11. | जनपद – राज्य और प्रथम मगध साम्राज्य |
12. | ईरानी और मकदूनियाई आक्रमण |
13. | बुद्धकाल में राज्य और वर्ण-समाज |
14. | मौर्य युग |
15. | मौर्य शासन का महत्त्व |
16. | मध्य एशिया से संपर्क और उनके परिणाम |
17. | सातवाहन युग |
18. | सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ |
19. | मौर्योत्तर युग में शिल्प, व्यापार और नगर |
20. | गुप्त साम्राज्य का उद्भव और विकास |
11. जनपद – राज्य और प्रथम मगध साम्राज्य
•ईसा पूर्व छठी सदी से पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में लोहे का व्यापक प्रयोग होने से बड़े-बड़े प्रादेशिक या जनपद राज्यों के निर्माण के लिये उपयुक्त परिस्थितियाँ बनीं।
•खेती के नए औजारों और उपकरणों की मदद से किसान आवश्यकता से अधिक अनाज पैदा करने लगे, इसलिये राजा अपने सैनिकों के लिये और प्रशासनिक प्रयोजनों के लिये इस अनाज को जमा कर सकता था। इन भौतिक लाभों के कारण किसानों को अपनी जमीन से लगाव होना स्वाभाविक था, साथ ही वे अपने पड़ोस के क्षेत्रों में भी जमीन हड़प कर फैलने लगे। लोगों की जो प्रबल निष्ठा अपने जन या कबीले के प्रति थी, वह अब अपने जनपद या स्वसंबद्ध भूभाग के प्रति हो गई।
•पूर्व से शुरू करने पर सबसे पहले अंग जनपद था जिसमें आधुनिक मुंगेर और भागलपुर जिले पड़ते हैं। उसके बाद मगध जनपद जो आधुनिक पटना और गया जिले में तथा शाहाबाद का कुछ हिस्सा पड़ता था। उसके बाद काशी जनपद उसके पश्चिम में कोसल जनपद पूर्वी उत्तर प्रदेश में पड़ता था तथा सबसे पश्चिम में मत्स्य जनपद पड़ता था।
अंग – मगध – काशी – कोसल – मत्स्य |
महाजनपद | राजधानी |
अंग | चंपा |
मगध | राजगीर |
काशी | वाराणसी |
कोसल | श्रावस्ती |
बिम्बिसार के संदर्भ में
- बिम्बिसार की पहली पत्नी कोसलराज की पुत्री और प्रसेनजित की बहन थी।
- उल्लेखनीय है कि बिम्बिसार ने वैवाहिक संबंधों से भी अपनी स्थिति को मजबूत किया। उसने तीन विवाह किये, प्रथम विवाह से काशी ग्राम दहेज स्वरूप मिला और कोसल के साथ शत्रुता समाप्त हो गई। उसकी दूसरी पत्नी वैशाली की लिच्छवि-राजकुमारी चेल्लणा थी. जिसने अजातशत्रु को जन्म दिया और तीसरी रानी पंजाब के मद्र कुल के प्रधान की पुत्री थी।
- बिम्बिसार ने अंग देश पर अधिकार कर लिया और शासन अपने पुत्र अजातशत्रु को सौंप दिया।
- उसने अपने राजवैद्य जीवक को अवन्ति राजा चण्डप्रद्योत महासेन के पीलिया रोग हो जाने पर इलाज करने के लिये उज्जैन भेजा था।
राज्य | राजधानी |
मल्ल | कुशीनारा |
वत्स | कौशांबी |
लिच्छवि | वैशाली |
अजातशत्रु के संदर्भ में
- अजातशत्रु ने अपने पिता बिम्बिसार की हत्या करके सिंहासन पर अधिकार किया था।
- अजातशत्रु ने राज्य विस्तार की आक्रामक नीति से काम लिया। उसने अपने समय में काशी और वैशाली को मगध में मिलाया और अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
मगध राज्य के संदर्भ में
- उदायिन अजातशत्रु के बाद मगध का राजा बना। उसके शासन की महत्त्वपूर्ण घटना है कि उसने पटना में गंगा और सोन के संगम पर एक किला बनवाया था।
- मगध पर शिशुनाग वंश के बाद नंद वंश का शासन हुआ। नंद वंश का महापद्म नंद ने कलिंग को जीतकर मगध शक्ति को बढ़ाया और विजय स्मारक के रूप में ‘जिन’ की मूर्ति भी उठा लाए थे। महापद्म नंद ने ‘एकराट’ की उपाधि धारण की थी।
- मगध पर शिशुनाग वंश के शासन के समय अवन्ति राज्य की शक्ति को समाप्त कर उसे मगध राज्य में मिला लिया था, इसके साथ ही अवन्ति और मगध के बीच की सौ साल पुरानी शत्रुता का अंत हो गया।
- मगध ही पहला राज्य था जिसने अपने पड़ोसियों के विरुद्ध युद्ध में हाथियों का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया। देश के पूर्वांचल से मगध के शासकों के पास हाथी पहुँचते थे।
- मगध साम्राज्य पर शासन करने वाले राजवंशों का सही क्रम इस प्रकार है:
हर्यक – वंश – शिशुनाग वंश – नंद वंश – मौर्य वंश |
मगध का एक साम्राज्य के रूप में स्थापित होने के कारणों के संदर्भ में
- मगध राज्य के पास समृद्ध लौह खनिज के भंडार थे। जिसके कारण। वे प्रभावशाली हथियार बना सके। उनके विरोधी ऐसे हथियार आसानी से नहीं प्राप्त कर सकते थे
- मगध राज्य मध्य गंगा के मैदान के मध्य में पड़ता था। इस उर्वरक प्रदेश से जंगल साफ हो चुके थे। यहाँ भारी वर्षा होने के कारण सिंचाई के बिना भी अच्छी पैदावार की जाती थी। परिणामतः यहाँ के किसान काफी अनाज पैदा कर लेते थे और भरण-पोषण के बाद भी उनके पास काफी अनाज बचता था। शासक कर के रूप में इस फाजिल उपज को एकत्र कर लेते थे,
- मगध की दोनों राजधानियाँ- प्रथम राजगीर और द्वितीय पाटलिपुत्र सामरिक दृष्टि से परम महत्त्वपूर्ण स्थानों पर थी। राजगीर पाँच पहाड़ियों की श्रृंखला से घिरी थी इसलिये वह दुर्भेद्य था। मगध की दूसरी राजधानी पाटलिपुत्र केन्द्र भाग में स्थित होने के कारण सभी दिशाओं से संचार संबंध स्थापित कर सकते थे। पाटलिपुत्र गंगा, गंडक और सोन नदियों के संगम पर स्थित थी। सोन और गंगा नदियाँ इसके पश्चिम और उत्तर में थीं, तो पुनपुन दक्षिण और पूर्व की ओर से घेरे हुए। थी। इस प्रकार पाटलिपुत्र एक जलदुर्ग था।
राजा | राज्य |
चण्डप्रद्योत | अवन्ति |
प्रसेनजित | कोसल |
अजातशत्रु | मगध |
12. ईरानी और मकदूनियाई आक्रमण
1.516 ई.पू. में पश्चिमोत्तर भारत में ईरानी आक्रमण के संदर्भ में
- सर्वप्रथम ईरानी शासक दारयवहु (देरियस) ने 516 ई.पू. में पश्चिमतर भारत पर आक्रमण किया था। उसने पंजाब तथा सिंधु नदी के पश्चिम के इलाके और सिंध को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया।
- उल्लेखनीय है कि ईरानी साम्राज्य में कुल मिलाकर अट्ठाइस क्षत्रपियाँ थीं। पंजाब व सिंध प्रदेश इसके बीसवाँ प्रांत या क्षत्रपी बना था।
- पंजाब का सिंधु नदी के पश्चिम वाला हिस्सा साम्राज्य का सबसे अधिक आबाद और उपजाऊ क्षेत्र था।
- पश्चिमोत्तर भारत में मगध की तरह कोई शक्तिशाली साम्राज्य नहीं था। छोटे-छोटे राज्य आपस में लड़ते रहते थे, और यह क्षेत्र समृद्ध भी था।
भारत और ईरान के मध्य संपर्क के परिणामों के संदर्भ में
- ईरानी लिपिकार भारत में लेखन का एक खास रूप लेकर आए जो खरोष्ठी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह लिपि अरबी की तरह दायों से बायीं ओर लिखी जाती थी।
- मौर्य वास्तु कला पर ईरानी प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। अशोककालीन स्मारक, विशेष कर घंटा के आकार के गुंबज कुछ हद तक ईरानी प्रतिरूपों पर आधारित थे।
- पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में ईरानी सिक्के भी मिलते हैं, जिनसे ईरान के साथ व्यापार होने के संकेत मिलते हैं।
भारत में सिकंदर की सफलता के संदर्भ में
- भारत में उस समय कोई केंद्रीय सत्ता नहीं थी। पश्चिमोत्तर भारत में छोटे-छोटे राज्य थे जो आपस में लड़ते रहते थे।
- उसके पास श्रेष्ठ सेना थी, इसलिये वह हर युद्ध में विजय प्राप्त करता गया।
सिकंदर के भारत पर आक्रमण के संदर्भ में
