल्ली की बजाय बंगाल पर स्वतंत्र रूप से शासन करना पसंद किया और इस राजघराने ने 40 वर्ष तक बंगाल पर शासन किया।
मध्यकालीन राज्य | वर्तमान नाम |
तिरहुत | उत्तरी बंगाल |
राधा | दक्षिण बंगाल |
जाजनगर | उड़ीसा |
- तेरहवीं सदी के ज्यादातर समय में बंगाल और बिहार दिल्ली के नियंत्रण में नहीं थे।
7. दिल्ली सल्तनत-II ( लगभग 1200-1400 ई.) ( खिलजी और तुगलक )
- अलाउद्दीन ने अमीरों के षड्यंत्र जानने के लिये एक गुप्तचर प्रणाली स्थापित की थी।
- उसने अमीरों को अपने खिलाफ साजिश करने से रोकने के लिये कई नियम बनाए। भोजों और उत्सवों का आयोजन करना उनके लिये निषिद्ध कर दिया था।
- 1316 ई. में अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद मलिक काफूर ने उसके नाबलिग बेटे को गद्दी पर बैठा दिया। काफूर की हत्या के बाद खुसरो नामक एक व्यक्ति, जो हिंदू से मुसलमान बना था, दिल्ली की गद्दी पर बैठा। दिल्ली के प्रसिद्ध सूफी संत निजामुद्दीन औलिया ने उससे भेंट स्वीकार करके उसे सम्मान दिया।
- 1320 ई. में गियासुद्दीन तुगलक ने एक नए राजवंश की स्थापना को, जो 1412 ई. तक चलता रहा।
- तैमूर ने 1398 ई. में भारत पर आक्रमण किया था। उस समय | दिल्ली सल्तनत में तुगलक वंश का शासन था।
- अलाउद्दीन खिलजी ने अपने शासनकाल में मालवा, गुजरात पर अधिकार करते हुए राजस्थान के अधिकांश राजाओं को अपने अधीन करके दक्षिण में मदुरै तक अपना अधिकार स्थापित किया।
- उसने जो प्रादेशिक विस्तार का नया दौर प्रारंभ किया उसे चरम परिणति पर मुहम्मद बिन तुगलक ने पहुँचाया।
- 1299 ई. में अलाउद्दीन की सेना ने राजस्थान के रास्ते गुजरात की ओर कूच किया। रास्ते में सेना ने जैसलमेर पर हमला किया और गुजरात की ओर बढ़ा, तभी गुजरात का शासक राजा रायकरण घबरा गया और बिना प्रतिरोध के ही वहाँ से भाग गया।
- जब दिल्ली सल्तनत की सेना गुजरात आक्रमण के दौरान गुजरात. अन्हिलवाड़ को लूटते हुए सोमनाथ मंदिर में लूटपाट कर रही थी, तभी उसने मलिक काफूर को बंदी बनाया और अलाउद्दीन को सौंप दिया। जिसने शीघ्र ही सुल्तान का विश्वास जीत लिया और सैनिक अभियानों का नेतृत्व किया।
रणथंभौर आक्रमण के संदर्भ में
- जब अलाउद्दीन ने रणथंभौर पर आक्रमण किया था, उस समय यहाँ का शासक हमीरदेव था, जो पृथ्वीराज चौहान का उत्तराधिकारी था। देवगिरी पर राजा रामचंद्र का शासन था।
रजिया सुल्तान के संदर्भ में
- जब रजिया जनाना पोशाक में दरबार में आती थी और युद्ध का नेतृत्व करती थी तो यह कट्टरपंथी उलेमाओं को पसंद नहीं आता था। अतः निजाम उल मुल्क जुनैदी ने उसकी गद्दीनशीनी का विरोध किया और उसके खिलाफ अमीरों का समर्थन किया।
- रजिया ने राजपूतों को काबू में करने के लिये सर्वप्रथम रणथंभौर पर आक्रमण किया और पूरे राज्य में शांति व्यवस्था कायम की।
- रजिया जब लाहौर और सरहिंद विजय के बाद लौट रही थी तो उस समय उसी के खेमें में विद्रोह भड़क उठा और तबरहिंद के निकट उसे बंदी बना लिया गया।
