Old NCERT R S Sharma: Ancient History Notes For UPSC Hindi Part 3

21.गुप्त काल का जीवन
22.पूर्वी भारत में सभ्यता का प्रसार
23.हर्ष और उसका काल
24.प्रायद्वीप में नए राज्यों के गठन और ग्राम-विस्तार
25.दर्शन का विकास
26.भारत का एशियाई देशों से सांस्कृतिक संपर्क
27.प्राचीन से मध्यकाल की ओर
28.सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम
29.विज्ञान और सभ्यता की विरासत

21. गुप्त काल का जीवन

गुप्त काल की प्रशासन-पद्धति के संदर्भ में

  • गुप्त राजाओं ने परमेश्वर, महाराजाधिराज, परमभट्टारक आदि आडंबरपूर्ण उपाधियाँ धारण की थी। 
  •  इस काल में राजपद वंशानुगत था, परन्तु राजसत्ता ज्येष्ठाधिकार की अटल प्रथा के अभाव में सीमित थी। राजसिंहासन हमेशा ज्येष्ठ पुत्र को ही नहीं मिलता था।
  • इस काल के सिक्कों पर देवी लक्ष्मी का चित्र अंकित होता था। उनको विष्णु की पत्नी माना जाता था और विष्णु मुख्य देवता हो गए थे।

गुप्त काल की कर प्रणाली के संदर्भ में

  • गुप्त काल में भूमि संबंधी करों की संख्या बढ़ गई, परन्तु वाणिज्य-करों की संख्या में कमी आई। 
  • इस काल में राज्य उपज का चौथे भाग से लेकर छठे भाग तक कर के रूप में लेता था। 
  • उल्लेखनीय है कि जब भी राजकीय सेना गाँवों से गुजरती थी तो उसे खिलाने-पिलाने का कार्य स्थानीय प्रजा का कर्त्तव्य होता था। ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले राजकीय अधिकारी अपने निर्वाह के लिये किसानों से पशु, अन्न आदि वस्तुएँ लेते थे
  • मध्य और पश्चिम भारत में ग्रामवासियों से सरकारी सेना और अधिकारियों की सेवा के लिये बेगार (निःशुल्क श्रम) भी करवाया जाता। था, जो विष्टि कहलाता था।

गुप्त काल में राज्य के वर्गीकरण के संदर्भ में

  • राज्य के वर्गीकरण का बढ़ता अनुक्रम इस प्रकार है- ग्राम < वीथियाँ<विषय < भुक्ति < राज्य 
  •  गुप्त राजाओं ने प्रांतीय और स्थानीय शासन की पद्धति चलाई। राज्य कई भुक्तियों अर्थात् प्रांतों में विभाजित था और हर भुक्ति एक-एक उपरिक के प्रभार में रहती थी। भुक्तियाँ कई विषयों अर्थात् जिलों में विभाजित थी। हर विषय का प्रभारी विषयपति होता था। पूर्वी भारत में प्रत्येक विषय को वीथियों में बाँटा गया था और वीथियाँ ग्रामों में विभाजित थी।

गुप्त साम्राज्य के संदर्भ में

  • गुप्त साम्राज्य के सबसे बड़े अधिकारी कुमारामात्य होते थे। उन्हें राजा उनके प्रांत में ही नियुक्त करता था, वे नकद वेतन पाते थे।
  •  गुप्त राजा सामंतों को गरुड़ छाप वाले राजकीय शासन-पत्र जारी करते थे। 
  •  उल्लेखनीय है कि सीमावर्ती सामंतों को तीन जिम्मेवारियाँ पूरी करनी होती थी। पहली, वे सम्राट के दरबार में उपस्थित होकर सम्मान प्रकट करते दूसरी नजराना चढ़ाते और तीसरी, विवाहार्थ अपनी पुत्री समर्पित करते थे। इसके बदले उन्हें अपने क्षेत्र पर अधिकार का शासनपत्र (सनद) मिलता था।
  •  इस काल में पुरोहितों और अन्य धर्माचार्यों को करमुक्त भूमि दानस्वरूप जाती थी और उन्हें वैसे सभी कर उगाहने का अधिकार भी दे दिया जाता, जो अन्यथा राजकोष में जाते थे। जो ग्राम दे दिये जाते थे उनमें राजा के अधिकारियों और अमलों को प्रवेश करने का हक नहीं रहता था,
  • प्राचीन भारत के गुप्त राजाओं ने सबसे अधिक स्वर्णमुद्राएँ जारी | की, जो उनके अभिलेखों में दीनार कही गई है।

गुप्त काल की अर्थव्यवस्था के संदर्भ में

  • गुप्त शासकों ने गुजरात विजय के बाद बड़ी संख्या में चांदी के सिक्के जारी किये, जो केवल स्थानीय लेन-देन मे चलते थे, क्योंकि पश्चिमी क्षत्रपों के यहाँ चांदी के सिक्कों का महत्त्वपूर्ण स्थान था।
  • पूर्वकाल की तुलना में इस काल में सुदूर व्यापार में ह्रास हो गया। 550 ई. तक भारत पूर्वी रोमन के साथ कुछ-कुछ व्यापार कर रहा था लेकिन 550 ई. के आस-पास पूर्वी रोमन ने चीनियों से रेशम पैदा करने की कला सीख ली। इससे भारत के निर्यात एवं व्यापार पर बुरा असर पड़ा। 
  •  गुप्त काल में ब्राह्मण पुरोहितों का भूस्वामी के रूप में उदय होने से किसानों के हितों पर विपरीत प्रभाव पड़ा और उनकी आर्थिक स्थिति में गिरावट आई। मध्य और पश्चिमी भारत में किसानों से बेगार लिया जाने लगा।

गुप्तकालीन समाज के संदर्भ में

  • गुप्त काल में शूद्रों की सामाजिक स्थिति में सुधार आया था। उन्हें रामायण, महाभारत और पुराण सुनने का अधिकार प्राप्त हुआ। उनके लिये कृष्ण का पूजन विहित किया गया। उल्लेखनीय है कि इस काल में उच्च वर्ग की स्त्रियों को स्वतंत्र जीवन निर्वाह का साधन प्राप्त नहीं था, परन्तु निचले दो वर्णों की स्त्रियों की स्वतंत्र जीवन निर्वाह का अधिकार मिल गया था। 
  •  पाँचवीं सदी में रचित नारद स्मृति में ब्राह्मणों को मिले विशेषाधिकारों
  • का वर्णन किया गया है।
  • इस काल में पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पत्नी को निजी संपत्ति समझा जाने लगा और मृत्यु में भी साथ देने की उम्मीद की जाने लगी। इस काल में सती प्रथा का प्रचलन था. इसका उदाहरण 510 ई. में एक अभिलेख से मिलता है।

