कक्षा VII हमारे अतीत-॥ | |
1. | हज़ार वर्षों के दौरान हुए परिवर्तनों की पड़ताल |
2. | नए राजा और उनके राज्य |
3. | दिल्ली के सुल्तान |
4. | मुगल साम्राज्य |
5. | शासक और इमारतें |
6. | नगर, व्यापारी और शिल्पीजन |
7. | जनजातियाँ, खानाबदोश और एक जगह बसे हुए समुदाय |
8. | ईश्वर से अनुराग |
9. | क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण |
10. | अठारहवीं शताब्दी में नए राजनीतिक गठन |
हज़ार वर्षों के दौरान हुए परिवर्तनों की पड़ताल
• मध्यकाल में किसी गाँव में आने वाला कोई भी अनजान व्यक्ति जो उस समाज या संस्कृति का अंग न हो ‘विदेशी’ कहलाता था। ऐसे व्यक्ति को हिन्दी में परदेशी एवं फारसी में अजनबी कहा जा सकता है। किंतु एक ही गाँव के रहने वाले दो किसान अलग-अलग धर्म या जाति से जुड़े होने पर भी एक-दूसरे के लिये विदेशी नहीं थे।
• मध्यकाल में जिन समुदायों का महत्त्व बढ़ा उनमें ‘राजपूत’ प्रमुख थे। जो कि ‘राजपूत’ (अर्थात् राजा का पुत्र) से निकला है। 8वीं से 14वीं सदी के बीच यह नाम आमतौर पर योद्धाओं के उस समूह के लिये प्रयुक्त होता था जो क्षत्रिय वर्ण होने का दावा करते थे। ‘राजपूत शब्द के अंतर्गत केवल राजा और सामंत वर्ग ही नहीं बल्कि सेनापति और सैनिक भी आते थे जो पूरे उपमहाद्वीप में अलग-अलग शासकों की सेनाओं में सेवारत थे।
• मध्यकाल में ‘रहट’ का प्रयोग सिंचाई के लिये किया जाता था।
•13 वींसदी में जब फारसी इतिहासकार मिन्हाज-ए-सिराज के हिन्दुस्तान शब्द का प्रयोग किया था तो उसका आशय पंजाब, हरियाणा और गंगा-यमुना के बीच स्थित इलाकों से था, उसने इस शब्द का राजनीतिक अर्थ में उन इलाकों के लिये इस्तेमाल किया था जो दिल्ली सल्तनत के अधिकार क्षेत्र में आते थे।
•नस्तलिक लिपि (बायीं ओर) में वर्ण जोड़कर धारा प्रवाह रूप से लिखे जाते हैं। फारसी, अरबी के जानकारों के लिये इस लिपि को पड़ना आसान होता है शिवस्त लिपि (दायीं ओर) अधिक संक्षिप्त, सघन और कठिन है।
नए राजा और उनके राज्य
•दक्कन के ‘राष्ट्रकूट’ कर्नाटक के चालुक्यों के सामत थे। आठवी सदी के मध्य में एक राष्ट्रकूट प्रधान दतीदुर्ग ने अपने चालुक्य स्वामी। की अधीनता से इंकार कर दिया, उसे हराया और हिरण्यगर्भ नामक एक अनुष्ठान किया।
•चोल काल में ‘ही’ शब्द का प्रयोग जबरन अम के रूप में लिये जाने वाले ‘कर’ के लिये किया जाता था। यह सर्वाधिक उल्लिखित कर है।
•एलोरा की गुफाओं मंदिरों का निर्माण राष्ट्रकूट वंश के शासकों के द्वारा किया गया था जो कि वर्तमान महाराष्ट्र के औरंगाबाद में स्थित है। ये गुफाएँ अपने निर्माण काल की धार्मिक सौहार्द को दर्शाती हैं।
•कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिणी एक वृहत् संस्कृत महाकाव्य है. जिसमें कश्मीर पर शासन करने वाले राजाओं का इतिहास दर्ज है। कल्हण ने अपना वृत्तांत लिखने के लिये शिलालेखों, दस्तावेजों, प्रत्यक्षदर्शियों के वर्णन और पहले के इतिहास समेत सभी तरह के स्रोतों का इस्तेमाल किया है। 12वीं सदी का इतिहास जानने का यह एक अच्छा स्रोत है।
•गुर्जर प्रतिहार, राष्ट्रकूट एवं पाल वंश के शासकों के बीच चली लम्बी लड़ाई की चर्चा प्रायः ‘त्रिपक्षीय संघर्ष’ के रूप में की जाती है।
•तीनों राजवंश कन्नौज पर नियंत्रण के लिये सदियों तक संघर्षरत रहे क्योंकि कन्नौज गंगा के उपजाऊ एवं साधन सम्पन्न क्षेत्र में अवस्थित था तथा कन्नौज की स्थिति सामरिक रूप से महत्वपूर्ण थी।
•अफगानिस्तान के गजनी प्रांत के सुल्तान महमूद गजनी अपनी भारत विजय के दौरान जीते हुए लोगों एवं प्रांतों के बारे में जानना चाहता था। सुल्तान महमूद अपने द्वारा जीते गए लोगों व प्रातों के बारे में भी कई बातें जानना चाहता था और उसने अलबरूनी नामक एक विद्वान को इस उपमहाद्वीप का लेखा-जोखा लिखने का काम सौंपा। अरबी भाषा में लिखी गई उसकी कृति ‘किताब अल-हिन्द’ आज भी इतिहासकारों के लिये महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
•चोल, पल्लवों के सामंत थे। चोल वंश के शासक राजेन्द्र प्रथम ने गंगा घाटी, श्रीलंका तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों तक अपने साम्राज्य के विस्तार एवं सुरक्षा के लिये एक विशाल नौसेना का निर्माण किया था तथा बंगाल की खाड़ी को चोल झील के रूप में परिवर्तित कर दिया था।
•तमिलनाडु के पूर्वी तट पर कावेरी नदी के उपजाऊ डेल्टा क्षेत्र के तंजौर नामक शहर पर बृहदेश्वर मंदिर का निर्माण चोल शासक राजराज ने करवाया था। यह मंदिर भारतीय वास्तुकला एवं शिल्पकला का अद्भुत उदाहरण है।
•गंगईकोंड चोलपुरम चोल वंश के प्रतापी राजा राजेन्द्र प्रथम की राजधानी थी जब उसकी सेना ने कलिंग पार करते हुए दक्षिण कौशल, बंगाल और मगध होते हुए गंगा तक के क्षेत्रों को विजित किया। तब इन विजय के उपलक्ष्य में उसने ‘गंगैकोण्ड’ की उपाधि धारण की और गंगईकोड चोलपुरम (गंगा विजयी चोल का नगर) की स्थापना की।
•चोल काल से संबंधित स्थानीय स्वशासन की जानकारी हमें परांतक 1 के उत्तरमेरूर अभिलेख से प्राप्त होती है जो कि तमिलनाडु मेंअवस्थित है।
•चोलकालीन मंदिर आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के केन्द्र थे।
•मंदिर के साथ जुड़े शिल्पों में सबसे विशिष्ट था कांस्य प्रतिमाएँ बनाने का काम।
•चोल कास्य प्रतिमा संसार के सबसे उत्कृष्ट प्रतिमाओं में गिनी जाती है।
•शिव के ताडवस्वरूप को दर्शाने वाली महान नटराज की मूर्ति चोल काल की कास्य प्रतिमाओं की उत्कृष्टता को प्रदर्शित करती है।
•बोल काल के संबंध में उपरोक्त दोनों कथन सत्य है। चोल
काल में किसानों की बस्तियों को “डर” कहा जाता था। जो कि सिंचित खेती के कारण बहुत समृद्ध हो गई थी तथा इस काल में गाँवों के समूहों की ‘नाद’ कहा जाता था तथा नाडु न्याय करने और कर वसूलने जैसे प्रशासकीय कार्य करते थे।
भूमि के प्रकार | विशेषता |
वेल्लनबगाई | गैर ब्राह्मण किसान स्वामी की भूमि |
ब्रह्मदेव | ब्राह्मणों को उपहार में दी गई भूमि |
शाला भोग | विद्यालय के रख-रखाव के लिये भूमि |
पल्लिवंदेम | जैन संस्थानों को दान दी गई भूमि |
तिरूनमटुक्कनी,देवदान | मंदिर को उपहार में दी गई भूमि |
•वेल्लाल जाति के धनी किसानों को चोल राजाओं ने सम्मान के रूप में ‘मुर्वेदवेलन’ और ‘अरइयार’ (प्रधान) जैसी उपाधियाँ दीं और उन्हें केंन्द्र में महत्त्वपूर्ण राजकीय पद सौंपे।
दिल्ली के सुल्तान
दिल्ली सल्तनत के शासकों के वंश कालानुक्रम | |
तुर्की शासक | 1206-1290 |
खिलजी वंश | 1290-1320 (सबसे कम समय तक शासन रहा) |
तुगलक वंश | 1320-1414 |
सैयद वंश | 1414-1451 |
•गैरिसन शहर किले बंद बसाव क्षेत्र होते थे जहाँ सैनिक रहते थे।
•अलाउद्दीन खिलजी ने अपने शासनकाल में सुदूर दक्षिण के राज्यों तक को विजित किया। दक्षिण की विजय उसके प्रसिद्ध सेनानायक मलिक काफूर के नेतृत्व में हुई। उसने इन राज्यों को जीतने के बाद उन्हें अपने राज्य में नहीं मिलाया, सिर्फ उनसे वार्षिक कर ही वसूलता था।
•मस्जिद के खम्भों वाली कक्षा को लिवान कहते हैं।
• नमाज के दौरान मुसलमान मक्का की तरफ मुँह करके खड़े होते हैं। मक्का की ओर की दिशा को ‘किवला’ कहा जाता है।
• मस्जिद के किबला के आखिरी सिरे को मम्सुरा कहते हैं। • मस्जिद के आँगन को सहन कहा जाता है।
•गुलामों को फारसी में ‘बंदगाँ’ कहा जाता था तथा इन्हें सैनिक सेवा के लिये खरीदा जाता था। साथ ही उन्हें राज्य के कुछ महत्त्वपूर्ण राजनीतिक पद भी दिये जाते थे। उस समय के विद्वानों का कहना था कि सुल्तानों के लिये योग्य और अनुभवी गुलाम, बेटों से भी बढ़कर होता है।
•दिल्ली सल्तनत के अंतर्गत विभिन्न आकार वाले इलाके ‘इक्ता’ कहलाते थे तथा इन इलाकों को संभालने वाले सूबेदार/अधिकारी ‘इक्तेदार’ या ‘मुक्ती’ कहे जाते थे। इनका फर्ज था कि ये अपने इलाके में सैन्य अभियान का नेतृत्व करें एवं कानून व्यवस्था बनाए रखें।
•दिल्ली सन्तमत में मुक्ती लोगों को इसके लिये हो दिया जाता था ताकि मुक्ती लोगों पर प्रभावी तरीके से नियंत्रण रखा जा सके एवं उपपरा से न चले।
•खराब कृषि पर लगने वाला कर होता था जो कि उत्पादन का 50% होता था।
• खुम्सः लूट का धन होता था जो सैनिकों एवं राजकोष के बीच बाँटा जाता था। जकात मुसलमानों से लिया जाने वाला धार्मिक कर (केवल सम्पन्न वर्ग से)
दिल्ली सल्तनत के संदर्भ में
- मुहम्मद तुगलक के शासनकाल के आरंभ में दिल्ली पर मंगोलों के आक्रमण बढ़ गए जिस कारण मजबूर होकर तुगलक को एक विशाल स्थायी सेना रखनी पड़ी। इसी सेना के प्रबंधन के क्रम में कीमतों पर नियंत्रण को जगह सांकेतिक मुद्रा चलाई गई, जो कुछ-कुछ आज की कागज की मुद्रा की तरह थी।
- अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली में अपने सैनिकों के लिये सीरी नामक एक नया गैरिसन शहर बनवाया था।
- अलाउद्दीन के आर्थिक सुधारों में सबसे प्रमुख सुधार था ‘बाजार नियंत्रण नीति’। इसका उल्लेख बरनी ने अपनी पुस्तक ‘तारीखे फिरोजशाही’ में किया है।
- दिल्ली सल्तनत में अलाउद्दीन खिलजी के समय सबसे अधिक मंगोल आक्रमण हुए, जिस कारण अलाउद्दीन को एक विशाल सेना रखनी पड़ी। अलाउद्दीन ने सैनिकों को इक्ता के स्थान पर नकद वेतन देना आरंभ किया।
- अलाउद्दीन खिलजी के समय सबसे अधिक मंगोल आक्रमण हुए। इससे मजबूर होकर अलाउद्दीन को एक विशाल सेना रखनी पड़ी। बड़ी सेना को संभालने एवं विभिन्न प्रकार के प्रशासनिक चुनौतियों से निपटने के लिये ही अलाउद्दीन खिलजी ने विभिन्न आर्थिक एवं प्रशासनिक सुधार लागू किये। जिसमें सर्वप्रथम ‘बाजार नियंत्रण की नीति थी।
