भारत का संविधान : सिद्धांत और व्यवहार |
1. संविधान क्यों और कैसे? |
2. भारतीय संविधान में अधिकार |
3. चुनाव और प्रतिनिधित्व |
4. कार्यपालिका |
5. विधायिका |
6. न्यायपालिका |
7. संघवाद |
8. स्थानीय शासन |
9. संविधान-एक जीवंत दस्तावेज |
10. संविधान का राजनीतिक दर्शन |
1. संविधान क्यों और कैसे?
संविधान का कार्य-
संविधान का कार्य है कि वह बुनियादी नियमों का ऐसा समूह | उपलब्ध कराए जिससे समाज के सदस्यों में न्यूनतम समन्वय और विश्वास बना रहे। संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदत्त अधिकारों पर नियंत्रण लगाने के संदर्भ में संविधान में स्पष्ट दिशा-निर्देश दिये गए हैं। कोई भी | सरकार कुछ विषम परिस्थितियों में ही उन्हें सीमित कर सकती है, लेकिन उन्हें समाप्त नहीं कर सकती। उसमें भी अनुच्छेद-20 व 21 के मूल अधिकार को किसी भी परिस्थिति में नहीं छीना जा सकता। साझे मूल्य, स्वतंत्रता, बंधुता व धार्मिक-राजनीतिक स्वछंदताएँ, हमें संविधान के द्वारा प्राप्त हैं। स्वतंत्र न्यायपालिका के माध्यम से न्याय व्यवस्था को सुनिश्चित किया गया है। संविधान में सत्ता में आने की प्रक्रिया व उनको प्राप्त अधिकारों का स्पष्ट उल्लेख है लेकिन उनकी योग्यता के संदर्भ में इतनी चुस्ती नहीं दिखाई गई है अर्थात् ये सुनिश्चित करना कि सत्ता में अच्छे लोग ही आएँ व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है।
• संविधान, सरकार को लोकहितकारी कार्य करने, समाज की आकांक्षाओं व उनके लक्ष्यों को सुनिश्चित करने का सामर्थ्य प्रदान करता है।
•संविधान के माध्यम से ही किसी समाज की एक सामूहिक इकाई के रूप में पहचान होती है।
• संविधान आधिकारिक बंधन लगाने के साथ-साथ सभी नागरिकों को नैतिक पहचान भी देता है।
• किसी भी देश के संविधान निर्माता वहाँ की जनता की आधारभूत आवश्यकताओं को समझते हुए उन्हीं के अनुसार संविधान के मूल्यों का सृजन करते हैं।
• भारतीय संविधान जाति या नस्ल को नागरिकता के आधार के रूप में मान्यता प्रदान नहीं करता है।
• इंग्लैंड में दस्तावेजों तथा निर्णयों की लंबी श्रृंखला को ही सामूहिक रूप से संविधान कहा जा सकता है। उनके पास अलग से कोई संविधान नहीं है। जो संविधान अपने सभी नागरिकों की स्वतंत्रता और समानता की जितनी अधिक सुरक्षा करता है उसकी सफलता की संभावनाएँ उतनी ही अधिक होती हैं। इस संदर्भ में सबसे उपयुक्त उदाहरण भारतीय संविधान है।
• भारतीय संविधान में शक्ति को विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे स्वतंत्र संवैधानिक निकायों में बाँटा गया है। इन सभी संस्थाओं (कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका) को एक-दूसरे से स्वतंत्र रखने का सबसे बड़ा कारण यही है कि यदि एक संस्था संविधान का अतिक्रमण करती है, तो दूसरी संस्था उस पर आपत्ति दर्ज कर उस पर रोक लगा सकती है।
• कठोर संविधान परिवर्तन के दबाव में नष्ट हो जाते हैं और यदि संविधान अत्यधिक लचीला है तो वह समाज को सुरक्षा और पहचान नहीं दे पाएगा।
• सफल संविधान प्रमुख मूल्यों की रक्षा करने और नई परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढालने में संतुलन रखते हैं।
ब्रिटिश मंत्रिमंडल की समिति ‘कैबिनेट मिशन’ में निम्नलिखित प्रस्तावित बिंदु शामिल थे-
- प्रत्येक प्रांत तथा देशी रियासतों के समूहों को उनकी जनसंख् के अनुपात में सीटें दी गई। साधारणतः दस लाख की जनसंख्य पर एक सीट का अनुपात रखा गया।
- प्रत्येक प्रांत की सीटों को तीन प्रमुख समुदाया मुसलमान, सिख और सामान्य में उनकी जनसंख्या के अनुपात में बाँट दिया गया।
- प्रांतीय विधानसभाओं में प्रत्येक समुदाय के सदस्यों ने अपने प्रतिनिधियों को चुना तथा इसके लिये उन्होंने समानुपातिक प्रतिनिधित्व और एकल संक्रमण मत पद्धति का प्रयोग किया।
- देशी रियासतों के प्रतिनिधियों के चुनाव का तरीका उनके परामर्श से तय किया गया।
संविधान सभा की रचना लगभग उसी योजना के अनुसार हुई जिसे कैबिनेट मिशन (ब्रिटिश मंत्रिमंडल की एक समिति) ने प्रस्तावित किया था।
• सामाजिक लोकतंत्र स्वतंत्रता, समता और बंधुता को जीवन के सिद्धांत के रूप में स्वीकार करता है। अतः स्वतंत्रता को समता से अलग नहीं। | किया जा सकता है, न ही समता को स्वतंत्रता से और न ही स्वतंत्रता व समता को बंधुता से अलग किया जा सकता है। जहाँ स्वतंत्रता विहीन समता व्यक्ति को नष्ट करेगी तो वहीं समताविहीन स्वतंत्रता कुछ व्यक्तियों के अनेक व्यक्तियों पर प्रभुत्व को जन्म देगी। बंधुता के बिना स्वतंत्रता और समता अपना स्वाभाविक मार्ग ग्रहण नहीं कर सकती।
• भारत के संविधान में नागरिकता की अवधारणा के अंतर्गत अल्पसंख्यक न केवल सुरक्षित होंगे बल्कि धार्मिक पहचान का नागरिक अधिकारों पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ेगा।
• संविधान सभा के सदस्यों को सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं चुना गया था लेकिन उसे ज्यादा से ज्यादा प्रतिनिधिपरक बनाने का गंभीर प्रयास किया गया था।
• संविधान सभा में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के प्रस्ताव को बिना वाद-विवाद के पारित कर दिया गया था।
• सार्वभौमिक मताधिकार के अनुसार धर्म, जाति, शिक्षा, लिंग और आय के आधार पर बिना भेदभाव के सभी नागरिकों को एक निश्चित आयु प्राप्त होने पर वोट का अधिकार प्राप्त होगा।
• अंबेडकर कॉन्ग्रेस और गांधी के कड़े आलोचक थे और उन पर अनुसूचित जातियों के उत्थान के काम न करने का आरोप लगाते थे।
• संविधान सभा, उन सिद्धांतों को मूर्त रूप और आकार दे रही थी जो उसने राष्ट्रीय आंदोलन से विरासत में प्राप्त किये थे।
• संविधान सभा ने संसदीय शासन व्यवस्था व संघात्मक शासन व्यवस्था को स्वीकार किया है। इसके अंतर्गत संविधान एक ओर विधायिका और कार्यपालिका के बीच वहीं दूसरी ओर केंद्रीय सरकार और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण करता है।
▪︎उद्देश्य प्रस्ताव में कौन-कौन से बिंदु शामिल हैं-
- भारत एक स्वतंत्र, संप्रभु गणराज्य है।
- संघ की इकाइयाँ स्वायत्त होंगी और उन सभी शक्तियों का प्रयोग और कार्यों का संपादन करेंगी जो संघीय सरकार को नहीं दी गईं।
- संप्रभु और स्वतंत्र भारत तथा इसके संविधान की समस्त शक्तियाँ और सत्ता का स्रोत जनता है।
- अल्पसंख्यकों, जनजातियों, दलित व अन्य पिछड़े वर्गों को समुचित सुरक्षा दी जाएगी।
• भारतीय संविधान में राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों को आयरलैंड के संविधान से लिया गया है। भारत के संविधान के भाग-4 के अनुच्छेद 36-51 तक इसका उपबंध है।
• भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की संकल्पना अमेरिकी संविधान के बिल ऑफ राइट्स से ली गई है। संविधान के भाग-3 में मौलिक अधिकारों का उल्लेख है।
• भारतीय संविधान में अवशिष्ट शक्तियों का सिद्धांत कनाडा से लिया गया है। भारत एवं कनाडा के संविधान में अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र को सौंपी गई हैं, जबकि अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के संविधान में राज्यों को सौंपी गई हैं।
•भारतीय संविधान में न्यायपालिका की न्यायिक पुनर्विलोकन की। | शक्ति का सिद्धांत अमेरिका से लिया गया है। न्यायिक पुनर्विलोकन के | द्वारा सर्वोच्च न्यायालय विधायिका द्वारा पारित ऐसे कानून एवं कार्यपालिका के ऐसे आदेशों को अवैध/असंवैधानिक घोषित कर सकता है, जो संविधान का उल्लंघन करते हैं। इसका प्रावधान संविधान में प्रत्यक्षतः नहीं किया गया है, किंतु अनुच्छेद-13.32 एवं 226 अप्रत्यक्ष रूप से इसका उपबंध करते हैं।
• भारतीय संविधान में समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का सिद्धांत फ्राँस | से लिया गया है तथा संविधान की प्रस्तावना में इसका प्रावधान किया गया है।
• संविधान की प्रामाणिकता संसद से ज्यादा है क्योंकि संविधान ही यह बताता है कि संसद कैसे बनाई जाए और उसे कौन-कौन-सी शक्तियाँ प्राप्त होंगी।
• संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता तथा प्रतिष्ठा और अवसर की समानता का वर्णन है।
विभिन्न देशों के संविधानों से लिए गए प्रावधान
ब्रिटिश संविधान |
सर्वाधिक मत के आधार पर चुनाव में जीत का फ़ैसला |
सरकार का संसदीय स्वरूप |
कानून के शासन का विचार |
विधायिका में अध्यक्ष का पद और उनकी भूमिका |
कानून निर्माण की विधि |
अमेरिका का संविधान |
मौलिक अधिकारों की सूची |
न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति और न्यायपालिका की स्वतंत्रता |
कनाडा का संविधान |
एक अर्द्ध-संघात्मक सरकार का स्वरूप (सशक्त केंद्रीय सरकार वाली संघात्मक व्यवस्था) |
अवशिष्ट शक्तियों का सिद्धांत |
आयरलैंड का संविधान |
राज्य के नीति निर्देशक तत्व |
फ्रांस का संविधान |
स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्त्व का सिद्धांत |
2. भारतीय संविधान में अधिकार
•1928 में ‘मोतीलाल नेहरू समिति’ ने ‘अधिकारों के एक घोषणापत्र’ की मांग उठाई थी।
• स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माण के दौरान संविधान में अधिकारों का समावेश करने और उन्हें सुरक्षित करने पर सभी की राय अलग-अलग थी।
मूल अधिकार(मौलिक अधिकार)क्या हैं? (What are Fundamental Rights?)