गुप्त काल में बौद्ध धर्म के संदर्भ में

  • गुप्त काल में बौद्ध धर्म को राजाश्रय मिलना समाप्त हो गया। जो स्थान अशोक व कनिष्क काल में था, वह अब नहीं रहा। 
  • इस काल में कुछ स्तूपों और विहारों का निर्माण हुआ और नालंदा बौद्ध शिक्षा का केंद्र बन गया। 
  • इस काल में आकर महायान बौद्ध धर्म की तुलना में भागवत या वैष्णव संप्रदाय अधिक प्रभावी हो गया। इसने अवतारवाद का उपदेश दिया और इतिहास को विष्णु के दस अवतारों के चक्र के रूप में प्रतिपादित किया।

गुप्त काल में धार्मिक आस्थाओं के संदर्भ में

  • भागवत धर्म का केंद्र बिंदु भगवत् या विष्णु की पूजा है। गुप्त काल विष्णु के दस अवतारों में का वर्णन किया गया है। छठी सदी में आकर विष्णु की गणना शिव और ब्रह्मा के साथ त्रिदेव में होने लगी। परंतु फिर भी यह मुख्य देवता हो गया। 
  • भागवत संप्रदाय के मुख्य तत्त्व है भक्ति और अहिंसा। भक्ति का अर्थ प्रेममय निष्ठा निवेदन और अहिंसा का अर्थ है किसी जीव का वध नहीं करना है 
  • गुप्त काल में मूर्तिपूजा ब्राह्मणीय धर्म का सामान्य लक्षण हो गई। 
  • उल्लेखनीय है कि गुप्तवंशीय राजाओं ने विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के प्रति सहनशीलता का मार्ग अपनाया।
  • इस काल में विष्णु के उपासकों के लिये विष्णु सहस्त्रनाम आदि बहुत से स्रोत लिखे गए।
  • गुप्त काल प्राचीन भारत का ‘स्वर्णयुग’ कहा जाता है। क्योंकि इस काल में साहित्य, विज्ञान एवं कला के उत्कर्ष, भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार, धार्मिक सहिष्णुता एवं आर्थिक समृद्धि, श्रेष्ठ शासन व्यवस्था और राजनीतिक एकता का काल था।
  • समुद्रगुप्त को सिक्कों पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है.
  •  उल्लेखनीय है कि समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय दोनों कला साहित्य के संपोषक हुए हैं।
  • चंद्रगुप्त द्वितीय का दरबार नवरत्न से अलंकृत था। नवरत्नों में- कालिदास, धनवन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, वेताल भट्ट, घटकर्पर, वराहमिहिर तथा वररुचि जैसे विद्वान थे। 
  •  गुप्त काल में सारनाथ और मथुरा में बुद्ध की सुंदर प्रतिमाएँ बनीं परंतु गुप्तकालीन बौद्ध कला का सर्वश्रेष्ठ नमूना है, अजंता की चित्रावली
लेखकरचनाएँ
शूद्रकमृच्छकटिक
कालिदासअभिज्ञानशाकुन्तलम्
अमर सिंहअमरकोश
  • उल्लेखनीय है कि शूद्रक का लिखा नाटक मृच्छकटिक या माटी की। खिलौना गाड़ी है इसमें निर्धन ब्राह्मण के साथ गणिका का प्रेम वर्णित है। प्राचीन नाटकों में इसे सर्वोत्कृष्ट कोटि का माना गया है। कालिदास। का अभिज्ञानशाकुन्तलम् विश्व की सौ उत्कृष्टतम साहित्यिक कृतियों में से एक है।

गुप्त काल के नाटकों के संदर्भ में

  • भारत में लिखे गए गुप्त काल के नाटकों के बारे में दो बातें उल्लेखनीय हैं
  • इस काल के सभी नाटक सुखांत हैं। दुखांत नाटक का एक भी उदाहरण नहीं मिलता।  
  • इस काल के नाटकों की भाषाओं में वर्ण विभाजन दिखाई पड़ता है
  • इस काल में उच्च वर्ण के लोग संस्कृत तथा शूद्र और स्त्री वर्ग प्राकृत भाषा बोलते थे,

गुप्त काल में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के संदर्भ में

  • आर्यभटीय गणित के क्षेत्र का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।
  • इसके रचयिता आर्यभट पाटलिपुत्र के रहने वाले थे। 
  •  इलाहाबाद के अभिलेख से ज्ञात होता है कि ईसा की पाँचवीं सदी के आरंभ में भारत में दाशमिक पद्धति ज्ञात थी।

छठी सदी के स्मृतिकार कात्यायन का कहना है कि स्त्री अपने स्त्रीधन के साथ अपनी अचल सम्पत्ति को भी बेच सकती थी और गिरवी रख सकती थी। इससे यह पता चलता है कि स्त्रियों को भूमि पर अधिकार था। 

  •  रोमक सिद्धांत नामक पुस्तक खगोलशास्त्र विषय से संबंधित है। इस पर यूनानी विद्वानों का प्रभाव है।
  •  इस काल में वास्तुकला पिछड़ी हुई थी। वास्तुकला के नाम पर हमें ईंट के बने कुछ मंदिर उत्तर प्रदेश में मिले हैं। इसमें कानपुर के भीतरगाँव, गाजीपुर के भीतरी और झाँसी के देवगढ़ में ईंट का मंदिर उल्लेखनीय हैं। 
  • उल्लेखनीय है कि गुप्त काल में मंदिर निर्माण कला का जन्म हुआ था। ।

22. पूर्वी भारत में सभ्यता का प्रसार

कलिंग राज्य के संदर्भ में

  • कलिंग राज्य महानदी के दक्षिण में स्थित था। इसका उत्कर्ष अशोक के काल में हुआ था।
  • कलिंग के राजा खारवेल ने सुदृढ़ राज्य की स्थापना की थी
  • उड़ीसा के बंदरगाहों से मोती, हाथी दाँत और मलमल का अच्छा व्यापार चलता था। खुदाई के दौरान रोम की बहुत-सी वस्तुएँ मिली हैं, इससे सिद्ध होता है कि कलिंग और रोम के मध्य व्यापारिक सम्बंध थे।

चौथी से छठी सदी तक उड़ीसा में स्थापित हुए राज्यों के संदर्भ में

  • चौथी से छठी सदी तक उड़ीसा में स्थापित राज्यों में पाँच राज्यों की स्पष्ट पहचान की जा सकती है, उनमें माठर वंश का राज्य महत्त्वपूर्ण था। उनका राज्य महानदी और कृष्णा नदी के बीच फैला हुआ था। 
  •  माठर वंश को पितृभक्त वंश भी कहा जाता था। 
  • उल्लेखनीय है कि वशिष्ठ, नल और मान वंश के राज्य माठर वंश के पड़ोसी और समकालीन थे। वशिष्ठ वंश का राजा दक्षिण कलिंग में आंध्र की सीमाओं पर था। नल वंश का राज्य महाकांतर के वन्य प्रदेश में और मान वंश का राज्य महानदी के पार उत्तर के समुद्र तटवर्ती क्षेत्र में था।
  •  माठरों ने एक प्रकार के न्यास स्थापित किये, जो अग्रहार कहलाते थे। इस न्यास में कुछ भूमि और गाँव वालों से प्राप्त होने वाली आय होती थी, इन अग्रहारों का उद्देश्य पठन-पाठन और धार्मिक अनुष्ठानों में लगे ब्राह्मणों का भरण-पोषण करना था।
  • भाटरों ने पाँचवी सदी के मध्य से वर्ष को बारह चन्द्रमासों में विभाजित किया, इससे मौसम की सही प्रकार से जानकारी हुई जो कृषि कार्यों में उपयोगी सिद्ध हुआ।

