इस आर्टिकल में आगे बढ़ने से पहले यह बता देना जरूरी है कि इस आर्टिकल में सारे EXAM. को मध्य नजर रखते हुए खासकर यूपीएससी और किसी भी स्टेट पीसीएस को ध्यान में रखते हुए Satish Chandra Medieval History का Notes जो की ओल्ड एनसीईआरटी के नाम से जाना जाता है उसी का नोटिस बहुत ही सरल और टू द पॉइंट में चैप्टर वाइज है।
11. | भारत में सांस्कृतिक विकास (तेरहवीं से पंद्रहवीं सदी तक) |
12. | उत्तर भारत में साम्राज्य के लिये संघर्ष – II मुगल और स्थापना (1525-1555 ई.) |
13. | मुगल साम्राज्य का दृढ़ीकरण (अकबर का काल) |
14. | दक्कन और दक्षिण भारत (1656 ई. तक) |
15. | सत्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भारत |
16. | मुगलों के अधीन आर्थिक तथा सामाजिक जीवन |
17. | सांस्कृतिक तथा धार्मिक गतिविधियाँ |
18. | मुगल साम्राज्य का चरमोत्कर्ष और विघटन – I |
19. | मुगल साम्राज्य का चरमोत्कर्ष और विघटन-II |
20. | मूल्यांकन और समीक्षा |
Satish Chandra Medieval History :भारत में सांस्कृतिक विकास ( तेरहवीं से पंद्रहवीं सदी तक )
- कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद कुतुबमीनार के निकट दिल्ली में स्थित है, जो पहले एक जैन मंदिर था जिसे बाद में वैष्णव मंदिर में बदल दिया गया और तुर्क शासकों ने इसे मस्जिद में बदल दिया था।
- अढ़ाई दिन का झोंपड़ा (जो पहले एक मठ था)। इसे अलाउद्दीन खिलजी ने बनवाया था। यह अजमेर में स्थित है।
- कुतुबमीनार दिल्ली में स्थित है। जिसे गुलाम शासकों ने बनवाया था।
तुर्क स्थापत्य कला’ के संदर्भ में
- तुर्कों ने उत्तर भारत की इमारतों में उच्चकोटि के हल्के ‘गारे’ का इस्तेमाल किया।
- तुर्क शासक अपनी इमारतों में गुबंद और मेहराब पद्धति के साथ-साथ लिंटल और शहतीर पद्धति का भी इस्तेमाल करते थे।
- सजावट के मामलों में तुर्कों ने धार्मिक कारणों से मानव आकृतियों या पशु-पक्षियों की आकृतियों के इस्तेमाल से परहेज किया। इसकी बजाय वे ज्यामितिक और फूलों के डिज़ाइनों का प्रयोग करते थे।
- अरेबेस्क एक सजावट पद्धति है, जिसे तुर्क भारत में इमारत व गुंबद में सजावट हेतु इस्तेमाल किया करते थे। इस पद्धति द्वारा दीवारों पर ज्यामितीय व फूलों के डिजाइन के साथ-साथ कुरान की आयतें भी लिखवाई जाती थीं, जिससे अरबी लिपि अपने आप में एक कलाकृति बन गई। इन सजावटी युक्तियों के संयोग को अरेबेस्क कहा जाता था।
कुतुबमीनार’ के संदर्भ में
- तेरहवीं सदी में तुर्क शासकों ने दिल्ली के प्रसिद्ध सूफी संत | कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की स्मृति में कुतुबमीनार का निर्माण करवाया।
- सजावट को ध्यान में रखते हुए लाल और सफेद बलुई पत्थर तथा संगमरमर का प्रयोग किया ताकि डिजाइन व रंग आकर्षण का केंद्र हों।
- यह मीनार मूलतः 71.4 मीटर ऊँची थी।
- अलाउद्दीन खिलजी ने कुतुबमीनार में एक प्रवेश द्वार जोड़ दिया जो अलाई दरवाजा के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें एक गुंबद भी है जो वैज्ञानिक पद्धति से बनवाया गया पहला सही गुंबद है।
- तुगलक स्थापत्य की एक प्रमुख विशेषता ढालू दीवार का निर्माण है। इससे इमारत के मजबूत और ठोस होने का एहसास होता है।
- सूफी मत 12 पंथों या सिलसिलों में संगठित था। हर सिलसिले का नेतृत्व एक सूफी संत करता था, जिसे पीर कहा जाता था यह पीर अपने शिष्यों या मुरीदों के साथ खानकाह अर्थात् आश्रम में रहता था। अतः खानकाह एक सूफी आश्रम था।
चिश्ती सिलसिले के संदर्भ में
- भारत में चिश्ती सिलसिले की स्थापना ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने की थी।
- यह 1192 ई. में पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के कुछ समय बाद भारत आए थे और दिल्ली व लाहौर में रहने के बाद अजमेर चले गए थे।
- बा-शरा-इस्लामी कानून (शरा) को मानने वाले थे।
- वे-शरा इस्लामी कानून (शरा) को नहीं मानते थे।
- मुताजिला- दसवीं सदी में अब्बासी खिलाफत का पतन हो गया और विश्वासों तथा विचारों का युग प्रारंभ हुआ और बुद्धिवादी दर्शन का महत्त्व कमजोर हुआ जिसे मुताज़िला कहा जाता था।
- हनीफी धारा को इस्लाम की चार धाराओं में सबसे उदारवादी धारा माना जाता था और इसी को पूरबी तुर्कों ने अपनाया और यही तुर्क बाद में भारत आए।
चिश्ती संतों के संदर्भ में
- चिश्ती संतों में निजामुद्दीन औलिया और नासिरुद्दीन चिराग-ए-देहली। सबसे अधिक प्रसिद्ध संत थे।