- भारत पर मंगोल आक्रमण इल्तुतमिश के समय से प्रारंभ हुआ और तेरहवीं सदी के अंत तक चलता रहा, परंतु वे भारत में अपना स्थायित्व कायम करने में कामयाब नहीं हो सके। क्योंकि दिल्ली के सुल्तानों ने इनका डटकर सामना किया। अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली के निकट सीरी में नई राजधानी बनाई और किलेबंदी करके मंगोलों का सामना करने के लिये महीनों बैठा रहा। धीरे-धीरे दिल्ली के शासकों ने लाहौर पर अधिकार करते हुए झेलम के निकट साल्ट पर्वत श्रेणियों तक अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।
- अलाउद्दीन खिलजी ने मलिक काफूर के नेतृत्व में देवगिरी पर आक्रमण किया। उस समय राजा रामचंद्र वहाँ का शासक था. जिसने रायकरण के साथ संधि संबंध कायम किये हुए थे।
- मलिक काफूर ने जब देवगिरी पर दूसरा आक्रमण किया तो राजा रामचंद्र ने आत्मसमर्पण कर दिया। खिलजी ने उसके साथ सम्मानजनक व्यवहार किया और उसे राय रायन की उपाधि दी तथा उसे अपने पट पर फिर से प्रतिष्ठित कर दिया।
अलाउद्दीन खिलजी की ‘बाजार नियंत्रण नीति’ के संदर्भ में
- अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी बाजार नियंत्रण नीति के तहत खाद्यान्नों, शक्कर, रसोई तेल से लेकर सुई तक तथा आयात किये गए कीमती वस्त्रों, घोड़े, मवेशी तथा गुलामों तक की कीमतें तय कर दी थीं। इसके लिये उसने दिल्ली में तीन बाज़ार निर्मित किये एक खाद्यान्नों के लिये, दूसरा कीमती वस्त्रों के लिये और तीसरा घोड़े, गुलाम तथा मवेशियों के लिये।
- इन बाज़ारों को एक उच्च अधिकारी अपने नियंत्रण में रखता था. जिसे शाहना कहा जाता था।
- शाहना अधिकारी ही व्यापारियों की एक पंजिका रखता था जिसमें सबका लेखा-जोखा रहता था तथा दुकानदारों और कीमतों पर कड़ी निगाह रखता था।
- अलाउद्दीन खिलजी ने खाद्यान्नों की नियमित तथा सस्ती आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये घोषणा की कि दोआब क्षेत्र अर्थात् यमुना के निकट मेरठ से लेकर इलाहाबाद के निकट कड़ा की सीमा तक के प्रदेशों की भू-राजस्व अदायगी सीधे राज्य को की जाएगी। इसके अलावा भू-राजस्व के रूप में उपज का आधा हिस्सा नकद जमा करवाना होगा।
- अलाउद्दीन का दक्षिण के सभी राज्यों पर एक के बाद एक आक्रमण धन का लालच तथा गौरव की ललक थी न कि उनकी आंतरिक नीति में हस्तक्षेप करना। वह इन जीते हुए दक्षिणी राज्यों को अपने कब्जे में करना चाहता था, लेकिन उन पर प्रत्यक्ष शासन नहीं करना चाहता था।
- अलाउद्दीन का भू-राजस्व को नकद वसूलने के पीछे यही उद्देश्य था कि वह अपने सिपाहियों को नकद वेतन दे सके। इस वेतन से सैनिक अपना गुजारा, घोड़े की देखरेख तथा साज-सामान को दुरुस्त रखता था। नगद वेतन देने वाला वह इस सल्तनत का पहला सुल्तान था।
- मुहम्मद-बिन-तुगलक (132451 ई.) दिल्ली सल्तनत का एक ऐसा शासक था, जिसने धर्म और दर्शन का गहरा अध्ययन किया। जैन कवि जिनप्रभा सूरी व कई हिंदू योगियों को उसने सम्मान दिया।
- मोहम्मद-बिन-तुगलक ने कई प्रयोग किये और कृषि में गहरी | रुचि दिखाई। इसने अपने प्रथम प्रयोग के तहत दोआब के उपजाऊ प्रदेशों | के भू-राजस्व में वृद्धि कर दी, जो संभवतः उपज का आधा भाग था।