पुण्ड्रवर्धनभुक्ति राज्य के संदर्भ में

  • 432-33 ई. से लेकर लगभग सौ वर्षों तक पुण्ड्रवर्धनभुक्ति) राज्य उत्तरी बंगाल में स्थित था। 
  •  अनुदान पत्रों से ज्ञात होता है कि भूमि का मूल्य दीनार नामक
  • स्वर्णमुद्राओं से चुकाया जाता था। 
  •  यहाँ धार्मिक प्रयोजनों के लिये दान की गई भूमि पर कर नहीं लगाया जाता था।

पांचवी सदी में बंगाल में स्थापित राज्य के संदर्भ में

  • बंगाल में ब्रह्मपुत्र नदी द्वारा बनाया त्रिभुजाकार भाग समतट कहलाता था। इसमें दक्षिण-पूर्वी बंगाल का क्षेत्र आता था। 
  •  इस क्षेत्र को चौथी सदी में समुद्रगुप्त ने जीता और इसे अपने राज्य में मिलाया। 
  •  इस क्षेत्र में ब्राह्मण धर्म का प्रभाव नहीं था। यहाँ संस्कृत भाषा का प्रयोग नहीं मिलता है और न ही वर्ण व्यवस्था का प्रचलन।
  • धार्मिक न्यासों की संख्या बहुत अधिक बढ़ने पर इसकी देखभाल करने के लिये अग्रहारिक नाम का एक अधिकारी नियुक्त किया गया।
  • उल्लेखनीय है कि इन अग्रहारों का उद्देश्य पठन-पाठन और धार्मिक अनुष्ठानों में लगे ब्राह्मणों का भरण-पोषण करना था।

पांचवी सातवीं सदी तक पूर्वी भारत के राज्यों के संदर्भ में

  • गुवाहाटी के निकट की बस्तियाँ ईसवी सन् की चौथी सदी में बस चुकी थी और यहाँ से समुद्रगुप्त ने डवाक और कामरूप से कर वसूल किया था।
  • बंगाल और उड़ीसा के बीच वाले सीमांत क्षेत्रों में दण्डभुक्ति नाम की राजस्व और प्रशासन संबंधी इकाई बनाई गई थी। दण्ड का अर्थ सजा और भुक्ति का अर्थ है भोगा
  •  ब्रह्मपुत्र मैदान में पूरब से पश्चिम तक फैला कामरूप सातवीं सदी में उत्कर्ष पर पहुँचा।
  •  कामरूप के राजाओं ने वर्मन की उपाधि धारण की। यह उपाधि उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत के साथ बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश कर्नाटक और तमिलनाडु में भी पाई जाती है।
  • पूर्वी भारत में चौथी से सातवीं सदी तक के काल को रचनात्मक काल कहा जाता है। इस काल में पूर्वी मध्य प्रदेश, उत्तरी उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और असम में तथा बांग्लादेश के एक बड़े भाग में संस्कृत विद्या, वैदिक कर्मकाण्ड, वर्णव्यवस्था तथा राजतंत्र फैले और विकसित हुए

23. हर्ष और उसका काल

हर्ष के राज्य के संदर्भ में

  • हर्ष हरियाणा स्थित थानेसर का शासक था। उसने अन्य सामंतों ।पर भी प्रभुता स्थापित की।  
  •  हर्ष ने कन्नौज को राजधानी बनाया, यहाँ से उसने चारों ओर अपना प्रभुत्व फैलाया।
  • चीनी यात्री हवेनसांग ईसा की सातवीं सदी भारत आया और लगभग प्रदेह वर्ष तक रहा। 
  • बाण हर्ष का दरबारी कवि था। हर्ष के शासन काल का आरंभिक इतिहास बाणभट्ट से ज्ञात होता है।
  •  हर्ष को भारत का अंतिम हिंदू सम्राट कहा गया है, लेकिन यह न तो कट्टर हिंदू था और न ही पूरे देश का शासक क्योंकि उसका राज्य कश्मीर को छोड़कर उत्तर भारत तक सीमित था।
  • हर्ष का पूर्वी भारत में युद्ध गौड़ के शैव राजा शशांक से हुआ था। 619 ई. में शशांक की मृत्यु के साथ ही यह संघर्ष समाप्त हुआ। 
  • उसके दक्षिण की ओर विजय अभियान को नर्मदा के तट पर चालुक्य वंश के राजा पुलकेशिन ने रोका। पुलकेशिन् आधुनिक कर्नाटक और महाराष्ट्र के बड़े भू-भाग पर शासन करता था।
  • हर्षचरित’ नामक पुस्तक की रचना हर्ष के दरबारी कवि बाणभट्ट ने की थी। इससे हर्ष के शासन काल का आरंभिक इतिहास ज्ञात होता है। 
  • चालुक्य राजा पुलकेशिन् की राजधानी कर्नाटक में आधुनिक बीजापुर।जिले के बादामी में थी। 
  •  हर्ष की प्रशासन प्रणाली गुप्तों के समान थी। अंतर इतना था कि हर्ष का प्रशासन अधिक सामंतिक और विकेंद्रित था।
  • हर्ष आरंभिक जीवन में शैव था, परंतु धीरे-धीरे बौद्ध धर्म का महान संपोषक हो गया। उसने महायान के सिद्धांतों का प्रचार करने के लिये कन्नौज में एक विशाल सम्मेलन का आयोजन करवाया। 
  •  कन्नौज के बाद उसने प्रयाग में भी महासम्मेलन का आयोजन करवाया।
  • हर्ष ने तीन नाटकों की रचना की थी प्रियदर्शिका, रत्नावली और नागानंद। 
  •  उल्लेखनीय है कि मध्यकाल के बहुत-से लेखकों का मानना है कि. ये तीनों नाटक धावक नामक कवि ने हर्ष से पुरस्कार लेकर लिखे।
  • हर्ष ने राज्य में पदाधिकारियों को शासन पत्र (सनद) के द्वारा जमीन देने की प्रथा चलाई। इसके साथ ही राज्य की समर्पित सेवाओं के लिये पुरोहितों को भूमिदान देने की परंपरा जारी रही। 
  • हर्ष की राजकीय आय चार भागों में बाँटी जाती थी। एक भाग राजा के खर्च के लिये रखा जाता था, दूसरा भाग विद्वानों के खर्च के लिये. तीसरा भाग पदाधिकारियों और अमलों के बंदोबस्त के लिये और चौथा भाग धार्मिक कार्यों के लिये। 
  • हर्ष के साम्राज्य में विधि-व्यवस्था अच्छी नहीं थी। स्वेनसांग की सुरक्षा प्रबंध राज्य द्वारा करने के बाद भी उसकी सम्पत्ति को डाकुओं ने छीन लिया था।
  • ह्वेनसांग 645 ई. तक भारत में रहा। वह नालंदा महाविहार अर्थात् बौद्ध विश्वविद्यालय में नालंदा में पढ़ने के लिये और भारत से बौद्ध ग्रंथ बटोर कर ले जाने के लिये आया था।
  •  चीनी यात्री इ-त्सिंग 670 ई. में नालंदा आया। उसके अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय का भरण-पोषण दो सौ गाँवों के राजस्व से होता था।