• मूल अधिकार संविधान में उल्लिखित वे अधिकार हैं, जो व्यक्ति के भौतिक (सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक) व नैतिक (आध्यात्मिक/धार्मिक) विकास हेतु आवश्यक हैं।
• ये भौतिक व नैतिक विकास की दशाओं के साथ-साथ राज्य के ख़िलाफ़ व्यक्ति की आज़ादी को सुनिश्चित करते हैं।
सवैधानिक उपबंध (Constitutional Provisions)
• मूल अधिकार संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से उद्धृत हैं। • संविधान के भाग-III में अनुच्छेद 12-35 तक इनका उल्लेख है। संविधान के भाग-III को भारत का ‘मैग्नाकार्टा’ की संज्ञा दी जाती है।
मैग्नाकार्टाः अधिकारों का एक घोषणापत्र है, जिसे इंग्लैंड के किंग जॉन द्वारा 1215 ई. में सामंतों के दबाव में जारी किया गया। यह नागरिकों के अधिकारों से संबंधित पहला लिखित पत्र था। सर्वप्रथम 1789 ई. में फ्राँस ने अपने संविधान के अंतर्गत मूल अधिकारों को स्थान प्रदान किया।
• संविधान के भाग-III की न्यायोचित प्रकृति (न्यायालय द्वारा संरक्षण प्राप्त) इसे अधिक मौलिकता प्रदान करती है।
• मूल संविधान में कुल 7 मूल अधिकार प्रदान किये गए थे। वर्तमान में केवल 6 मूल अधिकार ही हैं। 44वें संविधान संशोधन, 1978 द्वारा संपत्ति के मूल अधिकार को [अनुच्छेद 19(1) (च) व अनुच्छेद 31] इस सूची से हटाकर अनुच्छेद-300क में कानूनी अधिकार बना दिया गया है।
• मूल अधिकार व्यक्ति को राज्य के कठोर नियमों के प्रति सचेत करता है व सशक्त नागरिक का निर्माण करने में सहायता करता है, जिससे वे सरकार की दमनकारी नीतियों के ख़िलाफ़ विरोध दर्ज कर पाते हैं।
मूल अधिकारों की विशेषताएँ
- मूल अधिकार न्यायोचित हैं, इन अधिकारों के हनन पर न्यायालय जाया जा सकता है।
- मूल अधिकारों को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गांरटी व सुरक्षा दी जाती है। • मूल अधिकार व्यक्ति को राज्य के ख़िलाफ़ प्राप्त अधिकार हैं।
- मूल अधिकार असीमित नहीं हैं। राज्य द्वारा युक्तियुक्त निर्बंधनों के आधार पर इनको सीमित किया जा सकता है।
- यह अधिकार स्थायी नहीं हैं अर्थात् संसद अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान संशोधन की शक्ति के माध्यम से इनको घटा-बढ़ा सकती है।
- राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) के दौरान अनुच्छेद 20 व 21 को छोड़कर समस्त मूलाधिकार निलंबित किये जा सकते हैं।
नोट: 1931 के कराची अधिवेशन में सरदार वल्लभभाई पटेल की अध्यक्षता में कांग्रेस ने एक घोषणापत्र में मूल अधिकारों की मांग की, जिसका प्रारूप जवाहरलाल नेहरू द्वारा बनाया गया।
भारत का संविधान भाग III : मौलिक अधिकार
1.समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18) |
• कानून के समक्ष समानता -कानूनों के समान संरक्षण |
• धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध – दुकानों, होटलों, कुओं, तालाबों, स्नानघाटों,सड़कों आदि में प्रवेश की समानता |
• रोजगार में अवसर की समानता |
• छूआछूत का अंत |
• उपाधियों का अंत |
2.स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22) |
• व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार -भाषण और अभिव्यक्ति का -शांतिपूर्ण ढंग से जमा होने और सभा करने का संगठित होने का -भारत में कहीं भी आने-जाने का – भारत के किसी भी हिस्से में बसने और रहने का -कोई भी पेशा चुनने, व्यापार करने का |
• अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण |
• जीवन की रक्षा और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार |
• शिक्षा का अधिकार |
• अभियुक्तों और सजा पाए लोगों के अधिकार |
3.शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24) |
• मानव के दुर्व्यापार और बंधुआ मजदूरी पर रोक |
• जोखिम वाले कामों में बच्चों से मज़दूरी कराने पर रोक |
4.धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28) |
• आस्था और प्रार्थना की आज़ादी |
• धार्मिक मामलों के प्रबंधन |
• किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए कर अदायगी की स्वतंत्रता |
• कुछ शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या उपासना में उपस्थित होने की स्वतंत्रता |
5.सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार (अनुच्छेद 29-30) |
• अल्पसंख्यकों की भाषा और संस्कृति के संरक्षण का अधिकार |
• अल्पसंख्यकों को शैक्षिक संस्थाएँ स्थापित करने का अधिकार |
6.संवैधानिक उपचारों का अधिकार(अनुच्छेद 32) |
• मौलिक अधिकारों को लागू करवाने के लिए न्यायालय में जाने का अधिकार |
नोट: अनुच्छेद 31-संपत्ति के अधिकार को 44वें संविधान (संशोधन) अधिनियम, 1978 द्वारा मूल अधिकारों की सूची से हटाकर संविधान के भाग XII में अनुच्छेद 300 के के तहत एक कानूनी अधिकार बना दिया गया है।
मौलिक अधिकार निरंकुश या असीमित अधिकार नहीं हैं। सरकार मौलिक अधिकारों के प्रयोग पर औचित्यपूर्ण’ प्रतिबंध लगा सकती है मौलिक अधिकारों के हनन को रोकने की शक्ति और इसका उत्तरदायित्व न्यायपालिका के पास है। विधायिका या कार्यपालिका के किसी कार्य या निर्णय से यदि मौलिक अधिकारों का हनन होता है या उन पर अनुचित प्रतिबंध लगाया जाता है तो न्यायपालिका उसे अवैध घोषित कर सकती है।
निवारक निरोध कानून के संदर्भ में-
- अनुच्छेद-22 कुछ दशाओं में गिरफ्तारी एवं निरोध से संरक्षण प्रदान करता है, किंतु निवारक निरोध विधि के तहत किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जा सकता है।
- निवारक निरोध कानून सरकार को असामाजिक और राष्ट्रविरोधी तत्त्वों से निपटने का एक हथियार सौंपता है, किंतु कभी-कभी इसके दुरुपयोग के मामले भी सामने आए हैं।
- निवारक निरोध विधि (निवारक नजरबंदी) के तहत कभी-कभी किसी व्यक्ति को आशंका के आधार पर गिरफ्तार किया जा सकता है। यदि सरकार को लगे कि कोई व्यक्ति देश की कानून व्यवस्था या शांति और सुरक्षा के लिये खतरा बन सकता है तो वह उसे बंदी बना सकती है। निवारक निरोध कानून के तहत किसी व्यक्ति को अधिकतम तीन महीने तक बंदी बनाया जा सकता है। तीन माह से अधिक के लिये ऐसे मामले समीक्षा के लिये एक सलाहकार बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं।
▪︎ (अनुच्छेद-14)-कानून के समक्ष समानता ▪︎ (अनुच्छेद-15):मूलवंश, धर्म, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध ▪︎ अनुच्छेद-15(2): इस अनुच्छेद में राज्य के साथ-साथ प्राइवेट व्यक्तियों को भी आदेश दिया गया है कि कोई भी नागरिक केवल धर्म, मूलवंश (Race), जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी आधार पर किसी भी सार्वजनिक स्थान में प्रवेश के संबंध में निर्योग्यताओं के अधीन नहीं होगा। ▪︎ अनुच्छेद-15(3): इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य की स्त्रियों और बालकों के लिये कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी। ▪︎ अनुच्छेद-16 (2) राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव (Descent ). जन्मस्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न उससे विभेद किया जाएगा। ▪︎ अनुच्छेद 16(4): इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लियेउपबंध करने से निवारित नहीं करेगी। ▪︎ (अनुच्छेद-16): रोज़गार में अवसर की समानता ▪︎ (अनुच्छेद-17): छुआछूत का अंत ▪︎ (अनुच्छेद-18): उपाधियों का अंत अनुच्छेद-19(b):शांतिपूर्ण ढंग से जमा होने का अधिकार अनुच्छेद-19(1) (g): कोई भी पेशा चुनने एवं व्यापार करने का अधिकार ▪︎ (अनुच्छेद-20): अपराधों के लिये दोष सिद्धि के संबंध में संरक्षण का अधिकार किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिये एक बार से ज्यादा सजा नहीं मिलेगी।कोई भी कानून किसी भी कार्य को पिछली तारीख से अपराध घोषित नहीं कर सकेगा।किसी भी व्यक्ति को अपने ही विरुद्ध गवाही देने हेतु बाध्य नहीं किया जा सकता।▪︎(अनुच्छेद-21A): शिक्षा का अधिकार ▪︎ अनुच्छेद-21A: 86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 के द्वारा शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार घोषित किया गया और इसे संविधान के अनुच्छेद-21A में शामिल किया गया है। इस प्रकार बाल श्रम को अवैध घोषित करने और शिक्षा को बच्चों का मौलिक अधिकार बना देने से शोषण के विरुद्ध अधिकार और अर्थपूर्ण बन गया है।▪︎अनुच्छेद-22 :अभियुक्तों और सत्ता पाए लोगों के अधिकारअनुच्छेद-23(1):मानव दुर्व्यापार और बंधुआ मजदूरी पर रोक ▪︎ अनुच्छेद-23 (2):इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिये अनिवार्य सेवा अधिरोपित करने से निवारित नहीं करेगी। ऐसी सेवा अधिरोपित करने में राज्य केवल धर्म, मूलवंश, जाति या वर्ग या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। ▪︎ अनुच्छेद-24: कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिबंधइस अनुच्छेद में उपबंध है कि 14 वर्ष से कम (न कि 12 वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिये नियोजित नहीं किया जाएगा। ▪︎ अनुच्छेद-25: आस्था और प्रार्थना की आजादी ▪︎ अनुच्छेद-26:धार्मिक कार्यों के प्रबंधन की स्वतंत्रता ▪︎ अनुच्छेद-27:किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिये कर आदायगी से स्वतंत्रता ▪︎ अनुच्छेद-28:कुछ शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता ▪︎ अनुच्छेद-29 (1): अल्पसंख्यक वर्गों के हितों के संरक्षण का उपबंध है। इस अनुच्छेद के तहत अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी भाषा, लिपि या संस्कृति बनाए रखने का अधिकार है। ▪︎ अनुच्छेद-30 (1): शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों के अधिकार के संबंध में उपबंध है। ▪︎ अनुच्छेद-32 (संवैधानिक उपचारों के अधिकार) को डॉ. अंबेडकर ने संविधान का ‘हृदय एवं आत्मा’ की संज्ञा दी है।संवैधानिक उपचारों के अधिकार के तहत मूल अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में सभी नागरिकों को सीधे सर्वोच्च न्यायालय / उच्च न्यायालय दोनों में से कहीं भी पहले जाने का अधिकार प्राप्त है। |
■ अल्पसंख्यक वह समूह है जिनकी अपनी एक भाषा या धर्म होता है और जो देश के क्षेत्र विशेष या संपूर्ण देश में अन्य वर्गों / समूहों की जनसंख्या की अपेक्षाकृत अत्यंत छोटा समूह होता है संविधान के अनुच्छेद-29 में अल्पसंख्यक वर्गों के हितों के संरक्षण हेतु विशेष प्रावधान किये गए हैं। वहीं अनुच्छेद-30 के अंतर्गत अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी भाषा या धर्म के विकास के लिये शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अधिकार प्राप्त है।
▪︎ बंदी प्रत्यक्षीकरण के द्वारा न्यायालय किसी गिरफ्तार व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने हेतु आदेश देता है। यदि गिरफ्तारी का तरीका या कारण गैरकानूनी या असंतोषजनक हो, तो गिरफ्तार व्यक्ति को छोड़ने का आदेश भी दे सकता है।