- रूद्रमादेवी आधुनिक आंध्र प्रदेश के वारंगल क्षेत्र में स्थित काकतीय वंश की शासिका थी। रूद्रमादेवी ने अपने अभिलेखों में अपना नाम पुरुषों जैसा लिखवाकर अपने पुरुष होने का भ्रम पैदा किया था।
- रानी दिद्दा कश्मीर की महिला शासक थी। उनका नाम ‘दीदी’ (बड़ी बहन) से निकला है। जाहिर है कि प्रजा ने अपनी प्रिय रानी को यह स्नेह भरा संबोधन दिया होगा।
मुगल साम्राज्य
मुगलों के संदर्भ में
- मुगल दो महान शासक वंशों के वंशज थे। माता की ओर से चीन और मध्य एशिया के मंगोल शासक चंगेज खान के वंश से तथा पिता की ओर से ईरान, इराक एवं वर्तमान तुर्की के शासक तैमूर के वंशज थे।
- मुगल अपने को मंगोल कहलवाना पसंद नहीं करते थे क्योंकि चंगेज खान से जुड़ी स्मृतियाँ सैकड़ों व्यक्तियों के नरसंहार से संबंधित थीं। वहीं दूसरी तरफ मुगल तैमूर के वंशज होने पर गर्व महसूस करते। थे क्योंकि इनके इस महान पूर्वज ने 1398 में दिल्ली पर कब्जा किया था।
- 1526 में बाबर ने पानीपत के युद्ध के बाद दिल्ली एवं आगरा को अपने कब्जे में कर लिया था और इसी युद्ध के बाद बाबर ने अपने को ‘बादशाह’ घोषित कर भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखी।
खानवा का युद्ध (1527) | बाबर और राणा सांगा के बीच |
पानीपत का युद्ध (1526) | बाबर और इब्राहिम लोदी के बीच |
चंदेरी का युद्ध (1528) | बाबर और राजपूतों के बीच |
घाघरा का युद्ध (1529) | बाबर और अफगान शासकों के बीच |
अकबर के सैन्य अभियान
- 1568 में सिसौदियों की राजधानी चितौड़ पर कब्जा किया।
- उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र के अभियान के क्रम में सफाविदों को हराकर कांधार पर कब्जा किया और कश्मीर को भी अपने साम्राज्य में मिला लिया।
- अकबर ने अपने सैन्य अभियान के द्वारा पूर्व में बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा तक के क्षेत्रों को मुगल साम्राज्य का अंग बनाया।
▪︎ अकबर ने सर्वप्रथम कछवाहा राजपूतों से वैवाहिक संबंध स्थापित किये। अकबर ने आमेर के राजा बिहारी मल (भारमल) की ज्येष्ठ पुत्री हरखा बाई (जोधाबाई) से विवाह किया। इसी राजपूत राजकुमारी से शहजादे सलीम का जन्म हुआ। शहजादे सलीम (जहाँगीर) के विद्रोहों के कारण अकबर के अंतिम वर्षों के दौरान उसकी सत्ता लड़खड़ाई। अकबर के काल में दक्कन में अभियानों की शुरुआत हुई और उसने बरार, खानदेश एवं अहमदनगर के कुछ हिस्सों को अपने राज्य में मिला लिया।
▪︎ राजकुमार सुरंग जहाँगीर का बेटा था. जो बाद में शाहजहाँ कहलाया। इसने जहाँगीर के शासन के अंतिम वर्षों में विद्रोह किया। साथ हर की पत्नी नूरजहाँ ने शाहजहाँ को हाशिये पर का प्रयास किया जो कि असफल रहा।
▪︎शाहजहाँ जब बीमार हुआ तब उसने दारा शिकोह को शासक नियुक्त किया और कहा कि मेरी अनुपस्थिति में यही शासन का संचालन करेगा और बाद में उसे प्रत्यक्ष रूप से उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया था। यद्यपि यह घोषणा विधिवत रूप से नहीं हुई थी। इस कारण से शाहजहाँ के पुत्रों के बीच उत्तराधिकार को लेकर झगड़ा शुरू हो गया। इसमें औरंगदेव की विजय हुई और उसने दारा शिकोह समेत अपने तीनों | भाइयों को मौत के घाट उतार दिया। औरंगलंय ने अंतिम समय में शाहजहाँ को आगरा के किले में कैद कर दिया था।
▪︎औरंगजेब के पुत्र अकबर ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था जिसमें उसको मराठों एवं दक्कन दोनों सल्तनतों से सैन्य सहायता मिली। यह सबसे बड़ा कारण था जिसके बाद औरंगजेब की राजपूतों के विरुद्ध स्थिति काफी कमजोर पड़ गई थी।
▪︎औरंगजेब ने 1685 में बीजापुर तथा 1687 में गोलकुंडा को अपने राज्य में मिला लिया।
▪︎मराठा शासक शिवाजी ने औरंगजेब की सेना के विरुद्ध छापामार पद्धति शुरू की थी।
▪︎मुगल ज्येष्ठाधिकार के नियम में विश्वास नहीं करते थे। इसके विपरीत वे सहदाबाद की मुगल एवं तैमूर वंशों की प्रथा को अपनाते थे। जिसमें उत्तराधिकार का विभाजन समस्त पुत्रों में कर दिया जाता था।
▪︎मुगल सेवा में आने वाले नौकरशाह ‘मनसबदार’ कहलाते थे। ‘मनसबदार’ शब्द का प्रयोग ऐसे व्यक्तियों के लिये होता था जिन्हें कोई | सरकारी पद या हैसियत मिलती थी। इनकी नियुक्ति केवल योग्यता के आधार पर ही नहीं होती थी। मनसब प्रदान करना सम्राट का विशेष अधिकार था वह किसी को भी मनसब दे सकता था।
मुगलकालीन मनसबदारी व्यवस्था के संदर्भ में
- मनसबदारी मुगलों के द्वारा चलाई गई श्रेणी व्यवस्था थी जिसके जरिये पद, वेतन एवं सैन्य उत्तरदायित्व निर्धारित किये जाते थे।
- सवार पद की संख्या जितनी अधिक होती थी प्रतिष्ठा एवं वेतन भी उतना ही अधिक होता था।
- जात पद के द्वारा मनसबदारों के रखे जाने वाले घोड़ों एवं घुड़सवारों की संख्या तय होती थी
- पद एवं वेतन का निर्धारण जात की संख्या पर निर्भर था। जात की संख्या जितनी अधिक होती थी दरबार में अभिजात की प्रतिष्ठा उतनी ही बढ़ जाती थी तथा वेतन भी उतना ही अधिक होता था। सवार पद के द्वारा मनसबदारों के द्वारा रखे जाने वाले घोड़े एवं घुड़सवारों की संख्या तय होती थी।
- मनसबदार अपना वेतन राजस्व एकत्रित करने वाली भूमि के रूप में पाते थे, जिन्हें “जागीर” कहते थे।
- मनसबदार, इक्तादारों की तरह अपनी जागीरों पर आश्रित नहीं रहते थे और न ही उन पर प्रशासन करते थे। उनके पास अपनी जागीरों से केवल राजस्व एकत्रित करने का अधिकार था। यह राजस्व उनके नौकर उनके लिये एकत्रित करते थे, जबकि वे स्वयं किसी अन्य भाग में सेवारत रहते थे।
- अकबर ने अपने शासनकाल के दौरान जागीरों का बड़ी ही। सावधानीपूर्वक आकलन किया ताकि इनका राजस्व मनसबदार के वेतन से ज्यादा न हो तथा तकरीबन वेतन के बराबर ही रहे।
- औरंगजेब के शासनकाल में जागीरों से प्राप्त होने वाला राजस्व मनसबदार के वेतन से बहुत कम होता था। जिसका कारण मनसबदारों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि थी। इस कारण उन्हें जागीर मिलने से पहले लंबा इंतजार करना पड़ता था तथा जागीरों की संख्या में भी कमी हो गई।
- मुगलों की आमदनी का प्रमुख साधन किसानों की उपज से मिलने वाला राजस्व था। अधिकतर स्थानों पर किसान गाँव के मुखिया या स्थानीय सरदारों के माध्यम से राजस्व देते थे। समस्त मध्यस्थों के लिये चाहे वह ग्राम मुखिया हो या फिर शक्तिशाली सरदार हो मुगल इनके लिये ही जमींदार शब्द का प्रयोग करते थे।
- अकबर के राजस्व मंत्री टोडरमल ने दस साल की कालावधि के लिये कृषि की पैदावार, कीमतों और कृषि भूमि का सावधानीपूर्वक सर्वेक्षण किया। इन आँकड़ों के आधार पर प्रत्येक फसल पर नकद के रूप में कर (राजस्व) निश्चित कर दिया गया। प्रत्येक प्रांत को राजस्व मंडलों में बाँटा गया और हर फसल की राजस्व दर की अलग सूची बनाई गई। राजस्व प्राप्त करने की इसी व्यवस्था को ‘जब्त’ कहा जाता था। यह ‘जन्त’ व्यवस्था गुजरात एवं बंगाल जैसे प्रांतों में संभव नहीं हो पाई।
- अबुल फजल ने अकबर के शासनकाल का इतिहास तीन जिल्दों में लिखा और इसका शीर्षक ‘अकबरनामा’ रखा। पहली जिल्द में अकबर के पूर्वजों का बयान है, दूसरी जिल्द अकबर के शासनकाल की घटनाओं का विवरण देती है। तीसरी आइने अकबरी’ है। इससे अकबर के प्रशासन, घराने सेना, राजस्व और साम्राज्य के भूगोल के बारे में जानकारी मिलती है।
▪︎ प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षणों को अकबर ने निर्धारित किया। था। इसका विस्तृत वर्णन अबुल फजल को अकबर नामा विशेषकर ‘आइने अकबरी’ में मिलता है। अबुल फजल के अनुसार साम्राज्य कई प्रांतों में बँटा था। जिन्हें ‘सूबा’ कहा जाता था। सूबों के प्रशासकों को ‘सूबेदार’ कहते थे, जो राजनैतिक तथा सैनिक दोनों प्रकार के कार्यों का निर्वाह करते थे। प्रत्येक प्रांत का एक वित्तीय अधिकारी भी होता था जो ‘दीवान’ कहलाता था। कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिये सूबेदार को अन्य अफसरों का सहयोग भी प्राप्त था। सदर धार्मिक और धर्मार्थ किये जाने वाले कार्यों का मंत्री था।
इसके अतिरिक्त-
फौजदार – | सेना नायक |
कोतवाल – | नगर का पुलिस अधिकारी |
बख्शी – | सैनिक वेतनाधिकारी |
▪︎ 1570 में जब अकबर फतेहपुर सीकरी में था तो उसने रोमन कैथोलिक के पादरियों, जरथुस्ट्र धर्म के अनुयायियों, उलेमाओं, ब्राह्मणों के साथ धर्म के मामलों में चर्चा शुरू की। ये चर्चाएँ इबादतखाना में हुई। इन्हीं विचार-विमर्शों से अकबर की समझ बनी कि जो विद्वान धार्मिक रोति और मतांधता पर बल देते हैं, वे अक्सर कट्टर होते हैं। उनकी शिक्षाएँ प्रजा के बीच विभाजन एवं असमंजस पैदा करती हैं। यही अनुभव अकबर को ‘सुलह-ए-कुल’ या सर्वत्र शांति के विचार की ओर ले गया।
▪︎ अबुल फजल ने सुलह-ए-कुल के विचार पर आधारित शासन दृष्टि बनाने में अकबर की मदद की, शासन के इसी सिद्धांत को जहाँगीर एवं शाहजहाँ ने भी अपनाया।
▪︎शेर खाँ ने 1539 में चौसा के युद्ध में हुमायूँ को बुरी तरह पराजित किया। शेर खाँ ने इस युद्ध के बाद अपने को सुल्तान घोषित किया और ‘शेरशाह की उपाधि धारण की। उसने शीघ्र ही बंगाल पर अधिकार कर लिया और पूर्व में मुगलों की शक्ति को पूर्णतया नष्ट करके कन्नौज पहुँच गया।
• कन्नौज या बिलग्राम के युद्ध (1540) में हुमायूँ, शेरशाह के द्वारा निर्णायक तौर पर पराजित हुआ। दिल्ली पर शेरशाह का नियंत्रण स्थापित हुआ एवं द्वितीय अफगान साम्राज्य की नींव पड़ी।