- ये सूफी संत निम्न वर्गों के लोगों के साथ निस्संकोच मिलते-जुलते थे। ये सादगी का जीवन व्यतीत करते थे और लोगों से हिंदी या हिन्दवी में बात करते थे।
चिश्ती सिलसिलों के संदर्भ में
- तेरहवीं से चौदहवीं सदी में उत्तर भारत में दो सिलसिलों का प्रभाव था, चिश्ती और सुहरावर्दी। यह दोनों बा-शरा विचारधारा को मानने वाले थे।
- भारत में चिश्ती सिलसिले की स्थापना ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने की। थी। इनके शिष्यों में बख्तियार काकी और काकी का मुरीद फरीदुद्दीन गंज-ए-शकर शामिल थे।
- सिखों के धर्म ग्रंथ ‘आदिग्रंथ’ में फरीदुद्दीन गंज-ए-शकर के | छंदों को शामिल किया गया। उनका दृष्टिकोण उदार और जीव दया की भावना से ओतप्रोत था।
समा’ के संदर्भ में
- समा’ सूफी संतों द्वारा अपनाई गई गायन शैली थी।
- सूफी संतों ने ‘समा’ के माध्यम से लोकप्रियता अर्जित की। यह गायन ऐसी चित्र-वृत्ति की सृष्टि करने में सहायक होती थी। जिसमें इन्हें । ईश्वर से सान्निध्य की अनुभूति होती थी। ये गायन हेतु हिंदी छंदों का प्रयोग किया करते थे।
चिश्ती और सुहरावर्दी संतों के संदर्भ में
- भारत में सुहरावर्दी संतों ने लगभग उसी समय प्रवेश किया था जब चिश्तियों का आगमन हुआ था।
- चिश्तियों के विपरीत सुहारावर्दी संत गरीबी का जीवन बिताने में विश्वास नहीं करते थे। इन्होंने राज्य की सेवा स्वीकार की तथा मजहबी विभाग में उच्च पदों हेतु नियुक्त किये गए थे। चिश्ती संत राज्य की राजनीति से अलग रहना ही पसंद करते थे और शाहों तथा अमीरों की संगति से दूर रहते थे।
- निजामुद्दीन औलिया यौगिक प्राणायाम में इतने पारंगत थे कि योगी लोग उन्हें ‘सिद्ध पुरुष’ कहा करते थे।
मध्यकालीन संत ‘कबीर’ के संदर्भ में
- कबीर पंद्रहवीं सदी में एकत्व के विचारक के रूप में उभरे। इन्होंने जाति प्रथा, अस्पृश्यता की घोर निंदा की। इन्होंने जाति, नस्ल, संपत्ति से होने वाले भेद-भाव का प्रबल विरोध किया।
- कबीर किसी भी मुगल शासक के समकालीन नहीं थे
- कबीर ने एकत्व पर जोर दिया तथा मूर्ति पूजा, तीर्थ-व्रत, गंगा स्नान, नमाज और अजान सब पर तीव्र प्रहार किया। वह यौगिक आधारों से परिचित थे।
नामदेव | महाराष्ट्र |
रामानंद | उत्तर प्रदेश (प्रयाग) |
नरसी मेहता | गुजरात |
गुरुनानक | पंजाब |
- संत रैदास को रविदास के नाम से भी जाना जाता था। इनके बहुत पद ‘गुरुग्रंथ साहिब’ में भी संकलित मिलते हैं। एक प्रचलित कहावत मन चंगा तो कठौती में गंगा’ इन्हीं के द्वारा कही गई थी।
अब्दुल वहीद बेलग्रामी | हकैक-ए-हिंदी |
नक्शबी | कोकशास्त्रा |
औरंगजेब | फतवा-ए-आलमगीरी |
गुलबदन बेगम | हुमायूँनामा |
भक्ति आंदोलन के संदर्भ में
- उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन के प्रतिपादक रामानन्द थे, जो रामानुजाचार्य के शिष्य थे।
- कबीर और नानक दोनों संतों ने मोक्ष की प्राप्ति हेतु ईश्वर भक्ति की विचारधारा को प्रोत्साहित किया।
- चौदहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में महाराष्ट्र में नामदेव ने भक्ति आंदोलन को काफी लोकप्रिय बनाया।
- दक्षिण में भक्ति का विकास सातवीं से बारहवीं सदी के बीच में हुआ और इसे शैव नयनारों तथा वैष्णव अलवारों द्वारा लोकप्रियता प्राप्त हुई. जिन्होंने स्थानीय भाषाओं का प्रयोग कर ईश्वर भक्ति को बढ़ावा दिया।
गुरुनानक’ के संदर्भ में
- निपथ या निःपक्ष मार्ग का अनुमोदन संत कवि दादू दयाल ने किया एवं परमब्रह्म सम्प्रदाय की स्थापना कर गुजरात एवं राजस्थान में भक्ति का प्रचार-प्रसार किया।
मध्यकालीन संत | संबंधित राज्य |
मीरा | राजस्थान |
सूरदास | उत्तर प्रदेश |
चैतन्य | बंगाल |
- ऊपर वर्णित सभी संत कृष्ण भक्ति से संबंधित थे। यह अपने सम्प्रदाय | में सभी जातियों एवं धर्मों के लोगों का स्वागत करने को तैयार थे।
मध्यकालीन भारत के संत ‘चैतन्य’ के संदर्भ में
- चैतन्य ने पूरे भारत में भक्ति को लोकप्रिय बनाया खासतौर पर पूर्वी भारत में इनके अनुयायी अधिक थे जिनमें हिन्दू, मुस्लिम और निम्न जातियाँ शामिल थीं। इन्होंने मूर्तिपूजा व धर्मग्रंथों का विरोध नहीं किया।। इन्हें परम्परावादी दार्शनिक नहीं माना जाता है।।
सूफीमत’ के संदर्भ में
- पंद्रहवीं सदी और सोलहवीं सदी के प्रथम चरण में भक्ति व सूफी मतों का एक मंच था जिसने विचारों के एक संकलन को तैयार किया जो जीवमात्र की एकता का अरबी सिद्धांत ‘तौहीद-ए-वजूदी’ में वर्णित है। ‘इब्न-ए-अरबी’ एक अरब दार्शनिक है।