- 326 ई.पूर्व में सिकंदर के भारत पर आक्रमण के क्रम में उसका पहला सामना तक्षशिला के शासक आम्भि से हुआ था, परंतु झेलम नदी के किनारे पहुँचने पर सिकंदर का पहला और सबसे शक्तिशाली प्रतिरोध पोरस ने किया था। वह पोरस की बहादुरी और साहस से बड़ा प्रभावित हुआ। इसलिये उसने उसका राज्य वापस कर दिया और उसे अपना सहयोगी बना लिया पोरस का राज्य झेलम और चेनाब नदियों के मध्य था। सिकंदर का भारत अभियान 19 महीने का रहा था।
- उसके आक्रमण के समय मगध पर नंद वंश का शासन था। यूनानी इतिहासकारों के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य नंद वंश की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिये सिकंदर से जाकर मिला था।
- उल्लेखनीय है कि, उस समय नंद वंश का राजा घनानंद का शासन था।
सिकंदर के आक्रमण के परिणाम के संदर्भ में
- इसके आक्रमण का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम, भारत और यूनान के बीच विभिन्न क्षेत्रों में प्रत्यक्ष संपर्क की स्थापना था। सिकंदर के अभियान से चार भिन्न-भिन्न स्थलमार्गों और जलमार्गों के द्वार खुले। इससे यूनानी व्यापारियों और शिल्पियों के लिये व्यापार का मार्ग प्रशस्त हुआ
- तथा व्यापार की तत्कालीन सुविधा बढ़ी।
- उसने झेलम के तट पर बुकेफाल नगर और सिंध में सिकंदरिया नगर बसाया था, जो उपनिवेशों में सबसे महत्त्वपूर्ण थे।
- उसने अपने मित्र नियार्कस के नेतृत्व में सिंधु नदी के मुहाने से फरात नदी के मुहाने तक समुद्र तट का पता लगाने और बंदरगाहों को ढूँढने के लिये भेजा था।
13. बुद्धकाल में राज्य और वर्ण- समाज
छठी सदी ईसा पूर्व के संदर्भ में
- पुरातत्त्व के अनुसार छठी सदी ईसा पूर्व उत्तरी काला पॉलिशदार मृद्भांड अवस्था का आरम्भ काल है। इसकी बनावट उत्कृष्ट कोटि की थी तथा यह बहुत चिकना और चमकीला होता था। इस समय में ही गंगा के मैदानों में नगरीकरण की शुरुआत हुई। यह भारत का द्वितीय नगरीकरण का काल कहलाता है।
- इ.पू. तीसरी सदी में पकी ईंटों और छल्लेदार कुओं का प्रयोग देखने को मिलता है।
- वैदिक ग्रंथों में आए शतमान और निष्क जो वस्तुतः एक अलंकरण थे, मुद्रा के नाम माने जाते हैं।
- पालि ग्रंथों में गाँव के तीन प्रकार बताए गए हैं-पहले प्रकार में सामान्य गाँव है जिनमें विविध वर्णों और जातियों का निवास रहता था। ऐसे गाँवों की संख्या सबसे अधिक थी। दूसरे, प्रकार में उपनगरीय गाँव थे जिन्हें शिल्पी ग्राम कहते थे, ये गाँवों को नगरों से जोड़ते थे। तीसरे प्रकार में सीमांत ग्राम आते थे, जो जंगल से संलग्न देहातों की सीमा पर बसे थे।
- ‘भोजक’ पहले प्रकार के गाँव का मुखिया कहलाता था।
- किसान अपनी उपज का छठा भाग कर या राजांश के रूप में देते थे। कर की वसूली सीधे राजा के कर्मचारी करते थे।
छठी सदी ईसा पूर्व में व्यापार के संदर्भ में
- इस काल में शिल्पी और वाणिक दोनों अपने-अपने प्रमुखों के नेतृत्व में श्रेणियाँ बनाकर संगठित हो गए थे। इस काल की अठारह श्रेणियों का उल्लेख मिलता है, लेकिन विशेष रूप में उल्लेख केवल लुहारों,
- बढ़इयों, चर्मकारों और रंगकारों की श्रेणियों का हुआ है।
- वाराणसी इस काल का महान व्यापार केंद्र था। व्यापार मार्ग श्रावस्ती से पूर्व और दक्षिण की ओर निकलकर कपिलवस्तु और कुशीनगर। होते हुए वाराणसी तक गया था।
- इस काल में सबसे पहले धातु के सिक्कों का चलन आरंभ हुआ था। आरंभ में मुख्यतः ये सिक्के चांदी के होते थे। यद्यपि कुछ तांबे के भी सिक्के मिले हैं। ये आहत मुद्रा (पंचमार्कड) कहलाते हैं।
छठी सदी ईसा पूर्व में अधिकारी वर्ग के संदर्भ में
- इस काल में ‘महामात्र’ उच्च कोटि के अधिकारी कहलाते थे। वे कई तरह के कार्य करते थे, जैसे-मंत्री, सेनानायक, न्यायाधिकारी आदि।
- शौल्किक या शुल्काध्यक्ष चुंगी वसूल करने वाला अधिकारी होता था।। वह व्यापारियों से उनके माल पर चुंगी वसूल करता था।
- बलिसाधक वे अधिकारी होते थे जो किसानों से फसल का अनिवार्य रूप से देय हिस्सा वसूलते थे।
ईसा पूर्व छठी सदी में विधि व्यवस्था के संदर्भ में
- भारतीय विधि और न्याय व्यवस्था का उद्भव इसी काल में हुआ। पहले कबायली कानून चलते थे, जिसमें वर्ण-भेद का कोई स्थान नहीं था।
- धर्मसूत्रों में हर वर्ण के लिये अपने-अपने कर्त्तव्य तय कर दिये गए। और वर्णभेद के आधार पर ही व्यवहार विधि (सिविल लॉ) और दंड विधि (क्रिमिनल लॉ) तय हुई।
बुद्धकालीन गणतंत्रीय एवं राजतंत्रीय प्रणाली के संदर्भ में
- गणतंत्रों का संचालन अल्पतांत्रिक सभाएँ करती थीं जबकि राजतंत्रों में यह एक व्यक्ति राजन् करता था। गणतंत्रों की परंपरा मौर्य काल से कमजोर होना प्रारंभ हो गयी थी।
14. मौर्य युग
मौर्य साम्राज्य के संदर्भ में
- अशोक’ के नाम का उल्लेख केवल प्रथम लघु शिलालेख की प्रतियों में किया गया है जो कर्नाटक के तीन स्थानों (मास्की, नूट्टूर और उदेगोलम) तथा मध्य प्रदेश के गुर्जरा से मिला है।
- किसान अपनी उपज का चौथे हिस्से से लेकर छठे हिस्से तक कर के रूप में देते थे।
- जिन किसानों को सिंचाई सुविधा दी गई थी, उनसे सिंचाई कर लिया जाता था।
- मौर्योों का शासन भारत में केवल तमिलनाडु तथा पूर्वोत्तर भारत के भाग को छोड़कर समस्त भारतीय उपमहाद्वीप में फैला हुआ था।
अशोक के अभिलेखों के संदर्भ में
- अशोक पहला भारतीय राजा हुआ जिसने अपने अभिलेखों के सहारे सीधे अपनी प्रजा को संबोधित किया। इन अभिलेखों में राजा के आदेश सूचित किये गए हैं।
- अशोक के अभिलेखों को पाँच श्रेणियों में बाँटा गया है: दीर्घ शिलालेख, लघु शिलालेख, पृथक शिलालेख, दीर्घ स्तंभलेख और लघु स्तंभलेख ।उल्लेखनीय है कि प्रथम लघु शिलालेख को छोड़कर अन्य सभी अभिलेखों में अशोक के नाम के स्थान पर केवल देवानांपिय पियदसि (देवों का प्यारा) उसकी उपाधि के रूप में मिलता है।
- अफगानिस्तान से प्राप्त अशोक के अभिलेखों की भाषा और लिपि आरामाइक एवं यूनानी दोनों हैं जबकि भारत में यह ब्राह्मी लिपि में लिखित हैं। किंतु पश्चिमोत्तर भाग में ये खरोष्ठी और आरामाइक लिपियों में हैं।
सम्राट अशोक के कलिंग युद्ध के संदर्भ में
- कलिंग युद्ध का वर्णन तेरहवें मुख्य शिलालेख में किया गया है।
- राजसिंहासन पर बैठने के पश्चात् सम्राट अशोक ने केवल एक युद्ध किया, जो कलिंग युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है।
- ऐसा माना जाता है कि इस युद्ध में एक लाख लोग मारे गए थे। इसी संदर्भ में अशोक के अभिलेख शतसहस्र शब्द का प्रयोग हुआ है।
- अशोक के तेरहवें शिलालेख में बताया गया है कि कलिंग युद्ध उसके राज्याभिषेक के आठ वर्ष के बाद हुआ था।
- अशोक की गृह और विदेश नीति बौद्ध धर्म के आदर्श से प्रेरित थी। कलिंग युद्ध के पश्चात् उसने दूसरे राज्यों पर भौतिक विजय पाने की नीति छोड़ कर सांस्कृतिक विजय पाने की नीति अपनाई, दूसरे शब्दों में भेरी घोष के स्थान पर धम्म-घोष होने लगा।
अशोक की धम्म नीति के संदर्भ में
- अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद नितांत शांति की नीति नहीं अपनाई. प्रत्युत वह अपने साम्राज्य को सुदृढ़ करने की व्यावहारिक नीति पर चला। उसने विजय के बाद कलिंग को अपने कब्जे में रखा और अपनी सेना का विघटन नहीं किया।