▪︎शेरशाह ने प्रशासनिक सुधार के तहत राज्य के हित की रक्षा एवं प्रजा के उद्धार के उपाय दोनों को समान महत्त्व दिया। इसी के तहत उसने सैन्य एवं आर्थिक सुधार किये। वहीं शेरशाह के स्थानीय शासन के सिद्धांत जिसने राज्य में कानून एवं व्यवस्था को उत्तम बनाए रखने में सहयोग दिया। शेरशाह ने निष्पक्ष एवं त्वरित न्याय पर विशेष ध्यान दिया। शेरशाह प्रशासन की यह विशेषताएँ अकबर द्वारा भी ग्रहण की गई।
शासक और इमारतें
▪︎कुतुबमीनार पाँच मंजिली इमारत है जिसका नाम प्रसिद्ध सूफी ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के नाम पर पड़ा है। इस इमारत की पहली मंजिल का निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक तथा शेष मंजिल का निर्माण इल्तुतमिश के द्वारा करवाया गया।
▪︎कुतुबमीनार में स्थित छज्जे के नीचे स्थित अभिलेख अरबी भाष में लिखे गए हैं।
▪︎7वीं एवं 10वीं शताब्दी के मध्य वास्तुकार भवनों में और अधिक कमरे, दरवाजे और खिड़कियाँ बनाने लगे। छत, दरवाजे और खिड़कियाँ अभी भी दो ऊर्ध्वाधर खंभों के आर-पार एक अनुप्रस्थ शहतीर रखकर | बनाए जाते थे। वास्तुकला की यह शैली ‘अनुप्रस्थ टोडा निर्माण’ कहलाई। जाती है। 8वीं से 13वीं शताब्दी के बीच मंदिरों, मस्जिदों, मकबरों तथा सीढ़ीदार कुओं से जुड़े निर्माण में इस शैली का प्रयोग हुआ।
▪︎12वीं सदी के आस-पास विशाल डाँ मंदिर, मस्जिद, भवन) का निर्माण सरलता एवं तेजी से होने लगा क्योंकि इस सदी में निर्माण कार्य में चूना पत्थर, सीमेंट का प्रयोग बढ़ गया। यह उच्च श्रेणी की सीमेंट होती थी, जिसमें पत्थर के टुकड़े मिलने से कंकरीट बनती थी।
▪︎इल्तुतमिश ने देहली-ए-कुहना (वर्तमान दिल्ली) के एकदम निकट एक विशाल तालाब का निर्माण करके व्यापक सम्मान प्राप्त किया था। इस विशाल जलाशय को हौज-ए-सुल्तानी अथवा राजा का तालाब कहा जाता था।
▪︎1638 में शाहजहाँ ने अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली स्थानांतरित की और यमुना किनारे अपनी नई राजधानी शाहजहांनाबाद का निर्माण करवाया। शाहजहाँ ने यहाँ लाल बलुए पत्थर से एक मजबूत किले का निर्माण करवाया जो ‘लाल किले’ के नाम से जाना जाता है। दिल्ली के किले में शाहजहाँ ने दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास का निर्माण करवाया था।
▪︎लाल किले के निकट ही शाहजहाँ ने जामा मस्जिद का निर्माण कराया था।
▪︎चारबाग बनाने की परंपरा अकबर के समय से शुरू हुई थी। अकबर के आरंभिक शासनकाल में निर्मित भवनों में हुमायूँ का मकबरा सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसी मकबरे में चारबाग पद्धति का सबसे पहले उपयोग किया गया था तथा बाग चार समान हिस्सों में घंटे होने के कारण ही चारबाग कहलाते थे।
▪︎दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास (व्यक्तिगत और सार्वजनिक सभा हेतु समारोह कक्षों की निर्माण की योजना शाहजहाँ ने बड़ी ही सावधानीपूर्वक बनाई थी। एक विशाल आंगन में स्थित थे दरबार चिहिल सुतुन अथवा चालीस खंभों के सभा भवन कहलाते थे।
▪︎शासन के आरंभिक वर्षों में शाहजहाँ की राजधानी आगरा थी। इस शहर में विशिष्ट वर्गों ने अपने घरों का निर्माण यमुना नदी के तटों पर करवाया था। इनका निर्माण चारबाग की रचना के ही समान औपचारिक बागों के बीच में हुआ था। चारबाग की योजना के अंतर्गत ही अन्य तरह। के बाग भी थे, जिन्हें इतिहासकार ‘नदी तट बाग’ कहते हैं। इस तरह के बाग में निवास स्थान चारबाग के बीच में स्थित न होकर नदी तटों के पास बाग के बिल्कुल किनारे पर होता था।
▪︎मुगल शासक अपने भवनों के निर्माण में क्षेत्रीय वास्तुकलात्मक शैली अपनाने में विशेष रूप से दक्ष थे। इसी क्रम में उन्होंने बंगाल के स्थानीय शासक के द्वारा छप्पर की झोपड़ी के समान दिखने वाली छत निर्माण की तकनीक बांग्ला गुंबद को अपनी वास्तुकला का हिस्सा बनाया।
▪︎ उत्कीर्णित (उभरे हुए) संगमरमर अथवा बलुआ पत्थर पर रंगीन ठोस पत्थरों को दबाकर बनाए गए सुंदर तथा अलंकृत नमूनों को ही पितरा दुरा तकनीक कहते थे।
▪︎ शाहजहाँ ने दिल्ली के लाल किले के अपने नवनिर्मित दरबार में न्याय और शाही दरबार के अंतः संबंध पर बहुत बल दिया। बादशाह के सिंहासन के पीछे पितरा-दूरा के जड़ाऊ काम की एक श्रृंखला बनाई गई थी, जिसमें पौराणिक यूनानी देवता आर्फियस को वीणा बजाते हुए चित्रित किया गया था।
नगर, व्यापारी और शिल्पीजन
▪︎तंजावुर, कांचीपुरम तथा तिरूपति आदि सभी मंदिर नगर हैं। जबकि मसूलीपट्टनम व्यापारिक तथा बंदरगाह नगर हैं।
▪︎चोलकालीन कांस्य मूर्तियाँ ‘लुप्तमोम’ तकनीक के द्वारा बनाई जाती थी। इस प्रविधि के अंतर्गत सर्वप्रथम मोम की एक प्रतिमा बनाई जाती थी। इसे चिकनी मिट्टी से पूरी तरह लीपकर सूखने के लिये छोड़ दिया जाता था। जब वह पूरी तरह सूख जाती थी तो उसे गर्म किया जाता था और उसके मिट्टी के आवरण में एक छोटा-सा छेद बनाकर उस छेद के रास्ते सारा पिघला हुआ मोम बाहर निकाल लिया जाता था। फिर चिकनी मिट्टी के खाली साँचे में उसी छेद के रास्ते पिचली हुई तु भर दी जाती थी। जब वह धातु ठंडी होकर ठोस हो जाती थी, तो चिकनी मिट्टी के आवरण को सावधानीपूर्वक हटा दिया जाता था और उसमें से निकली प्रतिमा को साफ करके चमका दिया जाता था।
▪︎अजमेर (राजस्थान) के संबंध में उपरोक्त तीनों कथन सत्य है। अजमेर के पास ही पुष्कर सरोवर है, जहाँ प्राचीनकाल से ही तीर्थयात्री आते रहते हैं।
▪︎व्यापारियों को अनेक राज्यों तथा जंगलों से होकर गुजरना पड़त था। इसलिये वे आमतौर पर काफिले बनाकर एक साथ यात्रा करते थे और अपने हितों की रक्षा के लिये व्यापार-संघ (गिल्ड) बनाते थे। दक्षिण भारत में 8वीं सदी और उसके परवर्ती काल में अनेक ऐसे संघ थे, इनमें सबसे प्रसिद्ध मणिग्रामम’ और ‘मानादेशी’ थे। ये व्यापार संघ प्रायद्वीप के भीतर और दक्षिण-पूर्व एशिया तथा चीन के साथ भी दूर-दूर तक व्यापार करते थे।
▪︎गुजरात के व्यापारियों में हिन्दू बनिया और मुस्लिम बोहरा दोनों समुदाय शामिल थे। वे दूर-दूर तक लाल सागर के बंदरगाहों व फारस की खाड़ी, पूर्वी अफ्रीका, दक्षिण-पूर्व एशिया तथा चीन से व्यापार करते थे।
बौदरी शिल्प के संदर्भ में
- बीदरी शिल्प, बीदर कर्नाटक का एक अद्वितीय शिल्प है। बीदर के शिल्पकार तांबे तथा चांदी में जड़ाई के काम में इतने अधिक प्रसिद्ध थे कि इस शिल्प का नाम ही ‘बीदरी’ पड़ गया। अतः बीदरी शिल्प का नाम उसके उत्पादन के स्थान के नाम पर पड़ा।
▪︎पांचाल अर्थात् विश्वकर्मा समुदाय जिसमें सुनार, कसेरे, लोहार. राजमिस्त्री और बढ़ई शामिल थे ये मंदिरों के निर्माण के लिये आवश्यक थे। इसके अलावा ये राजमहलों, बड़े-बड़े भवनों, तालाबों और जलाशयों के निर्माण में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे।
▪︎काबुल अपने पहाड़ी और विषम भू-दृश्यों के साथ 16वीं सदी से राजनीतिक और वाणिज्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बन गया। काबुल और कांधार सुप्रसिद्ध रेशम मार्ग से जुड़े हुए थे। साथ ही घोड़ों का व्यापार भी मुख्य रूप से इसी मार्ग से होता था। 17वीं सदी में हीरों का एक सौदागर बेपटिस्टे टैवर्नियर ने अनुमान लगाया था कि काबुल में घोड़ों का व्यापार प्रतिवर्ष 30,000 रुपए का होता था, जो उन दिनों में एक बड़ी रकम समझी जाती थी।
▪︎हम्पी नगर कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों की घाटी में स्थित है। यह नगर 1336 में स्थापित विजय नगर साम्राज्य का केंद्र स्थल था। हम्पी के शानदार खंडहरों से पता चलता है कि उस शहर की किलेबंदी उच्च कोटि की थी। किले की दीवारों के निर्माण में कहीं भी गारे-चुने जैसे किसी भी जोड़ने वाले मसाले का प्रयोग नहीं किया गया था और शिलाखंडों को आपस में फँसाकर गूंथा गया था। हम्पी (वर्तमान कर्नाटक) यूनेस्को की विश्व विरासत स्थलों की सूची में भी सम्मिलित है।
▪︎15ची 16वीं शताब्दियों के अपने समृद्धिकाल में ही कई वाणिज्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों से गुंजायमान रहता था। इन दिनों हम्पी के बाजारों में मूरों (मुस्लिम रागों के लिये सामूहिक रूप से प्रयुक्त नाम), चेड़ियों, पुर्तगालियों जैसे यूरोपीय व्यापारियों के एजेंटों का जमघट लगा रहता था।
▪︎ विजय नगर साम्राज्य के तुलुव वंश के राजा कृष्णदेव राय ने बिटुल मंदिर का निर्माण विजय नगर साम्राज्य की राजधानी हम्पी में करवाया था। इस मंदिर में स्थित 56 तक्षित स्तंभों से संगीतमय स्वर निकलते हैं।
▪︎विजय नगर काल में बना विरूपाक्ष मंदिर हम्पी में अवस्थित है। मंदिर सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र होते थे और देवदासियाँ विरूपाक्ष मंदिर के अनेक स्तंभ वाले विशाल कक्षों में देव प्रतिमा राजा तथा प्रजाजनों के समक्ष नृत्य किया करती थीं।
▪︎ पश्चिम बंगाल में गंगा नदी के तट पर स्थित मुर्शिदाबाद रेशमी वस्त्रों के उत्पादन का प्रमुख केंद्र था। वह 1704 में बंगाल की राजधानी बन गया लेकिन इसी शताब्दी के दौरान उसका सितारा डूब गया क्योंकि यहाँ के बुनकर इंग्लैंड की मिलों से बनकर आए सस्ते कपड़े के साथ प्रतियोगिता में टिक नहीं सके।
▪︎सूरत को का का प्रस्थान द्वार कहा जाता था क्योंकि अद्भुत से हज यात्री जहाज से यहाँ से रवाना होते थे।