- अमीर खुसरो का जन्म 1252 ई. में पटियाली (पश्चिमी उत्तर प्रदेश का बदायूँ) में हुआ था। इन्हें भारतीय होने पर गर्व था। यह एक कुशल संगीतज्ञ थे और निजामुद्दीन औलिया की सभा में भाग लेते थे। इन्हें ‘नायक’ के नाम से भी जाना जाता था।
अमीर खुसरो’ के संदर्भ में
- अमीर खुसरो संगीत के सिद्धांत और व्यावहारिक प्रयोग में पारंगत थे। उन्हें सितार के आविष्कार करने का श्रेय दिया जाता है।
- तबले के आविष्कार का श्रेय भी खुसरो को प्राप्त है।
- उन्होंने अरबी-फारसी मूल के राग ‘एमन’ और ‘घोर’ को भारतीय संगीत में शामिल किया।
- फिरोज तुगलक के शासनकाल में संगीत पर मानक भारतीय ग्रंथ ‘रागदर्पण’ का फारसी में अनुवाद किया गया।
- मान कौतूहल एक प्रकार की संगीत से संबंधित रचना है। जिसे ग्वालियर के राजा मानसिंह के तत्त्वावधान में तैयार किया गया था। इसमें मुसलमानों द्वारा भारतीय संगीत में दाखिल की गई सभी पद्धतियों का वर्णन है।
विज्ञानेश्वर | मिताक्षरा |
फकिरुल्लाह खान | राग दर्पण |
मलिक मो. जायसी | पद्मावत |
कल्हण | राजतरंगिणी |
- जिया नक्शबी दिल्ली सल्तनत में ऐसा पहला व्यक्ति था जिसने संस्कृत कथाओं का फारसी में अनुवाद किया फिरोजशाह तुगलक के शासनकाल में ‘तूतीनामा’ फारसी में लिखी गई, जिसका अनुवाद तुर्क एवं यूरोपीय भाषाओं में किया गया था।
मध्यकालीन भारत में बंगाल के शासकों के संदर्भ में
- मध्यकालीन भारत में जब भाषाएँ एक खास मंजिल तय कर चुकी थीं तो मुस्लिम शासकों ने साहित्यिक प्रयोजनों हेतु उन्हें प्रोत्साहित किया। तभी नुसरत शाह ने महाभारत व रामायण का बांग्ला भाषा में अनुवाद कराया।
- इसी के संरक्षण में मालाधर बसु ने भागवत का भी बांग्ला में अनुवाद किया।
Satish Chandra Medieval History: उत्तर भारत में साम्राज्य के लिये संघर्ष – II
मुगल और स्थापना (1525-1555ई.)
बाबर के संदर्भ में
- 1494 ई. में 14 वर्ष की उम्र में बाबर ट्रांस ऑक्सियाना के फरगना नामक एक छोटे से राज्य का शासक बना।
- बाबर ने 1504 ई. में काबुल पर अधिकार किया था। वह कहता था कि, “काबुल से लेकर पानीपत में हासिल जीत तक मैंने हिन्दुस्तान को जीतने के बारे में सोचना कभी बंद नहीं किया था।”
- बाबर के पिता तैमूर वंशज और माता मंगोल वंशज थी। बाबर ने जिस नवीन वंश की नींव डाली, वह तुर्की नस्ल का ‘चंगताई वंश’ था। जिसका नाम चंगेज खाँ के द्वितीय पुत्र के नाम पर पड़ा, परंतु आमतौर पर उसे ‘मुगल वंश’ पुकारा गया।
बाबर के संदर्भ में
- बाबर के पास पंजाब के सूबेदार दौलत खाँ के बेटे दिलावर खाँ के नेतृत्व में एक दूतमंडल भेजा गया था, जिसने बाबर को भारत आने के लिये निमंत्रित किया और उसी समय राणा सांगा ने भी बाबर को पत्र भेजा था और कहा कि वह इब्राहिम लोदी को अपदस्थ कर दे जब बाबर ने भारत में प्रवेश किया था उस समय पंजाब में अफगान सरदार दौलत खाँ लोदी स्वतंत्र रूप से शासन कर रहा था।
लड़ाई | संबंधित वर्ष |
पानीपत की लड़ाई | अप्रैल 1526 ई. |
खानवा की लड़ाई | मार्च 1527 ई. |
चौसा की लड़ाई | जून 1539 ई. |
कन्नौज की लड़ाई | मई 1540 ई. |
बाबर के संदर्भ में
- पानीपत की लड़ाई में बाबर ने रक्षा प्राचीर का उपयोग किया था। इस युक्ति को बाबर ने उस्मानिया (रूसी) युक्ति कहा, क्योंकि उस्मानियों ने ईरान के शाह इस्माइल के खिलाफ इस युक्ति का प्रयोग किया था।
- पानीपत की लड़ाई में दो उस्मानियाई तोपची उस्ताद अली और मुस्तफा ने बाबर का साथ दिया था।
- बाबर का कहना है कि उसने सर्वप्रथम बारूद का इस्तेमाल ‘भिरा’ का किला जीतने हेतु किया था। यद्यपि भारत को बारूद की जानकारी थी, लेकिन उत्तर भारत में इसका आम तौर पर उपयोग बाबर के आगमन पर ही शुरू हुआ।
पानीपत की लड़ाई’ के संदर्भ में
- पानीपत की लड़ाई बाबर और इब्राहीम लोदी के बीच लड़ी गई थी, जिसमें लोदी शक्ति की रीढ़ टूट गई और बाबर ने दिल्ली तथा आगरा पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था।
- बाबर अपनी जीत के बाद अपने सैनिकों और धनुर्धरों को कहता है कि भारत के लोगों ने ‘बला की मुखालफत’ दिखाई है (मुगल सेना के पहुँचते ही गाँव छोड़कर चले जाना)।
खानवा की लड़ाई’ के संदर्भ में
- 26 जनवरी, 1530 ई. को बाबर की आगरा में मृत्यु हुई। बाद में उसका शव काबुल ले जाकर दफनाया गया, जहाँ उसका मकबरा बना हुआ है।
बाबर के संदर्भ में
- बाबर को एशिया के दो पराक्रमी योद्धा चंगेज खाँ और तैमूर का वंशज होने का गौरव प्राप्त था। इसीलिये उसका कोई भी सरदार उसके साथ समानता का दावा नहीं कर सकता था।