- दूसरे प्रयोग के तहत राजधानी दिल्ली को देवगिरी स्थानांतरित किया। देवगिरी को तुगलक ने दौलताबाद कहा।
- तीसरे प्रयोग के तहत सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन करवाना था जो संभवत: तांबा और पीतल के थे, जिनका मूल्य चांदी के टके के समान था। उसे यह प्रेरणा चीन और ईरान से मिली थी।
- चौथा प्रयोग खुरासन अभियान था। इस अभियान के लिये तुगलक ने अपने सैनिकों को एक वर्ष का अग्रिम वेतन तक दे दिया था। इस अभियान का नेतृत्व खुसरो मलिक ने किया था।
कर वृद्धि – राजधानी परिवर्तन – सांकेतिक मुद्रा – खुरासनअभियान |
मुहम्मद-बिन-तुगलक के संदर्भ में
- मुहम्मद बिन तुगलक मध्यकालीन शासकों में सबसे अधिक शिक्षित व सभी धर्मों को सम्मान देने वाला शासक था। उसने धर्म व दर्शन का गहरा अध्ययन किया था। वह योग्यता के आधार पर किसी को भी उच्च पदों पर नियुक्त कर देता था, चाहे वह अमीर (कुलीन) हो या अदना (छोटे परिवार ) ।
- उसने अपने शासनकाल में चार प्रयोग किये, जो असफल रहे। अतः उसे ‘अभागा आदर्शवादी’ की संज्ञा दी गई।
- जब उसने दिल्ली से दौलताबाद राजधानी स्थानांतरित की तो उसने सड़क और सराय बनवाए और संचार में सुधार किया। उसने दिल्ली से पीर-औलिये भी भेजे, ताकि धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विचारों में भी परिवर्तन लाया जा सके, जिससे लोगों में प्रभावशाली प्रक्रिया भी दिखी।
- मोरक्को यात्री इब्नबतूता 1333 ई. में दिल्ली आया और उसने तुगलक के प्रयोगों का कोई हानिकारक प्रभाव नहीं देखा।
मुहम्मद-बिन-तुगलक के संदर्भ में
- मुहम्मद बिन तुगलक के शासन के प्रारंभिक वर्षों में ही मंगोल सेना ने तर्मसरिन के नेतृत्व में सिंध पर आक्रमण कर दिया और उनका एक दल मेरठ तक पहुँच गया था।
- तुगलक ने झेलम के निकट मंगोलों को परास्त किया तथा कलानौर से लेकर पेशावर एवं सिंध तक अपना वर्चस्व कायम रखा।
- मुहम्मद-बिन-तुगलक ने दोआब में कृषि के विस्तार व सुधार के लिये दीवान-ए-अमीर-ए-कोही विभाग की स्थापना की। इसके तहत पूरे इलाके को विकास खंडों में विभाजित करके प्रखंड अधिकारी नियुक्त किया जाता था. जिसका कार्य किसानों को कर्ज देकर कृषि का विस्तार करना और उन्हें बेहतर फसलें उगाने के लिये प्रेरित करना था।
मुहम्मद-बिन-तुगलक के संदर्भ में
- तुगलक की तमाम असफलताओं के बावजूद भी उसके शासनकाल को दिल्ली सल्तनत का चरमोत्कर्ष का काल माना जाता है।
- जब दक्षिण में सेना में प्लेग फैल गया, और दो-तिहाई सैनिकों की मृत्यु हो गई, तो उससे तुगलक की सैन्य शक्ति को बहुत आघात लगा और वह दक्षिण से वापस आ गया। उसके बाद वहाँ हरिहर और बुक्का नाम के दो भाईयों ने विजयनगर नाम का छोटा राज्य स्थापित कर लिया तथा दौलताबाद के निकट कुछ विदेशी अमीरों ने एक छोटा राज्य कायम किया जिसे बहमनी साम्राज्य कहा गया।
- मुहम्मद तुगलक अंतिम समय अवध, गुजरात और सिंध के विद्रोह दबाने में कामयाब हुआ और सिंध में ही उसकी मृत्यु हो गई।
फिरोज़शाह तुगलक के संबंध में
- फिरोजशाह तुगलक ने जाजनगर (उड़ीसा) के शासक पर आक्रमण किया और वहाँ के मंदिरों को नष्ट करके धन लूटा, लेकिन उड़ीसा को सल्तनत में मिलाने का प्रयास नहीं किया।