▪︎ लोक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के आधार पर सरकार धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा सकती है, क्योंकि धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार असीमित नहीं है। सामाज में व्याप्त बुराइयों मानव बलि, सती प्रथा, बाल विवाह व बहु विवाह जैसी कुरीतियों पर प्रहार करने हेतु अनेक कदम उठाए गए हैं। सरकार द्वारा / विधि द्वारा उठाए गए इन कदमों को स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन नहीं माना जा सकता। संविधान ने सभी को अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने की स्वतंत्रता दी है। संविधान धर्मातरण. भय व लालच दिखाकर या जबरन धर्म परिवर्तित कराने की इजाजत नहीं देता है। संविधान हमें केवल अपने धर्म की सूचनाओं का प्रसार करने की स्वतंत्रता देता है जिससे लोग स्वतः उसकी ओर आकर्षित हों एवं उसका अंतःकरण कर सकें।
• संविधान की उद्देशिका में भारत की धार्मिक विविधता का सम्मान करते हुए स्पष्ट शब्दों में पंथनिरपेक्षता को अपनाया गया है।
• भारत का कोई राजकीय धर्म नहीं है।
• राज्य द्वारा पूर्णतः सहायता प्राप्त किसी भी संस्थान में किसी धर्म विशेष को बढ़ावा देने संबंधी कोई गतिविधि नहीं की जा सकती।
• किसी भी सार्वजनिक पद को किसी धर्म विशेष के लिये आरक्षित नहीं किया जा सकता।
•परमादेश तब जारी किया जाता है जब न्यायालय को लगता है। कि कोई सार्वजनिक पदाधिकारी अपने कानूनी और संवैधानिक दायित्वों का पालन नहीं कर रहा है और इससे किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकार प्रभावित हो रहे हैं।
• जब कोई निचली अदालत अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करके किसी मुकदमे की सुनवाई करती है तो ऊपर की अदालतें (उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय) उसे ऐसा करने से रोकने के लिये ‘निषेध ‘आदेश’ जारी करती हैं।
• जब न्यायालय को लगता है कि कोई व्यक्ति ऐसे पद पर नियुक्त हो गया है जिस पर उसका कोई कानूनी हक नहीं है.. तब न्यायालय ‘अधिकार पृच्छा आदेश’ के द्वारा उसे उस पद पर कार्य करने से रोक देता है।
▪︎संविधान के अनुच्छेद 36-51 तक राज्य के नीति-निदेशक तत्वों का उल्लेख है। नीति-निदेशक तत्त्व बाद योग्य नहीं है। अर्थात् मूल अधिकार की तरह इन्हें न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। इसके निम्न उद्देश्य है-
- लोगों का कल्याणः सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय ।
- जीवन स्तर को ऊँचा उठानाः संसाधनों का समान वितरण ।
- अंतर्राष्ट्रीय शांति को बढ़ावा देना।
अनुच्छेद 44 समान नागरिक संहिता अनुच्छेद- 47: मद्यपान निषेध अनुच्छेद- 43: घरेलू उद्योग को बढ़ावा देना (कुटीर) अनुच्छेद- 48 : पशुओं का वध करने पर रोक अनुच्छेद – 40 : ग्राम पंचायतों को प्रोत्साहन देना |
• राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों में शामिल हैं और नीति-निदेशक तत्त्वों में शामिल किसी भी अधिकार को करने हेतु न्यायालय में दावा नहीं किया जा सकता। इनके लागू करने संबंधी अधिकार को राज्य सरकारों के विवेक पर छोड़ा गया है।
• मौलिक कर्त्तव्यों के संबंध में दिये गए तीनों कथन सत्य हैं। इनमें संविधान का पालन करना देश की रक्षा करना, सभी नागरिकों में आपसी भाईचारे को बढ़ाने हेतु प्रयत्न तथा पर्यावरण की रक्षा करने संबंधी कर्तव्यों को शामिल किया गया है।
• 42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के द्वारा संविधान में भाग-4 क और अनुच्छेद 51 के जोड़ा गया। इसमें 10 मूल कर्तव्यों को शामिल किया गया, किंतु 11 वें मूल कर्तव्य को 86 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 के द्वारा को जोड़ा गया। वर्तमान में कुल 11 मूल कर्त्तव्य हैं। भारत के संविधान में मूल कर्त्तव्यों को स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों के आधार पर शामिल किया गया था।
• मूल अधिकार और राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों के बीच वरीयता को लेकर संसद एवं न्यायपालिका के बीच एक लंबा संघर्ष चला। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि मूल अधिकार और राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत एक-दूसरे के पूरक हैं। मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ, 1980 में भी सर्वोच्च न्यायालय ने इसे पुनः दोहराया। मूल अधिकारों के उल्लंघन या हनन पर सर्वोच्च या उच्च न्यायालय रिट निकालकर सरकार को आदेश देता है, जबकि राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व सरकार के लिये निर्देश हैं कि इनके प्रावधानों को लागू करे, क्योंकि इसके पीछे जनता की नैतिक शक्ति है। मूल अधिकार का संबंध व्यक्ति के अधिकारों के संरक्षण से है, जबकि नीति-निदेशक तत्त्वों का संबंध समाज के हितों के संरक्षण से है।
• केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद, 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संसद को संविधान के किसी अंश या प्रावधान में संशोधन करने की शक्ति है। किंतु संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन नहीं कर सकती। संविधान के मूल ढाँचे का सिद्धांत सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद, 1973 में पहली बार दिया।
• संविधान के मूल ढाँचा के सिद्धांत को मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघवाद, 1980 में सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः दोहराया।
• सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि न्यायालय समय-समय पर बतलाएगा कि संविधान के मूल ढाँचे में क्या-क्या शामिल है।
• 1973 में न्यायालय ने अपने निर्णय में संपत्ति के अधिकार को | ‘संविधान के मूल ढाँचे’ का तत्त्व नहीं माना और कहा कि संसद को संविधान का संशोधन करने का अधिकार है। 1978 में 44 वें संविधान संशोधन के द्वारा संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से निकालकर संविधान के अनुच्छेद-300A के अंतर्गत सामान्य कानूनी अधिकार बना दिया।
• भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर कानून-व्यवस्था, शांति और नैतिकता के आधार पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।
• सरकार किसी क्षेत्र के पाँच या पाँच से अधिक लोगों की सभा पर प्रतिबंध लगा सकती है।
• अनुच्छेद-19(2) के तहत युक्तियुक्त निबंधन का प्रावधान किया गया है।
▪︎ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के संदर्भ में
- इसका गठन वर्ष 1993 में किया गया।
- इसका अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय का सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश होता है।
- आयोग स्वयं अपनी पहल पर या किसी पीड़ित व्यक्ति की याचिका पर जाँच कर सकता है।
नोट: मानव अधिकार संरक्षण (संशोधन) विधेयक, 2019 में यह प्रावधान किया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त अन्य न्यायाधीशों (सर्वोच्च न्यायालय के ही) को भी मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनाया जा सकता है।
3. चुनाव और प्रतिनिधित्व
● भारतीय संविधान में लोकसभा एवं राज्यों की विधान सभाओं की चुनाव प्रक्रिया हेतु फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम को स्वीकार किया गया है। इस सिस्टम में जिस प्रत्याशी को अन्य प्रत्याशी की तुलना में अधिक वोट प्राप्त होते हैं उसे ही विजयी घोषित किया जाता है।
● समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में किसी पार्टी को उतनी ही प्रतिशत सीटें प्राप्त होती हैं जितने प्रतिशत उसे वोट मिलते हैं। अतः कथन 1 सत्य है। विजयी उम्मीदवार को बहुमत प्राप्त करना आवश्यक होता है। यह बहुमत आमतौर पर 50% + 1 या फिर एक पूर्व-निर्धारित कोटा होता है।
समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के विषय में
● भारत में समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यसभा और विधानपरिषद (न कि विधानसभा) का चुनाव होता है।
● इस प्रणाली में किसी राजनीतिक दल को उतनी ही सीटें मिलती हैं जिस अनुपात / प्रतिशत में उसे मत प्राप्त होता है अतः कथन 1 सही है। इस प्रणाली में मतदाता राजनीतिक दल को मत देते हैं, न कि उसके प्रत्याशी को निर्वाचन क्षेत्र के प्रतिनिधि वास्तव में राजनीतिक दल के प्रतिनिधि होते हैं।
● भारत में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यसभा और राज्यों की विधान परिषदों का चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होता है। अतः कथन 3 सही नहीं है। ये प्रणाली दो प्रकार की होती है
- पूरे देश को एक निर्वाचन क्षेत्र मानना, जैसे- इज़रायल व नीदरलैंड।
- पूरे देश को बहु-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र में बाँटना, जैसे- अर्जेंटीना और पुर्तगाल । एक निर्वाचन क्षेत्र से कई प्रतिनिधि चुने जा सकते हैं। विजयी उम्मीदवार को मत का बहुमत
(50% + 1) प्राप्त करना आवश्यक है।
■ भारत में निर्वाचन के आरक्षण के संबंध में
संविधान के अनुच्छेद-330 के तहत लोकसभा और संविधान के अनुच्छेद- 332 के तहत राज्य की विधानसभाओं में अनुसूचित जाति व जनजातियों के आरक्षण के संबंध में प्रावधान है।
● प्रारंभ में संविधान में आरक्षण का प्रावधान 10 वर्षों के लिये किया गया। था, किंतु 95वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2009 के द्वारा इसकी अवधि को बढ़ाकर वर्ष 2020 कर दिया गया है।
● वर्तमान में लोकसभा की 543 निर्वाचित सीटों में से 84 अनुसूचित जाति और 47 अनुसूचित जनजाति के लिये आरक्षित हैं। इसके पहले यह संख्या क्रमशः 79 और 41 थी।
परिसीमन आयोग के संबंध में
● परिसीमन आयोग का गठन पूरे देश में निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा खींचने के लिये किया जाता है। इसका गठन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। यह एक स्वतंत्र एवं निष्पक्ष संस्था है यह चुनाव आयोग के साथ मिलकर काम करती है। प्रत्येक राज्य में आरक्षण के लिये निर्वाचन क्षेत्रों का एक कोटा होता है जो उस राज्य में अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की संख्या के अनुपात में होता है।
● पहले परिसीमन आयोग का गठन संसद द्वारा 1952 में किया गया था। वर्तमान परिसीमन आयोग का गठन 2002 में किया गया। 87 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 के द्वारा राज्य के आंतरिक निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन जनगणना, 2001 के आधार पर करने के लिये कहा गया।
निर्वाचन आयोग के संदर्भ में
● 1989 तक निर्वाचन आयोग एक सदस्यीय था। 1989 के आम चुनावों के ठीक पहले दो अन्य निर्वाचन आयुक्तों को नियुक्त कर इसे बहु-सदस्यीय बना दिया गया, किंतु चुनावों के बाद इसे फिर एक सदस्यीय बना दिया गया। 1993 में पुनः दो निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के साथ इसे बहुसदस्यीय बना दिया गया, तब से यह निरंतर बहुसदस्यीय ही बना हुआ है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त को संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत से पारित प्रतिवेदन के आधार पर राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है, किंतु अन्य निर्वाचन आयुक्तों को मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है।