- अशोक ने बौद्ध धर्म को ग्रहण किया और बौद्ध धर्म स्थानों की यात्राएँ कीं। उसकी इस यात्रा के लिये धम्मयात्रा शब्द का उल्लेख मिलता है।
- अशोक ने बौद्धों को तीसरे सम्मेलन (संगीति) का आयोजन करवाया था।
- उल्लेखनीय है कि, तीसरा बौध सम्मेलन का आयोजन पाटलिपुत्र में मोग्गलिपुत्त तिस्स की अध्यक्षता में हुआ था।
अशोक द्वारा नियुक्त अधिकारियों के संदर्भ में
- अशोक ने ‘धम्ममहामात्र’ की नियुक्ति समाज के विभिन्न वर्गों के बीच धर्म का प्रचार करने के लिये की थी।
- ‘राजूक’ को अधिकारियों को पुरस्कार और दंड देने का अधिकार दिया गया था।
अशोक द्वारा किये गए सामाजिक सुधारों के संदर्भ में
- अशोक कर्मकांडों का विरोधी था, विशेषकर स्त्रियों में प्रचलित अनुष्ठानों का विरोधी था। उसने कई तरह के पशु-पक्षियों की हिंसा पर रोक। लगा दी थी।
- उसने सभी सामाजिक उत्सवों पर रोक नहीं लगाई बल्कि ऐसे तड़क-भड़क वाले सामाजिक समारोहों पर रोक लगा दी जिनमें लोग रंगरेलियाँ मनाते थे, जो सामाजिक कुरीतियों के प्रतीक थे।
- अशोक ने देश में राजनीतिक एकता स्थापित करने का प्रयास किया। उसने एक धर्म, एक भाषा और प्रायः एक लिपि के सूत्र में सारे देश को बाँध दिया। उसने सहनशील धार्मिक नीति चलाई। उसने प्रजा पर बौद्ध धर्म लादने की चेष्टा नहीं की, प्रत्युत उसने हर संप्रदाय के लिये दान दिये। उसके पास पर्याप्त साधन-संपदा होने के बाद भी कलिंग विजय के बाद और कोई युद्ध नहीं किया। इस अर्थ में वह अपने समय और अपनी पीढ़ी से बहुत आगे था।
▪︎ ईसा पूर्व चौदहवीं सदी में मिश्र के शासक अखनातून ने शांतिवादी नीति को अपनाया था।
15. मौर्य शासन का महत्त्व
मौर्य काल के संदर्भ में
- कौटिल्य ने राजा को ‘धर्म-प्रवर्तक’ अर्थात् सामाजिक व्यवस्था का संचालक कहा है। अशोक ने धर्म का प्रवर्तन किया और उसके मूलतत्त्वों को सारे देश में समझाने और स्थापित करने के लिये। अधिकारियों की नियुक्ति की।
- मौर्य शासन काल में शीर्षस्थ अधिकारी ‘तीर्थ’ कहलाते थे।
- ‘पण’ 3/4 तोले के बराबर चांदी का सिक्का होता था। यह मुद्रा का प्रकार था।
मौर्य काल में अधिकारी वर्ग के संदर्भ में
- समाहर्ता’ कर निर्धारण का सर्वोच्च अधिकारी होता था।
- ‘सन्निधाता’ राजकीय कोषागार और भंडागार का संरक्षक होता था।
- उल्लेखनीय है कि राज्य में समाहर्ता के कर निर्धारण के चलते लाभ-हानि होती थी, इसलिये उसे अधिक महत्त्व दिया जाता था।
मौर्य काल में कृषकों के संदर्भ में
- मौर्य काल में अधिकारी जमीन को मापता और उन नहरों का निरीक्षण करता था जिनसे होकर पानी छोटी नहरों में पहुँचता था।
- कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कृषि कार्यों में दासों के लगाए जाने की व्यवस्था का वर्णन मिलता है, जो महत्त्वपूर्ण सामाजिक विकास का परिचायक था। मौर्य काल में ही दासों को कृषि कार्यों में बड़े पैमाने पर लगाया गया।
- राज्य कृषकों की भलाई के लिये सिंचाई और जल वितरण की व्यवस्था करता था।
- इस काल में कर निर्धारण की सुगठित प्रणाली का विकास किया गया।
मौर्य शासकों द्वारा एक मजबूत केन्द्रीय शासन स्थापित करने के संदर्भ में
- केंद्रीय नियंत्रण पाटलिपुत्र की अनुकूल अवस्थिति के कारण संभव हुआ।
- यहाँ से जलमार्ग के द्वारा कर्मचारी चारों और आ-जा सकते थे।
- पूरे साम्राज्य में सड़कों का जाल बिछा हुआ था, इस सुगठित सड़क मार्ग प्रणाली में पाटलिपुत्र से एक राजमार्ग वैशाली और चम्पारण होते हुए नेपाल तक जाता था।
- उल्लेखनीय है कि मेगास्थनीज ने एक सड़क की चर्चा की है जो पश्चिमोत्तर भारत को पटना से जोड़ती थी।
मौर्य काल की वास्तुकला के संदर्भ में
- पत्थर के स्तम्भ वाराणसी के पास चुनार में तैयार किये जाते थे और यहीं से उत्तरी और दक्षिणी भारत में पहुँचाए जाते थे। जबकि अन्य तीनों कथन सत्य हैं।
- इस काल में पत्थर की इमारत बनाने का काम भारी पैमाने पर शुरू हुआ।
- मौर्य शिल्पियों ने बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिये चट्टानों को काट कर गुफाएँ बनाने की परंपरा भी शुरू की। इसका सबसे पुराना उदाहरण बराबर की गुफाएँ हैं।
गंगा के मैदान में नई भौतिक संस्कृति के विकास के संदर्भ में
- गंगा के मैदान की इस नई भौतिक संस्कृति के आधार थे- लोहे का प्रचुर प्रयोग, आहत मुद्राओं की बहुतायत लेखन कला का प्रयोग. उत्तरी काला पॉलिशदार मृदभांड नाम से प्रसिद्ध मिट्टी के बरतनों की भरमार, पकी ईंटों और छल्लेदार कुओं का प्रचलन और सबसे ऊपर पूर्वोत्तर भारत में नगरों का उदय ।
•अंतिम मौर्य शासक वृहद्रथ था। वृहद्रथ की हत्या पुष्यमित्र शुंग के द्वारा की गई और शुंग वंश की नींव रखी।
मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों के संदर्भ में
- अशोक की धार्मिक नीति ब्राह्मणों के विरुद्ध थी। उसने पशु-पक्षियों के वध को निषिद्ध कर दिया और कर्मकांडीय अनुष्ठानों पर रोक लगाई जिसके परिणामस्वरूप ब्राह्मणों की आय में कमी आई, और ब्राह्मणों में उसके प्रति विद्वेष की भावना जागी। मौर्य साम्राज्य के खंडहर पर खड़े हुए नए राज्यों के शासक ब्राह्मण हुए।
- सेना और प्रशासनिक अधिकारियों पर होने वाले भारी खर्च के बोझ से मौर्य साम्राज्य के सामने वित्तीय संकट उत्पन्न हो गया था। अशोक ने बौद्ध भिक्षुओं को इतना दान दिया कि राजकोष ही खाली हो गया। अंतिम अवस्था में अपने खर्च को पूरा करने के लिये मौयों को सोने की देवप्रतिमाएँ तक गलानी पड़ी।
- साम्राज्य के टूटने का एक महत्त्वपूर्ण कारण था प्रांतों में दमनकारी। शासन। अशोक के कलिंग अभिलेख में बताया गया है कि प्रांतों में हो रहे अत्याचारों से वह बड़ा चिंतित था।
मौर्य काल के संदर्भ में
- मौर्य शासन में मयूर, पर्वत और अर्ध-चंद्र की छापवाले आहत रजत-मुद्राएँ मान्य थी। ये मुद्राएँ कर की वसूली और अधिकारियों के वेतन भुगतान में सुविधाप्रद हुई होंगी और अपनी शुद्ध समरूपता के कारण व्यापक क्षेत्र में बाजार की लेन-देन में सुविधा के साथ चलती थी।
- प्रांतों में हो रहे अत्याचारों को दूर करने के लिये अशोक ने तोसली, उज्जैन और तक्षशिला के अधिकारियों के स्थानांतरण की परिपाटी चलाई।
- मौर्य काल में ही पूर्वोत्तर भारत में सर्वप्रथम पकाई हुई ईंट का प्रयोग हुआ। मकान ईंटों के भी बनते थे और लकड़ी के भी।
- प्रायद्वीपीय भारत में राज्य स्थापित करने की प्रेरणा न केवल चेदियों और सातवाहनों को बल्कि चेरों (केरलपुत्रों), चोलों और पाण्ड्यों को भी मौर्यों से ही मिली है।
चीन की दीवार के संदर्भ में
- चीन की दीवार का निर्माण राजा शीह हुआँग ती ने लगभग 220 ई.पू. में सीथियन शकों के हमले से अपने साम्राज्य की सुरक्षा के और लिये करवाया।
- यूनानियों ने उत्तर अफगानिस्तान में बैक्ट्रिया नामक राज्य स्थापित किया था।
- यूनानियों ने सर्वप्रथम 206 ई. पू. में भारत पर आक्रमण किया था
16. मध्य एशिया से संपर्क और उनके परिणाम
मौर्योत्तर काल के संदर्भ में
- मौर्योत्तर काल में पूर्वी भारत, मध्य भारत और दक्कन में मौयों के स्थान पर शुंग, कण्व और सातवाहन शासक सत्ता में आए।