- बाबर को अरबी और फारसी का गहरा ज्ञान था साथ ही तुर्की | उसकी मातृभाषा थी। उसने तुजुक ए बाबरी को तुर्की में लिखा, जो विश्व साहित्य की एक अमर कृति मानी जाती है।
हुमायूँ के संदर्भ में
- बाबर की मृत्यु के बाद दिसंबर 1530 ई. में हुमायूँ आगरा की गद्दी पर बैठा। उस समय वह 23 वर्ष का था।
- 1532 ई. में दौराह (बिहार) नामक स्थान पर अफगान सेना को परास्त करते हुए हुमायूँ ने चुनार पर घेरा डाला जो ‘पूर्वी भारत के प्रवेश ‘द्वार’ के रूप में जाना जाता था जो कि अफगान सरदार शेर खाँ के अधिकार क्षेत्र में था। यहीं पर हुमायूँ का सामना शेर खाँ से हुआ था।
- हजरत-ए-आला की उपाधि शेरशाह ने नुसरत शाह को पराजित करने के बाद धारण की थी। अतः कथन (d) असत्य है। चौसा के युद्ध में हुमायूँ को पराजित करने के बाद शेरशाह सूरी ने ‘शेरशाह’ की उपाधि धारण की थी।
- 1555 ई. में हुमायूँ की मृत्यु के बाद उसकी प्रिय पत्नी ने किले के निकट उसका मकबरा बनवाया, जो उत्तर भारत की स्थापत्य शैली में एक नए दौर की शुरुआत का सूचक है। संगमरमर का भव्य गुंबद इसकी सबसे बड़ी विशेषता है।
‘शेर खाँ’ के संदर्भ में
- 1535-1537 ई. के बीच जब हुमायूँ आगरा में मौजूद नहीं था, उसी समय शेर खाँ ने अपनी स्थिति बिहार व बंगाल में मजबूत की और वहाँ का स्वामी बन गया।
- जब 1537 ई. में हुमायूँ ने शेर खाँ के खिलाफ कूच किया और चुनार के किले पर कब्जा किया, उस समय धोखे से शेर खाँ ने ‘रोहतास’ के किले पर कब्जा कर लिया, जिससे वह उत्तर-पश्चिमी सीमा की सुरक्षा सुदृढ़ कर सके।
शेरशाह के संदर्भ में
- शेरशाह ने हिंदी के विद्धानों को संरक्षण दिया। उसी के समय मलिक मोहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ नामक ग्रंथ की रचना की थी।
- शेरशाह ने पश्चिम में सिंधु नदी से लेकर बंगाल में सोना गाँव तक पहुँचने वाली पुरानी शाही सड़क को फिर से शुरू करवाया जिसे उसने ग्रांड ट्रंक रोड का नाम दिया।
शेरशाह की ‘प्रशासनिक व्यवस्था’ के संदर्भ में
- शेरशाह ने सल्तनत में प्रचलित प्रशासनिक व्यवस्था में ज्यादा परिवर्तन न करते हुए उसी को लागू रखा। कई गाँवों को मिलाकर परगना बनता था, जो शिकदार के जिम्मे होता था।
- मुसिफ भू-राजस्व की उगाही की देखरेख करने वाले अधिकारी होते थे।
- शेरशाह के मुद्रा संबंधी सुधार से व्यापार और शिल्प को बढ़ावा मिला। उसने मिश्रित धातु की जगह सोने, चांदी और तांबे के मानक सिक्के ढलवाए।
- शेरशाह का साम्राज्य बंगाल से लेकर सिंधु नदी तक फैला हुआ था, परन्तु उसमें कश्मीर शामिल नहीं था। पश्चिम में वह मालवा, राजस्थान को भी जीत चुका था।
शेरशाह की ‘भू-राजस्व प्रणाली’ के संदर्भ में
- शेरशाह ने भिन्न-भिन्न प्रकार की फसलों में राज्य का हिस्सा निर्धारित करने के लिये दरों की सूची, जिसे ‘रे’ कहा जाता था, का प्रचलन प्रारंभ किया।
- उसने भूमि को उत्तम, मध्यम और निम्न स्तर पर बाँट दिया और राज्य का हिस्सा उपज का एक-तिहाई निर्धारित किया।
- बोई गई जमीन के क्षेत्रफल, लगाई गई फसलों की किस्में और प्रत्येक किसान द्वारा दिये गए लगान को कागज में दर्ज किया जाता था, जिसे पट्टा कहते थे।
शेरशाह के ‘सैन्य बल’ के संदर्भ में
- शेरशाह ने घोड़ों पर शाही निशान लगवाए, ताकि कोई उनके बदले घटिया दर्जे के घोड़े का इस्तेमाल न करे।
- उसने दाग प्रणाली का ज्ञान अलाउद्दीन खिलजी से उधार लिया था।
- शेरशाह हर सिपाही की सीधी भर्ती करता था और उसके रंगरूप और चरित्र की जाँच के लिये सबका व्यक्तिगत दस्तावेज तैयार करवाता था, जिसे वह ‘चेहरा’ कहता था।
- वह सिपाहियों को नकद रूप में वेतन देता था, जबकि किसानों को छूट थी कि वह चाहें तो नकद या अनाज में भू-राजस्व दे सकते थे।
मुगलकाल में ‘शेरमंडल’
- मुगलकाल में हुमायूँ एक ऐसा शासक था, जिसने पुस्तकालय का निर्माण करवाया था और उसे वह शेरमंडल कहता था।
मुगल शासक | संबंधित मकबरा |
हुमायूँ का मकबरा | दिल्ली |
शेरशाह का मकबरा | सासाराम (बिहार) |
जहाँगीर का मकबरा | लाहौर |
अकबर का मकबरा | सिकंदरा (आगरा के निकट) |
Satish Chandra Medieval History : मुगल साम्राज्य का दृढ़ीकरण ( अकबर का काल)
अकबर के सन्दर्भ में
- अकबर ने जब सिंहासन संभाला उससे पहले वह पंजाब में कालानौर नामक स्थान पर अफगान विद्रोहियों के खिलाफ युद्धरत मुगल फौज की कमान सँभाले हुए था।
- अकबर ने हुमायूँ के विश्वस्त तथा प्रिय अधिकारी बैरम खाँ को ‘खान-ए-खाना’ की उपाधि दी। क्योंकि तमाम विपरीत परिस्थितियों में उसने सामर्थ्य का परिचय दिया था।