▪︎सूरत के वस्त्र अपने सुनहरे गोटा किनारियों (जरी) के लिये प्रसिद्ध थे और उनके लिये पश्चिम एशिया, अफ्रीका और यूरोप में बाज़ार उपलब्ध थे। सूरत से जारी की गई हुडियों को दूर-दूर तक मिस्र में काहिरा, इराक में बसरा और बेल्जियम में एंटवर्प के बाजारों में मान्यता प्राप्त थी।
▪︎हुडी एक ऐसा दस्तावेज होता था जिसमें व्यक्ति द्वारा जमा कराई। गई रकम दर्ज रहती है। हुडी को कहीं अन्यन्त्र प्रस्तुत करके जमा की गई। राशि प्राप्त की जा सकती है।
▪︎ दक्षिण भारत के सभी मुस्लिम राज्यों ने विजय नगर के खिलाफ एक संघ बनाकर 1565 में तालिकोटा के युद्ध (इसे राक्षस तगड़ी का भी युद्ध कहा जाता है) में विजयनगर के शासक रामराय को पकड़कर उसकी हत्या कर दी तथा विजय नगर को लूटकर ध्वस्त कर दिया। इस संघ में गोलकुंडा, बीजापुर, अहमदनगर और बीदर के शासक थे। नोट : NCERT में इस संघ बरार का नाम भी उल्लिखित है जो कि गलत है।
▪︎ मसूलीपट्टनम् या मछलीपट्टनम नगर कृष्ण नदी के डेल्टा पर स्थित है। 17वीं सदी में यह भिन्न-भिन्न प्रकार की गतिविधियों का केन्द्र था। हॉलैंड एवं इंग्लैंड दोनों देशों की ईस्ट इंडिया कंपनियों ने मसूलीपट्टनम पर नियंत्रण प्राप्त करने का प्रयास किया क्योंकि तब तक यह आंध्र तट का सबसे महत्त्वपूर्ण पलन बन गया था। मसूलीपट्टनम का किला हॉलैंडवासियों ने बनाया था।
▪︎ जब मुगलों ने गोलकुंडा तक अपनी शक्ति बढ़ा ली तो उनके प्रतिनिधि सूबेदार मीर जुमला ने जो कि स्वयं एक सौदागर था, उसने हॉलैंडवासियों और अंग्रेजों को आपस में भिड़ाना शुरू कर दिया। 1686-87 में औरंगजेब ने गोलकुंडा को मुगल साम्राज्य में मिला लिया। इस कारण कंपनियाँ अन्य विकल्प तलाशने लगीं। कंपनी की नई नीति के अंतर्गत केवल इतना ही पर्याप्त नहीं था कि पत्तन, भीतरी प्रदेश के उत्पादन केंद्रों के साथ संबंध बनाए रखे बल्कि कंपनी के नए केंद्र एक साथ राजनीतिक प्रशासनिक तथा वाणिज्यिक भूमिकाएँ भी अदा करे। जब कंपनी के व्यापारी बंबई, कलकत्ता और मद्रास चले गए तब मसूलीपट्टनम अपने व्यापार और समृद्धि दोनों खो बैठा।
▪︎ 18वीं सदी में बंबई, कलकत्ता और मद्रास नगरों का उदय हुआ। साथ ही शिल्प और वाणिज्य में बड़े-बड़े परिवर्तन आए, जब बुनकर जैसे कारीगर तथा सौदागर यूरोपीय कंपनियों द्वारा स्थापित ‘ब्लैक टाउन्स में स्थानांतरित हो गए। ब्लैक यानी देशी व्यापारियों और शिल्पकारों को इन ‘ब्लैक टाउन्स’ में सीमित कर दिया गया। जबकि गोरे शासकों ने मद्रास में फोर्ट सेंट जॉर्ज और कलकत्ता में फोर्ट सेंट विलियम की शानदार कोठियों में अपने आवास बनाए।
▪︎वास्को-डि-गामा भारतीय उपमहाद्वीप तक पहुँचने का समुद्री मार्ग खोजने और मसाले प्राप्त करने की इच्छा से प्रेरित था। वह 1498 में केरल स्थित कालीकट बंदरगाह पहुँचा और अगले वर्ष पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन लौट गया।
जनजातियाँ, खानाबदोश और एक जगह बसे हुए समुदाय
▪︎ जनजातीय समूह व्यक्तिगत रूप से नहीं बल्कि संयुक्त रूप से भूमि और चरागाहों पर नियंत्रण रखते थे और अपने खुद के बनाए नियमों के आधार पर परिवारों के बीच इनका बँटवारा करते थे। कभी-कभी जाति विभाजन पर आधारित अधिक शक्तिशाली समाजों के साथ इनका टकराव | होता था। कई मायनों में जनजातियों ने अपनी आजादी और अलहदा संस्कृति को बचाए रखा। जाति आधारित और जनजातीय समाज दोनों अपनी विविध किस्म की जरूरतों के लिये एक-दूसरे पर निर्भर भी रहे। टकराव और निर्भरता के इस संबंध में दोनों समाजों को बदलने का काम किया।
खोखर | पंजाब |
बलोच | उत्तर-पश्चिम |
अहोम | उत्तर-पूर्वी भाग |
चेर | बिहार-झारखंड |
▪︎ पंजाब में 13वीं-14वीं सदी के दौरान खोखर जनजाति बहुत प्रभावशाली यो। यहाँ बाद में गक्खर लोग ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गए। इनके मुखिया कमाल खान गक्खर को बादशाह अकबर ने मनसबदार बनाया था। उत्तर-पश्चिम में बलोच एक विशाल तथा शक्तिशाली जनजाति थी। ये लोग अलग-अलग मुखियों वाले कई छोटे-छोटे कुलों में बँटे हुए थे। | उपमहाद्वीप के उत्तर-पूर्वी भाग पर नागा, अहोम और दूसरी जनजातियों का पूरी तरह प्रभुत्व था। मौजूदा बिहार और झारखंड के कई इलाकों में 12वीं सदी तक चेर सरदारशाहियों का उदय हो चुका था।
▪︎ 1591 में अकबर के सेनापति मानसिंह ने चेर लोगों पर हमला किया और उन्हें परास्त किया। उन्हें लूट कर अच्छा-खासा माल इकट्ठा किया गया लेकिन वे पूरी तरह अधीन नहीं बनाए गए। औरंगज़ेब के समय में मुगल सेनाओं ने चैर लोगों के कई किलों पर कब्जा किया और उस जनजाति को अपना अधीनस्थ बना लिया।
जनजातियों के संदर्भ में
भील | पश्चिमी और मध्य भारत |
कोली | कर्नाटक और महाराष्ट्र की पहाड़ियाँ |
गोंड | मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ |
कोरागा | दक्षिण भारत |
- भीलों की बड़ी जनजाति पश्चिम और मध्य भारत में फैली हुई थी। सोलहवीं सदी का अंत आते आते उनमें से कई एक जगह बसे खेतिहर और यहाँ तक कि जमींदार बन चुके थे। कर्नाटक और महाराष्ट्र की पहाड़ियाँ- कोली, बेराद तथा कई दूसरी जनजातियों के निवास स्थान थे। कोली लोग गुजरात के कई इलाकों में भी रहते थे। गोंड मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा साथ ही महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में बड़ी तादाद में फैले हुए थे। कोरागा, वेतर, मारवार जनजातियों की दक्षिण भारत में विशाल आबादी थी।
खानाबदोश के संदर्भ में
- खानाबदोश चरवाहे अपने जानवरों के साथ दूर-दूर तक घूमते थे। उनका जीवन दूध और अन्य पशुचारी उत्पादों पर निर्भर था। वे खेतिहर गृहस्थों से अनाज, कपड़े, बर्तन और ऐसी ही चीजों के लिये ऊन, घी इत्यादि का विनिमय भी करते थे। कुछ खानाबदोश अपने जानवरों पर सामान की तुलाई करते थे तथा एक जगह से दूसरी जगह जाते वक्त सामानों की खरीद-फरोख्त करते थे।
- बंजारा लोग महत्त्वपूर्ण व्यापारी खानाबदोश थे। उनका कारवाँ ‘टांडा’ कहलाता था। एक टांडा में कई परिवार होते थे ये बंजारे लोग अपने साथ पूरी घर-गृहस्थी, बीबी-बच्चे साथ लेकर चलते थे। कई बार वे सौदागरों के द्वारा भाड़े पर नियुक्त किये जाते थे, लेकिन ज्यादातर वे खुद सौदागर होते थे। अलाउद्दीन खिलजी बंजारों का ही इस्तेमाल नगर के बाजारों तक अनाज की ढुलाई के लिये करते थे। बादशाह जहाँगीर ने। भी अपने संस्मरण में बजारों का उल्लेख किया है।
▪︎ गोंड राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत राज्य, गढ़ों में विभाजित था। हर गढ़ किसी खास गोड कुल के नियंत्रण में था। ये पुनः चौरासी गाँवों की इकाईयों में विभाजित होते थे, जिन्हें चौरासी कहा जाता था। चौरासी का उपविभाजन बरहोतो में होता था, जो बारह-बारह गाँवों को मिलाकर बनते थे।
राज्य > गढ़ > चौरासी > बरहोत |
▪︎गोंड लोग, गोंडवाना नामक विशाल वन प्रदेश में रहते थे तथा वे स्थानांतरीय कृषि करते थे।
▪︎गोंड जनजाति कई छोटे-छोटे कुलों में बँटी हुई थी, तथा प्रत्येक कुल का अपना राजा या राय होता था।
▪︎ अकबर के शासनकाल का इतिहास (जिसे अबुल फजल ने लिखा है) अकबरनामा में गड़ कटंगा का उल्लेख किया गया है।
▪︎ गोंड जनजाति कई छोटे-छोटे कुलों में बैठी हुई थी। जिस समय दिल्ली के सुल्तानों की ताकत घट रही थी उसी समय कुछ बड़े गो | राज्य छोटे गोड सरदारों पर हावी होने लगे। बड़े-बड़े गोंड राज्यों के उदय में गोंड समाज के चरित्र को बदल डाला। उनका बराबरी वाला समाज धीरे-धीरे असमान सामाजिक वर्गों में विभाजित हो गया। ब्राह्मणों ने गोंड राजाओं से अनुदान में भूमि प्राप्त की और अधिक प्रभावशाली बन गए।। गोंड सरदारों को अब राजपूतों के रूप में मान्यता प्राप्त करने की चाहत हुई। इसलिये गढ़ कटंगा के गोंड राजा अमन दास ने संग्राम शाह की उपाधि धारण की।
▪︎ चंदेल राजपूत राजा सालबाहन की पुत्री दुर्गावती का विवाह गढ़ कटंगा (गोंडवाना राज्य) के राजा दलपत के साथ हुई थी। दलपत की मृत्यु कम उम्र में ही हो गई थी। रानी दुर्गावती बहुत योग्य थी और उसने अपने पाँच साल के पुत्र वीर नारायण के नाम पर शासन की कमान संभाली। आसिफ खाँ के नेतृत्व में मुगल सेनाओं ने गढ़ कटंगा पर हमला किया। रानी दुर्गावती ने इसका जमकर सामना किया और उसने समर्पण करने की बजाय मर जाना बेहतर समझा। उसका पुत्र भी तुरंत बाद लड़ता हुआ मारा गया।
▪︎ गढ़ कटंगा एक समृद्ध राज्य था। इसने हाथियों को पकड़ने और दूसरे राज्यों में उसका निर्यात करने के व्यापार में खासा धन कमाया। जब | मुगलों ने गोंडों को हराया, तो उन्होंने लूट से बेशकीमती सिक्के और हाथी बहुतायत में हथिया लिये।
▪︎ समकालीन इतिहासकारों और मुसाफिरों ने जनजातियों के बारे में बहुत कम जानकारी दी है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो जनजातीय लोग भी लिखित दस्तावेज नहीं रखते थे लेकिन समृद्ध रीति-रिवाजों और वाचिक / मौखिक परंपराओं का वे संरक्षण करते थे। ये परंपराएँ हर पीढ़ी को विरासत में मिली। आज के इतिहासकार जनजातियों का इतिहास लिखने के लिये इन वाचिक परंपराओं का इस्तेमाल करने लगे हैं।
▪︎ 11वीं और 12वीं सदी तक आते-आते क्षत्रियों के बीच राजपूत गोत्र की ताकत में काफी इजाफा हुआ। वे हूण, चंदेल, चालुक्य और कुछ दूसरी परंपराओं से आते थे। इनमें से कुछ पहले जनजातियों में आते थे और बाद में कई के कुल राजपूत मान लिये गये। धीरे-धीरे उन्होंने पुराने शासकों की जगह ले ली. विशेषतः कृषि वाले क्षेत्रों में। धीरे-धीरे ब्राह्मणों के समर्थन से कई जनजातियाँ जाति व्यवस्था का हिस्सा बन गई. लेकिन प्रमुख जनजातीय परिवार ही शासक वर्ग में शामिल हो पाए। पंजाब, सिंध और उत्तर-पश्चिम सरहद की शक्तिशाली जनजातियों ने जिन्होंने इस्लाम धर्म को अपनाया था, वे जाति व्यवस्था को नकारते रहे। सनातनी हिन्दू धर्म के द्वारा प्रस्तावित गैर-बराबरी वाली सामाजिक व्यवस्था इन इलाकों में बड़े पैमाने पर स्वीकार नहीं की गई।