24. प्रायद्वीप में नए राज्यों के गठन और ग्राम-विस्तार

सातवीं सदी में दक्षिण भारत के राज्यों के संदर्भ में

  • दक्षिण भारत में सातवीं सदी के आरंभ में कांची के पल्लव, बादामी के चालुक्य और मदुरै के पांड्य जैसे तीन प्रमुख राज्यों का उदय हुआ 
  • दक्षिण के प्रदेशों में द्वितीय ऐतिहासिक चरण (300 ई-750 ई. तक) में व्यापार, नगर और मुद्रा तीनों का ह्रास हुआ। इस काल में कृषि अर्थव्यवस्था में कहीं अधिक विस्तार हुआ। 
  • ब्राह्मणों को कर मुक्त भूमि का अनुदान भारी संख्या में दिखाई देता है। इस काल में (द्वितीय ऐतिहासिक चरण) भूमि अनुदानों से यह सिद्ध होता है कि अनेक नए क्षेत्रों का उपयोग खेती और आवास के लिये किया गया।

सातवीं सदी में दक्षिण भारत के राज्यों के संदर्भ में

  • दक्षिण भारत के राज्यों में सन् 400 ई. से संस्कृत राजभाषा हो गई थी और अधिकांश शासन-पत्र (सनद) संस्कृत में मिले हैं। 
  • उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में ईसा पूर्व दूसरी सदी और ईसा की तीसरी सदी के बीच के लगभग सभी अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं।तमिलनाडु के ब्राह्मी अभिलेख में भी प्राकृत भाषा के शब्द हैं।
  • यहाँ लगभग 300 ई. से 750 ई. के मध्य ब्राह्मण धर्म का उत्कर्ष हुआ। बौद्ध और जैन धर्म जो तमिलनाडु के दक्षिणी जिलों में फैले थे, उनमें जैन धर्म सिमटकर कर्नाटक में ही रह गया। यहाँ राजाओं द्वारा किये गए वैदिक यज्ञों के साक्ष्य मिले हैं। 
  • तमिलनाडु में पल्लव और कर्नाटक में बादामी के चालुक्यों के शासन काल में शिव और विष्णु के प्रस्तर मंदिरों का निर्माण आरंभ हुआ। 
  •  उत्तरी महाराष्ट्र और विदर्भ में सातवाहनों के स्थान पर एक स्थानीय शक्ति वाकाटकों ने प्रमुख शहर बसाया।

सातवाहनों के बाद दक्कन में स्थापित राजवंशों के संदर्भ में

  • छठी सदी में पश्चिमी दक्कन में चालुक्यों ने अपना राज्य स्थापित किया और वातापी को राजधानी बनाया। 
  • प्रायद्वीप के पूर्वी भाग में सातवाहनों के अवशेष पर इक्ष्वाकुओं का उदय हुआ और इक्ष्वाकुओं को अपदस्थ कर उनकी जगह पल्लव आए और उन्होंने अपनी राजधानी कांची (आधुनिक कांचीपुरम) में बनाई। उल्लेखनीय है कि पल्लव का अर्थ है लता, चूँकि यह शब्द

टोंडाई का रूपांतरण है जो लता का ही पर्यायवाची है। पल्लवों ने टोंडानाडु अर्थात् लताओं के देश में अपनी सत्ता स्थापित की।

कदंब राज्य के संदर्भ में

  • कदंब राज्य की स्थापना मयूरशर्मन ने की। 
  •  उल्लेखनीय है कि जब वह पढ़ने के लिये कांची आया तो पल्लवाँ द्वारा वहाँ से अपमानित कर निकाल दिया गया। उसने पल्लवों से अपने अपमान का बदला युद्ध करके लिया, परंतु वह पल्लवों से हार गया फिर भी पल्लवों ने मयूरशर्मन को राजचिह्न देकर कदंबों की राजसत्ता को मान्यता दी।
  •  कदंबों ने चौथी सदी में उत्तरी कर्नाटक और कोंकण में अपनी सत्य कायम की, 
  •  मयूरशर्मन ने अपनी राजधानी कर्नाटक के उत्तरी केनरा जिले के वैजयन्ती या बनवासी में बनाई
  • पल्लवों के समकालीन दक्षिणी कर्नाटक में गंग राजाओं ने अपनी सत्ता स्थापित की। उनका राज्य पूरब में पल्लवों के राज्य और पश्चिम में कदंबों के राज्य के बीच था। उनकी सबसे पहले राजधानी कोलार थी। उल्लेखनीय है कि गंग राजाओं ने भूमि अनुदान का लाभ अधिकतर जैनों को ही दिया।

चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय के संदर्भ में

  • ऐहोल अभिलेख से चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय के बारे में जानकारी मिलती है।
  •  उल्लेखनीय है कि इसमें हर्ष-पुलकेशिन द्वितीय के युद्ध का विवरण मिलता है। 
  •  रविकीर्ति उसका दरबारी कवि था। उसके द्वारा रचित उसकी प्रशस्ति (गुण वर्णन) ऐहोल अभिलेख में उत्कीर्ण है।
  •  पुलकेशिन द्वितीय ने 610 ई. के आस-पास कृष्णा और गोदावरी का दोआब, जो वेंगी नाम से प्रसिद्ध हुआ, पल्लवों से जीत लिया था। यहाँ पर मुख्य राजवंश की एक शाखा स्थापित की गई जो वेंगी का पूर्वी चालुक्य राजवंश कहलाने लगे।
  • पल्लव राजा नरसिंहवर्मन और चालुक्य राजा पुलकेशिन के संघर्ष के मध्य 642 ई. के आस-पास पल्लव राजा ने पुलकेशिन को पराजित कर वातापी पर अधिकार करते हुए वातापीकोण्ड अर्थात् वातापी-विजेता की उपाधि धारण की। 
  • आठवीं सदी के पूर्वार्द्ध में चालुक्य राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने कांची को तीन बार पराजित कर लगभग 740 ई. में पल्लवों को पूरी तरह समाप्त किया, परंतु चालुक्यों को 757 ई. में राष्ट्रकूटों ने समाप्त कर दिया था।