- इस काल में मध्य एशियाई लोगों के आने से मध्य एशिया और भारत के बीच घनिष्ठ व्यापारिक संबंध स्थापित हुए परिणामस्वरूप भारत को मध्य एशिया से भारी मात्रा में सोना प्राप्त हुआ और रेशम मार्ग पर नियंत्रण कर लिया।
- मौर्यो के स्थान पर मध्य एशिया से आए कई शासकों में कुषाण सर्वाधिक प्रसिद्ध हुए, परंतु मध्य एशिया से आए शासकों में हिन्द-यूनानियों ने भारत में पहली बार राजाओं के नाम वाले सिक्के जारी किये।
मध्य एशिया के शासकों द्वारा भारत पर आक्रमण करने के कारणों के संदर्भ में
- चीन की महादीवार बनने के बाद शक शासकों ने अपना राज्य विस्तार यूनानियों और पार्थियनों की ओर करना शुरू किया। शकों से पराजित होकर बैक्ट्रियाई यूनानी भारत में विस्तार के लिये आगे बढ़ने लगे।
- सेल्यूकस द्वारा स्थापित निर्बल साम्राज्य मध्य एशियाई आक्रमण का महत्त्वपूर्ण कारण था। शकों के बढ़ते दबाव के कारण परवर्ती यूनानी शासक इस क्षेत्र में सत्ता नहीं बनाए रख सके।
- अशोक के निर्बल उत्तराधिकारी इन बाहरी आक्रमणों का सामना नहीं। कर सके। वंशानुगत साम्राज्य तभी तक बने रह सकते हैं, जब तक योग्य शासकों की श्रृंखला बनी रहे।
भारत पर मध्य एशियाई आक्रमणों के संदर्भ में
- भारत पर मध्य एशियाई आक्रमणकारियों का सही कालानुक्रम के संदर्भ में विकल्प (b) सही है। हिंद-यूनानियों या बैक्ट्रियाई-यूनानियों ने ईसा पूर्व दूसरी सदी के आरम्भ में पश्चिमोत्तर भारत के विशाल क्षेत्र पर अधिकार किया। यूनानियों के बाद शक आए। इनकी पाँच शाखाएँ थीं। पश्चिमोत्तर भारत में शकों के अधिपत्य के बाद पार्थियाई (पहलव) लोगों का आधिपत्य हुआ। पार्थियाइयों के बाद कुषाण आए, जो यूची और तोखारी भी कहलाते हैं।
यूनानी → शक→ पहलव→ कुषाण |
भारत में यूनानी अधिपत्य के संदर्भ में
- हिन्द-यूनानियों ने पश्चिमोत्तर भारत के विशाल क्षेत्र पर अधिकार | किया था। सबसे प्रसिद्ध यूनानी शासक मिनांदर था। उसे मिलिन्द नाम से भी जाना जाता था। उसे नागसेन ने बौद्ध धर्म की दीक्षा दी थी। उसकी राजधानी पंजाब में शाकल (आधुनिक सियालकोट) में थी।
- भारत के इतिहास में हिन्द-यूनानी शासन का महत्त्व इसलिये है कि यूनानी शासकों ने भारी संख्या में सिक्के जारी किये सबसे पहले भारत में हिन्द-यूनानी शासकों ने ही सोने के सिक्के जारी किये थे।
- भारत में सबसे पहले हिन्द-यूनानी शासकों ने राजाओं के नाम वाले सिक्के जारी किये थे।
- मिलिन्द पञ्हो’ अर्थात् मिलिन्द के प्रश्न में यूनानी शासक मिनांदर द्वारा नागसेन से बौद्ध-धर्म पर पूछे गए प्रश्नों व नागसेन द्वारा दिये गए उत्तरों का एक पुस्तक के रूप में संकलन है।
- हिन्द-यूनानी शासकों ने भारत के पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में यूनान की कला का प्रचलन आरम्भ किया, जिसे ‘हेलेनिस्टिक आर्ट’ कहते हैं। यह कला विशुद्ध यूनानी नहीं थी। सिकंदर की मृत्यु के बाद विजित गैर-यूनानियों के साथ यूनानियों के संपर्क से इसका उदय हुआ था। भारत में गांधार कला इसका उत्तम उदाहरण है।
भारत में शक आधिपत्य के संदर्भ में
- शकों द्वारा स्थापित पाँच शाखाएँ भारत और अफगानिस्तान के अलग-अलग भागों में थी। इनकी दूसरी शाखा पंजाब में बसी, जिसकी राजधानी तक्षशिला थी। मथुरा में तीसरी शाखा थी, जहाँ उन्होंने दो सदियों तक राज्य किया था।
- सर्वाधिक प्रसिद्ध शक शासक रुद्रदामन प्रथम था। उसका शासन सिंध, कोंकण, नर्मदा घाटी, मालवा, काठियावाड़ और गुजरात के बड़े भाग में था।
- रूद्रदामन संस्कृत का बड़ा प्रेमी था। उसने सबसे विशुद्ध संस्कृत भाषा में लम्बा अभिलेख जारी किया।
- उल्लेखनीय है कि इससे पहले जो लम्बे अभिलेख देश में पाए गए थे, सभी प्राकृत भाषा में रचित हैं।
•रुद्रदामन प्रथम ने गुजरात काठियावाड़ के अर्धशुष्क क्षेत्र की मशहूर झील सुदर्शन का जीर्णोद्धार किया था।
• उल्लेखनीय है कि सुदर्शन झील का निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य के आदेश से गिरनार में नियुक्त राज्यपाल ‘पुष्यगुप्त वैश्य’ ने करवाया था। सम्राट अशोक के महामात्य तुषास्प ने इस झील का पुनर्निर्माण करवाकर इसे मजबूती प्रदान की।
शक और विक्रम संवत् के संदर्भ में
- 57-58 ई. में उज्जैन के शासक ने, जो अपने आप को
- विक्रमादित्य कहता था, शकों पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में 57 ई. पू. से विक्रम संवत् आरम्भ किया। अतः कथन (1) असत्य है।
- शक संवत् कुषाण शासक कनिष्क ने 78 ई. में चलाया था।
- वर्तमान में भारत सरकार द्वारा शक संवत् प्रयोग में लाया जाता है।
पहलव शासकों के संदर्भ में
- पहलव यूनानियों और शकों के विपरीत ईसा की पहली सदी में पश्चिमोत्तर भारत के एक छोटे से भाग पर ही अधिकार कर सके।
- सबसे प्रसिद्ध पहलव शासक गोंदोफर्निस था।
- पहलव लोगों का मूल निवास स्थान ईरान था ।
- उनके शासनकाल में सेंट टॉमस ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिये भारत आया था।
कुषाण शासकों के भारत में आधिपत्य के संदर्भ में
- उनका साम्राज्य अमुदरिया से गंगा तक मध्य एशिया के खुरासान से उत्तर प्रदेश के वाराणसी तक फैला था। कुषाणों ने सोवियत गणराज्य में शामिल मध्य एशिया का हिस्सा ईरान, अफगानिस्तान और पूरे पाकिस्तान पर अधिकार कर लिया था।
- कैडफाइसिस द्वितीय ने बड़ी मात्रा में स्वर्ण मुद्राएँ जारी की थी।
- कुषाणों की पहली राजधानी आधुनिक पाकिस्तान में अवस्थित पुरुषपुर या पेशावर में थी। उल्लेखनीय है कि मथुरा में कुषाणों के सिक्के, अभिलेख और मूर्तियाँ मिले हैं, इससे प्रकट होता है कि मथुरा कुषाणों । की द्वितीय राजधानी थी।
कुषाण शासक कनिष्क के संदर्भ में
- वह बौद्ध धर्म का संरक्षक था, उसने बड़ी उदारता से बौद्ध धर्म का संपोषण-संरक्षण किया। वह महायान संप्रदाय को मानता था।
- उसने कश्मीर में बौद्धों का सम्मेलन आयोजित करवाया, जिसमें बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय को अंतिम रूप दिया गया।
- कुषाण शासकों में कैडफाइसिस प्रथम ने हिन्दुकुश के दक्षिण में रोमन सिक्कों की नकल करके बड़ी मात्रा में तांबे के सिक्के ढलवाए थे।
- उल्लेखनीय है कि कुषाण शासकों ने स्वर्ण एवं ताम्र दोनों ही प्रकार के सिक्कों को व्यापक पैमाने पर प्रचलित किया था।
मध्य एशिया से संपर्क के परिणामस्वरूप भारत पर पड़ने वाले प्रभावों के संदर्भ में
- मध्य एशियाई लोगों के पास अपनी लिपि, लिखित भाषा और कोई सुव्यवस्थित धर्म नहीं था। इसलिये उन्होंने संस्कृति के इन उपादानों को भारत से लिया। वे भारतीय समाज के अभिन्न अंग बन गए।
- इस काल की एक विशेषता ईंटों के कुँओं का निर्माण है।
- इस काल में व्यापक पैमाने पर भवन-निर्माण के कार्यों में उल्लेखनीय प्रगति हुई और इनके बर्तन भी असाधारण प्रकार के फुहारों और टोटियों। वाले थे।
- इनके पास बड़े पैमाने पर उत्तम अश्वारोही सेना थी। उन्होंने अश्वारोहण की परंपरा चलाई। उन्होंने लगाम और जीन का प्रयोग प्रचलित किया था। वे रस्सी का बना एक प्रकार का अंगूठा रकाब भी लगाते थे. जिससे उन्हें घुड़सवारी में सुविधा होती थी।
भारत तथा मध्य एशियाई संपर्क तथा व्यापार के संदर्भ में