- हेमू, आदिलशाह की सेवा में था और वह बाईस लड़ाइयाँ लड़ चुका था और एक में भी उसने हार का सामना नहीं किया था। अतः आदिलशाह ने उसे ‘विक्रमाजित’ की उपाधि देकर उसे अपना वजीर नियुक्त कर लिया था।
- अकबर ने अपने सौतेले भाई आदम खाँ को मालवा पर आक्रमण करने वाली सेना का नेतृत्व प्रदान किया था।
अकबर के संदर्भ में
- 5 नवंबर 1556 ई. में पानीपत के मैदान में हेमू के नेतृत्व में अफगान सेना तथा मुगल सेना की भिड़ंत हुई जिसमें मुगल सेना ने जीत हासिल की।
- उमरा वर्ग में उजबेकों का एक शक्तिशाली वर्ग था जो पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और मालवा में कई महत्त्वपूर्ण पदों पर आसीन थे। इनकी शक्ति को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिये अकबर ने अपनी राजधानी जौनपुर में बना ली थी।
रानी दुर्गावती’ के संदर्भ में
- संग्रामशाह (अमनदास) ने अपने बेटे का विवाह चंदेल राजघराने की एक राजकुमारी से करा दिया था जो इतिहास में रानी दुर्गावती के नाम से जानी जाती है।
- इलाहाबाद के सूबेदार आसफ खाँ ने रानी की दौलत और सौंदर्य की चर्चा सुनी थी तभी उसने बुंदेलखंड की ओर बढ़ते हुए गढ़ी पर आक्रमण किया जहाँ उसका सामना रानी दुर्गावती से हुआ था।
अकबर की गुजरात विजय के संदर्भ में
- अकबर के गुजरात अभियान का एक कारण विद्रोही मिर्जाओं को गुजरात में शक्तिशाली होने से रोकना था क्योंकि मिर्जाओं ने गुजरात में शरण ली थी।
अकबर की भू-राजस्व नीति के संदर्भ में
- अकबर की भूमि राजस्व निर्धारण प्रणाली को ‘जब्ती’ कहा जाता दहसाला प्रणाली जब्ती का सुधरा हुआ रूप था। है।
- अकबर के अधीन राजस्व निर्धारण की कई इकाइयाँ प्रचलित थीं। इनमें सबसे पुरानी प्रणाली बटाई या गल्ला बख्शी थी। इसमें ‘उपज’ निर्धारित अनुपात में किसानों व राज्य में बाँट दी जाती थी।
- अकबर ने एक तीसरी प्रणाली का भी उपयोग राजस्व निर्धारण में किया जिसे ‘नसक’ कहा जाता था। इसमें फसल का निरीक्षण और अतीत के अनुभव दोनों के आधार पर अंदाजा लगाकर पूरे गाँव द्वारा देय राशि तय की जाती थी। इसे ‘कंकूत’ या ‘आकलन’ भी कहते हैं।
- करोरी भू-राजस्व वसूलने वाले अधिकारी थे जिनमें से प्रत्येक को एक करोड़ ‘दाम’ (2,50,000 रुपए) वसूल करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई।
नियमित रूप से कृषि वाली भूमि | पोलज |
एक या दो वर्ष खाली छोड़ने के बाद खेती करना | परती |
दो से तीन वर्ष परती रहना | चाचर |
चार से पाँच वर्ष या इससे अधिक वर्ष वाली परती भूमि | बंजर |
अकबर की भू-राजस्व व्यवस्था के संदर्भ में
- अकबर ने कृषि सुधार विस्तार पर विशेष बल दिया और अमलों को आदेश दिया कि वह किसानों को बीज, औजार और पशु आदि के लिये तक्कावी (ऋण) को आसान किस्तों में प्रदान करें।
- हर इलाके के जमींदार प्रत्येक अमल (करोड़ी) के प्रयत्नों पर सहयोग करते थे और उपज का एक हिस्सा वंशानुगत हक के रूप में वसूल करते। थे। उसे मौरूसी (वंशानुगत) कहा जाता था।
- दहसाला प्रणाली किसी भी प्रकार का दहसाला बंदोबस्त नहीं था और न ही यह स्थायी बंदोबस्त था। राज्य को उसमें परिवर्तन करने का अधिकार प्राप्त था।
- जब्ती व्यवस्था (प्रणाली) का संबंध राजा टोडरमल से जोड़ा जाता है। अतः इसे टोडरमली व्यवस्था भी कहते हैं। अकबर के शासन में टोडरमल एक उच्च कोटि का राजस्व अधिकारी था। इसने कुछ समय तक शेरशाह के अधीन भी कार्य किया था।
अकबर की मनसबदारी पद्धति के संदर्भ में
- अकबर ने मनसबदारी पद्धति का प्रयोग करके अपने साम्राज्य का अभूतपूर्व विस्तार किया और उस पर नियंत्रण भी बनाए रखा था।
- अकबर ने शाही घराने के लोगो को ऊँचा मनसब प्रदान किया था।
- अकबर की मनसबदारी प्रथा जात और सवार में विभाजित थी।
अकबरकालीन सैन्य व्यवस्था के संदर्भ में
- अकबर ने शेरशाह द्वारा अपनाई गई ‘चेहरा पद्धति’ और अलाउद्दीन खिलजी द्वारा अपनाई गई ‘दाग पद्धति’ का उपयोग अपनी सैन्य व्यवस्था को मजबूत बनाने हेतु किया था।
- अकबर को जागीर प्रथा पसंद नहीं थी, लेकिन उसकी जड़ें इतनी मजबूत थी कि वह उसे मिटाने में असफल रहा।
- अकबर ने हर अमीर या सरदार की सैन्य टुकड़ी में मुगल, पठान, हिन्दुस्तानी और राजपूत सैनिक रखने को अनिवार्य बनाया ताकि कबायिली और संकीर्णतावादी शक्तियों को कमजोर कर सके।
- अकबर ने सशक्त नौसेना पर विचार नहीं किया। एक सशक्त नौसेना का अभाव मुगलकाल में हमेशा बना रहा,
अकबर की प्रशासनिक व्यवस्था के संबंध में