● संविधान के अनुच्छेद-324 के अनुसार निर्वाचन के लिये मतदाता सूची तैयार करने और चुनाव के संचालन का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण का अधिकार एक स्वतंत्र निर्वाचन आयोग को है। संविधान द्वारा निर्वाचन आयोग को चुनावों से संबंधित हर बात पर अंतिम निर्णय करने की भूमिका सौंपी गई है। निर्वाचन आयोग में तीन सदस्य हैं- मुख्य निर्वाचन आयुक्त एवं दो अन्य आयुक्त । भारत के निर्वाचन आयोग की सहायता करने के लिये प्रत्येक राज्य में एक मुख्य निर्वाचन अधिकारी होता है।
● संविधान के अनुच्छेद-243K और अनुच्छेद-243ZA के तहत स्थानीय निकायों का चुनाव राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा कराया जाता है।
● संविधान मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के कार्यकाल को सुरक्षा देता है। उन्हें 6 वर्षों के लिये अथवा 65 वर्ष की उम्र तक (जो पहले खत्म हो) के लिये नियुक्त किया जाता है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त को कार्यकाल समाप्त होने के पूर्व राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है, पर इसके लिये संसद के दोनों सदनों को इस संदर्भ में प्रस्ताव को विशेष बहुमत (उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत तथा सदन की कुल सदस्य संख्या का साधारण बहुमत) से पारित कर इस आशय का एक प्रतिवेदन राष्ट्रपति को भेजना होगा। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होते ही मुख्य निर्वाचन आयुक्त को अपने पद से हटा हुआ माना जाएगा।
हालांकि, अन्य निर्वाचन आयुक्तों को राष्ट्रपति केवल मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सिफारिश पर ही हटा सकता है। किंतु ऐसा किसी सिफारिश को मानना राष्ट्रपति के लिये बाध्यकारी नहीं है।
निर्वाचन आयोग के कार्यों के संदर्भ में
- मतदाता सूचियाँ बनाना
- राजनीतिक दलों को मान्यता देना।
- उन्हें चुनाव चिह्न आवंटित करना।
- आचार संहिता लागू करवाना
- मतदान तथा मतगणना की तिथि घोषित करना
- चुनाव परिणामों की घोषणा करना
- चुनावों की अधिघोषणा करना
● निर्वाचन आयोग पूरे देश, किसी राज्य या किसी निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव ठीक से न होने पर चुनावों को स्थगित या रद्द कर सकता है।
● निर्वाचन आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिये निर्णय लेने का अधिकार है।
निर्वाचन आयोग के पास सीमित कर्मचारी होते हैं। वह प्रशासनिक मशीनरी की मदद से चुनाव संपन्न करवाता है। चुनाव संपन्न होने तक निर्वाचन आयोग का पूरी मशीनरी पर पूर्ण नियंत्रण होता है। यदि प्रशासनिक अधिकारी निष्पक्ष ढंग से काम करने में विफल होते हैं तो वह उनके विरुद्ध कार्यवाही कर सकता है। वह अधिकारियों का तबादला कर सकता है तथा रोक भी सकता है।
● समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में, मतदाताओं को किसी एक दल को चुनने का विकल्प दिया जाता है, लेकिन प्रत्याशियों का चयन पार्टी द्वारा जारी की गई सूची के अनुसार होता है। इस प्रकार, किसी क्षेत्र विशेष का प्रतिनिधित्व करने वाला और उसके प्रति उत्तरदायी, कोई एक प्रतिनिधि नहीं होता है। अतः कथन 1 असत्य है। | सर्वाधिक वोट से जीत वाली व्यवस्था में मतदाता को पता होता है कि उनका प्रतिनिधि कौन है और उसे उत्तरदायी ठहरा सकते हैं।
● अनुसूचित जातियों के लिये आरक्षित कोटे के अंतर्गत परिसीमन आयोग उन निर्वाचन क्षेत्रों को चुनता है, जिसमें अनुसूचित जातियों का अनुपात ज्यादा होता है।
● परिसीमन आयोग का गठन राष्ट्रपति करते हैं। परिसीमन आयोग का अब तक 1952, 1963, 1973 और 2002 में गठन किया गया है।
4. कार्यपालिका
● विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सरकार के तीन अंग हैं, तीनों अंग मिलकर शासन करते हैं तथा कानून-व्यवस्था को बनाए रखने और जनता का कल्याण करने में योगदान देते हैं। संसदीय व्यवस्था में कार्यपालिका और विधायिका एक-दूसरे पर आश्रित है। विधायिका कार्यपालिका को न केवल नियंत्रित करती है बल्कि इससे नियंत्रित भी होती है।
● विधायिका नीतिगत निर्णय लेती है व नियम व कानून भी तय करती है, वहीं उन्हें लागू करने की जिम्मेदारी कार्यपालिका की होती है। सामान्यतः संसद को ही विधायिका की संज्ञा दी जाती है। कार्यपालिका में केवल राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या मंत्री ही नहीं बल्कि संपूर्ण प्रशासनिक ढाँचा भी शामिल होता है। प्रधानमंत्री तथा उनके मंत्रियों को राजनीतिक कार्यपालिका | कहते हैं और वे सरकार की सभी नीतियों के लिये उत्तरदायी होते हैं; लेकिन जो लोग प्रशासनिक कार्यो पर लगातार नजर बनाए रहते हैं उन्हें स्थायी कार्यपालिका कहते हैं।
संसदीय व्यवस्था के संदर्भ में
● भारत में संसदीय व्यवस्था को ही अपनाया गया है। हमारे देश का औपचारिक प्रमुख राष्ट्रपति है, जबकि वास्तविक प्रधानमंत्री राष्ट्रपति को सिर्फ औपचारिक शक्तियाँ प्राप्त हैं, जबकि वास्तविक शक्तियाँ मंत्रिपरिषद में निहित हैं। भारत में मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति जबावदेह होती है।
● संसदीय व्यवस्था के अंतर्गत कार्यपालिका को जनप्रतिनिधियों के द्वारा प्रभावपूर्ण तरीके से नियंत्रित किया जा सकता है। अतः कथन । सत्य है। संविधान में राष्ट्रीय और प्रांतीय दोनों ही स्तरों पर संसदीय कार्यपालिका की व्यवस्था को स्वीकार किया गया है।
भारत के राष्ट्रपति के संदर्भ में
● भारत के संविधान में औपचारिक रूप से कार्यपालिका शक्तियों का प्रमुख राष्ट्रपति होता है लेकिन वास्तव में प्रधानमंत्री के नेतृत्व में बनी मंत्रिपरिषद के माध्यम से राष्ट्रपति इन शक्तियों का प्रयोग करता है। राष्ट्रपति के पद के लिये सीधे जनता के द्वारा निर्वाचन नहीं होता। राष्ट्रपति का निर्वाचन अप्रत्यक्ष तरीके से होता है अर्थात् राष्ट्रपति का निर्वाचन आम नागरिक नहीं बल्कि निर्वाचित विधायक और सांसद करते हैं। यह निर्वाचन समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली और एकल संक्रमणीय मत के अनुसार होता है।
राष्ट्रपति की शक्तियों के संबंध में
● संसद द्वारा पारित विधेयक, धन विधेयक को छोड़कर, को राष्ट्रपति पुनर्विचार हेतु वापस कर सकता है। यदि विधेयक धन विधेयक एवं संविधान संशोधन विधेयक है, तो राष्ट्रपति को स्वीकृति देनी ही होती है।
● कभी-कभी राष्ट्रपति पॉकेट वीटो का प्रयोग करते हुए बिना कुछ निर्णय दिये विधेयकों को अनिश्चित समय-सीमा तक अपने पास लंबित भी रख सकता है।
● औपचारिक रूप से राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है। यदि लोक सभा में किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता है या गठबंधन की स्थिति होती है तब राष्ट्रपति को यह निर्णय करना होता है कि वह किसे प्रधानमंत्री नियुक्त करे। इस परिस्थिति में राष्ट्रपति अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर या बहुमत या समर्थन प्राप्त नेता को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित कर सकता है। जब सरकार स्थायी न हो और गठबंधन सरकार सत्ता में होती है, तो राष्ट्रपति के हस्तक्षेप की संभावनाएँ भी अधिक हो जाती हैं।
भारत के उपराष्ट्रपति के संबंध में
● उपराष्ट्रपति को हटाने के लिये राज्यसभा को अपने बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पास कराना होता है और उस प्रस्ताव पर लोकसभा की सहमति लेनी पड़ती है।
● भारत में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का निर्वाचन अप्रत्यक्ष समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तहत एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया जाता है।
● राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में संसद एवं राज्य विधानसभा के निर्वाचित सदस्य (मनोनीत सदस्य नहीं) और दिल्ली व पुदुच्चेरी विधानसभा के निर्वाचित सदस्य भाग लेते हैं।
● उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है एवं उसके निर्वाचक मंडल में संसद के दोनों सदनों के सभी सदस्य (मनोनीत सदस्य भी) भाग लेते हैं; जबकि राज्य विधानसभा के सदस्य भाग नहीं लेते।
● सविधान में 91वें संविधान संशोधन के माध्यम से मंत्रिपरिषद के आकार को सीमित कर दिया गया। लोकसभा व विधानसभा दोनों ही स्तर पर मंत्रिपरिषद सदन के कुल सदस्यों की संख्या के 15% से अधिक नहीं होनी चाहिये किंतु राज्य मंत्रिपरिषद में मंत्रियों की संख्या 12 से कम न होगी। 6 से 14 वर्ष के बच्चों के शिक्षा के अधिकार को 86वें संविधान संशोधन द्वारा मौलिक अधिकारों में शामिल किया गया।
मंत्रिपरिषद के संदर्भ में
● मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी है। 2 यदि सरकार लोकसभा में विश्वास मत खो देती है तो उसे त्यागपत्र देना। पड़ता है। यदि किसी एक मंत्री के विरुद्ध भी अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाए, तो संपूर्ण मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देना पड़ता है। मंत्रिपरिषद तभी अस्तित्व में आती है जब प्रधानमंत्री अपने पद की शपथ लेता है। प्रधानमंत्री की मृत्यु या त्यागपत्र के कारण पूरी मंत्रिपरिषद ही भंग हो। जाती है, जबकि किसी मंत्री की मृत्यु, हटाए जाने या त्यागपत्र के कारण मंत्रिपरिषद में केवल एक स्थान खाली होता है। प्रधानमंत्री एक तरफ मंत्रिपरिषद तथा दूसरी ओर राष्ट्रपति और संसद के बीच एक सेतु का काम करता है।
■ शासन के कार्यकारी अंगों में प्रधानमंत्री, मंत्रिपरिषद, प्रशासनिक अधिकारी शामिल हैं।
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के संदर्भ में
- इसमें राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रमुख होता है।
- इसमें राष्ट्रपति सरकार का भी प्रमुख होता है।
- इसमें राष्ट्रपति का चुनाव आमतौर पर प्रत्यक्ष मतदान के द्वारा होता है।
- इसमें राष्ट्रपति विधायिका के प्रति जवाबदेह नहीं होता हैं।
- भारत और ब्रिटेन में संसदीय प्रणाली है जबकि अमेरिका में अध्यक्षात्मक प्रणाली को अपनाया गया है।
5. विधायिका
संसद के संदर्भ में
- यह सभी लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रियाओं का केंद्र है।
- वास्तविक प्रतिनिधित्व वाली कुशल और प्रभावी विधायिका के बिना सच्चे लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती।
- संसद पूरे देश या देश के किसी हिस्से के लिये कानून बना सकती है। कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था होने के बावजूद संसद प्रायः कानूनों को केवल स्वीकृति देने मात्र का काम करती है। विधेयक को तैयार करने का वास्तविक काम तो किसी मंत्री के निर्देशन में नौकरशाही करती है। विधेयक का उद्देश्य और संसद में उसे प्रस्तुत करने का समय मंत्रिमंडल तय करता हैl।
- कोई भी महत्त्वपूर्ण विधेयक मंत्रिमंडल की स्वीकृति के बिना संसद में पेश ही नहीं किया जाता। संसद के अन्य निजी सदस्य भी कोई विधेयक प्रस्तुत कर सकते हैं, पर बिना समर्थन के ऐसे विधेयकों का पास होना संभव नहीं है।
- संसद कार्यपालिका को उसके अधिकार क्षेत्र में सीमित रखती है तथा जनता के प्रति उसका उत्तरदायित्व सुनिश्चित करती है।
- लोकतंत्र में संसद कराधान तथा सरकार द्वारा धन के प्रयोग पर नियंत्रण रखती है। यदि भारत सरकार कोई प्रस्ताव लाए, तो उसे संसद की स्वीकृति लेनी | पड़ती है। संसद की वित्तीय शक्तियाँ उसे सरकारी कार्यों के लिये धन उपलब्ध कराने का अधिकार देती हैं। सरकार को खर्च किये गए धन का हिसाब तथा प्रस्तावित आय का विवरण संसद को देना पड़ता है। संसद वह भी सुनिश्चित करती है कि धन का दुरुपयोग न हो।