- मध्य एशिया और भारत के बीच घने संपर्क के परिणामस्वरूप भारत को मध्य एशिया के अल्ताई पहाड़ों से भारी मात्रा में सोना प्राप्त हुआ। इसके अलावा रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार के द्वारा भी सांना प्राप्त होता था।
- कुषाणों ने रेशम के प्रख्यात मार्ग पर नियंत्रण कर लिया था जो चीन से चलकर कुषाण साम्राज्य में शामिल मध्य एशिया और अफगानिस्तान से गुजरते हुए ईरान जाता था और पूर्वी भूमध्यसागरीय अंचल में रोमन साम्राज्य के अंतर्गत पश्चिम एशिया तक जाता था।
मध्य एशियाई विजेताओं की राजव्यवस्था के संदर्भ में
- इन विजेताओं ने अनगिनत छोटे-छोटे राजाओं को समाप्त कर एक तरह की सामंतवादी व्यवस्था का प्रारम्भ किया।
- शक और कुषाण राजा देवता के अवतार माने जाते थे। कुषाण राजा देवपुत्र कहलाते थे। यह उपाधि उन्होंने चीनियों से ली थी. जो अपने राजा को स्वर्ग का पुत्र कहते थे।
- इस काल में कुछ अनोखी प्रथाएँ भी शुरू हुई, जैसे- एक ही समय दो आनुवांशिक राजाओं का संयुक्त शासन जिसमें पिता और पुत्र दोनों को एक ही समय राज्य पर संयुक्त रूप से शासन करते थे
मध्य एशियाई संपर्क से धार्मिक विकास के संदर्भ में
- मध्य एशियाई शासकों ने भारत आकर भारतीय धर्मों को अपना लिया। कुछ शासकों ने वैष्णव धर्म अपना लिया था। यूनानी राजदूत हिलियोदोरस ने मध्य प्रदेश स्थित विदिशा में ईसा पूर्व दूसरी सदी के मध्य में वासुदेव की आराधना के लिये एक स्तंभ खड़ा किया तथा यूनानी शासक मिनांडर ने बौद्ध धर्म अपनाया था। कुषाण शासक शिव और बुद्ध दोनों के उपासक थे। कई कुषाण शासक वैष्णव भी हो गए थे।
- बौद्ध धर्म के नियमों में उदारता आने के फलस्वरूप महायान संप्रदाय का उदय हुआ। कुषाण शासक कनिष्क महायान का संरक्षक था।
- कनिष्क ने कश्मीर में चौथे बौद्ध संगीति का आयोजन करवाया, जिसमें बौद्ध साहित्य के तीनों पिटकों की पूरी तरह व्याख्या की गई थी। कनिष्क ने इस ग्रंथ को लाल ताम्रपत्रों पर खुदवाया और उसे प्रस्तरपात्र में रखकर उसके ऊपर स्तूप का निर्माण करवाया।
- ईसवी सन् के आरंभ में बौद्ध धर्म से संबंधित वस्तुओं, प्रतीकों की पूजा की जाती थी। अब उनका स्थान बुद्ध की प्रतिमा ने ले लिया और उनकी मूर्ति पूजा होने लगी।
- आंध्र प्रदेश में नागार्जुनकोंड और अमरावती बौद्ध कला के महान केंद्र बन गए थे, जहाँ बुद्ध के जीवन की कथाएँ अनगिनत पट्टों पर चित्रित की गई थी।
- बौद्ध धर्म से संबंधित सबसे पुराने पट्टचित्र- गया. साँची और भरहुत में पाए गए, जो ईसा पूर्व दूसरी सदी के हैं।
मध्य एशिया से संपर्क से कला और साहित्य के संदर्भ में
- मध्य एशिया से आए शासकों ने नई कला शैलियों का विकास किया, जैसे- गांधार और मथुरा इनमें बौद्ध धर्म के प्रभाव से स्थानीय और भारतीय दोनों लक्षणों का मिश्रण पाया जाता है।
- महात्मा बुद्ध की प्रतिमाएँ गांधार और मथुरा शैली दोनों में पाई जाती हैं। महात्मा बुद्ध की प्रतिमाएँ यूनान और रोम की मिश्रित शैली में बनाई गई, बुद्ध के बाल यूनानी रोमन शैली में बनाए गए। मथुरा मूलतः देशी कला का केंद्र था, परंतु गांधार शैली का प्रभाव मथुरा में भी पहुँचा था और मथुरा शैली में महात्मा बुद्ध की विलक्षण प्रतिमाएँ बनी हैं, उनकी प्रतिमायें मथुरा और गांधार दोनों शैलियों में बनाई जाती थी।
- अश्वघोष को कुषाणों का संरक्षण प्राप्त था। उन्होंने सौन्दरनन्द नामक काव्य की रचना संस्कृत भाषा में की है।
- यूनानियों ने परदे का प्रचलन आरंभ कर भारतीय नाट्यकला के विकास में भी योगदान दिया। चूँकि परदा यूनानियों की देन था इसलिये वह यवनिका के नाम से विदित हुआ।
कुषाण काल के साहित्यिक ग्रंथों के संदर्भ में
- महायान बौद्ध संप्रदाय की प्रगति के फलस्वरूप अनगिनत अवदानों की रचना हुई। अवदानों का अन्यतम उद्देश्य लोगों को महायान के उद्देश्यों से अवगत कराना था। इस कोटि की प्रमुख कृतियाँ हैं- महावस्तु और दिव्यावदान।
- ‘बुद्धचरित’ की रचना अश्वघोष ने की थी। इसमें बुद्ध के जीवन का वर्णन है।
- भारतीय चिकित्सा ग्रंथ ‘चरक संहिता’ में वनस्पतियों से निर्मित औषधियों का वर्णन किया गया है, जबकि ‘सुश्रुत संहिता’ शल्य चिकित्सा ग्रंथ है। इसमें शल्य विधि का वर्णन किया गया है।
भारत पर यूनानी प्रभाव के संदर्भ में
- भारतीयों का खगोल और ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान यूनानियों से प्रभावित था। यूनानी शब्द होरोस्कोप संस्कृत में ‘होराशास्त्र’ हो गया, जिसका अर्थ ज्योतिषशास्त्र होता है।
- यूनानियों ने सेनानी-शासन (मिलिट्री गवर्नरशिप) की परिपाटी भी चलाई। वे इसके लिये शासक सेनानियों की नियुक्ति करते थे
- ‘स्ट्रेटेगोस’ यूनानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है शासक सेनानी। इन शासकों की आवश्यकता जीते गए प्रदेश पर नए राजाओं का प्रभाव जमाने के लिये होती थी।
मध्य एशियाई संपर्क से विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास के संदर्भ में
- मध्य एशिया से आए विदेशी शासकों ने संस्कृत साहित्य का संरक्षण सम्पोषण किया। संस्कृत काव्यशैली का पहला नमूना रुद्रदामन द्वारा निर्मित काठियावाड़ में जूनागढ़ अभिलेख है, जिसका समय लगभग 150 ई. है।
- प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारतीयों को मध्य एशियाई लोगों के संपर्क से लाभ हुआ था। भारत में इस काल में चमड़े के जूते बनाने का प्रचलन शुरू हुआ।
- शीशे के काम पर विशेष रूप से मध्य एशियाई लोगों का प्रभाव पड़ा था। इस काल सीसे के काम में बड़े पैमाने पर प्रगति हुई।
- आरंभिक कुषाणों ने बड़ी संख्या में स्वर्ण मुद्राएँ जारी की। उनकी स्वर्ण मुद्राएँ गुप्त शासकों की स्वर्ण मुद्राओं से उत्कृष्ट थीं।
17. सातवाहन युग
सातवाहन राज्य के संदर्भ में
- सातवाहन शासकों ने कण्वों को पराजित कर मध्य भारत और दक्कन में सत्ता स्थापित की थी।
- आरंभिक सातवाहन शासकों का राज्य उत्तरी महाराष्ट्र में था, जहाँ उनके प्राचीनतम सिक्के और अधिकांश आरंभिक अभिलेख मिले हैं। उन्होंने अपनी सत्ता ऊपरी गोदावरी घाटी में स्थापित की।
- सातवाहन राज्य का विस्तार कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में था। उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी शक थे। शकों का राज्य दक्कन और पश्चिमी भारत में स्थापित हुआ।
सातवाहन राज्य के उदय में सहायक परिस्थितियों के संदर्भ में
- सातवाहन राज्य का उदय ऊपरी गोदावरी घाटी में हुआ था। वहाँ पर लोहे के फाल का प्रयोग, धान रोपण विधि से धान का प्रचुर उत्पादन होता था। नगरीकरण में अमरावती व नागार्जुनकोंड प्रमुख नगर तथा लेखन कला आदि सातवाहन राज्य के उदय की विशेषताएँ थीं।
गौतमीपुत्र शातकर्णि के संदर्भ में
- गौतमीपुत्र शातकर्णि ने सातवाहन वंश के ऐश्वर्य को फिर से स्थापित किया था। उसने अपने आपको ‘एकमात्र ब्राह्मण’ कहा था।
- उसने क्षहरात वंश के शासक नहपान को हराया था। उल्लेखनीय है। कि नहपान के 8000 से अधिक चांदी के सिक्के नासिक के पास मिले हैं, उन पर सातवाहन राजा द्वारा फिर से ढलाए जाने के चिह्न हैं।
- उसके समय में शासन उत्तर में मालवा से लेकर दक्षिण में कर्नाटक तक फैला हुआ था।