▪︎ अहोम लोग मौजूदा म्यांमार से आकर तेरहवीं सदी में ब्रह्मपुत्र घाटी में आ बसे। उन्होंने भुइयाँ (भूस्वामी) लोगों की पुरानी राजनीतिक व्यवस्था का दमन करके नए राज्य की स्थापना की।
▪︎ अहोम राज्य बेगार पर निर्भर था। राज्य के लिये जिन लोगों से जबरन काम लिया जाता था, वे ‘पाइक’ कहलाते थे।
▪︎अहोम समाज ने उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों के कई जनजातियों को भी अपने अधीन कर लिया था और एक बड़े राज्य का निर्माण किया। इसके लिये 1530 के दशक में ही इतने वर्ष पहले आग्नेय अस्त्रों का इस्तेमाल किया। 1660 तक आते-आते थे उच्चस्तरीय बारूदों और तोपों का निर्माण करने में सक्षम हो गए थे।
▪︎ अहोम समाज कुलों में विभाजित था, जिन्हें ‘खेल’ कहते थे। एक खेल के नियंत्रण में प्रायः कई गाँव होते थे। किसानों को अपने ग्राम | समुदाय के द्वारा जमीन दी जाती थी। समुदाय की सहमति के बगैर राजा तक इसे वापस नहीं ले सकता था।
▪︎ अहोम समाज में लगभग सभी पुरुष युद्ध के दौरान सेना में अपनी सेवाएँ प्रदान करते थे। दूसरे समय में वे बाँध, सिंचाई व्यवस्था इत्यादि के निर्माण या सार्वजनिक कार्यों में जुटे रहते थे।
▪︎ अहोम समाज एक अत्यंत परिष्कृत समाज था। कवियों और विद्वानों को अनुदान में भूमि दी जाती थी। नाट्य-कर्म को प्रोत्साहन दिया जाता था। संस्कृत की महत्त्वपूर्ण कृतियों का स्थानीय भाषा में अनुवाद किया गया था। बुरंजी नामक ऐतिहासिक कृति को पहले अहोम भाषा में और फिर असमिया भाषा में लिखा गया था।
ईश्वर से अनुराग
भक्ति के संदर्भ में
- श्रीमद्भगवदगीता में भक्तिभाव के संदर्भ में जो विचार दिये गए थे, वे प्रारंभिक शताब्दियों में अत्यधिक लोकप्रिय हो गए थे। धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से शिव, विष्णु तथा दुर्गा को परम देवी-देवता के रूप में पूजा जाने लगा। इसी प्रक्रिया में स्थानीय मिथक तथा किस्से कहानियाँ पौराणिक कथाओं के अंग बन गये। साथ ही भिन्न-भिन्न क्षेत्रों | में पूजे जाने वाले देखों एवं देवियों को भी विष्णु शिव एवं दुर्गा का रूप माना जाने लगा। पुराणों में पूजा की जिन पद्धतियों को बताया गया था. स्थानीय पंथों में भी अपनाया जाने लगा।
- 7वीं से 9वीं शताब्दियों के बीच कुछ नए धार्मिक आंदोलनों का प्रादुर्भाव हुआ। दक्षिण भारत में इन आंदोलनों का नेतृत्व नयनारों (शैव संतों) और अलवारों (वैष्णव संतों) ने किया।
- ये संत सभी जाति के थे, जिनमें पुलैया और पनार जैसी ‘अस्पृश्य’ समझी जाने वाली जाति के लोग भी शामिल थे। वे बौद्धों एवं जैनों के कटु आलोचक थे और शिव तथा विष्णु के प्रति सच्चे प्रेम को मुक्ति का मार्ग बताते थे।
- ये साधु-संत घुमक्कड़ प्रकृति के थे तथा जिस किसी स्थान या गाँव जाते थे, वहाँ के स्थानीय देवी-देवताओं की प्रशंसा में सुंदर कविताएँ रचकर उन्हें संगीतबद्ध कर दिया करते थे।
नयनार एवं अलवार संतों के संदर्भ
- इन संतों ने संगम साहित्य में समाहित प्यार | और शूरवीरता के आदर्शों को अपनाकर भक्ति के मूल्यों में उनका समावेश | किया। 10वीं से 12वीं सदी के बीच चोल और पांड्य राजाओं ने उन अनेक धार्मिक स्थलों पर मंदिर बनवा दिये जहाँ कि संत कवियों ने यात्रा की थी। इस प्रकार भक्ति परंपरा और मंदिर पूजा के बीच गहरे संबंध स्थापित हो गए तथा यही वह समय था जब उनकी कविताओं का संकलन तैयार किया गया था।
- नयनार संतों के गीतों के दो संकलन हैं- तेवरम् और तिरूवाचकम्। इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध संत हुए हैं- अप्पार, संबंदर सुंदरार और माणिक्कवसागर।
- अलवार संत संख्या में 12 थे। वे भिन्न-भिन्न प्रकार की पृष्ठभूमि से आए थे। उनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध पेरियअलवार, उनकी पुत्री अंडाल, तॉडरडिप्पाडी और नम्मालवार थे। उनके गीत ‘दिव्य प्रबंधम्’ में संकलित हैं।
- भारत के सर्वाधिक प्रभावशाली दार्शनिकों में से एक शंकर का जन्म 8वीं शताब्दी में केरल में हुआ था। वे अद्वैतवाद के समर्थक थे। जिसके अनुसार जीवात्मा और परमात्मा दोनों एक ही हैं। उन्होंने शिक्षा दी कि ब्रह्मा, जो एकमात्र परम सत्य है, वह निर्गुण और निराकार है। शंकर ने हमारे चारों ओर के संसार को मिथ्या या माया माना। ज्ञान के मार्ग को अपनाने का उपदेश दिया।
▪︎ रामानुज ने ‘विशिष्टाद्वैत’ के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसके। अनुसार आत्मा, परमात्मा से जुड़ने के बाद भी अपनी अलग सत्ता बनाए । रखती है। रामानुज विष्णुभक्त अलवार संतों से बहुत प्रभावित थे। उनके अनुसार मोक्ष प्राप्त करने का उपाय विष्णु के प्रति अनन्य भक्ति भाव रखना है। रामानुज के सिद्धांत ने भक्ति की नई धारा को बहुत प्रेरित | किया, जो परवर्ती काल में उत्तरी भारत में विकसित हुई।
वीरशैव आंदोलन की विशेषताओं से संबंधित
- अलवार एवं नयनार संतों के द्वारा शुरू किये गए तमिल भक्ति आंदोलन और मंदिर पूजा के बीच विशिष्ट संबंध थे। इसके परिणामस्वरूप जो प्रतिक्रिया हुई वह वसवन्ना और अल्लमा प्रभु और अक्कमहादेवी जैसे अनेक साथियों द्वारा शुरू किये गए वीरशैव आंदोलन में स्पष्टतः दिखलाई देती है। यह आंदोलन 12वीं शताब्दी के मध्य में कर्नाटक में शुरू हुई। वीरशैवों ने सभी व्यक्तियों की समानता के पक्ष में और जाति तथा नारी के व्यवहार के बारे में ब्राह्मणवादी विचारधारा के विरुद्ध अपने प्रबल तर्क प्रस्तुत किये।
▪︎ 13वीं से 17वीं शताब्दी तक महाराष्ट्र में अनेकानेक संत एवं कवि हुए जिनके सरल मराठी भाषा में लिखे गए गीत आज भी जन-मन को प्रेरित करते हैं। इन्हीं सतों में प्रमुख थे ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम तथा सखुबाई जैसी स्त्रियाँ तथा चोखामेना का परिवार जो ‘अस्पृश्य’ समझी जाने वाली महार जाति का था। संत ज्ञानेश्वर ने भगवद्गीता पर | टीका लिखी तथा नामदेव के कुछ पद्यात्मक गीत गुरु ग्रंथ साहिब में संगृहीत हैं।
▪︎ इन संत-कवियों ने संन्यास के विचार को ठुकरा दिया और किसी भी अन्य व्यक्ति की तरह रोजी-रोटी कमाते हुए परिवार के साथ रहने और विनम्रतापूर्वक जरूरतमंद साथी व्यक्तियों की सेवा करते हुए जीवन बिताने को अधिक पसंद किया। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि असली भक्ति दूसरों के दुःखों को बाँट लेना है।
▪︎ नरसी मेहता प्रसिद्ध गुजराती संत थे, जिन्होंने राधा-कृष्ण की भक्ति की और उनके प्रेम का चित्रण गुजरात में गीतों की रचना द्वारा किया। इन्होंने ही प्रसिद्ध भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये’ की रचना की
नाथपंथी सिद्धाचार एवं योगी जनों के संदर्भ में
- इन्होंने संसार का परित्याग करने का समर्थन किया।
- मोक्ष के लिये इन्होंने योगासन, प्राणायाम और चिंतन-मनन जैसी क्रियाओं के माध्यम से मन एवं शरीर को कठोर प्रशिक्षण देने की आवश्यकता पर बल दिया।
- इनके द्वारा की गई रूढ़िवादी धर्म की आलोचना ने भक्ति मार्गीय धर्म के लिये आधार तैयार किया।
- ये समूह उच्च वर्गों में नहीं बल्कि समाज में ‘नीची’ कही जाने वाली जातियों में बहुत लोकप्रिय हुए। इनके विचार से निराकार परम सत्य का चिंतन-मनन और उसके साथ एक होने की अनुभूति ही मोक्ष है।
सूफियों के संदर्भ में
- संतों और सूफियों में बहुत अधिक समानता थी. यहाँ तक कि यह भी माना जाता है कि उन्होंने आपस में कई विचारों का आदान-प्रदान किया और उसे अपनाया। सुफी लोग धर्म के बाहरी आडंबरों को अस्वीकार करते हुए ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति तथा मनुष्यों के प्रति दयाभाव रखने पर बल देते थे। इन्होंने मुस्लिम धार्मिक विद्वानों द्वारा निर्धारित विशद् कर्मकांड और आचार-संहिता को बहुत कुछ अस्वीकार कर दिया। ये ईश्वर से ठीक उसी प्रकार जुड़े रहना चाहते थे जिस प्रकार एक प्रेमी दुनिया की परवाह किये बगैर अपनी प्रियतमा के साथ जुड़ा रहना चाहता है।
- इस्लाम के अंतर्गत विद्वानों को ‘उलेमा’ कहा जाता है।
- इस्लाम ने एकेश्वरवाद यानी एक अल्लाह के प्रति पूर्ण समर्पण का दृढ़ता से प्रचार किया। उसने मूर्तिपूजा को अस्वीकार कर उपासना पद्धतियों को सामूहिक प्रार्थना नमाज़ का रूप देकर उन्हें काफी सरल बना दिया। संत और कवियों की तरह सूफी लोग अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिये काव्य रचना किया करते थे। गद्य में एक विस्तृत साहित्य तथा कई किस्से-कहानियाँ इन सूफी संतों के इर्द-गिर्द विकसित हुई।
- नाथपथियों, सिद्धों और योगियों की तरह सूफी भी यही मानते थे कि दुनिया के प्रति अलग नजरिया अपनाने के लिये दिल को सिखाया- पढ़ाया जा सकता है। उन्होंने किसी औलिया या पीर की देख-रेख में (जिक्र (नाम का जाप), चिंतन, समा (गाना), रक्स (नृत्य), नीति-चर्चा, साँस पर नियंत्रण आदि के जरिये प्रशिक्षण की विस्तृत नीतियों का विकास किया।
- ग्यारहवीं शताब्दी में सूफी लोग मध्य एशिया से आकर भारत में बसने लगे थे।