छठी से आठवीं सदी के बीच दक्षिण भारत में धर्म के संदर्भ में

  • दक्षिण भारत में यज्ञानुष्ठानों के अलावा ब्रह्मा, विष्णु और शिव की पूजा लोकप्रिय हो गई। विष्णु और शिव की पूजा पहले से ज्यादा होने लगी। 
  • पल्लव राजाओं ने सातवीं और आठवीं सदी में अपने आराध्य देवताओं की प्रतिमा स्थापित करने के लिये बहुत से प्रस्तर मंदिर बनवाए, इनमें सबसे प्रसिद्ध महाबलिपुरम के सात रथ वाला मंदिर है। 
  • सातवीं सदी में नरसिंहवर्मन ने प्रसिद्ध बंदरगाह शहर महाबलिपुरम या मामल्लपुरम की स्थापना की।

दक्षिण भारत के धार्मिक संप्रदायों के संदर्भ में

  • दक्षिण भारत में सातवीं सदी से वैष्णवप्रवर आल्वार संतों ने वैष्णव संप्रदाय फैलाया।
  •  नायन्नार संतों ने शैव संप्रदाय फैलाया।  
  • उल्लेखनीय है कि सातवीं सदी में दक्षिण भारत के लोगों के धार्मिक जीवन में भक्ति मार्ग को लोकप्रिय बनाने में आल्वारों और नायन्नारों मे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  •  आठवीं सदी के बाद मंदिरों के रखरखाव के लिये भूमि अनुदान देने। की प्रथा का प्रचलन हुआ। यह भूमिदान दीवारों पर अभिलिखित कर दिये जाते थे।
  • आठवीं सदी में कांची में कैलाशनाथ मंदिर का निर्माण पल्लवों ने करवाया। उल्लेखनीय है कि इस मंदिर का निर्माण 685-705 ई. में पल्लव वंश के नरसिंहवर्मन II ने करवाया था।

पट्टडकल के मंदिरों के संदर्भ में

  • पापनाथ मंदिर (लगभग 680 ई.) की लम्बाई तीस मीटर है और इसका बुर्ज उत्तर भारतीय शैली में बना है, यह छोटा और नीचा हैं।
  • विरूपाक्ष मंदिर दक्षिण भारतीय शैली में बना है। इसका शिखर बहुत ही ऊंचा, आयताकार और कई मंजिलों वाला है। उसकी दीवारें रामायण के दृश्यों वाली सुन्दर सुन्दर मूर्तियों से सजी है।

दक्षिण भारत में प्रशासनिक व्यवस्था के संदर्भ में

  • दक्षिण भारत में तीन प्रकार के गाँव दिखाई देते हैं- उर, सभा और नगरम्। इनमें ‘डर’ सबसे प्रचलित थे, जिसमें किसान रहते थे। ऐसे गाँवों में ग्राम प्रधान का यह कर्त्तव्य होता था कि गाँव वालों से कर वसूल करे। सभा कोटि के गाँव ब्रह्मदेय अर्थात् ब्राह्मणों को दिये जाते थे। ऐसे गाँवों पर अनुदान प्राप्तकर्त्ता व्यक्ति का अधिकार होता था। नगरम् में व्यापारियों और वाणिकों का मिला-जुला वास होता था और उन्हीं का | प्रभाव होता था। 
  • राजा किसानों से नियमित कर लेता था। फसल के भूमि कर में लेने। के अतिरिक्त राजा किसानों से अन्न, स्वर्ण, गुड़ आदि वस्तुएँ लेता था। इसके अतिरिक्त राजा को विष्टि अर्थात् बेगार का अधिकार था।

25. दर्शन का विकास

भारतीय दर्शन के संदर्भ में

  • भारतीय दर्शन का मुख्य विषय मोक्ष रहा है, जिसका अर्थ है जन्म और मृत्यु के चक्र से उद्धार। 
  • मोक्ष का सबसे पहले उपदेश महात्मा बुद्ध ने दिया, हालाँकि बाद में अन्य ब्राह्मणपंथी दार्शनिकों ने भी इसे आगे बढ़ाया। 
  •  सांख्य की व्युत्पत्ति संख्या शब्द से हुई है। यह सर्वाधिक प्राचीन दर्शन माना जाता है। ईसवी सन् के आरंभ तक दर्शन के छह संप्रदाय विकसित हुए जिसे – सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत कहा जाता है।

पुरुषार्थ के संदर्भ में

अर्थ –आर्थिक संसाधन
धर्म –सामाजिक नियम
काम –शारीरिक सुखभोग
मोक्ष –आत्मा का उद्धार

सांख्य दर्शन के संदर्भ में

  • सांख्य दर्शन ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता है।
  • यह सृष्टि की उत्पत्ति का कारण प्रकृति को मानता है। चौथी सदी के सांख्य दर्शन में प्रकृति के अतिरिक्त पुरुष को भी सृष्टि की उत्पत्ति में कारण माना।
  • इसके अनुसार यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति से मोक्ष की प्राप्ति होती है और मोक्ष मिलने पर मानव को दुख से हमेशा के लिये छुटकारा मिल जाता है। यह मोक्ष यथार्थ ज्ञान के साधन प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द से मिलता है।

योगदर्शन के संदर्भ में

  • योगदर्शन के अनुसार मोक्ष, ध्यान और शारीरिक साधना से मिलता है। शारीरिक साधना के अंतर्गत विभिन्न तरह के आसन अर्थात् दैहिक व्यायाम और प्राणायाम (श्वास के व्यायाम) बताए गए हैं। ऐसा माना जाता है कि इससे चित्त (मन) में एकाग्रता आती है और सांसारिक मोह दूर हो जाता है।
  •  इसका मूल आधार ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों की एकाग्रता है।

वैशेषिक दर्शन के संदर्भ में

  • वैशेषिक दर्शन द्रव्य अर्थात् भौतिक तत्त्वों के विवेचन को महत्त्व देता है। इसके अनुसार पृथ्वी, जल, तेज (अग्नि) वायु और आकाश के मिलने से नई वस्तु बनती है। इसने भारत में भौतिक शास्त्र का आरंभ किया। 
  •  वैशेषिक दर्शन ने परमाणुवाद की स्थापना की। इसके अनुसार भौतिक वस्तुएँ परमाणुओं के संयोजन से बनती है। 
  • यह आस्तिक दर्शन है। यह ईश्वर की सत्ता और आध्यात्मवाद को मानता है।