- फिरोजशाह तुगलक का शासनकाल शांति और मूक विकास का युग था। उसने हुक्म जारी किया कि अमीर की मृत्यु होने पर इक्ता सहित उसका स्थान पुत्र, दामाद या गुलाम को उत्तराधिकारी मानकर दिया जाए, जो बाद में हानिकारक सिद्ध हुआ।
- उसने वंशानुगत सिद्धांत को सेना पर लागू किया।
- वह सिपाहियों को नगद वेतन नहीं देता था बल्कि वेतन की जगह अलग-अलग गाँवों का भू-राजस्व उनके नाम कर दिया जाता था।
- फिरोज़ ने खुद को सच्चा मुसलमान माना। उसने अपने राज्य को इस्लामी राज्य घोषित किया तथा जजिया को अलग ‘कर’ बना दिया, जो पहले भू-राजस्व में ही शामिल था। उसने ब्राह्मणों पर भी जजिया लगा दिया। इस टैक्स से सिर्फ महिलाएँ, बच्चे, अनाथ, अंधे एवं अपंग लोगों को ही बाहर रखा गया।
- देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये फिरोजशाह तुगलक ने लोक निर्माण विभाग की स्थापना की। उसने कई नहरों की मरम्मत कराई।
- उसने आर्थिक के साथ-साथ राजनीतिक महत्त्व का कदम उठाते हुए यह आदेश दिया कि जब भी किसी स्थान पर हमला करें, तो कुलीन परिवारों में उत्पन्न लड़कों को गुलाम बनाकर मेरे पास भेज दें।
- तैमूर का आक्रमण 1398 ई. में हुआ, तब दिल्ली सल्तनत कमजोर पड़ चुकी थी और आक्रमण का सामना करने के लिये दिल्ली में कोई सशक्त शासक नहीं था। उस समय दिल्ली का शासक फिरोजशाह का पुत्र नासिरुद्दीन मुहम्मद था।
8. दिल्ली सल्तनत के अधीन शासन और आर्थिक तथा सामाजिक जीवन
विभाग | संबंधित पद |
सैन्य विभाग | दीवान-ए-अर्ज |
धार्मिक विधि विभाग | दीवान-ए-रिसाल |
पत्राचार विभाग | दीवान-ए-ईशा |
कृषि विभाग | दीवान-ए-अमीर-ए-कोही |
- सैनिकों की भर्ती करना उन्हें सभी तरह से सज्जित करना और उनका वेतन देना आरिज की मुख्य जिम्मेदारी होती थी। यह सैन्य विभागा का मुख्य अधिकारी होता था। सर्वप्रथम भारत में आरिज के लिये एक अलग विभाग की स्थापना बलवन ने की थी।
वजीर’ के संदर्भ में
- चौहदवीं सदी में केंद्रीय प्रशासन में महत्त्वपूर्ण व्यक्ति ‘वजीर’ होता था, जिसे राजस्व मामलों का विशेषज्ञ माना जाता था।
- इसे एक विस्तृत विभाग का प्रधान बना दिया गया, जो आय-व्यय दोनों का प्रबंधन देखता था।
- फिरोजशाह तुगलक ने अपना वजीर इस्लाम में धर्मांतरित तैलंग ब्राह्मण ‘खान-ए-जहाँ को बनाया था। ‘ख्वाजा जहाँ’ मुहम्मद तुगलक का वजीर था।
मध्यकालीन विभाग | संबंधित प्रधान |
दीवान-ए-अर्ज | आरिज-ए-मामलिक |
कारखाना | वकील-ए-दर |
धार्मिक संस्थान | आला सदर |
- दिल्ली सल्तनत में दीवान-ए-अर्ज एक सैन्य विभाग था जिसका प्रधान आरिज-ए-मालिक कहा जाता था।
- कारखाना एक गृहस्थी विभाग था, जो सुख-सुविधा का ध्यान रखता था। इसका प्रधान वकील-ए-दर कहा जाता था।
- विभिन्न धार्मिक मामलों को देखने तथा विद्वानों और धर्मतत्त्वज्ञों को दिये जाने वाले अनुदानों की देखरेख आला सदर करता था, जो मुख्यतः काजी होता था। यह न्याय विभाग का भी प्रधान होता था, जो दीवानी मुकदमों का फैसला शरीअत के अनुसार करता था।
- जब तुर्कों ने भारत पर शासन किया तो इसे कई प्रदेशों/इकाईयों में बाँट दिया। जिन्हें इक्ता कहा जाने लगा।