- खानकाह: सूफी संस्था जहाँ सूफी संत अक्सर रहते भी थे। सूफी संत अपने खानकाहों में विशेष बैठकों का आयोजन करते थे जहाँ सभी प्रकार के भक्तगण जिनमें शाही घरानों के लोग, अभिजात और आम लोग भी शामिल होते थे। सूफी लोगों के साथ आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा करते थे। अक्सर लोग यह समझते थे कि सूफी औलियाओं के पास चमत्कारिक शक्तियाँ होती हैं।
चिश्ती सिलसिले’ के संदर्भ में
- यह भारत का सबसे प्राचीन संगठित एवं प्रभावशाली सिलसिला था।
- भारत में चिश्ती परंपरा के एक प्रभावी संत ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती थे।
- चिश्ती सिलसिले की स्थापना अबू इशाक ने ईरान के उत्तरी-पूर्वी प्रांत खुरासान में की थी।
▪︎ तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना पूर्वी उत्तर प्रदेश में बोली। जाने वाली भाषा अवधी में की है। यह उनके भक्ति भाव की अभिव्यक्ति । और साहित्यिक कृति दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इसके अलावा इन्होंने विनयपत्रिका, गीतावली, कवितावली, बरवै रामायण आदि की रचना की।
▪︎ सूरदास ने सूरसागर, सूरसारावली एवं साहित्य लहरी की रचना की। सूरदास श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। अकबर तथा जहाँगीर इनके समकालीन थे। इन्होंने अपने ग्रंथों की रचना ब्रजभाषा में की।
▪︎ असम के शंकरदेव (परवर्ती 15वीं शताब्दी), जो मूर्तिपूजा एवं | कर्मकांड के विरोधी थे. उन्होंने ही ‘नामघर’ (कविता पाठ और प्रार्थनागृह) स्थापित करने की पद्धति चलाई, जो आज तक चल रही है। इन्होंने विष्णु की भक्ति पर बल दिया, किंतु उनकी मूर्तिपूजा का विरोध किया। साथ- ही असमिया भाषा में नाटक एवं कविताएँ लिखीं।
▪︎ मीराबाई एक राजपूत राजकुमारी थीं, जिनका विवाह सोलहवीं | शाताब्दी में मेवाड़ के एक राजसी घराने में हुआ था। मीराबाई, रविदास जो ‘अस्पृश्य’ जाति के माने जाते थे, की अनुयायी बन गई। वे कृष्ण के प्रति समर्पित थीं और उन्होंने अपने गहरे भक्ति-भाव को कई भजनों में अभिव्यक्त किया है। इनके गीतों ने ‘उच्च’ जाति के रीतियों-नियमों को खुली चुनौती दी तथा इनके गीत राजस्थान व गुजरात के जनसाधारण में बहुत लोकप्रिय हुए।
कबीर के संदर्भ में
- कबीर के काव्य की भाषा बोलचाल की हिन्दी थी, जो आम आदमियों द्वारा आसानी से समझी जा सकती थी। कभी-कभी उन्होंने | रहस्यमयी भाषा का प्रयोग किया, जिसे समझना कठिन होता है। कबीर निराकार परमेश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने यह उपदेश दिया कि भक्ति के माध्यम से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है। हिन्दू एवं मुसलमान दोनों लोग उनके अनुयायी थे।
- कबीर एक अत्यधिक प्रभावशाली संत थे। उनका पालन-पोषण बनारस या उसके आस-पास के क्षेत्र के एक मुसलमान जुलाहा (बुनकर) | परिवार में हुआ था। हमें उनके विचारों की जानकारी उनकी साखियों और | पदों के विशाल संग्रह से मिलती है, जिसके बारे में यह कहा जाता है कि इनकी रचना तो कबीर ने की थी, परंतु ये घुमंतू भजन गायकों के द्वारा गाए जाते थे। इनमें से कुछ भजन गुरु ग्रंथ साहिब, पंचवाणी और बीजक में संग्रहित हैं।
▪︎ बाबा गुरु नानक (1469-1539) का जन्म तलवंडी (पाकिस्तान में ननकाना साहब में हुआ था।
▪︎ गुरु नानक ने उपासना एवं धार्मिक कार्यों के लिये जो जगह नियुक्त की थी उसे ‘धर्मसाल’ कहा गया। आज इसे गुरुद्वारा कहते हैं।
▪︎ गुरु नानक ने अपने अनुयायियों के लिये एक नियमित उपासना पद्धति अपनायी जिसके अंतर्गत उन्हीं के शब्दों (भजनों) को गाया जाता था तथा गुरु नानक के अनुयायी पहले अपने-अपने धर्म या जाति अथवा लिंग भेद को नजरअंदाज करके एक सांझी रसोई में इकट्ठे खाते-पीते थे। इसे ही ‘लंगर’ कहा जाता था।
▪︎ 1539 में अपनी मृत्यु के पूर्ण बाबा गुरु नानक ने एक अनुयायी को अपना उत्तराधिकारी चुना इसका मामला था, लेकिन ये गुरु अंगद के नाम से जाने गए। गुरु अंगद नाम का महत्व यह था कि गुरु अंगद, बाबा गुरु नानक के ही अंग माने गए।
▪︎ गुरु ग्रंथ साहिब’ की रचना गुरुमुखी लिपि में की गई है।
▪︎ गुरु अंगद ने गुरु नानक की रचनाओं का संग्रह किया और उस संग्रह में अपनी कृतियाँ जोड़ उसे एक नई लिपि गुरुमुखी में लिखा।
▪︎ गुरु अंगद के तीन उत्तराधिकारियों ने अपनी रचनाएँ ‘नानक’ नाम से लिखीं।
▪︎ गुरु अंगद के तीन उत्तराधिकारियों ने अपनी रचनाएँ ‘नानक’ नाम से लिखीं। इन सभी का संग्रह गुरु अर्जन ने 1604 में किया। इस संग्रह में शेख फरीद, संत कबीर, भक्त नामदेव और गुरु तेगबहादुर जैसे सूफियों, संतों और गुरुओं की वाणी जोड़ी गई। इस वृहद् संग्रह को गुरु तेगबहादुर के पुत्र व उत्तराधिकारी गुरु गोबिन्द सिंह ने प्रमाणित किया। आज इस संग्रह को पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब के नाम से जाना जाता है।
▪︎ 17वीं शताब्दी में सिक्ख आंदोलन का राजनीतिकरण शुरू हो गया, जिसका दूरगामी परिणाम यह हुआ कि 1699 में गुरु गोबिन्द सिंह ने खालसा संस्था का निर्माण किया। खालसा पंथ के नाम से जाना जाने वाला सिक्ख समुदाय अब एक राजनैतिक सत्ता बन गया।
▪︎ पूरा अमृतसर शहर (रामदासपुर शहर) गुरु रामदास के द्वारा निर्मित सरोवर के चारों ओर बसा है तथा हरमंदर साहब (स्वर्ण मंदिर)भी सरोवर के बीचों-बीच अवस्थित है।
▪︎ मुगल सम्राट जहाँगीर सिक्ख समुदाय को संभावित खतरा मानता। था। उसी ने 1606 में गुरु अर्जन देव को मृत्युदंड देने का आदेश दिया।
▪︎ इनके अनुसार मुक्ति किसी निष्क्रिय आनंद की स्थिति में नहीं थी, बल्कि सक्रिय जीवन व्यतीत करने के साथ-साथ सामाजिक प्रतिबद्धता की निरंतर कोशिश में ही निहित थी।
▪︎ गुरु नानक ने अपने उपदेश का सार व्यक्त करने के लिये तीन शब्दों का प्रयोग किया: नाम, दान और स्नान नाम से तात्पर्य सही उपासना से था। दान का तात्पर्य था दूसरों का भला करना और स्नान का तात्पर्य आचार-विचार की पवित्रता आज उनके उपदेशों को नाम-जपना, किर्त करना और वंड-छकना के रूप में याद किया जाता है।
▪︎ चैतन्यदेव बंगाल के एक भक्ति संत थे। इन्होंने कृष्ण राधा के प्रति निष्काम भक्तिभाव का उपदेश दिया।
▪︎ 16वीं सदी का समय यूरोप में भी एक धार्मिक उथल-पुथल का समय था। लूथर ने यह महसूस किया कि रोमन कैथोलिक चर्च के | अनेक आचार-व्यवहार बाइबिल की शिक्षाओं के विरुद्ध जाते हैं। लूथर ने लैटिन भाषा की बजाय आम लोगों की भाषा के प्रयोग को प्रोत्साहन दिया और बाइबिल का जर्मन भाषा में अनुवाद किया। वे दंडमोचन प्रथा के घोर विरोधी थे, जिसके अंतर्गत पाप कर्मों को क्षमा कराने के लिये चर्च को दान दिया जाता था।
▪︎ 13वीं शताब्दी के उत्तर भारत के संतों की कृतियाँ क्षेत्रीय भाषाओं में रची गई और इन्हें आसानी से गाया जा सकता था। इस कारण ये बेहद लोकप्रिय हुई और पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक रूप चलती रही। इन संतों के गीतों के प्रसारण में सर्वाधिक निर्धन, सर्वाधिक वंचित समुदाय और महिलाओं की भूमिका रही।
सूफियों | उनके स्थान से संबंधित |
ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती | अजमेर |
कुतुबउद्दीन बख्तियार काकी | दिल्ली |
बाबा फरीद | पंजाब |
बंदानवाज गिसुदराज | गुलबर्ग |
- भारत में औलियाओं की एक लंबी परंपरा रही है, जिनमें अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती, दिल्ली के कुतुबउद्दीन बख्तियार काकी, पंजाब के बाबा फरीद तथा गुलबर्ग के बंदानवाज गिसुदराज आदि कुछ प्रमुख औलियाओं में से एक थे।
क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
▪︎ महोदयपुरम् का चेर राज्य प्रायद्वीप के दक्षिणी-पश्चिमी भाग में, जो आज के केरल राज्य का हिस्सा है नवीं शताब्दी में स्थापित किया गया। संभवतः मलयालम भाषा इसी इलाके में बोली जाती थी। शासकों ने मलयालम भाषा एवं लिपि का प्रयोग अपने अभिलेख में किया। वस्तुतः इस भाषा का प्रयोग उपमहाद्वीप के सरकारी अभिलेखों में किसी क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग के सबसे पहले उदाहरणों में से एक है।
▪︎ मलयालम भाषा की पहली साहित्यिक कृतियाँ जो लगभग बारहवीं शताब्दी की बताई जाती हैं, प्रत्यक्ष रूप से संस्कृत की ऋणी है। साथ-साथ चेर लोगों ने संस्कृत की परंपराओं से भी बहुत कुछ ग्रहण किया है।
▪︎ मणिप्रवालम्’ एक भाषा शैली है। चौदहवीं सदी का एक ग्रंथ लोला तिलकम’ जो व्याकरण तथा काव्यशास्त्र विषयक है ‘मणिप्रवालम्’ शैली में लिखा गया है। मणिप्रवालम् का शाब्दिक अर्थ है- हीरा और मूँगा, जो यहाँ दो भाषाओं संस्कृत और क्षेत्रीय भाषा के साथ-साथ प्रयोग की ओर संकेत करता है।
▪︎ पुरी का जगन्नाथ मंदिर ओडिशा में अवस्थित है। जगन्नाथ का शाब्दिक अर्थ है- दुनिया का मालिक, जो विष्णु का पर्यायवाची है।
▪︎ आज भी जगन्नाथ की काष्ठ प्रतिमा स्थानीय जनजातीय लोगों द्वारा बनाई जाती है जिससे यह तात्पर्य निकलता है कि जगन्नाथ मूलतः एक स्थानीय देवता थे, जिन्हें आगे चलकर विष्णु का रूप मान लिया गया।
▪︎ ज्यों-ज्यों जगन्नाथ मंदिर को तीर्थ यात्रा के केंद्र रूप में महत्त्व प्राप्त होता गया, सामाजिक तथा राजनीतिक मामलों में भी इसकी सत्ता बढ़ती गई। जिन्होंने भी उड़ीसा को जीता, सबने इस मंदिर पर अपना नियंत्रण स्थापित करने का प्रयत्न किया क्योंकि वे सब यह महसूस करते थे कि मंदिर पर नियंत्रण प्राप्त करने से स्थानीय जनता में उनका शासन स्वीकार्य हो जाएगा।