वासिष्ठीपुत्र पुलुमायिन् के संदर्भ में
- इसके काल में सातवाहन साम्राज्य की राजधानी आंध्र प्रदेश के औरंगाबाद जिले में गोदावरी नदी के किनारे पैठन या प्रतिष्ठान बनी।
- सौराष्ट्र (काठियावाड़) के शक शासक रुद्रदामन प्रथम ने उसे दो बार पराजित किया था।
सातवाहन काल की भौतिक संस्कृति के संदर्भ में
- सातवाहन राजा यज्ञश्री सातकर्णि व्यापार और जलयात्रा का प्रेमी था। इसके सिक्कों पर जहाज का चित्र अंकित है, जो जलयात्रा और समुद्री व्यापार के प्रति उसके प्रेम का परिचायक है।
- सातवाहनों ने स्वर्ण का प्रयोग बहुमूल्य धातु के रूप में किया था। उन्होंने कुषाणों की तरह सोने के सिक्के नहीं चलाए। इनके सिक्के अधिकांश सीसे (लेड) के बने होते थे। इसके अलावा पोटीन, तांबे और काँसे की मुद्राएँ भी इन्होंने चलाई।
- सातवाहन दक्कन में कपास का उत्पादन करते थे। विदेशी विवरणों में आंध्र प्रदेश कपास के उत्पाद के लिये प्रसिद्ध था।
- दक्कन के बड़े हिस्से में परम उन्नत ग्रामीण अर्थव्यवस्था विकसित हुई।
सातवाहन साम्राज्य के संदर्भ में
- शक शासक रुद्रदामन प्रथम ने सातवाहन शासक वासिष्ठीपुत्र पुलुमायिन् को दो बार पराजित किया था, परंतु वैवाहिक संबंध होने के कारण उसका नाश नहीं किया।
- दक्कन के लोगों ने उत्तरी भारत से सिक्के, पकी ईंट, छल्लेदार कुएँ और लेखन कला आदि का प्रयोग सीखा।
- करीमनगर जिले के पेड़बंकुर में पकी ईंट तथा द्वितीय शताब्दी ईसवीं के ईंटों के बने बाइस कुएँ पाए गए हैं।
- सातवाहन काल के मिले रोमन सिक्कों से सातवाहन-रोमन के बीच बढ़ते व्यापार के संकेत मिलते हैं।
सातवाहन साम्राज्य के सामाजिक संगठन के संदर्भ में
- सातवाहनों ने सर्वप्रथम ब्राह्मणों को भूमि अनुदान के रूप में देने की प्रथा चलाई थी। वे ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं को कर मुक्त ग्राम दान में देते थे।
- सातवाहनों में हमें मातृसत्तात्मक समाज का आभास मिलता है। उनके राजाओं के नाम उनकी माताओं के नाम पर रखने की प्रथा थी, परंतु सारतः सातवाहन राजकुल पितृसत्तात्मक था, क्योंकि राजसिंहासन का उत्तराधिकारी पुत्र ही होता था।
- इस काल में शिल्प और वाणिज्य में प्रगति व्यापक पैमाने पर हुई। वणिक लोग अपने-अपने नगर का नाम अपने नाम से जोड़ने लगे।
सातवाहन काल के प्रशासनिक तंत्र के संदर्भ में
- सातवाहन साम्राज्य में कई प्रशासनिक इकाइयों मीयों के समान थी। इनके समय में जिले के लिये आहार शब्द, जो अशोक के समय प्रयुक्त होता था तथा उनके अधिकारी मौर्य काल की तरह अमात्य और महामात्य कहलाते थे।
- सातवाहनों के प्रशासन में कुछ विशेष सैनिक और सामंतवादी लक्षण दिखाई पड़ते हैं। सेनापति को प्रांत का शासनाध्यक्ष या गर्वनर बनाया जाता था. ताकि दक्कन के जनजातीय लोगों को प्रशासनिक नियंत्रण में रखा जा सके।
- गोल्मिक ग्राम का प्रधान कहलाता था। इसे ग्रामीण क्षेत्रों के प्रशासन का काम सौंपा जाता था। यह एक सैनिक टुकड़ी का प्रधान होता था, जिसमें नौ रथ, नौ हाथी, पच्चीस घोड़े और पैंतालीस पैदल सैनिक होते थे। वह ग्रामीण क्षेत्रों में शांति व्यवस्था बनाए रखता था।
- सातवाहन काल में ब्राह्मणों और बौद्धों को कर मुक्त भूमि दी गई। दोनों को शासकीय संरक्षण प्राप्त था। महाराष्ट्र पश्चिमी दक्कन के नासिक और जुनार क्षेत्रों में व्यापारियों से संरक्षण प्राप्त कर बौद्ध धर्म फूला फला ।
- सातवाहन शासक ब्राह्मण थे और उन्होंने ब्राह्मणवाद के विजयाभियान का नेतृत्व किया। आरंभ से ही राजाओं और रानियों ने अश्वमेध, वाजपेय आदि वैदिक यज्ञ किये।
- इस काल में बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय का उत्कर्ष हुआ था।
- सातवाहन राज्य में सामंतों की तीन श्रेणियाँ थी। पहली श्रेणी का सामंत राजा कहलाता था। द्वितीय श्रेणी का महाभोज तथा तृतीय श्रेणी का सेनापति।
- आंध्र प्रदेश के नागार्जुनकोंड और अमरावती नगर सातवाहनों के शासन में तथा विशेषकर उनके उत्तराधिकारी इक्ष्वाकुओं के शासन में बौद्ध संस्कृति के महत्त्वपूर्ण केंद्र बने।
सातवाहन काल के चैत्य और विहार के संदर्भ में
- सर्वाधिक प्रसिद्ध चैत्य कार्ले का है, जो पश्चिमी दक्कन में स्थित है।
- चैत्य और विहार ठोस चट्टनों को काट बनाए जाते थे। यह विशाल शिला- वास्तुकला का प्रभावोत्पादक उदाहरण है। चैत्य अनेकानेक स्तंभों पर खड़ा हॉल जैसा होता था और विहार में एक केंद्रीय शाला होती. थी, जिसमें सामने के बरामदे की ओर एक द्वार रहता था।
- चैत्य बौद्धों के मंदिर का काम करता था और विहार भिक्षु निवास का। विहार चैत्यों के पास बनाए गए। उनका उपयोग वर्षाकाल में भिक्षुओं के निवास के लिये होता था।
- नागार्जुनकोंड के स्तूपों में भित्ति प्रतिमाएँ नहीं मिलती हैं। इसमें बौद्ध स्मारकों के साथ-साथ पुराने ईंट से बने हिन्दू मंदिर भी हैं। उल्लेखनीय है कि यह सातवाहनों के उत्तराधिकारी इक्ष्वाकुओं के काल में उत्कर्ष के शिखर पर थे।
- अमरावती के स्तूपों में भित्ति प्रतिमाएँ मिलती हैं। इनमें बुद्ध के जीवन के विभिन्न दृश्य चित्रित हैं।
सातवाहनों की भाषा के संदर्भ में
- सातवाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत थी।
- इनके सभी अभिलेख प्राकृत भाषा में और ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं।
- गाथाहासत्तसई (गाथासप्तशती) हाल नामक सातवाहन राजा की रचना है। इसमें सभी सात सौ श्लोक प्राकृत भाषा में लिखे गए हैं।
18. सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरम्भ
महापाषाणिक संस्कृति के संदर्भ में
- महापाषाण कब्रों में वस्तुओं के साथ त्रिशूल भी रखा जाता था जिसका संबंध बाद में शिव के साथ जुड़ गया
- महापाषाण कब्रों में शवों के साथ खेती के औजार भी दफनाए जाते थे लेकिन कम मात्रा में। इसमें युद्ध और शिकार के हथियार अधिक होते थे। इससे संकेत मिलता है कि महापाषाणिक लोग उन्नत खेती नहीं करते थे।
- महापाषाणकालीन प्रायद्वीपीय भारत में कई तरह के मृद्भाण्डों का प्रयोग किया जाता था, जिनमें लाल मृद्भांड भी शामिल है। परंतु काले व लाल मृद्भांड उन लोगों में अधिक प्रचलित थे।
- अशोक के अभिलेखों में चोल, पाण्ड्य, चेर (केरलपुत्र) और सतियपुत्रों शासकों के उल्लेख मिलते हैं। जो कि भौतिक संस्कृति की उत्तर महापाषाणिक अवस्था के लोग थे।
महापाषाणिक लोगों के संदर्भ में
- तमिलनाडु के दक्षिणी जिलों में रहने वाले महापाषाणिक लोगों द्वारा मृतक के अस्थिपंजर लाल कलश में डालकर गड्डों में दफनाए जाते थे; यही कलश शवाधान कहलाता था।
- अशोक की उपाधि ‘देवानांपिय पियदसि’ एक तमिल राजा ने अपनाई थी।
पाण्ड्य राज्य के संदर्भ में
- पाण्ड्य राज्य भारतीय प्रायद्वीप के सुदूर दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी भाग में अवस्थित था। इसमें तमिलनाडु के आधुनिक तिन्नवेल्ली, रामनद और मदुरा जिले शामिल हैं।
- पाण्ड्यों का उल्लेख सर्वप्रथम मेगास्थनीज ने किया है। और उसने इसे मोतियों का देश कहा है।
- मेगास्थनीज के अनुसार पाण्ड्य राज्य में शासन स्त्री के हाथों में था जिससे यह लक्षित होता है कि पाण्ड्य समाज में कुछ मातृसत्तात्मक प्रभाव था।