- इन इक्ताओं को तुर्क अमीरों के हवाले कर दिया जाता था, जिन्हें मुकती या वली कहा जाता था। यही प्रदेश बाद में सूबे में परिवर्तित हो गए।
- सूबे के नीचे की इकाई शिक कहलाती थी।
- शिक के नीचे की इकाई परगना कही जाती थी।
- गाँव सौ-सौ या चौरासी चौरासी की ईकाइयों में संगठित थे। गाँव के सबसे महत्त्वपूर्ण लोग खूत (भूस्वामी) और मुकद्दम (मुखिया) थे।
सूबा – शिक – परगना – गाँव |
दिल्ली सल्तनत के आर्थिक-सामाजिक जीवन के संदर्भ में
- 14वीं सदी में भारतीय कारीगरों की कुशलता इतनी सफल थी। कि लाल सागर और फारस की खाड़ी के आस-पास के देशों के साथ होने वाले व्यापार में भारतीय माल व विशेषकर कपड़े की प्रसिद्धि हो चुकी थी। अतः उस काल में भारत इनके साथ व्यापार करता था।
- मध्यकालीन सिंचाई व्यवस्था में ‘रहट’ काफी प्रचलन में था। इसकी सहायता से सिंचाई हेतु पानी अधिक गहराई से निकाला जाता था। अतः रहट सिंचाई व्यवस्था से संबंधित है।
- दिल्ली सल्तनत के शासक राज-काज चलाने के लिये मुस्लिम कानून के अलावा अपनी ओर से जरूरी विनियम बनाते थे, जिन्हें जवाबित कहा जाता था।
- विजयनगर के शासक कृष्णदेव राय ने अपनी कराधान व्यवस्था में भूमि की गुणवत्ता के आधार पर भू-राजस्व की दर निर्धारित की थी।
- दिल्ली सल्तनत में ‘फवाजिल’ प्रचलन में था. जिसका आशय है।इक्तादारों द्वारा सरकारी खजाने में जमा की जाने वाली अतिरिक्त राशि।
- अरबों की सिंध विजय के समय से ही भारत की हिन्दू प्रजा को, जो मुस्लिम कानून व शासन को स्वीकार कर चुकी हो और जजिया अदा करने में सहमत हो उसे ‘जिम्मियों’ का दर्जा दिया जाता था। अर्थात् जिम्मी मुस्लिम शासन स्वीकारने वाली हिन्दू प्रजा थी।
9. विजयनगर और बहमनियों का काल तथा पुर्तगालियों का आगमन (1350 ई.-1565 ई.)
- विजय नगर राज्य की स्थापना हरिहर और बुक्का नाम के दो भाइयों ने की थी। यह दोनों वारंगल के काकतीय राजा के यहाँ सामंत थे और बाद में कापिली (आधुनिक कर्नाटक) में राजमंत्री बने।
- मुहम्मद तुगलक ने जब एक मुसलमान विद्रोही को कर्नाटक में शरण देने की खबर सुनी तो उसने उस पर आक्रमण कर दिया और जीत हासिल कर हरिहर और बुक्का को बंदी बनाकर इस्लाम में दीक्षित कर दिया।
- 1346 ई. में पूरा होयसल राज्य विजयनगर के शासकों के हाथ में आ गया। इस संघर्ष में हरिहर और बुक्का की मदद उनके भाइयों ने भी की। उन्होंने विजित प्रदेशों के प्रशासन को सँभाला। आरंभ में विजयनगर राज्य में एक सहकारी राज्य व्यवस्था (कोऑपरेटिव कॉमनवेल्थ) लागू थी।
- विजयनगर की बढ़ती शक्ति का दक्षिण में मदुरै के सुल्तानों ने विरोध किया। हसनगंगू ने बहमनी राज्य की स्थापना की थी न कि विजयनगर साम्राज्य की स्थापना में हरिहर और बुक्का की मदद।
विजयनगर के संदर्भ में
- 1333 ई. में वारंगल के काकतीय साम्राज्य में सामंत रहे हरिहर और बुक्का ने विजयनगर की स्थापना की थी।
- गुरु विद्यारण्य ने हरिहर और बुक्का को इस्लाम से हिन्दू धर्म में पुनःदीक्षित किया था।