▪︎ अक्सर यह माना जाता है कि राजपूतों ने राजस्थान को एक विशिष्ट संस्कृति प्रदान की है। ये सांस्कृतिक परंपराएँ वहाँ के शासकों के आदर्शों तथा अभिलाषाओं के साथ घनिष्ठता से जुड़ी हुई थी। लगभग 8वीं शताब्दी से आज के राजस्थान के अधिकांश भाग पर राजपूतों का शासन रहा। ये शासक उन शूरवीरों के आदर्शों को अपने हृदय में संजोए रखते थे, जिन्होंने रणक्षेत्रों में बहादुरी से लड़ते हुए अक्सर मृत्यु को वरण किया, मगर पीठ नहीं दिखाई। राजपूत शूरवीरों की कहानियाँ काव्यों एवं गीतों में सुरक्षित हैं। ये विशेष रूप से प्रशिक्षित चारण भाटों के द्वारा गाई जाती हैं। ये काव्य एवं गीत ऐसे शूरवीरों की स्मृति को सुरक्षित रखते थे।।
▪︎ नृत्य शैली उत्तर भारत के अनेक भू-भाग से जुड़ी है। कत्थक शब्द ‘कथा’ शब्द से निकला है, जिसका प्रयोग संस्कृत तथा अन्य भाषाओं में कहानी के लिये किया जाता है।
▪︎ कत्थक मूल रूप से उत्तर भारत के मंदिरों में कथा कहानी। सुनाने वालों की एक जाति थी। ये कथाकार अपने हाव-भाव तथा संगीत से अपने कथावाचन को अलंकृत किया करते थे। 15वीं तथा 16वीं शताब्दियों में भक्ति आंदोलन के प्रसार के साथ-साथ कत्थक एक नृत्य शैली का रूप धारण करने लगा। राधा-कृष्ण के पौराणिक आख्यान (कहानियाँ) लोक नाट्य के रूप में प्रस्तुत किये जाते थे, जिन्हें (रासलीला) कहा जाता था। रासलीला में लोक नृत्य के साथ कत्थक कलाकार के मूल हाव-भाव भी जुड़े होते थे।
▪︎ मुगल बादशाहों और उनके अभिजातों के शासनकाल में कत्थक नृत्य राजदरबार में प्रस्तुत किया जाता था। जहाँ इस नृत्य ने अपने वर्तमान | अभिलक्षण अर्जित किये और वह एक विशिष्ट नृत्य शैली के रूप में विकसित हो गया। आगे चलकर यह दो घरानों में फूला फला: राजस्थान (जयपुर) के राज दरबारों में और लखनऊ में अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के संरक्षण में यह एक प्रमुख कला के रूप में उभरा तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तो देश में इसे छः ‘शास्त्रीय’ नृत्य रूपों में मान्यता मिल गई।
शास्त्रीय नृत्य | उससे सम्बंधित राज्य |
भरतनाट्यम् | तमिलनाडु |
कथकली | केरल |
ओडिसी | उड़ीसा |
कुचिपुड़ी | आंध्र प्रदेश |
▪︎ प्राचीनतम् लघुचित्र, ताड़पत्रों अथवा लकड़ी की तख्तियों पर चित्रित किये गए थे। इनमें से सर्वाधिक सुंदर चित्र जो पश्चिम भारत में पाए गए, जैन ग्रंथों को सचित्र बनाने के लिये प्रयोग किये गए थे।
मुगलकालीन चित्रकला से
- अकबर, जहाँगीर एवं शाहजहाँ ने कुशल चित्रकारों को संरक्षण प्रदान किया, जो प्राथमिक रूप से इतिहास एवं काव्यों की पाण्डुलिपियाँ चित्रित करते थे।
- पाण्डुलिपियों में दरबार के दृश्य, लड़ाई तथा शिकार के दृश्य और सामाजिक जीवन के अन्य पहलू चित्रित किये जाते थे।
- मुगल साम्राज्य के पतन के साथ चित्रकार मुगल दरबार छोड़कर नए उभरने वाले क्षेत्रीय राज्यों के दरबारों में चले गए। परिणामस्वरूप मुगलों की कलात्मक रुचियों ने दक्षिण के क्षेत्रीय दरबारों और राजस्थान के राजपूती दरबारों को प्रभावित किया लेकिन इसके साथ ही उन्होंने अपनी विशिष्ट विशेषताओं को सुरक्षित रखा और उसका विकास भी | किया। मुगल उदाहरणों का अनुसरण करते हुए शासकों तथा उनके दरबारों के दृश्य चित्रित किये जाने लगे।
- आधुनिक हिमाचल के इर्द-गिर्द हिमालय की तलहटी के इलाके में 17वीं शताब्दी के बाद वाले वर्षों में लघु चित्रकला की एक साहसपूर्ण एवं भावप्रवण शैली का विकास हुआ जिसे ‘बसोहली शैली’ कहा जाता है। यहाँ जो सबसे लोकप्रिय पुस्तक चित्रित की गई थी. वह थी- भानुदत्त की रसमंजरी।
▪︎ हिमालय की घाटी में पंजाब और जम्मू के पहाड़ी इलाकों में विकसित हुई चित्रकला को पहाड़ी चित्रकला कहते हैं। नादिरशाह के आक्रमण और दिल्ली विजय के परिणामस्वरूप मुगल कलाकार मैदानी इलाकों को अनिश्चितताओं से बचने के लिये पहाड़ी क्षेत्रों की ओर पलायन कर गए. जिसके फलस्वरूप कांगड़ा शैली विकसित हुई।
▪︎ अठारहवीं शताब्दी के मध्य भाग तक कांगड़ा के कलाकारों ने एक नई शैली विकसित कर ली. जिसने लघु चित्रकारी में एक नई जान डाल दी। उनकी प्रेरणा का स्रोत वहाँ की वैष्णव परंपराएँ थीं। ठंडे नीले और हरे रंगों सहित कोमल रंगों का प्रयोग और विषयों का काव्यात्मक निरूपण कांगड़ा शैली की विशेषता थी।
▪︎ बंगाली भाषा संस्कृत से निकली हुई भाषा मानी जाती है। ईसा पूर्व चौथी-तीसरी शताब्दी से बंगाल और मगध के बीच वाणिज्यिक संबंध स्थापित होने लगे थे, जिस कारण संभवत: वहाँ संस्कृत का प्रभाव बढ़ता गया होगा। चौथी शताब्दी के दौरान गुप्तवंशीय शासकों ने उत्तरी बंगाल पर राजनीतिक नियंत्रण कर वहाँ ब्राह्मणों को बसाना शुरू कर दिया। इस प्रकार गंगा की मध्यघाटी के भाषायी तथा सांस्कृतिक प्रभाव अधिक प्रबल हो गए। 7वीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने यह पाया कि बंगाल में सर्वत्र संस्कृत से संबंधित भाषाओं का प्रयोग हो रहा था।
▪︎ यद्यपि बंगाली भाषा का उद्भव संस्कृत से ही हुआ है, पर अपने विकास क्रम में यह अनेक अवस्थाओं से गुजरी। संस्कृत के अलावा गैर-संस्कृत शब्दों का एक विशाल शब्द भंडार जो जनजातीय भाषाओं, फारसी और यूरोपीय भाषाओं सहित अनेक स्रोतों से इसे प्राप्त हुआ है, आधुनिक बंगाली का हिस्सा बन गया है।
▪︎ संस्कृत महाकाव्यों का बंगाली भाषा में किये गए अनुवाद को मंगलकाव्य’ कहा गया। शाब्दिक अर्थों में शुभ यानी मांगलिक काव्य जो स्थानीय देवी-देवताओं से संबंधित हैं।
बंगाली साहित्य के संदर्भ में
- बंगाली के प्रारंभिक साहित्य को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। पहली श्रेणी में संस्कृत महाकाव्यों के अनुवाद ‘मंगलकाव्य’ और भक्ति साहित्य जैसे गौड़ीय वैष्णव आंदोलन के नेता श्री चैतन्य देव की जीवनियाँ आदि शामिल हैं। दूसरी श्रेणी में नाथ साहित्य शामिल है। जैसे गोपीचंद्र के गीत, धर्म ठाकुर की पूजा से संबंधित कहानियाँ, परीकथाएँ, लोककथाएँ और गाथा गीत ।
- पहली श्रेणी के ग्रंथों का काल-निर्धारण करना अपेक्षाकृत सरल है, क्योंकि ऐसी अनेक पाण्डुलिपियाँ पाई गई। हैं, जिनमें इंगित किया गया है कि उनकी रचना किस कालावधि में की गयी है। जबकि दूसरी श्रेणी की कृतियाँ मौखिक रूप से कही सुनी। जाती थी। इसलिये उनका काल-निर्धारण सही-सही नहीं किया जा सकता है। वे खासकर पूर्वी बंगाल में लोकप्रिय थी, जहाँ ब्राह्मणों का प्रभाव अपेक्षाकृत कम था।
बंगाल के संदर्भ में
- बंगाल पर मुगलों का नियंत्रण स्थापित होने पर इन्होंने पूर्वी डेल्टा प्रदेश के केंद्रीय भाग में स्थित ढाका नगर में अपनी राजधानी स्थापित की तथा प्रशासन की भाषा फारसी रखी।
- पीर फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है- आध्यात्मिक मार्गदर्शक। प्रारंभ में बाहर से आकर बंगाल में बसने वाले लोग यहाँ की अस्थिर परिस्थितियों में रहने के लिये कुछ व्यवस्था तथा आश्वासन चाहते थे। ये सुख-सुविधाएँ तथा आश्वासन उन्हें समुदाय के नेताओं ने प्रदान कीं। ये नेता शिक्षकों और निर्णायकों की भूमिकाएँ भी अदा करते थे। कभी-कभी ऐसा समझा जाता था कि इन नेताओं के पास अलौकिक शक्तियाँ हैं। स्नेह और आदर से लोग इन्हें पीर कहते थे। इस पीर श्रेणी में संत, सूफी और अन्य धार्मिक महानुभाव, साहसी उपनिवेशी, देवत्व प्राप्त सैनिक एवं योद्धा, विभिन्न हिन्दू तथा बौद्ध देवी-देवता यहाँ तक की जीवात्माएँ भी शामिल थे। पीरों की पूजा पद्धतियाँ बहुत ही लोकप्रिय हो गई और उनकी मजारें बंगाल में सर्वत्र पाई जाती हैं।
- बंगाल में मंदिरों की शक्ल या आकृति बंगाल की छप्पर झोपड़ियों की तरह ‘दोचाला’ (दो छतों वाली) या ‘चौचाला ‘(चार छतों वाली) होती थी। इसके कारण मंदिरों की स्थापत्य कला में विशिष्ट बंगाली शैली का प्रादुर्भाव हुआ।
- बंगाल में यूरोप की व्यापारिक कंपनियों के आ जाने से नए आर्थिक अवसर पैदा हुए। जिस कारण ‘निम्न’ सामाजिक समूहों, जैसे- कालू (तेली), कैसरी (धातु घंटा के कारीगर) ने इन अवसरों का लाभ उठाया। जैसे-जैसे लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुधरती गई, उन्होंने विभिन्न स्मारकों के निर्माण के माध्यम से अपनी प्रतिष्ठा की घोषणा कर दी।
- जो स्थानीय देवी-देवता पहले गाँवों में छान-छप्पर वाली झोपड़ियों में पूजे जाते थे, को ब्राह्मणों के द्वारा मान्यता प्रदान कर दी गई तो उनकी प्रतिमाएँ। मंदिरों में स्थापित की जाने लगीं। इन मंदिरों की शक्ल या आकृति बंगाल की झोपड़ियों की तरह दोचाला (दो छतों वाली) या चौचाला (चार छतों वाली) होती थी।
- बंगाल एक नदी तटीय मैदान है जहाँ मछली एवं धान की उपज बहुतायत से होती है। मछली पकड़ना वहाँ का प्रमुख धंधा रहा है और बंगाली साहित्य में मछली का स्थान-स्थान पर उल्लेख मिलता है। मंदिरों और बौद्ध विहारों की दीवारों पर जो मिट्टी की पट्टियाँ लगी हैं उनमें भी मछलियों को साफ करते हुए और टोकरियों में भरकर बाज़ार ले जाते हुए। दर्शाया गया है। ब्राह्मणों को सामिष भोजन करने की अनुमति नहीं थी. लेकिन स्थानीय आहार में मछली की लोकप्रियता को देखते हुए ब्राह्मण धर्म के विशेषज्ञों ने बंगाली ब्राह्मणों को इस निषेध में ढील दे दी। ‘वृहदधर्म पुराण’ जो बंगाल में रचित तेरहवीं सदी का संस्कृत ग्रंथ है, जिसमे ब्राह्मणों को कुछ खास किस्मों की मछली खाने की अनुमति दे दी।
अठारहवीं शताब्दी में नए राजनीतिक गठन