- पांड्य राजाओं ने रोमन सम्राट ऑगस्टस के दरबार में राजदूत भेजे। उल्लेखनीय है कि यह राज्य रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार में लाभ की स्थिति में था जिससे यह धनवान और समृद्ध था।
चोल राज्य के संदर्भ में
- चोल राज्य पेन्नार और वेलार नदियों के बीच पाण्ड्य राज्य क्षेत्र के पूर्वोत्तर में स्थित था। यह मध्यकाल के आरंभ में चोलमंडलम् (कोरोमंडल) कहलाता था।
- उसकी राजधानी ‘पुहार’ थी जिसकी पहचान कावेरीपट्टनम से की गई है।
- पुहार की स्थापना दूसरी सदी के प्रख्यात चोल राजा कारैकाल ने की थी।
- ईसा पूर्व दूसरी सदी के मध्य में एलारा नामक चोल राजा ने श्रीलंका को जीतकर पचास वर्षों तक शासन किया था।
- चोल राजनीतिक सत्ता का केंद्र उरैयूर था जो सूती कपड़े के व्यापार के लिये मशहूर है।
- चेर पाण्ड्य क्षेत्र के उत्तर-पश्चिम में स्थित था जो आधुनिक केरल राज्य और तमिलनाडु के बीच एक सकरी पट्टी के रूप में था।
- चेर राजा सेंगुदटुवन को लाल या भला चेर भी कहा जाता था।
सुदूर दक्षिण राज्यों के व्यापार के संदर्भ में
- इन राज्यों का व्यापार पश्चिम के साथ गोल मिर्च की मांग, हाथी दाँत और समुद्र से प्राप्त मोतियों के कारण लाभ की स्थिति में था,
- इनका व्यापार एक ओर यूनानी या मिस्र के हेलेनिस्टिक राज्य और अरब के साथ तथा दूसरी ओर मलय द्वीपसमूह तथा चीन के साथ व्यापारिक संबंध थे।
उपाधि | संबंधित वर्ग |
वल्लाल | धनी किसान |
अरसर | शासक वर्ग |
कडैसियर | खेत मजदूर |
तमिल राज्य के संदर्भ में
- पाण्ड्य राज्य में अश्व समुद्र के रास्ते से मंगवाए जाते थे।
- ‘एनाडि’ की उपाधि सेनाध्यक्षों को औपचारिक अनुष्ठान के साथ दी जाती थी।
- परियार लोग खेत मजदूर थे, साथ ही ये लोग पशु चर्म का कार्य भी करते थे, और चटाई के रूप में इनका इस्तेमाल करते थे।
संगम साहित्य के संदर्भ में
- संगम तमिल कवियों का संघ या सम्मेलन है, जो मदुरै में राजाश्रय में आयोजित होते थे।
- संगम साहित्य में आख्यानात्मक ग्रंथों को वीरगाथा काव्य कहते हैं, जिसमें वीर पुरुषों की कीर्ति और युद्धों का वर्णन किया गया है।
- संगम को मोटे तौर पर दो समूहों में बाँटा जा सकता है आख्यानात्मक और उपदेशात्मक। आख्यानात्मक ग्रंथ मेलकणक्कु अर्थात् अठारह मुख्य ग्रंथ और उपदेशात्मक ग्रंथ कीलकणक्कु अर्थात् अठारह लघु ग्रंथ कहलाते हैं।
संगम राज्यों की धार्मिक संस्कृति के संदर्भ में
- तमिल देश में ईसा सन् की आरंभिक सदियों में जो राज्य स्थापित हुए थे उनका विकास ब्राह्मण संस्कृति के प्रभाव से हुआ। राजा वैदिक यज्ञ करते थे,
- इस काल में इन राज्यों में शवदाह की प्रथा आरम्भ हुई. परंतु महापाषाण अवस्था से चली आ रही दफनाने की प्रथा भी चलती रही।
- पहाड़ी प्रदेशों के लोगों के मुख्य स्थानीय देवता मुरुगन थे, जो आरम्भिक मध्यकाल में सुब्रामनियम या सुब्रह्मण्यम कहलाने लगे।
- स्मारक को वीरकल कहा जाता था. चूँकि गाय या अन्य वस्तुओं के लिये लड़कर मरने वाले वीरों के सम्मान में वीरकल अर्थात् स्मारक स्वरूप प्रस्तर खड़ा किया जाता था।
संगम ग्रंथों के संदर्भ में
- संगम साहित्य तोलकाप्पियम ग्रंथ व्याकरण और अलंकार शास्त्र कहलाता है।
- तिरुक्कुरल में दार्शनिक विचार और सूक्तियाँ हैं।
- तमिल काव्य में दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं जिनके नाम है- सिलप्पदिकारम और मणिमेकले। इन दोनों की रचना ईसा की छठी सदी के आसपास हुई।
- उल्लेखनीय है कि सिलप्पदिकारम एक प्रेमकथा है जिसमें कोवलन नामक व्यापारी और माधवी नामक गणिका के प्रेम-प्रसंग का वर्णन है। मणिमेकले में कोवलन और माधवी की कन्या के साहसिक जीवन का वर्णन किया गया है।
19. मौर्योत्तर युग में शिल्प, व्यापार और नगर
मौर्योत्तर काल में व्यापार के संदर्भ में
- इस काल में कपड़ा बनाने, रेशम बुनने और वस्त्रों एवं विलास की वस्तुओं के निर्माण में भी प्रगति हुई तथा मथुरा शाटक नामक विशेष प्रकार के वस्त्र के निर्माण का बड़ा केंद्र बन गया था।
- दक्षिण भारत के कई नगरों में रंगरेजी उन्नत शिल्प थी। तमिलनाडु में तिरुचिरापल्ली नगर के उपान्तवर्ती उरैयूर में ईंटों का बने रंगाई के हौज मिले हैं।
- शकों, कुषाणों और सातवाहनों का प्रथम तमिल राज्यों का युग प्राचीन भारत के शिल्प और वाणिज्य के इतिहास में चरम उत्कर्ष का काल था।
मौर्योत्तर काल के व्यापार के संदर्भ में
- शिल्पी वर्ग आपस में संगठित थे और उस संगठन का नाम श्रेणी था। इस काल में चौबीस-पच्चीस श्रेणियाँ प्रचलित थी।
- भारत में कांच ढालने की जानकारी ईसवी सन् के आरंभ में हुई और भारतीयों ने इस कला को शिखर तक पहुंचाया
- इस काल की सबसे बड़ी आर्थिक प्रक्रिया भारत और पूर्वी रोमन साम्राज्य के बीच समृद्ध व्यापार था। आरंभ में यह व्यापार अधिकतर स्थल मार्ग द्वारा होता था। ईसा पूर्व पहली सदी से शकों पार्थियनों और कुषाणों की गतिरोध के कारण व्यापार में संकट उत्पन्न हो गया। परंतु ईसा की पहली सदी से व्यापार मुख्यतः समुद्री मार्ग से होने लगा। समुद्र से व्यापार करने में ईसा पूर्व में मानसून पवनों की दिशा ज्ञात होने पर नाविक अरब सागर के पूर्वी तटों से उसके पश्चिमी तटों तक का सफर काफी कम समय में कर सकते थे।
- पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत से पश्चिमी समुद्र तक दोनों ओर से व्यापार मार्ग तक्षशिला में एक दूसरे को काटते थे, और मध्य एशिया से गुजरने वाले रेशम मार्ग से भी जुड़े थे।
- पहला मार्ग उत्तर से सीधे दक्षिण की ओर जाता था और तक्षशिला को निचली सिंधु घाटी से जोड़ता था तथा वहाँ से भड़ौच तक जाता था।
- उल्लेखनीय है कि दूसरा मार्ग उत्तरापथ के नाम से जाना जाता था। वह तक्षशिला से चलकर आधुनिक पंजाब से होते हुए यमुना के पश्चिम तट तक पहुँचता और यमुना का अनुसरण करते हुए दक्षिण की ओर मथुरा पहुँचता फिर वहाँ से मालवा और उज्जैन पहुँच कर पश्चिमी समुद्र तट पर भड़ौच तक जाता था।
मौर्योत्तर काल में विदेश व्यापार संदर्भ में
- रोमन साम्राज्य ने सबसे पहले देश के सुदूर दक्षिणी हिस्से से व्यापार आरंभ किया; इसलिये सबसे पहले सिक्के तमिल राज्यों में मिले हैं।
- रोम वाले दक्षिण भारत से मसाले, मलमल, मोती, रत्न और माणिक्य का आयात करते थे।
- उल्लेखनीय है कि लोहे की वस्तुएँ विशेषकर बर्तन, हाथी दाँत, रत्न और पशु जिनकी गिनती विलासिता की वस्तुओं में थी, उनका भी निर्यात रोमन साम्राज्य में किया जाता था।
- प्राचीन रेशम मार्ग चीन से अफगानिस्तान और ईरान से गुजरने वाले मार्ग से रेशम भेजा जाता था, परंतु पार्थियनों द्वारा ईरान पर अधिकार कर लेने के बाद इस मार्ग में गतिरोध उत्पन्न हो गया, तब यह मार्ग कुछ बदलकर भारतीय उपमहादेश के पश्चिमोत्तर भाग से होते हुए। रेशम पश्चिमी भारत के बंदरगाहों पर आने लगा। कभी-कभी चीन से रेशम भारत के पूर्वी समुद्र तट होते हुए भी यहाँ आता था।
- मौर्योत्तर काल में सिक्कों की ढलाई महत्वपूर्ण शिल्प थी। यह काल सोना, चांदी, तांबा, कांसा, सीसा और पोटीन के सिक्के बनाने के लिये मशहूर है।