- 1347 ई. में बहमनी राज्य की स्थापना एक अफगान व्यक्ति ने की थी, जिसका नाम अलाउद्दीन हसन था। वह भारत में गंगू नाम के एक ब्राह्मण की सेवा करता था। इसलिये उसे ‘हसन गंगू’ के नाम से भी जाना जाता है। गद्दी पर बैठने के बाद उसने ‘अलाउद्दीन हसन बहमनशाह’ की उपाधि धारण की थी।
- कौलास का दुर्ग और गोलकुंडा के पहाड़ी किले पर हरिहर द्वितीय ने नहीं बल्कि हसन गंगू के उत्तराधिकारी ने कब्जा किया था। उस समय हरिहर द्वितीय दक्षिण में इतना व्यस्त था कि उसे संघर्ष में हस्तक्षेप करने का समय ही नहीं मिला।
देवराय प्रथम के संदर्भ में
- 1406 ई. में देवराय प्रथम सिंहासन पर बैठा। उसकी तुंगभ्रदा दोआब पर बहमनियों से भिड़ंत हुई, जिसमें वह हार गया और उसने अपनी बेटी की शादी हसन गंगू के पुत्र फिरोज़ के साथ करवा दी।
- देवराय प्रथम ने रचनात्मक और कल्याणकारी कार्यों पर काफी रुचि दिखाई तथा तुंगभद्रा नदी पर बांध बनवाए।
- 1422 ई.-1446 ई. तक देवराय द्वितीय ने विजयनगर पर शासन किया। उसे इस राजवंश का सबसे प्रतापी शासक माना जाता है। सेना को मजबूत बनाने के लिये उसने मुसलमानों की ज्यादा भर्ती की थी। फरिश्ता के अनुसार देवराय द्वितीय ने 2007 मुसलमानों की भर्ती की, उन्हें जागीरें। दीं और हिन्दू सिपाहियों तथा अफसरों को उनसे धनुर्विद्या सीखने का आदेश भी दिया।
- 16वीं सदीं में पुर्तगाली लेखक नुनिज ने विजयनगर की यात्रा की थी।
- फारसी यात्री अब्दुर्रज्जाक ने देवराय द्वितीय के शासनकाल में विजयनगर की यात्रा की थी। अतः युग्म 2 सुमेलित नहीं है।
- इतालवी यात्री निकोलो कोंती पंद्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में (1420) में विजयनगर आया था।
फिरोज़शाह बहमनी के संदर्भ में
- फिरोजशाह बहमनी दक्कन को भारत का सांस्कृतिक केंद्र बनाने हेतु कटिबद्ध था। उसने पूर्व विधान (ओल्ड टेस्टामेंट) और नवविधान (न्यू टेस्टामेंट) दोनों को पढ़ा था।
- अहमदशाह बहमनी ने वारंगल पर आक्रमण किया और उसके अधिकृत प्रदेशों को अपनी सल्तनत में मिला लिया। नवविजित प्रदेशों पर अपने शासन को सुदृढ़ करने के लिये वह राजधानी गुलबर्ग से बीदर ले गया इसके बाद उसने मालवा, गोंडवाना तथा कोंकण की ओर ध्यान दिया। प्रसिद्ध सूफी संत गैसूदराज से अपनी संगति के कारण उसे वली या संत भी कहा जाता था।
कृष्णदेव राय के संदर्भ में
- कृष्णदेव राय (1509-30 ई.) ने तुलुव वंश की स्थापना की। वह इस वंश का सबसे महान राजा था।
- कृष्णदेव राय ने 1509 ई. से 1530 ई. तक शासन किया। कुछ इतिहासकार उसे सभी राजाओं में सबसे महान मानते हैं। उसने बीजापुर तथा गुलबर्गा पर अधिकार कर लिया था।
- कृष्णदेव राय का उत्तराधिकारी सदाशिव राय था। इसके समय में वास्तविक सत्ता रामराजा के हाथों में थी।
- दक्षिण के अन्य राजाओं जैसे- चोलों और विजयनगर के विपरीत कृष्णदेव ने नौसेना के विकास की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था।
- पेस, बारबोसा और नूनिज आदि विदेशी यात्रियों ने कृष्णदेव के प्रशासन की प्रशंसा की थी।
- कृष्णदेव ने संस्कृत तथा तेलुगू के साथ-साथ कन्नड़ और तमिल कवियों को भी अपने दरबार में प्रश्रय दिया।
विजयनगर राज्य के संदर्भ में