▪︎ औरंगज़ेब के उत्तराधिकारियों के शासनकाल में प्रशासन की कार्यकुशलता समाप्त होने लगी थी। सूबेदार के रूप में नियुक्त अभिजात अक्सर राजस्व एवं सैन्य प्रशासन (दीवानी एवं फौजदारी) | दोनों कार्यालयों पर नियंत्रण रखते थे। इससे मुगल साम्राज्य के विशाल क्षेत्रों पर उन्हें विस्तृत राजनैतिक, आर्थिक एवं सैन्य शक्ति मिल गई। जैसे-जैसे सूबेदारों ने प्रांतों पर अपना नियंत्रण सुदृढ़ किया, राजधानी में पहुँचने वाले राजस्व की मात्रा में कमी आती गई। उत्तरी तथा पश्चिमी भारत के अनेक हिस्सों में हुए जमींदारों और किसानों के विद्रोहों और कृषक आंदोलनों ने इस समस्याओं को और गंभीर बना दिया।
▪︎ औरंगजेब के बाद मुगल साम्राज्य में पैदा हुए आर्थिक एवं राजनीतिक संकट के बीच ईरान के शासक नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण कर संपूर्ण नगर को लूटा। नादिरशाह का आक्रमण मुहम्मद शाह ‘रंगीला’ के शासनकाल के दौरान हुआ था।
▪︎ नादिरशाह के आक्रमण के बाद अफगान शासक अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों का ताँता लगा रहा। उसने तो 1748 से 1761 के बीच पाँच बार उत्तरी भारत पर आक्रमण किया और लूट-पाट मचाई।
▪︎ निजाम-उल मुल्क आसफ जाह ने हैदराबाद की स्थापना की। यह मुगल बादशाह फर्रुखसियर के दरबार का एक अत्यंत शक्तिशाली सदस्य था। 1720-22 के मध्य दक्कन प्रांतों का सूबेदार होने की वजह से आसफ शाह के पास पहले से ही राजनीतिक और वित्तीय प्रशासन का पूरा नियंत्रण था। दक्कन के उपद्रव और मुगल दरबार में चल रही प्रतिस्पर्द्धा का फायदा उठाकर वह इस क्षेत्र का वास्तविक शासक बन गया। मुशीद कुली खाँ के नेतृत्व में बंगाल धीरे-धीरे मुगल नियंत्रण से अलग हो गया। मुर्शीद कुली खाँ नायब थे यानी कि प्रांत के सूबेदार के प्रतिनियुक्त थे। बाद में इसने भी राज्य के राजस्व प्रशासन पर अपना नियंत्रण जमा लिया। अजीजुद्दीन ने नहीं बल्कि बुरहान-उल-मुल्क सआदत खाँ ने अवध राज्य की स्थापना की थी। सआदत खाँ को 1722 में अवध का सूबेदार नियुक्त किया गया था। अवध एक समृद्धशाली प्रदेश था जो गंगा नदी के उपजाऊ मैदान में फैला हुआ था तथा उत्तर भारत और बंगाल के बीच व्यापार का मुख्य मार्ग उसी से होकर गुजरता था।
▪︎ यद्यपि अवध, बंगाल एवं हैदराबाद राज्य पुराने मुगल अभिजातों | द्वारा स्थापित किये गए थे, किंतु ये अभिजात कुछ प्रशासनिक व्यवस्थाओं के प्रति संदेहास्पद थे। विशेषतः वे जागीर व्यवस्था को अत्यंत संदेह की दृष्टि से देखते थे। इसलिये इन तीनों राज्यों ने राजस्व वसूली के लिये। जमींदारों के बजाय इजारेदारों (एक राजस्व कृषक) के साथ ठेके कर लिये। इजारेदारी की प्रथा जो मुगलों द्वारा पूर्णतः नापसंद की गई थी. अठारहवीं शताब्दी में समस्त भारत में फैल गई थी।
▪︎ 1708 में गुरु गोबिन्द सिंह की मृत्यु के बाद बंदा बहादुर के नेतृत्व में ‘खालसा’ ने मुगल सत्ता के खिलाफ विद्रोह किये। उन्होंने बाबा गुरु नानक और गुरु गोबिन्द सिंह के नामों वाले सिक्के गढ़कर अपने | शासन को सर्वभौम बताया। सतलज और यमुना नदी के बीच के क्षेत्र में | अपने प्रशासन की स्थापना की। 1715 में बंदा बहादुर को बंदी बना लिया। गया और उसे 1716 मार दिया गया।
▪︎ मिस्ल सिक्ख योद्धाओं के समूह थे। 18वीं शताब्दी में कई योग्य नेताओं के नेतृत्व में सिक्खों ने अपने आपको पहले ‘जत्थों’ में और बाद में ‘मिस्लों’ में संगठित किया। इन जत्थों और मिस्लों की संयुक्त सेनाएँ ‘दल खालसा’ कहलाती थी। उन दिनों दल खालसा बैशाखी और दीवाली के पर्वो पर अमृतसर में मिलते थे। इन बैठकों में सामूहिक निर्णय लिये जाते थे, जिन्हें गुरमत्ता (गुरु का प्रस्ताव) कहा जाता था।
▪︎ सिक्खों ने ‘राखी व्यवस्था’ स्थापित की, जिसके अंतर्गत किसानों से उनकी उपज का 20 प्रतिशत कर के रूप में लेकर बदले में उन्हें संरक्षण प्रदान किया जाता था।
▪︎ अठारहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में सिक्ख इलाके सिंधु से यमुना तक फैले हुए थे यद्यपि ये विभिन्न शासकों में बँटे हुए थे। इनमें से एक शासक महाराजा रणजीत सिंह ने विभिन्न सिक्ख समूहों में फिर से एकता कायम करके 1799 में लाहौर को अपनी राजधानी बनाया।
▪︎ मराठा राज्य एक शक्तिशाली क्षेत्रीय राज्य था, जो मुगल शासन का लगातार विरोध करके उत्पन्न हुआ था। शिवाजी ने शक्तिशाली योद्धा परिवारों (देशमुखों) की सहायता से एक स्थायी राज्य की स्थापना की। 1720 से 1761 के बीच मराठा साम्राज्य का काफी विस्तार हुआ। उसने शनै: शनै: सफलतापूर्वक मुगल साम्राज्य की सत्ता को क्षति पहुँचाई। 1720 के दशक तक मालवा और गुजरात मुगलों से छीन लिये गए। 1730 के दशक तक मराठा नरेश को समस्त दक्कन प्रायद्वीप के अधिपति के रूप में मान्यता मिल गई।
▪︎ शिवाजी के काल अत्यंत गतिशील कृषक- पशुचारक योद्धा (कुनबी) मराठों की सेना के मुख्य आधार बन गए। शिवाजी ने प्रायद्वीप में मुगलों को चुनौती देने के लिये इस सैन्य बल का प्रयोग किया। शिवाजी की मृत्यु के पश्चात् मराठा राज्य में प्रभावी शक्ति चितपावन ब्राह्मणों के एक परिवार के हाथ में रही जो शिवाजी के उत्तराधिकारियों के शासनकाल में ‘पेशवा’ (प्रधानमंत्री) के रूप में अपनी सेवाएँ देते रहे। पुणे मराठा राज्य की राजधानी बन गया।
▪︎ पेशवाओं की देख-रेख में मराठों ने एक अत्यंत सफल सैन्य संगठन का विकास कर मुगल साम्राज्य की सत्ता को क्षति पहुँचाई। पेशवाओं | की सफलता का रहस्य यह था कि वे मुगलों के किलाबंद इलाकों से टक्कर न लेते हुए उनके पास से चुपचाप निकलकर शहरों-कस्बों पर | हमला बोलते थे और मुगल सेना से ऐसे मैदानी इलाकों में मुठभेड़ लेते थे जहाँ रसद और कुमक (अतिरिक्त सैनिक सहायता) आने के रास्ते आसानी से रोके जा सकते थे।
▪︎ 1730 के दशक तक मराठा नरेश को समस्त दक्कन प्रायद्वीप के अधिपति के रूप में मान्यता मिल गई, साथ ही इस क्षेत्र पर चौथ और सरदेशमुखी कर वसूलने का अधिकार भी मिल गया।
• चौथः जमींदारों द्वारा वसूले जाने वाले भू-राजस्व का 25 प्रतिशत, दक्कन में इनको मराठा वसूलते थे।
• सरदेशमुखी: दक्कन में मुख्य राजस्व संग्रहकर्त्ता को दिये जाने वाले भू-राजस्व का 9-10 प्रतिशत हिस्सा।
▪︎ 1737 में बाजीराव प्रथम के द्वारा दिल्ली पर धावा बोलने के बाद मराठा प्रभुत्व की सीमाएँ तेजी से बढ़ीं। वे उत्तर में राजस्थान और पंजाब, पूर्व में बंगाल और उड़ीसा तथा दक्षिण में कर्नाटक और तमिल एवं तेल प्रदेशों तक फैल गई। इन क्षेत्रों को औपचारिक रूप से मराठा साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया गया, मगर मराठा प्रभुसत्ता को स्वीकार करने के तरीके के रूप में उनसे भेंट की रकम ली जाने लगी।
▪︎ साम्राज्य विस्तार के लिये मराठों के द्वारा किये गए सैन्य अभियान के कारण अन्य शासक भी उनके खिलाफ हो गए। साम्राज्य विस्तार के द्वारा मराठों को संसाधन का भंडार तो मिल गया, मगर इसके लिये उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ी। मराठों को 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई। में अन्य शासकों से कोई सहायता नहीं मिली।
▪︎ मालवा क्षेत्र में अवस्थित उज्जैन सिंधिया के संरक्षण में और इंदौर होल्कर के आश्रय में फलता-फूलता रहा। ये शहर हर तरह से बड़े और समृद्धशाली थे और महत्त्वपूर्ण वाणिज्यिक और सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में कार्य कर रहे थे।
• मराठों द्वारा नियंत्रित इलाकों में व्यापार के नए मार्ग खुले। चंदेरी के क्षेत्र में उत्पादित रेशमी वस्त्रों को मराठों की राजधानी पुणे में नया बाजार मिला। बुरहानपुर पहले आगरा और सूरत के बीच की धुरी पर ही अपने व्यापार में संलग्न था लेकिन अब उसने अपने वाणिज्यिक भीतरी क्षेत्र को बढ़ाकर दक्षिण में पुणे और नागपुर तथा पूर्व में लखनऊ तथा इलाहाबाद को शामिल कर लिया था।
▪︎ सूरजमल के राज में भरतपुर (राजस्थान) शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा। 1739 में जब नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला बोलकर उसे लूटा तो दिल्ली के कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भरतपुर में शरण ली। जाट समृद्ध कृषक थे और उनके प्रभुत्व क्षेत्र में पानीपत तथा बल्लभगढ़ जैसे शहर महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बन गए।
▪︎ दोग के किले का निर्माण सूरजमल के द्वारा करवाया गया है। जहाँ भरतपुर का किला काफी हद तक पारंपरिक शैली में बनाया गया है. वहीं दोग में अम्बर और आगरा की शैलियों का समन्वय करते हुए | एक विशाल बाग महल बनाया गया। शाही वास्तुकला से जिन रूपों को पहली बार शाहजहाँ के युग में जोड़ा गया था, दीग की इमारतें उन्हीं रूपों के नमूने पर बनाई गई थी।
▪︎ 1739 में जब नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला किया था, तब उसके पुत्र जवाहिरशाह के पास तीस हजार सैनिक थे। उसने बीस हजार | सैनिक मराठों से लिये. 15 हजार सैनिक सिक्खों से लिये और इन सबके बलबूते वह मुगलों से लड़ा।
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FAQ-
(Q) गुलाम वंश की स्थापना किसके द्वारा की गयी?
Ans.- कुतुबुद्दीन ऐबक
(Q) कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपने साम्राज्य की राजधानी किसे घोषित किया?
Ans.- लाहौर
(Q) भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना किसके द्वारा की गई थी?
Ans.- बाबर
(Q) सर्वप्रथम तोपों का प्रयोग किस युद्ध में किया गया था?
Ans.- पानीपत के प्रथम युद्ध में
(Q) किस मुगल बादशाह के विरुद्ध जौनपुर से फतवा जारी किया गया था?
Ans.- अकबर
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