विधायिका के संदर्भ में
● विधायिका जनप्रतिनिधियों का जनता के प्रति उत्तरदायित्व सुनिश्चित करती है। यह वास्तव में प्रतिनिधिपरक लोकतंत्र का आधार है। अत्यंत शक्तिशाली मंत्रिमंडल को भी विधायिका में बहुमत की आवश्यकता होती है। यह वाद-विवाद का सबसे लोकतांत्रिक और खुला मंच है। अपनी संरचनात्मक विशेषता के कारण यह सरकार के अन्य सभी अंगों में सबसे ज्यादा प्रतिनिधिपरक है। इसके पास सरकार (कार्यपालिका) का चयन करने और उसे बर्खास्त करने की शक्ति भी है।
राज्यसभा के संदर्भ में
- राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है व इसका निर्वाचन अप्रत्यक्ष विधि से होता है।
- किसी राज्य के लोग राज्य की विधानसभा के सदस्यों को चुनते हैं। इसके बाद विधानसभा के निर्वाचित सदस्य राज्यसभा के सदस्यों को चुनते हैं।
- संविधान की चौथी अनुसूची में प्रत्येक राज्य से निर्वाचित होने वाले सदस्यों की संख्या निर्धारित कर दी गई है।
- राज्यसभा के सदस्यों को 6 वर्ष के लिये निर्वाचित किया जाता है। राज्यसभा के सभी सदस्य एक साथ अपना कार्यकाल पूरा नहीं करते। प्रत्येक दो वर्ष पर राज्यसभा के एक-तिहाई सदस्य सेवानिवृत्त होते हैं इसलिये राज्यसभा एक स्थायी सदन है।
- राज्यसभा कभी पूरी तरह से भंग नहीं होती है। यह संसद का स्थायी सदन है।
- जब लोकसभा भंग होती है और चुनाव होने बाकी होते हैं तब राज्यसभा की बैठक बुलाई जा सकती है और जरूरी मामलों को निपटाया जा सकता है।
लोकसभा के संदर्भ में
● संविधान के अनुच्छेद-81 में लोकसभा की संरचना के संबंध में उपबंध है और अनुच्छेद-170 में राज्य विधानसभाओं के संबंध में। | लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों को प्रत्यक्ष निर्वाचन के माध्यम से चुना जाता है। चुनावों के दौरान राज्यों को लगभग समान जनसंख्या वाले निर्वाचन क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से सार्वभौमिक मताधिकार द्वारा एक प्रतिनिधि चुना जाता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के मत का मूल्य दूसरे व्यक्ति के मत के मूल्य के बराबर होता है। अतः कथन 3 असत्य है। 1971 से लोकसभा के 543 निर्वाचन क्षेत्र हैं। लोकसभा के लिये सदस्यों की 5 वर्ष के लिये चुना जाता है। लेकिन सदन में बहुमत या विश्वास मत प्राप्त न होने पर इसे समय पूर्व भी भंग किया जा सकता है।
लोकसभा की शक्तियों में
- यह संघ सूची और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने में भूमिका निभाती है।
- यह धन विधेषक और सामान्य विधेयकों को प्रस्तुत व पारित करती है। 3. यह आपातकाल की घोषणा को स्वीकृति देती है।
- यह समिति व आयोगों का गठन करती है और उनके प्रतिवेदन पर विचार करती है।
- कर प्रस्ताव, बजट और वार्षिक वित्तीय वक्तव्यों को स्वीकृति देती है।
- प्रश्न पूछकर पूरक प्रश्न पूछकर प्रस्ताव लाकर और अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से कार्यपालिका को नियंत्रित करती है।
- संविधान संशोधन की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में भागीदारी करती है।
- सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया में भाग लेती है।
राज्यसभा की शक्तियों
- सामान्य विधेयकों पर विचार कर उन्हें पारित करती है और धन विधेयकों में संशोधन प्रस्तावित करती है।
- संवैधानिक संशोधनों को पारित करती है।
- उपराष्ट्रपति को हटाने का प्रस्ताव केवल इसी सदन में लाया जा सकता है।
- यह संसद को राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।
- प्रश्न पूछकर तथा संकल्प एवं प्रस्ताव प्रस्तुत कर कार्यपालिका पर नियंत्रण करती है।
- राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के चुनाव में शामिल होती है।
- सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया में शामिल होती है।
■ संविधान की 7वीं अनुसूची में संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची का प्रावधान है। संघ सूची में संघ, राज्य सूची में राज्य एवं समवर्ती सूची में संघ और राज्य दोनों विधि बना सकते हैं। यदि केंद्र सरकार राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रहित में संघ सूची या समवर्ती सूची में हस्तांतरित करना चाहे, तो उसमें राज्यसभा की स्वीकृति आवश्यक है।
■ संविधान के अनुच्छेद-109 के तहत धन विधेयक को केवल लोकसभा में ही प्रस्तुत किया जा सकता है। लोकसभा उसे संशोधित या अस्वीकृत कर सकती है।
■ कानून बनाना केवल एक विधायी प्रक्रिया ही नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रक्रिया भी है क्योंकि अनेक हित-समूह, मीडिया और नागरिक संगठन भी किसी विधेयक को लाने के लिये सरकार पर दबाव डाल सकते हैं। मंत्री के अतिरिक्त कोई सदस्य विधेयक पेश करे तो ऐसे विधेयक को ‘निजी सदस्यों का विधेयक’ कहते हैं। मंत्री के द्वारा प्रस्तुत विधेयक को सरकारी विधेयक कहते हैं। विधेयक जिस मंत्रालय से संबद्ध होता है, वही मंत्रालय उसका प्रारूप बनाता है। लोकसभा या राज्यसभा में कोई भी सदस्य इस विधेयक को पेश कर सकता है (जिस विषय का विधेयक हो उस विषय से जुड़ा मंत्री ही अक्सर विधेयक पेश करता है)। किसी धन विधेयक को सिर्फ लोकसभा में ही प्रस्तुत किया जा सकता है। लोकसभा में पारित होने के बाद उसे राज्यसभा में भेजा जा सकता है।
■ संविधान के अनुच्छेद 108 के तहत किसी विधेयक (धन विधेयक या संविधान संशोधन विधेयक को छोड़कर) पर दोनों सदनों में मतभेद की स्थिति पैदा होने पर राष्ट्रपति द्वारा संयुक्त बैठक आहूत की जा सकती है जिसकी अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष करता है।
- धन विधेयक को राज्यसभा या तो स्वीकार कर सकती है या संशोधन प्रस्तावित कर सकती है, लेकिन धन विधेयक को अस्वीकार नहीं कर सकती है। यदि राज्यसभा 14 दिन तक विधेयक पर निर्णय नहीं लेती है। तो उसे राज्यसभा से भी पारित माना जाएगा।
■ संविधान के अनुच्छेद-109 में धन विधेयक संबंधी प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है तथा संविधान के अनुच्छेद-110 में धन विधेयक को परिभाषित किया गया है।
- कोई भी विधेयक दोनों सदनों से पारित होने के बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल जाने पर ही कानून बनता है।
- धन विधेयकों तथा किसी राज्य के राज्यक्षेत्र, नाम व सीमाओं में परिवर्तन संबंधी विधेयकों को ही राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से सदनों में प्रस्तुत किया जाता है।
संसदीय विशेषाधिकार के संदर्भ में
- संविधान के अनुच्छेद-105 में संसदीय विशेषाधिकार के संबंध में उपबंध किया गया है।
- सदन में कुछ भी कहने के बावजूद किसी सदस्य के विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती।
- इसके हनन की स्थिति में सदन के अध्यक्ष को अंतिम निर्णय लेने की शक्ति प्राप्त है।
● संसद के अधिवेशन के समय प्रतिदिन प्रश्नकाल में मंत्रियों को तीखे प्रश्नों के उत्तर देने होते हैं। शून्यकाल में सदस्य किसी भी महत्त्वपूर्ण मुद्दे को उठा सकते हैं, पर मंत्री उसका उत्तर देने के लिये बाध्य नहीं हैं।
● संविधान के अनुच्छेद-112 में वार्षिक वित्तीय विवरण (बजट) के संबंध में प्रावधान है। सरकार के कार्यक्रमों को लागू करने के लिये वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था, बजट के द्वारा की जाती है। संसदीय स्वीकृति के लिये बजट बनाना और उसे पेश करना सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है। इसी ज़िम्मेदारी के कारण विधायिका को कार्यपालिका के ‘खजाने’ पर नियंत्रण करने का अवसर मिल जाता है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक और संसद की लोक लेखा समिति की रिपोर्ट के आधार पर वह धन के दुरुपयोग के मामलों की जाँच कर सकती है। लेकिन संसदीय नियंत्रण का एकमात्र उद्देश्य सरकारी धन के सदुपयोग को सुनिश्चित करना नहीं होता, यह वित्तीय नियंत्रण द्वारा विधायिका सरकार की नीतियों पर भी नियंत्रण करती है।
संसदीय समितियों के संदर्भ में
- संसदीय समितियाँ कानून बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के साथ-साथ सदन के दैनिक कार्यों में भी भूमिका निभाती हैं।
- समितियाँ सदन का अधिवेशन होने या न होने दोनों ही स्थितियों में कार्यरत रहती हैं
- ये समितियाँ विभिन्न विभागों के द्वारा किये गए कार्यों की जाँच, भ्रष्टाचार के मामलों की पड़ताल करती हैं।
● स्थायी समितियों के अतिरिक्त संयुक्त संसदीय समितियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन समितियों में दोनों सदनों के सदस्य मौजूद होते है।
● संविधान में संसद की कार्यवाही को सुचारु ढंग से संचालित करने संबंधी प्रावधानों का स्पष्ट उल्लेख है। सदन का अध्यक्ष विधायिका की कार्यवाहियों के मामलों में सर्वोच्च अधिकारी होता है।
दल-बदल संबंधी
- 52वें संशोधन अधिनियम, 1985 के द्वारा दल-बदल निरोधक कानून लाया गया 91 वे विधान संशोधन अधिनियम, 2001 के द्वारा इस कानून को और सशक्त बनाया गया। दल-बदल विवादों का निर्णय सदन के अध्यक्ष सभापति द्वारा किया जाता है।
- यदि कोई सदस्य अपने दल के नेतृत्व के आदेश के बावजूद सदन में उपस्थित न हो या निर्देशन के विपरीत मतदान करे या स्वेच्छा से दल की सदस्यता से त्यागपत्र दे देता है तो इसे दल-बदल कहते हैं।
- दल-बदल विवादों पर अंतिम निर्णय सदन के अध्यक्ष का होता है।
- 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से दल-बदल निरोधक कानून लाया गया।
- दल-बदल सिद्ध होने पर उक्त सदस्य की सदन में सदस्यता समाप्त हो जाती है साथ ही उस व्यक्ति को किसी भी राजनैतिक पद हेतु भी अयोग्य घोषित कर दिया जाता है।
6. न्यायपालिका
न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ है-
- विधायिका व कार्यपालिका द्वारा न्यायपालिका के कार्यों में बाधा न पहुँचाना
- सरकार के अन्य अंगों द्वारा न्यायपालिका के निर्णयों में हस्तक्षेप न करना
- न्यायाधीश द्वारा बिना भय या भेदभाव के अपना कार्य करना
(न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छाचारिता या उत्तरदायित्व का अभाव नहीं होता है।)
सर्वोच्च न्यायालय / उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के संबंध में-
● न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामलों में विधायिका को सम्मिलित 7 नहीं किया गया है ताकि इसे दलगत राजनीति से अलग रखा जा सके। न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिये किसी व्यक्ति को वकालत का अनुभव या कानून विशेषज्ञ होना आवश्यक है।
● न्यायाधीशों का कार्यकाल निश्चित होता है, उनके कार्यकाल को कम नहीं | किया जा सकता, कार्यकाल की सुरक्षा के कारण न्यायाधीश बिना भय या भेदभाव के अपना कार्य कर सकते हैं।
● न्यायपालिका, कार्यपालिका या विधायिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है। संविधान के अनुसार न्यायाधीश के वेतन और भत्ते के लिये विधायिका की स्वीकृति नहीं ली जाएगी।
● सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके पद से सिर्फ कदाचार साबित होने या अयोग्यता की दशा में ही हटाया जा सकता है। जब तक संसद के सदस्यों में आम सहमति न हो तब तक किसी न्यायाधीश को हटाया नहीं जा सकता। उनकी नियुक्ति में कार्यपालिका की अप्रत्यक्ष महत्त्वपूर्ण भूमिका है यहाँ उनको हटाने की शक्ति विधायिका के पास है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता बचाए रखने तथा शक्ति संतुलन बनाए रखने हेतु ऐसा किया गया है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के संदर्भ में
- इसके फैसले सभी अदालतों को मानने होते हैं।
- यह उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का तबादला कर सकता है।
- यह किसी अदालत का मुकदमा अपने पास मंगवा सकता है।
- यह किसी एक उच्च न्यायालय में चल रहे मुकदमे को दूसरे उच्च न्यायालय में भिजवा सकता है।
उच्च न्यायालयों के संदर्भ में
- ये निचली अदालतों के फैसले पर की गई अपील की सुनवाई कर सकते हैं।
- ये मौलिक अधिकारों को बहाल करने के लिये रिट जारी कर सकते हैं।
- ये अन्य राज्यों के क्षेत्राधिकार में आने वाले मुकदमों का निपटारा भी कर सकते हैं।
- ये अपने अधीनस्थ अदालत का पर्यवेक्षण और नियंत्रण करते हैं।
- उच्च न्यायालय सिर्फ अपने राज्य क्षेत्र में आने वाले कार्य/ मुकदमों का ही निपटारा कर सकता है।
● फौजदारी और दीवानी के मुकदमों पर विचार करना अधीनस्थ अदालत के कार्य है।
जिला न्यायालय-
- जिले में अगर मुकदमों की सुनवाई करता है।
- गंभीर किस्म के आपराधिक मामलों में फैसला देता है।
सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार में निम्नलिखित आते हैं
- मौलिक क्षेत्राधिकार (आरंभिक) अनुच्छेद-131
- अपीलीय क्षेत्राधिकार अनुच्छेद-132, 133, 134, 134 (क) एवं अनुच्छेद-136
- सलाहकारी क्षेत्राधिकार अनुच्छेद-143
- रिट संबंधी क्षेत्राधिकार अनुच्छेद-32
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मौलिक क्षेत्राधिकार से संबंधित
- संविधान के अनुच्छेद-131 के तहत सर्वोच्च न्यायालय को मौलिक या प्रारंभिक क्षेत्राधिकार प्राप्त है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त मौलिक क्षेत्राधिकार उसे संघीय मामलों में निर्णायक की भूमिका प्रदान करता है। केंद्र तथा राज्यों के बीच और विभिन्न राज्यों के मध्य उत्पन्न कानूनी विवादों को हल करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है। इसे मौलिक क्षेत्राधिकार कहा ही इसलिये जाता है क्योंकि ऐसे मामलों की सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय ही सुनवाई कर सकता है. न तो उच्च न्यायालय और न ही अधीनस्थ न्यायालयों में इसकी अपील की जा सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार संबंधित
- उच्च न्यायालय को अपील के लिये यह प्रमाणपत्र देना पड़ता है कि वह मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने लायक है अर्थात् उसमें संविधान या कानून की व्याख्या करने संबंधी कोई गंभीर मामला उलझा है। यदि किसी मामले में उच्च न्यायालय अपील की आज्ञा न दे तब भी सर्वोच्च न्यायालय के पास यह शक्ति है कि वह उस मुकदमे में की गई अपील को विचार के लिये स्वीकार कर ले।
- भारत का राष्ट्रपति लोकहित या संविधान की व्याख्या से संबंधित किसी विषय को सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्श हेतु भेज सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय लोकहित या संविधान की व्याख्या संबंधित किसी विषय पर न तो सलाह देने हेतु बाध्य है और न ही राष्ट्रपति उस सलाह को मानने हेतु बाध्य होगा।
(संविधान के अनुच्छेद-143 के तहत भारत के राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय से विधि या तथ्य से संबंधित सलाह मांग सकता है।)
जनहित याचिका के संबंध में
- जनहित याचिका न्यायिक सक्रियता का सबसे प्रभावी साधन हो गई है। किसी के द्वारा मुकदमा करने पर उस मुद्दे पर विचार करने के साथ-साथ न्यायपालिका ने अखबार में छपी खबरों और डाक से प्राप्त शिकायतों को आधार बनाकर उन पर विचार करना शुरू कर दिया। यद्यपि बाद में न्यायालय ने पत्रों को याचिका के रूप में स्वीकार करने की प्रथा समाप्त कर दी।
- 1980 के बाद जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के द्वारा न्यायपालिका ने उन मामलों में भी रुचि दिखाई जहाँ समाज के कुछ वर्ग के लोग आसानी से अदालत की शरण नहीं ले सकते। न्यायालय ने पीड़ित व्यक्ति की ओर से किसी अन्य को भी याचिका दायर करने का हक दिया। इसने न्याय व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाया और कार्यपालिका उत्तरदायी बनने पर बाध्य हुई। चुनाव प्रणाली को भी इसने ज्यादा मुक्त और निष्पक्ष बनाने का प्रयास किया है।
- न्यायिक सक्रियता से विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्यों के बीच का अंतर धुंधला हुआ है।
- भारत में जनहित याचिका (पी.आई.एल) या सामाजिक व्यवहार याचिका (Social Action Litigation) का प्रारंभ 1979-80 के दशक में तत्कालीन न्यायमूर्ति वी. आर. कृष्णा अय्यर और न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती के द्वारा किया गया।
न्यायपालिका के अधिकारों के संबंध में
- न्यायपालिका को व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व सौंपा गया है। सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत व्यक्ति के मूल अधिकारों की रक्षा के लिये रिट निकाल सकता है, जबकि उच्च | न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत मूल अधिकारों के अतिरिक्त अन्य मामलों में भी रिट निकाल सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय को मूल अधिकारों के संरक्षक के साथ-साथ संविधान का भी संरक्षक माना गया है। इसे संविधान का निर्वाचन/व्याख्या करने की शक्ति प्राप्त है। सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद-13 के तहत मौलिक अधिकारों के विरुद्ध किसी कानून को असंवैधानिक या शून्य घोषित कर सकता है।
अनुच्छेद-32 : सर्वोच्च न्यायालय को मूल अधिकारों के संरक्षण के लिये रिट निकालने की शक्ति। |
अनुच्छेद 226 : उच्च न्यायालय को रिट निकालने की शक्ति। |
अनुच्छेद-124: उच्चतम न्यायालय की स्थापना और गठन । |
अनुच्छेद-137: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए अपने निर्णयों का पुनरावलोकन करने की शक्ति । |
सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति के संदर्भ में-
- इसके माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय विधायिका द्वारा पारित किसी भी कानून की संवैधानिकता जाँच सकता है।
- इस शक्ति के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय संविधान के विपरीत कानूनों को गैर-संवैधानिक घोषित कर सकता है।
- संविधान में कहीं भी न्यायिक पुनर्विलोकन शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है।
- ये शक्ति राज्यों की विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों पर भी लागू होती है।
भारत ने न्यायिक पुनर्विलोकन सिद्धांत को अमेरिकी संविधान से ग्रहण किया है। भारत के संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन की कहीं भी स्पष्ट रूप से चर्चा नहीं की गई है, किंतु संविधान के अनुच्छेद-13, 32 एवं 226 अप्रत्यक्ष रूप से न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति न्यायपालिका को सौंपती है।
■ भारतीय संविधान के मूल ढाँचा/ आधारिक ढाँचा का सिद्धांत पहली बार केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद, 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने दिया और कहा कि न्यायालय समय-समय पर मूल ढाँचे को घोषित करेगा। इसके बाद मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ वाद 1980 में मूल ढाँचा के सिद्धांत को पुनः दोहराया गया।
■ केशवानंद भारती बाद में गठित संवैधानिक पीठ अब तक की सबसे बड़ी संवैधानिक पीठ है। इसमें कुल 13 न्यायाधीश थे।
संसदीय व्यवस्था के संदर्भ में
- इसमें संसद को अपना संचालन खुद करने तथा अपने सदस्यों का व्यवहार नियंत्रित करने की शक्ति है।
- संसदीय व्यवस्था में विधायिका को विशेषाधिकार के हनन का दोषी पाए जाने पर अपने सदस्यों को दंडित करने का अधिकार है।
केशवानंद भारती मुकदमे के संदर्भ में न्यायालय के निर्णयों में शामिल था
- संविधान का एक मूल ढाँचा है और संसद सहित कोई भी उस मूल ढाँचे से छेड़-छाड़ नहीं कर सकता।
- संपत्ति का अधिकार मूल ढाँचे का हिस्सा नहीं है, अतः उस पर समुचित प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के संदर्भ में
- वर्षों से सर्वोच्च न्यायलय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशको स पद पर नियुक्त करने की परंपरा रही है एवं इसका कोई अपवाद नहीं है।
- वरिष्ठता के आधार पर भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की परंपरा को दो बार तोड़ा गया है। अतः कथन 1 सत्य नहीं है। पहली बार 1973 में तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों को छोड़कर न्यायमूर्ति
- ए.एन. रे को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। दूसरी बार न्यायमूर्ति एच. आर. खन्ना को पीछे छोड़ते हुए न्यायमूर्ति एम. एच. बेग की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में की गई। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष होती है।
7. संघवाद
संघवाद से संबंधित
- संघवाद एक संस्थागत प्रणाली है जो केंद्रीय तथा प्रांतीय स्तर की व्यवस्थाओं में समाहित है। प्रत्येक सरकार अपने क्षेत्र में स्वायत्त होती है। कुछ संघीय देशों में दोहरी नागरिकता की व्यवस्था होती है, लेकिन भारत में इकहरी या एकल नागरिकता है।
- लोगों की दोहरी पहचान एवं निष्ठाएँ होती हैं, वे अपने क्षेत्र के भी | होते हैं और राष्ट्र के भी। जैसे हममें से कोई मराठी या गुजराती हो सकता है और साथ-साथ भारतीय भी ।
- केंद्र एवं राज्यों के मध्य उठने वाले विवादों के निवारण के लिये स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था की जाती है। न्यायपालिका को केंद्रीय सरकार | तथा राज्यों के बीच उठने वाले कानूनी विवादों को हल करने का अधिकार होता है।
भारत का संविधान | ||
संघ सूची | राज्य सूची | समवर्ती सूची |
शामिल विषय | शामिल विषय | शामिल विषय |
• प्रतिरक्षा • परमाण्विक ऊर्जा • विदेश मामले • युद्ध और • शांति • बैंकिंग • रेलवे • डाक और तार • वायुसेवा • बंदरगाह • विदेश व्यापार • मुद्रा इन विषयों पर सिर्फ केंद्रीय विधायिका ही कानून बना सकती है | • कृषि • पुलिस • जेलखाना • स्थानीय शासन • सार्वजनिक स्वास्थ्य • भूमि • शराब • वाणिज्य-व्यापार • पशुपालन • प्रादेशिक लोक सेवा आम तौर पर इन विषयों पर सिर्फ प्रांतीय विधायिका ही | कानून बना सकती है | • शिक्षा • कृषि भूमि के • अतिरिक्त किसी अन्य संपदा का हस्तांतरण। • वन • मज़दूर संघ • सामानों में मिलावट • गोद लेना औरउत्तराधिकार केंद्र और प्रांत दोनों की विधायिका इन मामलों पर कानून बना सकती है। |
भारत में एक सशक्त केंद्रीय सरकार के निर्माण में सहायक कारक हैं-
- किसी राज्य के अस्तित्व और उसकी भौगोलिक सीमाओं के स्थायित्व पर संसद का नियंत्रण
- आपातकालीन प्रावधान
- नियोजनकारी शक्तियाँ
- राज्यों में राज्यपाल की नियुक्ति
- इकहरी प्रशासकीय व्यवस्था