- विजयनगर राज्य में राजा को सलाह देने। के लिये एक मंत्रिपरिषद् होती थी, जिसमें राज्य के सरदार हुआ करते थे। यह राज्य मण्डलम, नाडु (जिला), उपजिला और ग्राम में विभाजित थे।
- प्रांतीय शासकों का नियमित कार्यकाल नहीं होता था। उनका कार्यकाल उनकी योग्यता और शक्ति पर निर्भर था। ये पुराने कर माफ करने और नए कर लगाने का अधिकार रखते थे।
- विजयनगर का राजा सैनिक सरदारों को निश्चित राजस्व वाला क्षेत्र (अमरम) दिया करता था।
- पालिगार (पलफूगार) नायक सरदार थे, जो राज्य की सेवा के लिये निश्चित संख्या में पैदल सेना, घोड़े और हाथी रखते थे।
- 1498 ई. में वास्कोडिगामा दो जहाजों के साथ कालिकट पहुँचा। इस यात्रा का मार्गदर्शन गुजराती यात्री अब्दुल मजीद ने किया था।
- यूरोप में कृषि विस्तार के फलस्वरूप चारागाहों की कमी हुई तो जाड़ों में पशुओं का वध अधिक संख्या में किया जाने लगा और मांस की अधिक उपलब्धता होने से उसे सुरक्षित रखने एवं ज्यादा स्वादिष्ट बनाने के लिये मसालों की मांग बढ़ी।
- इनको आंतरिक व्यापार व वृद्धि के लिये नए बाजार की तलाश थी।अतः इन्होंने नए देशों की खोज प्रारंभ की।
- रोम साम्राज्य के युग से यूरोप में चीन का रेशम और भारत तथा दक्षिण पूर्व एशिया के मसाले व औषधि की मांग बढ़ रही थी। खासतौर से काली मिर्च की।
- क्रिस्टोफर कोलंबस जिसने ‘अमेरिका’ की खोज की थी, जिनेवा का निवासी था।
- कुरुवै एक प्रकार का चावल था, जिसे सर्दी के मौसम में उगाया जाता था और उपज का एक तिहाई भाग कर रूप में देना अनिवार्य था।
पुर्तगालियों के संदर्भ में
- पुर्तगाली अपनी नई नीति पर अमल करते हुए अलबुकर्क ने 1510 ई. में बीजापुर से गोवा को छीन लिया और वहाँ के प्राकृतिक बंदरगाह पर किला बनाकर अपनी सामरिक स्थिति मजबूत की।
- पुर्तगालियों ने श्रीलंका में कोलंबो, सुमात्रा में अचिन और मलक्का में एक-एक किला स्थापित किया। उन्होंने लाल सागर के मुहाने पर सोकोत्रा द्वीप में भी अपना एक अड्डा कायम कर लिया।
10. उत्तर भारत में साम्राज्य के लिये संघर्ष-1
(लगभग 1400-1525 ई.)
- गुजरात राज्य का वास्तविक संस्थापक मुजफ्फरशाह का पौत्र अहमदशाह-1 (1411-1443 ई.) था। इसने गुजरात के हिंदुओं पर जज़िया । कर लगाया, जो पहले कभी नहीं लगाया गया था। उसने अहमदाबाद नामक नए नगर में अपनी राजधानी स्थानांतरित की।
महमूद बेगढ़ा के संबंध में
- महमूद बेगढ़ा को पुर्तगालियों के साथ संघर्ष करना पड़ा, क्योंकि ये पश्चिम एशिया के देशों के साथ गुजरात के व्यापार में दखलंदाजी कर रहे थे। इसलिये उनकी नौसेना पर लगाम लगाने के लिये उसने मिस्र के शासक के साथ मित्रता की। लेकिन अपने इस मकसद में वह कामयाब नहीं हो सका।
- यद्यपि महमूद को औपचारिक शिक्षा का ज्ञान नही था, परंतु उसके शासनकाल में अनेक रचनाएँ अरबी से फारसी में अनुवादित की गई। ‘उदयराज’ उसका दरबारी कवि था, जो संस्कृत कविताएँ लिखता था।
- 1454 ई. में उसने चंपानेर पर अधिकार कर लिया था और इसी केनिकट उसने मुहम्मदबाद नामक एक नया शहर बसाया।
मालवा राज्य के संदर्भ में