भारतीय दर्शन का महत्त्वपूर्ण दर्शन मीमांसा के संदर्भ में

  • मीमांसा दर्शन के अनुसार वेदों में कही गई बातें सत्य है। इसका मुख्य लक्ष्य स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति है। 
  • मीमांसा का मूल अर्थ है तर्क करने और अर्थ लगाने की कला, परंतु इसमें तर्क का प्रयोग विविध वैदिक कर्मों के अनुष्ठानों का औचित्य सिद्ध करने में किया गया है। 
  • मीमांसा का प्रचार करके ब्राह्मण ब्राह्मणप्रधान बहुस्तरीय सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना चाहते थे।

न्याय दर्शन के संदर्भ में

  • न्याय दर्शन अपनी विश्लेषण पद्धति के लिये प्रसिद्ध है। इसे तर्कशास्त्र से संबंधित माना जाता है। 
  •  न्याय दर्शन मोक्ष प्राप्ति का साधन ज्ञान को मानता है। 
  •  इस दर्शन में कथन की सत्यता की जाँच अनुमान, शब्द और उपमान प्रमाणों द्वारा की जाती है।

वेदांत दर्शन के संदर्भ में

  • वेदांत का अर्थ है वेद का अंत ईसा पूर्व दूसरी सदी में संकलित उत्तबादरायण का ब्रह्मसूत्र इस दर्शन का मूल ग्रंथ है।
  • यह ‘पुनर्जन्म के सिद्धांत’ को मानता है। इसके अनुसार मनुष्य को पूर्वजन्म में किये गए कर्मों का परिणाम भुगतना पड़ता है। 
  •  विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुज के अनुसार भक्ति ही मोक्ष का सर्वोत्तम साधन है। इनके अनुसार ब्रह्म सगुण है। ध्यातव्य है कि अद्वैतवाद के प्रवर्तक शंकराचार्य बह्म को निर्गुण मानते हैं और मोक्ष का साधन ज्ञान मार्ग को बताया है।
  • सांख्य दर्शन के मूल प्रवर्तक कपिल मुनि हैं। इसमें बताया गया है कि मानव का जीवन प्रकृति की शक्ति द्वारा रूपायित होता है, न कि दैवीय शक्ति द्वारा
  • चार्वाक दर्शन को लोकायत कहा जाता है। यह भौतिकवादी दर्शन है और इसके प्रवर्तक चार्वाक हैं। इस दर्शन को लोकायत इसलिये कहा जाता है क्योंकि इसमें लोक अर्थात् दुनिया के साथ गहरे संबंध को महत्त्व दिया गया है।

26. भारत का एशियाई देशों से सांस्कृतिक संपर्क

• वर्मा (म्यांमार) के लोगों ने बौद्ध धर्म के थेरवाद संप्रदाय को विकसित किया है।

• चीनियों ने बौद्ध चित्रकला भारत से सीखी और भारतीयों ने रेशम उपजाने का कौशल चीन से सीखा। 

• अशोक के शासन काल में बौद्ध धर्म प्रचारक श्रीलंका भेजे गए। ईसा पूर्व दूसरी और पहली सदियों के छोटे-छोटे ब्राह्मी अभिलेख श्रीलंका में पाए गए हैं।

• कुषाण काल में शासन विस्तार के फलस्वरूप खरोष्ठी लिपि में लिखी गई प्राकृत भाषा मध्य एशिया में फैली, जहाँ से ईसा की चौथी सदी के अनेक प्राकृत अभिलेख और पांडुलिपियाँ मिली हैं।

• प्राचीन काल में बौद्ध धर्म के दो और महान केंद्र थे- अफगानिस्तान और मध्य एशिया। बामियान (अफगानिस्तान) में बुद्ध की बहुत-सी मूर्तियाँ और विहार मिले हैं।

 • दुनिया की सबसे बड़ी बुद्ध मूर्ति, जो ईसवी सन् के आरंभिक वर्षों में चट्टानों को काटकर बनाई गई थी, बामियान में स्थित है। यहाँ अनेक प्राकृतिक और कृत्रिम गुफाएँ हैं, जिनमें बौद्ध भिक्षु रहते हैं। 

• उल्लेखनीय है कि अफगानिस्तान में बौद्ध धर्म सातवीं सदी तक रहा।। इसी सदी में इस्लाम धर्म ने इसे अपदस्थ कर दिया। 

भारतीय संस्कृति के दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रसार के संदर्भ में

  • दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति का प्रसार (बर्मा को छोड़कर) बौद्ध धर्म के माध्यम से नहीं बल्कि ब्राह्मण धर्म के द्वारा हुआ है। इसके अतिरिक्त व्यापारियों के माध्यम से भी प्रसार हुआ। 
  • वर्मा (म्याँमार) के पेगू और मोलमेन सुवर्णभूमि कहलाते हैं। 
  • उल्लेखनीय है कि इंडोनेशिया (जावा) को भी सुवर्णद्वीप कहा जाता था। भारतीय वहाँ सोने की खोज में गए थे।
  •  ईसवी सन् की आरंभिक सदियों में पल्लवों ने सुमात्रा में अपनी बस्तियाँ स्थापित कीं।

दक्षिण-पूर्व एशिया में स्थापित मंदिरों के संदर्भ में

  • सबसे विशाल बौद्ध मंदिर इंडोनेशिया के बोरोबुदुर में है। इसका निर्माण आठवीं सदी में हुआ था। इस पर बुद्ध के 436 चित्र उत्कीर्ण हैं। 
  • कम्बोडिया का अंकरोवट का मंदिर बोरोबुदुर के मंदिर से भी बड़ा है और यह विष्णु मन्दिर है। इस मंदिर की दीवारों पर रामायण और महाभारत की कहानियाँ मूर्तियों के रूप में उत्कीर्ण हैं।
  • छठी सदी में दक्षिण-पूर्व एशिया में कम्बोज (कम्बोडिया) और चम्पा में शैव राजाओं ने शक्तिशाली राज्य स्थापित किया। उनकी राजकीय भाषा संस्कृत थी। यह देश संस्कृत विद्या का केंद्र माना जाता था। कम्बोज में असंख्य अभिलेख संस्कृत भाषा में मिले हैं।
  • भारतीयों ने इंडोनेशिया से पान की बेल लगाने की विधि सीखी। उल्लेखनीय है कि भारतीयों ने यूनानियों और रोमनों से सोने का सिक्का ढालना सीखा और चीन से रेशम उत्पादन सीखा परंतु कपास उत्पादन कौशल भारत से चीन और मध्य एशिया में गया।

27. प्राचीन से मध्यकाल की ओर

•  प्राचीन भारतीय समाज के मध्यकालीन समाज में बदलने के कारण निम्नलिखित हैं:

• प्राचीन भारतीय समाज जो धीरे-धीरे मध्यकालीन समाज में बदला, उसका मूल कारण भूमि अनुदान की प्रथा थी। भूमि अनुदान के शासनपत्र (सनद) बताते हैं कि दाताओं को विशेषकर राजाओं को पुण्य प्राप्ति की कामना रहती थी, और दान पाने वालों को मुख्यतः पुरोहितों को धार्मिक अनुष्ठानों के लिये संसाधन की आवश्यकता रही थी। अतः भूमि अनुदान प्रथा का प्रचलन शुरू हुआ।

• पाँचवीं सदी तक राजा ने न्याय और शासन को अपने अधिकार में रखा, बाद में यह अधिकार दानग्राही ब्राह्मणों को दे दिया। ब्राह्मणों को दिया गया यह दान शाश्वत् अर्थात् स्थायी होता था और वे अपने क्षेत्रों में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिये जिम्मेदार थे।

• भूमि अनुदान की स्थायी प्रथा से गुप्त काल के बाद से राजा की शक्ति कम होने लगी और भूस्वामियों का उदय हुआ। 

• उल्लेखनीय है कि भूमि अनुदान की प्रथा ईसा की पाँचवीं सदी से तेजी पकड़ती गई।

प्रसिद्ध विद्वानों के संदर्भ में

विद्वानविषय
वराहमिहिरखगोल विज्ञानी
विशाखदत्तनाटककार
शंकरदार्शनिक

छठी-सातवीं सदी में सांस्कृतिक विकास के संदर्भ में

  • छी-सातवीं सदी संस्कृत साहित्य के इतिहास के लिये महत्त्वपूर्ण है। इस काल में संस्कृत के गए और पथ में अलंकरण शैली का प्रचलन बड़ा। 
  •  गद्य में अलंकरण की पराकाला ‘बाण’ की रचनाओं में पाई जाती है. यद्यपि बाकी को शैली का अनुकरण करना आसान नहीं था परंतु फिर भी मध्यकाल में संस्कृत के लेखकों ने उसी को अपना आदर्श बनाया। 
  •  सातवीं सदी में मूर्ति और मंदिर के निर्माण की शैली हर प्रदेश में अलग-अलग हो गई। पत्थर और काँसा ये दो ऐसे माध्यम थे जिनसे देव प्रतिमाएँ बनाई जाती थीं। इस काल में कांस्य प्रतिमाएँ बड़े पैमाने पर बनती थी। ये कांस्य प्रतिमाएँ बड़ी संख्या में हिमालयी प्रदेशों में और दक्षिण भारत में पाई गई हैं।

गुप्तोत्तर काल में धार्मिक परिवर्तन के संदर्भ में

  • गुप्तोत्तर काल में ब्रह्मा, गणपति, विष्णु, शक्ति और शिव इन पाँच देवताओं की पूजा प्रचलित पाते हैं, जो सम्मिलित रूप से ‘पंचदेवता’ कहलाते हैं। इस काल में वैदिककालीन देव इन्द्र, वरुण और यम का स्थान कम होकर लोकपाल की श्रेणी में आ गए 
  • विष्णु, शिव और दुर्गा ये तीनों मुख्य देवता के रूप में स्थापित हुए।
  • पंचायतन मंदिर निर्माण शैली है, जिसमें मुख्य देवता शिव या किसी अन्य देव या देवी को मुख्य मंदिर में स्थापित किया जाता था और उसके चारों बने चार गौण मंदिरों में चार अन्य देवता रखे जाते थे। ऐसे मंदिर को ‘पंचायतन’ कहा जाता था

28. सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम

पाषाण काल से लेकर वैदिक काल तक हुए सामाजिक परिवर्तनों के संदर्भ में

  • हड़प्पा काल का समाज नगरीय समाज था, यह सभ्यता अश्व केंद्रित नहीं थी जबकि वैदिक काल में समाज अश्वारोही और पशुपालक | 
  •  पहले पुरापाषाण युग का समाज खाद्य-संग्राहक था। जानवरों का शिकार करना ही उनके जीवन निर्वाह का मुख्य साधन था।
  • नवपाषाण युग और ताम्रपाषाण युग में खाद्य उत्पादक समाज बने। ये लोग जमीन के ऊँचाई वाले भाग पर रहते थे, जो पहाड़ियों और नदियों से अधिक दूर नहीं थे।
  •  उत्तर-वैदिक काल में वर्ण विभाजन स्पष्ट रूप से समाज में व्याप्त हो गया था। समाज चार वर्णों में विभाजित हो गया था।
  • वैदिक काल में राजा की आय का मुख्य साधन युद्ध में की। गई लूट था। वे शत्रुओं से सम्पत्ति छीनते और विरोधी जनजातियों से नजराना लेते थे। राजा को दिया जाने वाला यह नजराना बलि (चढ़ावा) कहलाता था।

वैदिक काल के संदर्भ में

शब्दसंबंधित अर्थ
गोमत्धनवान
गोपराजा
गोवालभैंस
  • उल्लेखनीय है कि वैदिक काल में गाय, बैल और धन समानार्थक माने जाते थे। गाय और बैल युद्ध का कारण होते थे। गायों की रक्षा करना राजा का मुख्य धर्म होता था। आर्यों में गाय का इतना अधिक महत्त्व था कि जब उन्होंने भारत में पहली बार भैंस को देखा तो वे उसे गोवाल अर्थात् गाय जैसी दिखने वाली कहने लगे।
  • वैदिक काल के परिवार में गाय को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था, इसलिये इस काल में बेटी को ‘दुहितृ’ अर्थात् दुहने वाली कहा जाता था।

वैदिककालीन समाज व्यवस्था संदर्भ में

  • वैदिक काल में न तो कर प्रणाली स्थापित हुई थी और न ही वैतनिक सैन्य व्यवस्था थी। राजा के संबंधियों के अलावा कोई कर अधिकारी नहीं होता था। राजा को जो नजराना दिया जाता था, वह वैसे ही था जैसे देवताओं को यज्ञादि में चढ़ावा दिया जाता था।
  •  पशुचारक समाज की जन सेना के बदले बाद में कृषक समाज की किसान सेना स्थापित हुई। विश् अर्थात् जनजातीय किसान वर्ग ही सेना या सशस्त्र दल का कार्य करते थे।
  • पूर्व मध्यकाल में राजस्थान में सती प्रथा जोर से चल पड़ी। 
  •  उल्लेखनीय है कि सामंतवादी ढाँचे में भूस्वामियों और योद्धाओं के वर्ग की स्त्रियों की दशा निम्न स्तर पर पहुँची परंतु निम्न वर्ण की स्त्रियों को आर्थिक क्रियाकलाप में भाग लेने और पुनर्विवाह करने की छूट थी।
  •  वैदिक साहित्य में मजदूर (वेज अर्नर) के लिये कोई शब्द नहीं आया. है,  उल्लेखनीय है कि बुद्ध के काल में खेती का कार्य दासों और मजदूरों से कराना आम बात हो गई थी।
  • प्राचीन काल में ऋण पर ब्याज भी वर्ण के अनुसार निर्धारित होता था। उदाहरणार्थ ब्राह्मण को ऋण पर ब्याज दो प्रतिशत, क्षत्रिय को ऋण पर तीन प्रतिशत, वैश्य को चार प्रतिशत और शूद्र की पाँच प्रतिशत ब्याज लगता था।
  • पिछड़े हुए स्थानों में ब्राह्मणों सहित अन्य को भूमि अनुदान देने से कृषि पंचांग का ज्ञान फैला और आयुर्वेद का प्रचार हुआ, जिससे कृषि उत्पादन में समग्र रूप से वृद्धि हुई। लेखन कला तथा प्राकृत और संस्कृत भाषाओं के व्यवहार का भी प्रसार हुआ।