■ संविधान के अनुच्छेद-3 के अनुसार संसद ‘किसी राज्य में से उसका राज्य क्षेत्र अलग करके अथवा दो या दो से अधिक राज्यों को मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकती है।’ वह किसी राज्य की सीमाओं या नाम में परिवर्तन कर सकती है. पर इस शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिये संविधान प्रभावित राज्य के विधानमंडल को विचार व्यक्त करने का अवसर देता है। अतः किसी राज्य के अस्तित्व और उसकी भौगोलिक सीमाओं के स्थायित्व पर संसद का नियंत्रण होता है।
■ ‘आपातकालीन प्रावधान’ लागू होने पर संघीय व्यवस्था को एक अत्यधिक केंद्रीकृत व्यवस्था में बदल दिया जाता है इससे संसद को यह शक्ति प्राप्त हो जाती है कि वह उन विषयों पर भी कानून बना सके जो राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
■ ‘नियोजन’ के कारण आर्थिक फैसले लेने की ताकत केंद्र सरकार के हाथों में सिमट गई। केंद्र सरकार अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर राज्यों को अनुदान तथा ऋण देती है।
■ राज्यपाल राज्य का प्रमुख होने के साथ-साथ केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में भी कार्य करता है। राज्यपाल को यह शक्ति प्राप्त है कि वह राज्य सरकार को हटाने तथा विधानसभा भंग करने की सिफारिश राष्ट्रपति को भेज सके। इसके अलावा राज्यपाल विधानमंडल द्वारा पारित किसी भी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिये सुरक्षित कर सकता है। इससे केंद्र सरकार को यह अवसर मिल जाता है कि वह राज्य के कानून निर्माण में देरी कर सके और चाहे तो विधेयकों पर निषेधाधिकार (वीटो) का प्रयोग कर उसे पूरी तरह नकार दे।
■ हमारी प्रशासकीय व्यवस्था इकहरी है। अखिल भारतीय सेवाएँ पूरे देश के लिये हैं। इसमें चयनित पदाधिकारी राज्य प्रशासन में कार्यरत है। जिलाधीश तथा कमिश्नर के रूप में कार्यरत अधिकारियों पर केंद्र सरकार का नियंत्रण होता है। राज्य न तो उनके विरुद्ध कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही कर सकता है न ही उन्हें सेवा से हटा सकता है।
■ भारतीय संघवाद पर राजनीतिक प्रक्रिया की परिवर्तनशील प्रकृति का काफी प्रभाव पड़ा है।
■ स्वतंत्रता उपरांत के शुरुआती दशकों में जवाहर
भारत में राज्यपालों के संदर्भ में
- सरकारिया आयोग (1983) ने सिफारिश की थी कि राज्यपालों की नियुक्ति अनिवार्यतया निष्पक्ष होकर की जानी चाहिये।
- जब राज्य का शासन संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चल रहा हो, तो राज्यपाल उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर सकता है।
- राज्यपाल, राज्य सरकार को बर्खास्त करने तथा राज्य विधानसभा को निलंबित या विघटित करने की अनुशंसा कर सकता है।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के फलस्वरूप परिवर्तन
- राष्ट्रीय एकता का जन्म हुआ
- भाषायी एकता में वृद्धि
- देश लोकतंत्र की ओर बढ़ा
राज्यों के अस्तित्व में आने के संदर्भ में
गुजरात | 1960 |
महाराष्ट्र | 1960 |
पंजाब | 1966 |
सिक्किम | 1975 |
झारखंड | 15 नवंबर, 2000 |
संविधान के अनुच्छेद-371 के संदर्भ में
- यह अनुच्छेद पूर्वोत्तर राज्यों के विशिष्ट इतिहास और संस्कृति वाली जनजातीय बहुल जनसंख्या निवासी स्थानों के लिये है।
- इसमें कुछ राज्यों के लिये उनकी विशिष्ट सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप संविधान कुछ विशेष अधिकारों की व्यवस्था करता है।
- इस अनुच्छेद द्वारा मिले विशेषाधिकारों के द्वारा से पूर्वोत्तर की
- जनजातियाँ अपनी संस्कृति एवं इतिहास को बनाए रख सकती है।
- इन राज्यों में पूर्वोत्तर के असम, नगालैंड, मणिपुर, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश शामिल है।
● संविधान के अनुच्छेद-248 में अवशिष्ट शक्तियों के संबंध में प्रावधान है। इस विषय पर कानून बनाने का अधिकार संसद के पास है। यह प्रावधान भारत ने कनाडा के संविधान से ग्रहण किया है।
संविधान की 7वीं अनुसूची में विषयों को निम्नलिखित तीन सूचियों में विभाजित किया गया है-
- संघ सूची: केंद्र कानून बनाता है।
- राज्य सूची: राज्य कानून बनाता है।
- समवर्ती सूची: केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं।
● भारतीय संविधान के अनुच्छेद-1 में ‘भारत अर्थात् इंडिया’ वाक्यांश का प्रयोग किया गया है, न कि ‘इंडिया अर्थात् भारत’ अंग्रेजी | में देखें तो अनुच्छेद-1 कहता है, “India, that is Bharat, shall be a Union of States”। इसके हिंदी संस्करण में भारत अर्थात् इंडिया का ही प्रयोग किया गया है। संविधान सभा के सदस्यों द्वारा देश के नामकरण के संदर्भ में एक लंबे वाद-विवाद के बाद अंततः उपरोक्त वाक्यांश को शामिल किया गया था।
● संविधान के अंग्रेजी संस्करण में संघ के लिये ‘यूनियन’ शब्द का प्रयोग किया गया है, न कि ‘फेडरेशन’।
■ संविधान के अनुच्छेद-246 एवं अनुसूची-7 के अंतर्गत संघ सूची राज्य सूची एवं समवर्ती सूची के अंतर्गत विषयों के वर्गीकरण एवं इन पर केंद्र एवं राज्य सरकारों की कानून बनाने की शक्ति का स्पष्ट उल्लेख है।
■ कार्य-क्षेत्र संबंधी विवाद की स्थिति में संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार निर्णय करने की शक्ति अनुच्छेद-131 के माध्यम से मूल अधिकारिता के रूप में सर्वोच्च न्यायालय को दी गई है।
■ शक्ति विभाजन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि संविधान ने आर्थिक और वित्तीय शक्तियाँ केंद्र को सौपी हैं।
■ भारतीय संविधान के अनुच्छेद-248 में अवशिष्ट शक्तियों केंद्र को सौंपे जाने का स्पष्ट उल्लेख है। अतः कथन 4 सही नहीं है।
■ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार ‘ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई हो कि उस राज्य का शासन इस संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता।’ इस संदर्भ में राष्ट्रपति शासन लागू किये जाने संबंधी प्रावधान है।
■ उपर्युक्त विषय पर राष्ट्रपति द्वारा जारी उद्घोषणा की संसद की स्वीकृति प्राप्त करना जरूरी होता है।
■ राष्ट्रपति शासन को अधिकतम तीन वर्षों तक बढ़ाया जा सकता है।
■ सर्वोच्च न्यायालय ने 1993 में एस. आर. बोम्मई मामले में यह फैसला दिया कि राष्ट्रपति शासन लागू करने के निर्णय की संवैधानिकता की समीक्षा न्यायालय कर सकता है।
■ सर्वोच्च या उच्च न्यायालय राष्ट्रपति शासन को खारिज कर सकता है | यदि उसे लगता है कि इसे सही कारणों से नहीं लगाया गया।
■ दरअसल, 1975 में आपातकाल के दौरान इंदिरा सरकार ने उ8वें संविधान संशोधन के जरिये अदालतों से राष्ट्रपति शासन की न्यायिक समीक्षा का अधिकार छीन लिया था, किंतु बाद में जनता पार्टी की सरकार ने 44वें संविधान संशोधन के जरिये उसे फिर से पूर्ववत कर दिया।
● अदालत राष्ट्रपति शासन को असंवैधानिक और अवैध करार देने के साथ-साथ बर्खास्त, निलंबित या भंग की गई राज्य सरकार को पुनः बहाल कर सकती है।
● राज्यपाल को इस मामले में केवल यह अधिकार है कि वह राज्य सरकार को बर्खास्त तथा राज्य विधानसभा को निलंबित या विघटित करने के संदर्भ में अनुशंसा राष्ट्रपति को कर सके। अतः कथन । सही नहीं है।
● 1959 में केरल में और 1967 के बाद अनेक राज्यों में बहुमत की परीक्षा के बिना ही सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया। इसी तरह 1980 के दशक में केंद्रीय सरकार ने आंध्र प्रदेश और जम्मू और कश्मीर की निर्वाचित सरकारों को बर्खास्त किया।
8. स्थानीय शासन
स्थानीय शासन के संबंध में
- इन संस्थाओं को 1993 में संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
- गाँव व जिला स्तर के शासन को स्थानीय शासन कहते हैं।
- स्थानीय हित और स्थानीय ज्ञान लोकतांत्रिक फैसला लेने के अनिवार्य घटक हैं।
- जीवंत और मजबूत स्थानीय शासन सक्रिय भागीदारी और उद्देश्यपूर्ण जवाबदेहिता को सुनिश्चित करता है।
- 1989 में बनी थुंगन समिति ने स्थानीय शासन व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्रदान करने की सिफारिश की। अतः 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 एवं 1993 के द्वारा इसे संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
- स्थानीय शासन के निर्वाचित निकाय सन 1882 के बाद अस्तित्व में आए उस वक्त लॉर्ड रिपन भारत के वायसराय थे।
- 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 ग्रामीण स्थानीय शासन से संबंधित है, जबकि 74वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 शहरी स्थानीय शासन से संबंधित है। ये दोनों अधिनियम सन् 1993 में लागू हुए।
● गांधीजी आर्थिक और राजनीतिक सत्ता के विकेंद्रीकरण के समर्थक थे। उनका मानना था कि ग्राम पंचायतों को मजबूत बनाना सत्ता के विकेंद्रीकरण | का कारगर साधन है।
पंचायती राजव्यवस्था के संदर्भ में
- पंचायती राजव्यवस्था का ढाँचा त्रि-स्तरीय है, ग्राम पंचायत, मंडल तालुका पंचायत और जिला पंचायत जो प्रदेश आकार में छोटे हैं यहाँ मंडल या तालुका पंचायत यानी मध्यवर्ती स्तर की आवश्यकता नहीं। होती। मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत का गठन नहीं हो सकता यदि उस राज्य की जनसंख्या 20 लाख से कम हो। संविधान के 73वें संविधान संशोधन के द्वारा ग्राम पंचायत को बनाना अनिवार्य कर दिया गया है। पंचायती क्षेत्र में मतदाता के रूप में पंजीकृत हर वयस्क व्यक्ति ग्राम सभा का सदस्य होता है।
- पंचायत के तीनों स्तर के चुनाव सीधे जनता करती है।
- हर पंचायती निकाय की अवधि पाँच साल की होती है।
- 73वें संविधान संशोधन से पहले कई प्रदेशों में जिला पंचायती निकायों के चुनाव अप्रत्यक्ष रीति से होते थे।
(यदि सरकार पंचायत समिति को भंग कर देती है तो 6 माह के भीतर पुनः चुनाव करवाना आवश्यक होता है।)
पंचायत व्यवस्था में आरक्षण से संबंधित
- संविधान का अनुच्छेद-243D पंचायत व्यवस्था में आरक्षण से संबंधित है। सभी पंचायत संस्थाओं में महिलाओं के लिये दो-तिहाई नहीं बल्कि एक-तिहाई सीटें आरक्षित होती हैं।
- सभी पंचायत संस्थाओं में सामान्य श्रेणी के साथ-साथ अनुसूचित जाति / अनुसूचित 7 जनजाति की श्रेणी में भी एक-तिहाई सीटें (दो-तिहाई नहीं) महिलाओं के लिये आरक्षित की गई हैं।
- तीनों स्तर पर अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये सीधे में आरक्षण की व्यवस्था है।
■ 73वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा संविधान में 11वीं : अनुसूची जोड़ी गई. जिसमें 29 विषयों को शामिल किया गया है। इन कार्यों का वास्तविक हस्तानांतरण प्रदेश के कानून पर निर्भर है। हर | प्रदेश यह फैसला करेगा कि इन 29 विषयों में से कितनों को स्थानीय निकायों के हवाले करना है।
ग्यारहवीं अनुसूची में दर्ज कुछ विषय |
1. कृषि 3. लघु सिंचाई, जल प्रबंधन, जल संचय का विकास …… 8. लघु उद्योग, इसमें खाद्य प्रसंस्करण के उद्योग शामिल हैं। …….. 10. ग्रामीण आवास 11. पेयजल …….. 13. सड़क, पुलिया 14. ग्रामीण विद्युतीकरण …….. 16. गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम 17. शिक्षा, इसमें प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की शिक्षा शामिल है। 18. तकनीकी प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा 19. वयस्क और अनौपचारिक शिक्षा 20. पुस्तकालय 21. सांस्कृतिक गतिविधि 22. बाज़ार और मेला 23. स्वास्थ्य और साफ-सफाई. इसमें अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तथा डिस्पेंसरी शामिल हैं। 24. परिवार नियोजन 25. महिला और बाल विकास 26. सामाजिक कल्याण 27. कमजोर तबके का कल्याण, खासकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का । 28. सार्वजनिक वितरण प्रणाली । |