- अकबरकालीन प्रशासनिक व्यवस्था में दीवान-ए-आला को नियुक्त किया गया जो आय-व्यय हेतु जिम्मेदार था और खालसा, जागीर तथा इनाम भूमि पर नियंत्रण रखता था।
- सैन्य विभाग का प्रधान मीरबख्शी था।
- अकबर की प्रशासनिक व्यवस्था में न्याय विभाग चौथा प्रमुख विभाग था, जिसका प्रधान आला काजी या आला सदर था
- मुगल काल में साम्राज्य की खुफिया और सूचना विभाग के भी अधिकारी थे, जिसमें खुफिया अधिकारी ‘बरीद’ था और सूचना अधिकारी वाकियानवीस था।
अकबर के संदर्भ में
- मीर सामान सम्राट की गृहस्थी का प्रबंध करने वाला प्रधान अधिकारी होता था। हरम की जरूरतों का सारा सामान वहीं जुटाता था और वही व्यवस्था करता था।
- अकबर अपनी धार्मिक व कल्याणकारी नीतियों के लिये भी जाना जाता है, उसने हिन्दू शाही राजघरानों से अच्छे संबंध कायम किये थे और इसी के आधार पर ‘तीर्थयात्रा कर’ को समाप्त कर दिया. हिन्दुओं पर से ‘जजिया कर’ को समाप्त कर दिया. सती प्रथा पर रोक लगाई और शराब बिक्री पर भी प्रतिबंध लगाया।
हल्दीघाटी की लड़ाई’ के संदर्भ में
- हल्दीघाटी की लड़ाई अकबर और राणा प्रताप के बीच लड़ी गई थी। परंतु इसके निर्णायक रूप लेने से पहले ही 1597 ई. में तीर लगने से राणा की मृत्यु हो गई थी।
- राणा के भीलों के साथ मैत्री संबंध थे तथा उन्होंने राणा की मदद की थी।
- राणा प्रताप ने आधुनिक दूँगरपुर के निकट ‘चावंड’ में एक नई राजधानी बसाई।
- मेवाड़ के अलावा अकबर को मारवाड़ में भी विरोध का सामना करना पड़ा था।
- अकबर के मनसब में दो मनसबदार गैर-राजपूत थे, राजा टोडरमल और बीरबल इसमें बीरबल का नाम महेशदास था।
- अकबर विभिन्न धर्मों को मानने वाला मुगल शासक था। इसने पुर्तगाली पादरियों को अपने दरबार में आमंत्रण हेतु अपना एक दूतमंडल गोवा भेजा था और निवेदन भेजा कि दो मिशनरी विद्वान दरबार में भेज दिये जाएँ। इनमें अक्वावीवा और मौनसेरट आए थे। जहाँ वे लगभग तीन वर्ष रहे।
▪︎ शाहजादा खुर्रम शाहजहाँ का नाम था।
अकबर की विजय | संबंधित वर्ष |
सिंध विजय | 1590 ई. |
गुजरात विजय | 1572 ई. |
काबुल विजय | 1581 ई. |
हल्दीघाटी युद्ध | 1576 ई. |
Satish Chandra Medieval History: दक्कन और दक्षिण भारत (1656 ई. तक )
चाँदबीबी के संदर्भ में
- चाँदबीबी मुगल शासक अकबर के समकालीन थीं।
- चाँदबीबी ने समझौते के माध्यम से मुगलों की अधीनता स्वीकार की। थी।
बीजापुर के शासक इब्राहिम आदिलशाह के संदर्भ में
- सोलहवीं सदी में दक्कनी शासकों ने मराठों को अपने पक्ष में करने की निश्चित नीति पर काम करना शुरू कर दिया था। बीजापुर का शासक इब्राहिम आदिलशाह जो 1535 में गद्दी पर बैठा इस नीति का हिमायती थी। कहा जाता है कि उसने अपनी सेना में 30,000 मराठा | बारगियों को स्थान दिया और राजस्व प्रबंधन में मराठों को तरजीह दी।
- इसने राजस्व प्रबंधन में मराठों को तरजीह दी थी तथा राजस्व लेखे के सभी स्तरों पर मराठी भाषा के प्रयोग का श्रेय भी इसे दिया जाता है।
•मलिक अंबर ने दक्कन में मराठों के सहयोग से मुगलों का प्रतिरोध किया था।
मुगलकाल में दक्षिणी राज्यों के संदर्भ में
- गोलकुंडा का शासक सुल्तान मोहम्मद कुली कुतुबशाह अकबर का समकालीन था। जो साहित्य और कला का बहुत बड़ा प्रेमी था।
- इब्राहीम आदिलशाह जो कि बीजापुर का शासक था ने शाहजहाँ के
साथ संधि की थी।
- 1672 ई. से 1687 ई. तक की अवधि में गोलकुंडा के मुगल साम्राज्य में मिला लिये जाने तक मदन्ना और अकन्ना, जो दोनों भाई थे, का वहाँ के प्रशासनिक और सैनिक मामलों में बोलबाला था।
- ‘किताब-ए-नौरस’ बीजापुर के शासक इब्राहीम आदिलशाह ने लिखी थी। इसमें गीतों को प्रमुख रागों में बांधकर प्रस्तुत किया गया है।
इब्राहीम आदिलशाह के संबंध में
- इब्राहीम आदिलशाह नौ वर्ष की उम्र में गद्दी पर बैठ गया था। यह गरीबों की भलाई का बहुत ख्याल रखता था। इसलिये इसे ‘अबला बाबा’ या ‘गरीबों का दोस्त’ कहा जाता था।
- इब्राहिम आदिलशाह का मकबरा ‘इब्राहीम रौजा’ और ‘गोलगुंबद ‘ बीजापुर की प्रसिद्ध इमारतों में शामिल हैं।
- इब्राहीम आदिलशाह का व्यापक दृष्टिकोण होने के कारण उन्हें जगद्गुरु की उपाधि प्राप्त थी।
चारमीनार’ के संदर्भ में
- चारमीनार का निर्माण मुहम्मद कुली कुतुबशाह द्वारा कराया गया था।
- यह हैदराबाद नगर के बीच में स्थित है, जो कि कुतुबशाह ने ही बसाया था।
- इसकी मुख्य सुंदरता इसकी चारमीनारों में निहित है, जो चार मंजिलों में बनी है, जिसमें से प्रत्येक की ऊँचाई 48 मीटर है।
Satish Chandra Medieval History: सत्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भारत