- जोधपुर, मेवाड़ की राजधानी थी। मालवा की राजधानी पहले ‘धार’ थी, जिसे हुशांगशाह स्थानांतरित करके माँडू ले गया था। मालवा की स्थापत्य शैली गुजरात शैली से भिन्न थी।
- राणा कुंभा ने चित्तौड़ का कीर्ति स्तंभ बनवाया था। इन्होंने सिंचाई के लिये कई झीलें और जलाशय खुदवाए।
- दिल्ली का शासक इब्राहिम लोदी मालवा की पराजय से चिंतिंत हो गया और उसने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। उस समय मेवाड़ पर राणा सांगा शासन कर रहा था, उसने लोदी को बुरी तरह से घटोली की लड़ाई में हराया।
- मध्यकाल में 1525 ई. तक उत्तर भारत में अत्यधिक उथल-पुथल उत्पन्न हो रही थी। यहाँ की राजनीतिक परिस्थितियाँ तेजी से बदल रही थीं और इस प्रदेश में प्रभुत्व स्थापित करने के लिये एक निर्णायक युद्ध अवश्यंभावी प्रतीत हो रहा था।
- जब बाबर भारत के दरवाजे पर दस्तक दे रहा था, उस समय दिल्ली का शासक इब्राहिम लोदी था। वह अपनी आंतरिक स्थिति को मजबूत करने में लगा हुआ था।
- सल्तनतकालीन भारत में सबसे पहले गुलाम वंश का शासन | स्थापित हुआ। कुतुबुद्दीन ऐबक भारत में शासन करने वाला पहला गुलाम था।
- दिल्ली सल्तनत का अंतिम राजवंश लोदी राजवंश था।
बहलोल लोदी के संदर्भ में
- तैमूर के आक्रमण के बाद दिल्ली में सैयद राजवंश स्थापित हुआ। उस समय पंजाब पर अफगान शासकों ने सत्ता स्थापित कर ली थी। उनमें बहलोल लोदी प्रमुख था, जिसे सरहिंद की इक्तेदारी प्राप्त भी।
- इसने सर्वप्रथम साल्ट रेंजेज में रहने वाले खोखर जाति के खूँखार लड़ाका कबीले की बढ़ती हुई शक्ति पर अंकुश लगाया और शीघ्र ही पूरे पंजाब पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।
सिकंदर लोदी के संदर्भ में
- सिकंदर लोदी एक कट्टर धार्मिक शासक था उसने स्त्रियों को पीरों की मजारों पर जाने तथा जुलूस निकालने पर रोक लगा दी थी। उसने हिन्दुओं पर जजिया फिर से लगा दिया था। उसने अपने सैन्य अभियान के दौरान प्रसिद्ध हिंदू मंदिर नागरकोट को तोड़ा।
सिकंदर लोदी के संदर्भ में
- सिकंदर लोदी ने 1506 ई. में आगरा नगर की स्थापना की। उसका उद्देश्य था कि यहाँ से पूर्वी राजस्थान के प्रदेशों तथा मालवा व गुजरात को जाने वाले मार्गों पर नियंत्रण रखा जा सके।
- कुछ समय पश्चात् आगरा को सिकंदर ने अपनी दूसरी राजधानी बनाया।
- अलवरुनी के अनुसार कश्मीर में ऐसे हिन्दुओं को भी प्रवेश नहीं करने दिया जाता था, जो वहाँ के सरदारों से व्यक्तिगत रूप से परिचित नहीं थे। उस समय कश्मीर, शैव धर्म के केंद्र के रूप में विख्यात था।
- जब 1420 में जैनुल आबिदीन गद्दी पर बैठा तो कश्मीरी समाज काफी बदल चुका था। उस समय मध्य एशिया के मुसलमान संत और शरणार्थी कश्मीर पहुँच रहे थे, जिससे यहाँ सूफी संतों की एक सुदीर्घं । श्रृंखला का उदय हुआ। इन्हें लोग ऋषि भी कहते थे।
जैनुल आबिदीन के संदर्भ में
- जैनुल आबिदीन संगीत प्रेमी था। वह फारसी, कश्मीरी, संस्कृत और तिब्बती भाषाओं में पारंगत था। ग्वालियर के राजा को जब उसके संगीत प्रेम की जानकारी मिली तो उसने संगीत पर दो दुर्लभ कृतियाँ उसे भेंट के तौर पर भेजी।
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