- रोम के लोगों को भारतीय गोल मिर्च बहुत प्रिय थी, इसलिये रोम पूरब से गोल मिर्च मंगवाने पर अत्यधिक खर्च करता था। जिससे कि संस्कृत में गोल मिर्च का नाम ही यवनप्रिय पड़ गया।
- रोम के सम्राट ने न केवल फारस की खाड़ी का पता लगाया बल्कि उसने मस्कट पर विजय भी प्राप्त की। उसके व्यापार और विजय के फलस्वरूप रोमन वस्तुएँ अफगानिस्तान और पश्चिमोत्तर भारत पहुँची।
- भारत में नगरीकरण कुषाण काल में उत्कर्ष के शिखर पर पहुँचा था।
- उल्लेखनीय है कि मालवा और पश्चिमी भारत शक शासकों के काल में समृद्ध थे।
- कुषाण काल में उज्जयिनी महत्त्वपूर्ण नगर था, जहाँ से दो मार्ग पहला कौशाम्बी से और दूसरा मथुरा जाने वाले मार्ग से मिलता था। उज्जयिनी से गोमेद और इन्द्रगोप (कार्नेलियन) पत्थरों का निर्यात होता था।
- कुषाण और सातवाहन साम्राज्यों में नगरों की उन्नति इसलिये हुई कि रोमन साम्रज्य के साथ व्यापार बहुत अच्छा चल रहा था।
- पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नगरों की समृद्ध का कारण कुषाण साम्राज्य की शक्ति का केंद्र पश्चिमोत्तर भारत था और यहाँ से व्यापार रोमन साम्राज्य के साथ होता था,
- कुषाण साम्राज्य में मार्गों की सुरक्षा का प्रबंध किया गया था। भारत में अधिकतर कुषाण नगर मथुरा से तक्षशिला जाने वाले पश्चिमोत्तर मार्ग या उत्तरापथ पर पड़ते थे। ईसा की तीसरी सदी में उसके अंत होने से इन नगरों का पतन शुरू हो गया था।
20. गुप्त साम्राज्य का उद्भव और विकास
गुप्त साम्राज्य के उद्भव के संदर्भ में
- गुप्त शासकों ने जीन, लगाम, बटन वाले कोट, पतलून और जूतों का इस्तेमाल करना कुषाणों से सीखा था। इन सबसे उनमें गतिशीलता आई और उनके घुड़सवारों की कार्य क्षमता में वृद्धि हुई।
- गुप्त काल में बिहार की अपेक्षा उत्तर प्रदेश अधिक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र था, क्योंकि आरंभिक गुप्त मुद्राएँ और अभिलेख इसी स्थान पर पाए गए हैं।
गुप्त साम्राज्य के उद्भव व विकास के कारणों के संदर्भ में
- गुप्त राजाओं को कई भौतिक सुविधाएँ प्राप्त थी। उनके कार्य क्षेत्र का मुख्य प्रांगण मध्य- देश की उर्वर भूमि थी, जिसमें बिहार और उत्तर प्रदेश आते हैं, और वहा से अच्छी उपज प्राप्त होती थी।
- वे लोग मध्य भारत और दक्षिण बिहार के लौह अयस्क का उपयोग कर अच्छे औजार और उपकरण बनाते थे।
- इस काल में बायजेन्टाइन साम्राज्य अर्थात् पूर्वी रोमन साम्राज्य के साथ रेशम का व्यापार करने वाले उत्तर भारत के इलाके उनके पड़ोस में स्थित थे, अतः उन्होंने इस निकटता का फायदा व्यापार बढ़ाने में किया।
प्राचीन काल में भारत के राजवंशों के संबंध में
- भारत में कुषाण सत्ता 230 ई. के आसपास आकर समाप्त हो गई। उसके बाद मध्य भारत का बड़ा-सा भाग मुरुण्डों के अधिकार क्षेत्र । में आया। मुरुण्डों की सत्ता 250 ई. तक रही, उसके बाद 275 ई. में गुप्त वंश के आधिपत्य में सत्ता स्थापित हुई, उसके बाद मौखरि राजवंश ने हूणों को पराजित कर पूर्वी भारत पर शासन कायम किया और कन्नौज। में सत्ता स्थापित की।
कुषाण- मुरुण्ड – गुप्त – मौखरि |
चंद्रगुप्त प्रथम के संदर्भ में
- चंद्रगुप्त प्रथम (319-334ई.) गुप्त वंश का पहला प्रसिद्ध राजा हुआ। उसने लिच्छवि राजकुमारी से विवाह किया। इससे उसकी सत्ता को बल मिला।
- चंद्रगुप्त प्रथम महान शासक हुआ और उसने 319-20 ई. में अपने राज्यारोहण के स्मारक के रूप में गुप्त संवत् चलाया
समुद्रगुप्त के संदर्भ में
- चंद्रगुप्त प्रथम के पुत्र और उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त ने गुप्त राज्य का व्यापक विस्तार किया।
- उल्लेखनीय है कि उसके द्वारा विजित प्रदेश पाँच समूहों में बाँटा जा सकता है- प्रथम समूह में गंगा-यमुना दोआब, द्वितीय समूह में पूर्वी हिमालय के राज्यों और कुछ सीमावर्ती राज्य, तृतीय समूह में अटविक राज्य विध्य क्षेत्र में पड़ते थे. चतुर्थ समूह में पूर्वी दक्कन और दक्षिण भारत के बारह शासक और पाँचवें समूह में शक और कुषाणों के नाम हैं, जिनमें कुछ अफगानिस्तान का क्षेत्र भी आता था।
- समुद्रगुप्त की नीतियाँ अशोक की नीतियों के विपरीत थी, जहाँ अशोक शांति और अनाक्रमण की नीति में विश्वास करता था तो समुद्रगुप्त हिंसा और विजय में आनंद पाता था।
- श्रीलंका के राजा मेघवर्मन ने गया में बुद्ध का मंदिर बनवाने की अनुमति प्राप्त करने के लिये समुद्रगुप्त के पास अपना दूत भेजा था। अनुमति मिलने के बाद यह मंदिर बौद्ध विहार के रूप में विकसित हो गया।
- समुद्रगुप्त को उसकी बहादुरी और कौशल के कारण भारत का नेपोलियन कहा जाता है।
चंद्रगुप्त द्वितीय के संदर्भ में
- चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के काल में चीनी यात्री फाहियान भारत आया और यहाँ के लोगों के जीवन के बारे में विस्तृत विवरण लिखा।
- उल्लेखनीय है कि उसने वैवाहिक संबंध और विजय दोनों के सहारे साम्राज्य की सीमा बढ़ाई। चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपनी कन्या प्रभावती का विवाह वाकाटक राजा से कराया जो मध्य भारत में शासन करता था। वाकाटक राजा की मृत्यु के बाद चंद्रगुप्त द्वितीय अप्रत्यक्ष रूप से अपनी कन्या के माध्यम से शासन करता था। इसका साक्ष्य भूमिदान संबंधी उसके अभिलेख है, जिस पर गुप्तकालीन प्राच्य शैली का प्रभाव है
- कालिदास और अमर सिंह दोनों चंद्रगुप्त द्वितीय के उज्जैन दरबार में रहते थे।
गुप्त शासकों के संदर्भ में
- इलाहाबाद की प्रशस्ति (प्रशंसात्मक अभिलेख) में समुद्रगुप्त के विजयों के बारे में वर्णन किया गया है कि उसे कभी पराजय का सामना। नहीं करना पड़ा।
- दिल्ली में कुतुब मीनार के पास खड़े एक लौह स्तंभ पर खुदे हुए अभिलेख में चन्द्र नामक किसी राजा का कीर्तिवर्णन किया गया है. जिसे चंद्रगुप्त द्वितीय के बारे में माना जाता है।
गुप्त साम्राज्य के पतन के संदर्भ में
- चंद्रगुप्त द्वितीय के उत्तराधिकारियों में स्कन्दगुप्त ने हूणों से कड़ा मुकाबला किया परन्तु उसके बाद के उत्तराधिकारी हुणों के सामने ठहर नहीं सके।
- हूण अच्छे योद्धा होने के साथ-साथ बेजोड़ घुड़सवार थे और वे धातु के बने रकाबों का इस्तेमाल करते थे। वे उत्तम धनुर्धर होने के कारण न केवल ईरान में बल्कि भारत में भी सफल हुए,
- गुप्त शासकों के सामंतों ने विद्रोह कर साम्राज्य को कमजोर बना दिया। उत्तरी बंगाल में नियुक्त सामंतों ने विद्रोह कर स्वतंत्र राज्य बनाना शुरू कर दिया था।
- मालवा के औलिकर सामंत वंश के यशोधर्मन ने हूणों को हरा कर गुप्त शासकों को कड़ी चुनौती दी और सारे उत्तर भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के उपलक्ष्य में 532 ई. में विजय स्तंभ स्थापित किये।
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FAQ-
(Q)सिमुक किस वंश का संस्थापक था?
Ans.-सातवाहन
(Q)आंध्र के सातवाहन राजाओं की सबसे लम्बी सूची किस पुराण में मिलती है?
Ans.-मत्स्य पुराण
(Q) सातवाहनों की राजधानी कहाँ स्थित थी?
Ans.-अमरावती में
(Q)सातवाहन काल का सर्वश्रेष्ठ शासक कौन था?
Ans.-गौतमी पुत्र शातकर्णी
(Q)कुषाण शासक कनिष्क का राज्याभिषेक कब हुआ?
Ans.-78 ई. ( शक संवत् प्रारम्भ )