● राज्य चुनाव आयुक्त की जिम्मेदारी पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव कराने की होती है।
● भारत के चुनाव आयुक्त की तरह प्रदेश चुनाव आयुक्त भी स्वायत्त होता है।
● संविधान के अनुच्छेद-243K में पंचायतों के निर्वाचन के लिये एक राज्य निर्वाचन आयुक्त का प्रावधान है। यह भारत के चुनाव आयुक्त की तरह स्वायत्त एवं स्वतंत्र है।
● प्रदेशों की सरकार के लिये हर पाँच वर्ष पर एक प्रादेशिक वित्त आयोग बनाना आवश्यक है।
● राज्य वित्त आयोग प्रदेश और स्थानीय शासन तथा ग्रामीण एवं शहरी शासन संस्थाओं के बीच राजस्व के बँटवारे का पुनरावलोकन करेगा।
● संविधान के अनुच्छेद-2431 में एक राज्य वित्त आयोग का प्रावधान है। राज्य का राज्यपाल प्रत्येक पाँच वर्ष पर एक राज्य वित्त आयोग का गठन करेगा।
●74वाँ संविधान संशोधन शहरी स्थानीय निकाय या नगरपालिका से संबंधित है।
जब संविधान बना तो स्थानीय शासन को अनिवार्य प्रावधान न बनाकर इसे ‘राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत’ के अंतर्गत शामिल करने के कारण थे-
- देश-विभाजन की खलबली के कारण संविधान का झुकाव केंद्र को मजबूत बनाने का रहा।
- नेहरू खुद अति स्थानीयता को राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिये खतरा मानते थे।
- डॉ. बी. आर. अंबेडकर ग्रामीण भारत में बड़े स्तर पर विद्यमान जाति व्यवस्था की नकारात्मक प्रवृत्ति के कारण स्थानीय शासन के निकायों को आपत्तिजनक मानते थे।
- महात्मा गांधी गाँवों को आत्मनिर्भर बनाने एवं आर्थिक व राजनीतिक सचा के विकेंद्रीकरण के द्वारा स्थानीय शासन को अनिवार्य बनाने के पक्षधर थे।
■ भारत के अनेक प्रदेशों के आदिवासी जनसंख्या वाले क्षेत्रों को 73वें संविधान संशोधन के प्रावधानों से दूर रखा गया था।
■ ऐसे क्षेत्रों में स्व-शासन की मूल परंपरा को बचाते हुए आधुनिक पंचायती व्यवस्था के प्रावधानों के दायरे में लाने हेतु 1996 में अलग से एक अधिनियम बनाया गया है।
■ ऐसे इलाकों की ग्राम सभा को अपेक्षाकृत ज्यादा अधिकार दिये गए हैं।
■ संसद ने पाँचवी अनुसूची के अंतर्गत आने वाले अनुसूचित क्षेत्रों में स्थानीय | शासन के क्रियान्वयन के लिये ‘पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996’ पारित किया, जिसे आमतौर पर ‘पेसा एक्ट, 1996’ के नाम से जाना जाता है।
9. संविधान एक जीवंत दस्तावेज़
● 26 नवंबर, 1949 को संविधान को अंगीकृत किया गया जबकि 26 जनवरी, 1950 को संविधान को औपचारिक रूप से लागू किया गया।
● भारतीय संविधान को 26 नवंबर, 1949 को अगीकृत किया गया।
भारतीय संविधान के संदर्भ में
● संसद समय की आवश्यकतानुसार संविधान में संशोधन कर सकती है। संविधान की व्याख्या करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के पास है। अतः भिन्न-भिन्न मामलों में संविधान की किसी बात की अलग-अलग व्याख्याएँ हो सकती हैं। भारतीय संविधान में कठोरता और लचीलेपन का उचित समन्वय है। जहाँ लचीले का मतलब है परिवर्तनों के प्रति खुली दृष्टि, जबकि कठोर का अर्थ है अनावश्यक परिवर्तनों के प्रति कठोर रवैया परिवर्तनों के प्रति उदार रवैया के कारण ही हमारा भारतीय संविधान एक जीवंत दस्तावेज कहलाता है। हमारा संविधान कोई जड़ और अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं है।
भारतीय संविधान में संशोधन के सम्बन्ध में
● संविधान के भाग-20 और अनुच्छेद-368 में संविधान में संशोधन संबंधी प्रावधान हैं। संशोधन के तीन प्रकार हैं- साधारण बहुमत, विशेष बहुमत तथा विशेष बहुमत के साथ कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमंडलों का समर्थन संसद द्वारा साधारण तरीके से किये गए संशोधन को संविधान संशोधन का अंग नहीं माना जाता, क्योंकि इसमें संसद सामान्य बहुमत से विधि बना सकती है।
● संविधान में संशोधन केवल संसद द्वारा किया जा सकता है। जब संविधान संशोधन विधेयक को राष्ट्रपति के समक्ष अनुमति के लिये भेजा जाता है. तो राष्ट्रपति को अनुमति देना अनिवार्य है।
संविधान संशोधन विधेयक के संदर्भ में
- संविधान संशोधन विधेयक संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत सदन की कुल सदस्य संख्या का बहुमत और सदन में उपस्थित व मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित होना आवश्यक है।
- संविधान के अनुच्छेद-108 के तहत राष्ट्रपति दोनों सदनों के बीच गतिरोध होने पर संयुक्त बैठक बुला सकता है, किंतु संविधान संशोधन में संयुक्त बैठक का कोई प्रावधान नहीं है।
संविधान में केंद्र और राज्यों को प्राप्त शक्तियों के संदर्भ में
- जब तक आधे राज्यों की विधानपालिकाएँ इस संदर्भ के किसी संविधान संशोधन विधेयक को पारित नहीं कर देतीं तब तक यह संशोधन प्रभावी नहीं माना जाएगा।
- इस संबंध में संशोधन के लिये संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत के साथ आधे से अधिक राज्यों के अनुमोदन की आवश्यकता होती है।
- संघीय संरचना में राज्यों की शक्तियाँ केंद्र सरकार की दया पर निर्भर नहीं हैं।
● संविधान के 15वें संशोधन के द्वारा उच्च न्यायालय न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा को 60 वर्ष में के बढ़ाकर 62 वर्ष कर दिया गया।
● संविधान के 54वें संशोधन के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय न्यायाधीशों के वेतन में वृद्धि की गई थी।
संविधान में 42वें संशोधन के द्वारा
● संविधान के 42वें संशोधन के द्वारा लोकसभा की अवधि को 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया गया (इसे 44वें संविधान संशोधन के माध्यम से पुनः 5 वर्ष कर दिया गया)। इसके द्वारा संविधान का भाग 4क और अनुच्छेद 51 के जोड़ा गया। इसे स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश के आधार पर शामिल किया गया।
● इसके द्वारा संविधान में मूल कर्तव्यों को शामिल किया गया।
● इसके द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी, पंथनिरपेक्ष एवं अखंडता’. तीनों शब्दों को जोड़ा गया।
● इसके द्वारा 7वीं अनुसूची में परिवर्तन कर केंद्र को किसी राज्य में कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिये सैन्य बल भेजने की शक्ति को जोड़ा गया।
■ सन 2000 में उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश श्री वेंकटचेलैया की अध्यक्षता में एक आयोग नियुक्त किया गया, जिसका उद्देश्य संविधान के कामकाज की समीक्षा करना था। विपक्षी दलों तथा अन्य संगठनों ने इस आयोग का बहिष्कार किया। इसने अपनी रिपोर्ट 2002 में सौंपी।
(Q) निम्नलिखित में से कौन सा/से कथन संविधान को एक जीवंत दस्तावेज मानने के लिये तर्कसंगत है/है?
1. यह दस्तावेज समय-समय पर उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करता है।
2. जीवंत प्राणी की तरह ही यह अनुभव से सीखता है।
कूट:
- केवल 1
- केवल 2
- 1 और 2 दोनों
- न तो और न ही 2
उत्तर : C
व्याख्या: कथन 1 और 2 दोनों तर्कसंगत हैं।
■ भारतीय संविधान न तो अधिक लचीला है और न ही अधिक कठोर।
मूल उपबंधों की व्याख्या एवं स्पष्ट करने संबंधी संशोधन के उदाहरण-
- दलबदल विरोधी कानून (52वाँ एवं 91वाँ संशोधन)
- स्थानीय स्वशासन (73वाँ एवं 74वाँ संशोधन)
- मताधिकार की आयु को 21 से 18 वर्ष करना
- नौकरियों में आरक्षण की सीमा बढ़ाने संबंधी संशोधन राजनीतिक आम सहमति से होने वाले संशोधन के उदाहरण-
- अनुच्छेद-74(1) में मंत्रिपरिषद् की सलाह को राष्ट्रपति के लिये बाध्यकारी मानना ।
- 42वीं एवं 44वाँ संविधान संशोधन
- विधायिकाओं में SC/ST के आरक्षण की बढ़ाने हेतु 5 बार संशोधन।
10. संविधान का राजनीतिक दर्शन
भारतीय संविधान के विषय में
- संविधान को अंगीकार करने का एक प्रमुख कारण सत्ता को निरंकुश होने से रोकना है।
- यह हमें सामाजिक बदलाव के लिये शांतिपूर्ण लोकतात्रिक साधन प्रदान करता है।
- यह औपनिवेशिक दासता में रह रहे लोगों के लिये राजनीतिक आत्मनिर्णय की उदघोषणा है। यह कमतोर वर्गों को उनका उचित हक दिलाने के लिये शक्ति प्रदान करता है।
- यह परंपरागत सत्ता से दूर रहे लोगों का सशक्तीकरण करता है। इसका निर्माण परंपरागत सामाजिक ऊँच-नीच के बंधनों को तोड़ने तथा स्वतंत्रता समानता एवं न्याय के नए युग में प्रवेश करने के लिये हुआ है।
■ अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिये संविधान के अनुच्छेद-330 और अनुच्छेद- 332 में संसद और राज्य के विधानमंडलों में आरक्षण का उपबंध किया गया है।
■ अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिये संविधान के अनुच्छेद-15(4) एवं (5) में शिक्षण संस्थानों, अनुच्छेद-16(4) में लोक नियोजन और अनुच्छेद-335 में लोक सेवा पदोन्नति में आरक्षण का उपबंध किया गया है।
■ भारत का संविधान धार्मिक समुदायों को शिक्षण संस्थान स्थापित करने और चलाने का अधिकार प्रदान करता है। धार्मिक संगठन द्वारा चलाए जा रहे शिक्षण संस्थानों को धन दे सकता है।
धर्मनिरपेक्षता / पंथनिरपेक्षता का भारतीय संदर्भ
- भारतीय राज्य ने किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में अंगीकार नहीं किया है।
- भारत का संविधान किसी भी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता है, अि सभी धार्मिक समुदायों के अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है, जैसे- शिक्षण संस्थानों की स्थापना करने और उन्हें चलाने का अधिकार राज्य धार्मिक संगठनों द्वारा चलाए जा रहे शिक्षण संस्थानों को धन दे सकता है।
- भारत के संविधान में मूल रूप से पंथनिरपेक्षता शब्द का उल्लेख नहीं किया गया है। फिर भी हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष रहा है। इसे 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया है।
■ मोतीलाल नेहरू ने 1928 में एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसे नेहरू रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है। इस रिपोर्ट में नागरिक के मूल अधिकार 24 वर्ष की आयु के प्रत्येक व्यक्ति को लोकसभा में मतदान करने का अधिकार तथा उस प्रत्येक व्यक्ति को नागरिक माना गया, जिसने राष्ट्रमंडल की भू-सीमा में जन्म लिया तथा किसी अन्य देश की नागरिकता ग्रहण नहीं की थी।
■ संविधान का अनुच्छेद-371क नगालैंड के लिये न केवल विशेष उपबंध का प्रावधान करता है, बल्कि आप्रवास पर रोक लगाकर स्थानीय पहचान कीरा भी करता है, जबकि अनुच्छेद-371 में महाराष्ट्र एवं गुजरात लिये विशेष उपबंध किया गया है।
FAQ-
(Q) संविधान में समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का सिद्धांत कहाँ से लिया गया है?
Ans.- फ्राँस
(Q)मौलिक अधिकारों को कहाँ से लिया गया है?
Ans. – कनाडा
(Q)राज्य के नीति-निवेशक तत्त्वों को कहाँ से लिया गया है?
Ans.- आयरलैंड के संविधान से
(Q)भारतीय संविधान में अवशिष्ट शक्तियों का सिद्धांत कहाँ से लिया है?
Ans.- कनाडा
(Q) संविधान में न्यायपालिका की न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति कहाँ से ली गई है?
Ans.- अमेरिका
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