मुगलकाल के संदर्भ में
- मुगलकालीन प्रशासनिक व्यवस्था में शासक वर्गों की बढ़ती हुई समृद्धि का फल किसानों और मजदूरों तक नहीं पहुँच पाया था।
- मुगल शासक वर्ग पश्चिमी दुनिया में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के विकास से बेखबर रहे।
जहाँगीर की ‘बंगाल विजय’ के संदर्भ में
- 1600 ई. में जहाँगीर ने सूफी संत सलीम चिश्ती के पौत्र इस्लाम खाँ को बंगाल में नियुक्त किया था।
- जब जहाँगीर ने बंगाल विजय हासिल की थी उस समय अफगान शासक वहाँ पर शासन कर रहे थे।
शाहजहाँ द्वारा जहाँगीर के खिलाफ किये गए विद्रोह के संबंध में
- विद्रोह का तात्कालिक कारण शाहजहाँ का कंदहार जाने से इनकार कर देना था। कंदहार पर ईरानियों ने आक्रमण कर दिया था और शाहजहाँ को उनसे निपटने हेतु भेजा जा रहा था। परंतु शाहजहाँ को आशंका थी कि यह युद्ध लंबा चलेगा तथा उसकी अनुपस्थिति में दरबार में उसके खिलाफ साजिश की जाएगी। इसलिये शाहजहाँ ने तरह-तरह की शर्तें रखीं जैसे-सेना की पूरी कमान उसके हवाले करना, महत्त्वपूर्ण किलों पर नियंत्रण इत्यादि ।
- जहाँगीर उसके इस रवैये से आग-बबूला हो उठा तथा उसने शाहजहाँ को कड़े पत्र लिखे और उसे दंडित करने के लिये कदम उठाए। परिणामस्वरूप ऐसी स्थिति में शाहजहाँ ने खुलेआम विद्रोह कर दिया।
- महाबत खाँ ने इस विद्रोह को दबाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
- विद्रोह के दौरान शाहजहाँ को मुगलों की दकनी सेना का पूरा समर्थन प्राप्त था और वहाँ तैनात सभी सरदार उसके साथ थे। इसके अलावा गुजरात एवं मालवा ने भी उसके समर्थन की घोषणा कर दी थी।
मुगलों की विदेश नीति के संदर्भ में
- मुगलों ने उजबेकों से निपटने हेतु सफादियों से आपसी गठबंधन कर लिया था।
- उजबेक सांप्रदायिक मतभेदों का लाभ उठाना चाहते थे। परन्तु मुगलों ने ईरान के साथ संधि संबंध कायम कर लिये थे। अ
- मुगलों ने ईरान के खिलाफ त्रिपक्षीय गठबंधन में शामिल होने से इनकार कर दिया क्योंकि इससे एशिया का शक्ति संतुलन बिगड़ सकता था और ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती थी कि उन्हें उजबेकों का सामना अकेले करना पड़ता।
मुगल-ईरानी संबंधों के संदर्भ में
- औरंगजेब ने कदंहार से चलने वाले संघर्ष को आगे जारी न रखने का फैसला किया और चुपचाप ईरान के साथ कूटनीतिक संबंध आरंभ कर दिया था।
- मुगल उत्तर-पश्चिम सीमा पर एक वैज्ञानिक सीमा कायम रखने में कामयाब हुए उन्होंने इस सीमा को कूटनीतिक नीति से सफल बनाए रखा।
मुगलों की विदेश नीति के संदर्भ में
- मुगलों की विदेश नीति की विशेषता थी कि उन्होंने उस समय के प्रमुख एशियाई देशों के साथ समानता के संबंधों को बनाए रखा था।
- मुगलों ने अपनी विदेश नीति का इस्तेमाल भारत के व्यापारिक हितों को साधने हेतु किया था। उस समय काबुल और कदंहार एशिया के दो प्रमुख व्यापारिक द्वार थे।
मुगलों की मनसबदारी व्यवस्था’ के संबंध में
- अकबर द्वारा स्थापित मनसबदारी व्यवस्था को जहाँगीर और शाहजहाँ ने मामूली फेरबदल के बाद जारी रखा। अकबर की अपेक्षा जहाँगीर सैनिक टुकड़ी के खर्च के लिये मनसबदार को प्रतिवर्ष प्रति सवार कम वेतन देता था।
- मुगल दरबार में सवार अलग-अलग राष्ट्र व राज्य के होते थे। अतः उनको राष्ट्रीयता और घोड़ों के स्तर के अनुसार वेतन दिया जाता था
- मुगल शासक मिश्रित सैनिक टुकड़ियों को भर्ती करने के पक्ष में थे। उन्होंने हर टुकड़ी में ईरानी, तूरानी, मुगल, भारतीय अफगान और मुसलमान को बराबर-बराबर रखने की व्यवस्था की थी।
- मनसबदारी व्यवस्था की तरह जहाँगीर ने एक नई व्यवस्था (प्रणाली) आरंभ की थी जिसके तहत कुछ खास-खास सरदारों को जात दर्जे में कोई वृद्धि किये बिना अधिक सवार रखने की इजाजत दी जाती थी। उसे ही दु-अस्पाहसी अस्पाह पद्धति (प्रणाली) कहते थे।
मनसबदारी प्रणाली के संदर्भ में
- शाहजहाँ के अधीन मनसबदारी व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रही इसका कारण यह था कि उसने प्रशासन की ओर बहुत सावधानी से ध्यान दिया और अधिकारियों के रूप में बहुत सोच समझकर सुयोग्य व्यक्तियों का ही चयन किया था।
अहदियों के संदर्भ में
- मनसबदारों के अलावा खुद मुगल बादशाह भी फुटकर घुड़सवार रखते थे। जिन्हें ‘अहदी’ कहा जाता था।
- अहदियों के कर्त्तव्य बहुमुखी होते थे। इन्हें क्लर्क और सहायकों (एडजुटंटों) के पदों में भी नियुक्त किया जाता था।