29. विज्ञान और सभ्यता की विरासत

दर्शन के संदर्भ में

  • भारतीय दार्शनिकों ने संसार को माया समझा तथा आत्मा और परमात्मा के बीच के संबंधों की गंभीर विवेचना की। वास्तव में इस विषय पर जितना गहन चिंतन भारतीय दार्शनिकों ने किया है, उतना किसी अन्य देश के दार्शनिकों ने नहीं। 
  •  प्रख्तात जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर ने अपनी दार्शनिक विचारधारा में वेदों और उपनिषदों को भी स्थान दिया है। वह कहा करते थे कि उपनिषदों ने उन्हें इस जन्म में दिलासा दी है और मृत्यु के बाद भी देती रहेगी।
  •  प्राचीन भारत दर्शन और अध्यात्म के क्षेत्र में अपने योगदान के लिये प्रसिद्ध माना जाता है, परन्तु भारत में जगत के विषय में आध्यात्मिकता के साथ भौतिकवादी विचारधारा भी विकसित हुई है। भारत में उदित छः दार्शनिक पद्धतियों के बीच भौतिकवादी दर्शन के तत्त्व सांख्य में मिलते हैं। भौतिकवादी दर्शन को ठोस बनाने का श्रेय चावकों को है।
  • इस्पात बनाने की कला सबसे पहले भारत में विकसित हुई। प्राचीन काल में भारत से इस्पात अन्य देशों को भी नियत किया जाता था और बाद में यह उत्स (Wootz) कहलाने लगा। उल्लेखनीय है कि भारतीय शिल्पियों द्वारा निर्मित इस्पात की तलवार विश्व प्रसिद्ध थी, इसकी एशिया से लेकर पूर्वी यूरोप तक भारी मांग थी।

प्राचीन काल में गणित के विकास के संदर्भ में

  • गणित के क्षेत्र में प्राचीन भारतीयों ने तीन विशिष्ट योगदान दिये- अंकन पद्धति, दाशमिक पद्धति और शून्य का प्रयोग। 
  • उल्लेखनीय है कि भारतीय अंकन पद्धति को अरबों ने अपनाया और पश्चिमी दुनिया में फैलाया। अंग्रेजी में भारतीय अंकमाला को अरबी अंक (अरेबिक न्यूमरस) कहते हैं, परन्तु अरबों ने अपनी अंकमाला को हिंदसा कहा।
  • पश्चिमी देशों ने दाशमिक (दशमलव प्रणाली अरबों से सीखी, जबकि चीनियों ने यह पद्धति बौद्ध धर्मप्रचारकों से सीखी। 
  • प्रसिद्ध गणितज्ञ आर्यभट ने दाशमिक पद्धति का प्रयोग किया था।
  • ईसा पूर्व दूसरी सदी में राजाओं के लिये उपयुक्त यज्ञवेदी बनाने के लिये आपस्तम्ब ने व्यावहारिक ज्यामिति की रचना की। इसमें न्यूनकोण, अधिककोण और समकोण का वर्णन किया गया है। 
  •  आर्यभट ने त्रिभुज का क्षेत्रफल जानने का नियम निकाला जिसके फलस्वरूप त्रिकोणमिति का जन्म हुआ। आर्यभट्ट पाँचवीं सदी के महान विद्वान थे।
  • आर्यभट ने बेबिलोनियाई विधि से ग्रह स्थिति की गणना की और उसने चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के कारणों का पता लगाया। उन्होंने अनुमान के आधार पर पृथ्वी की परिधि का मान निकाला, जो आज भी शुद्ध माना जाता है। उसने बताया कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी घूमती है।

प्राचीन भारत में आयुर्विज्ञान (चिकित्सा विज्ञान) के संदर्भ में

  • औषधियों का उल्लेख सबसे पहले अथर्ववेद मे मिलता है। सुश्रुत को शल्य चिकित्सा का पिता कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि सुश्रुत ने शल्य क्रिया के 121 उपकरणों का उल्लेख किया है।
  •  सुश्रुत संहिता में सुश्रुत ने मोतियाबिंद, पथरी तथा अन्य बहुत से रोगों का उपचार शल्य क्रियाविधि से बताया है।
  • चरक की चरक संहिता भारतीय चिकित्सा शास्त्र का विश्वकोश है,इसमें ज्वर, कुष्ठ, मिरगी और यक्ष्मा के अनेक प्रकार बताए गए हैं। इस पुस्तक में बड़ी संख्या में उन पेड़-पौधों का वर्णन है जिनका प्रयोग दवा के रूप में होता है।

विद्वानों द्वारा रचित पुस्तकों के संदर्भ में

विद्वानपुस्तक
आर्यभट्टआर्यभटीय
वराहमिहिरबृहत संहिता
कालिदासअभिज्ञानशाकुंतलम्

प्राचीन भारत की कला के संदर्भ में

  • मौर्यकालीन पालिशदार सिंह की मूर्ति वाले स्तंभशीर्ष को भारत सरकार । ने राष्ट्रीय चिह्न के रूप में स्वीकार किया है।
  • भारतीय कला और यूनानी कला दोनों के तत्त्वों के सम्मिश्रण से एक नई कला शैली का जन्म हुआ जो गांधार शैली के नाम से प्रसिद्ध है। बुद्ध की पहली प्रतिमा इसी शैली में है।

FAQ-

(Q)नालंदा विश्वविद्यालय किस राज्य में स्थित है?

Ans.-बिहार

(Q)ह्वेनसांग किस राजा के शासन काल में भारत आया था?

Ans.-सम्राट हर्षवर्धन

(Q)भारत में नारियल की खेती कब से प्रारम्भ हुई?

Ans.-सातवाहन काल से

(Q)कौशेय शब्द का प्रयोग किसके लिए किया गया है?

Ans.-रेशम के लिए

(Q)गुप्तोत्तर काल में प्रमुख व्यापारिक केन्द्र कहाँ था?

Ans.-कन्नौज

Important

Ancient History Notes R.S Sharam Part -1

Ancient History Notes R.S Sharam Part -2

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