- अहदी विश्वस्त सैन्य दल के सदस्य होते थे, जिनकी नियुक्ति बादशाह स्वयं करता था और इनकी हाजिरी लेने के लिये एक अलग अधिकारी होता था। इनका वेतन अन्य घुड़सवारों से अधिक था।
Satish Chandra Medieval History: मुगलों के अधीन आर्थिक तथा सामाजिक जीवन
शेरशाह और अकबर के बीच भूराजस्व प्रशासन के संबंध में
- भूराजस्व प्रशासन की कड़ी के रूप में शेरशाह और अकबर के बीच टोडरमल था। जिसने पहले शेरशाह के दरबार में काम किया था। बाद में अकबर के दरबार में नियुक्त किया गया था
- अकबर ने सार्वभौमिक शांति व भाईचारा बनाए रखने के लिये ‘सुलहकुल’ की नीति अपनाई थी।
मध्यकालीन भारत के संबंध में
- भारत टिन और तांबे का आयात काँसा बनाने हेतु अन्य देशों से करता था।
- मध्यकाल में भारत में विदेशी व्यापार फल-फूल रहा था सत्रहवीं सदी में भारत चांदी और सोने का खूब आयात करता था।
- भारत में पुर्तगालियों का आगमन पंद्रहवीं सदी के अंत में हुआ था और उनका हास सोलहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुआ था।
- ओरमुज फारस की खाड़ी के मुहाने पर पुर्तगालियों का एक अड्डा था। जिसे 1622 में अंग्रेज़ों ने फारसी फौज की मदद से जीत लिया था।
मुगल काल में कृषि क्षेत्र से संबंधित तथ्यों के संदर्भ में
जोत का औसत | रकबा |
भूमिहीन किसान और मज़दूर (अस्पृश्य जातियाँ) | कमीन |
स्वयं की जमीन रखने वाले किसान | खुदकाश्त |
हल व बैल उधार लेने वाले गरीब किसान | मुजरियान |
- अंग्रेजों ने 1622 ई. में फारसी फौज की मदद से पुर्तगालियों के अड्डे ‘ओरमुज’ पर कब्जा कर लिया था।
- अंग्रेजों ने मद्रास में व्यापार के लिये ‘फोर्ट सेंट जार्ज’ में एक केन्द्र स्थापित किया था।
- साल्टपीटर से यूरोप के बारूद की कमी पूरी हुई तथा इसका प्रयोग जहाजों के भार को स्थिर करने के लिये भी किया जाता था।
- मध्य वर्ग का मतलब ऐसा वर्ग जिनका जीवन स्तर अमीरों एवं गरीबों के बीच का होता है। मुगलकालीन भारत में ऐसा वर्ग काफी बड़ा था जिसमें छोटे मनसबदार, दुकानदार तथा अन्य पेशेवर लोग शामिल थे।
- जब्ती प्रणाली के तहत भूराजस्व का निर्धारण नकदी में किया जाता था।
मुगलकाल के संदर्भ में
- सत्रहवीं सदी तक नई कृषि तकनीकों का आरंभ नहीं हुआ था।
- मुगलकालीन प्रशासन में विद्वानों, उलेमाओं आदि अन्य बहुत से पेशेवर लोगों को थोड़ी बहुत जमीन दान में दी जाती थी। ऐसी जमीनों को मुगल शब्दावली में मदद-ए-मआश और राजस्थान में शासन कहा जाता था।
मुगलकालीन सरदार वर्ग के संदर्भ में
- मुगलकाल में सरदार वर्ग की एक मुख्य भूमिका थी, जिसमें हिन्दू सरदारों का काफी बोलबाला था। शिवाजी के पिता शाहजी शाहजहाँ के शासनकाल में प्रमुख मराठा सरदार थे।
- शाहजहाँ के शासनकाल में मुगल सरदार वर्ग में हिन्दुओं का अनुपात 24 प्रतिशत था जो औरंगजेब के काल में 33 प्रतिशत हो गया था।
- औरंगजेब के शासनकाल में एक प्रमुख सरदार मीर जुमला था, जिसके पास जहाजों का एक बेड़ा था और वह फारस की खाड़ी, अरब और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ व्यापार किया करता था।
- मुगल सरदार वर्ग में कई असामान्य विशेषताएँ थीं। यह वर्ग नस्ली तौर से विभाजित था तथापि यह एक मिश्रित शासक वर्ग होता था जिसमें विभिन्न क्षेत्रों और धर्मों के लोग शामिल रहते थे।
- मुगलकाल में सरदार वर्ग का विशेष महत्त्व था, जिसमें अफगान, भारतीय मुसलमान और हिन्दू शामिल थे, जिसमें हिंदुओं का अनुपात बढ़ता रहा।
- हिन्दुओं के नए वर्ग ने मुगल सरदार वर्ग में प्रवेश किया, जो मराठा वर्ग था।
- पहला मुगल शासक जहाँगीर था, जिसने मराठों को दक्षिण में ‘मामलों का केंद्र’ के रूप में पहचाना था।
मुगलकालीन हुंडी के संदर्भ में
- मुगलकाल में हुंडी वित्तीय लेनदेन का एक माध्यम थी जो एक साखपत्र होती थी।
- हुंडी में अक्सर बीमे की राशि भी शामिल होती थी, जो बीमे की दर, माल के मूल्य एवं उसकी ढुलाई की पद्धति द्वारा निर्धारित की जाती है।
- मुद्रा का विनिमय करने वाले सर्राफ हुडियों के कारोबार के विशेषज्ञ थे। इस प्रक्रिया में वह खानगी बैंकों का भी काम करते थे।
जमींदारों के संदर्भ में
- मुगलकाल में जमींदार भूराजस्व की उगाही करते थे। इन्हें कई-कई गाँवों से भूराजस्व वसूलने का वंशानुगत अधिकार प्राप्त था।
- जमींदारों, सरदारों और राजाओं की अपनी सशस्त्र सेनाएँ होती थीं और जहाँ सेना रहती थी उस किले को ‘गढ़ी’ कहा जाता था।
- मुगलकाल में जमींदारों के स्थानीय नाम थे जैसे- देखमुख, पाटिल, नायक आदि।
- जाति, कुल या कबीले के आधार पर जमींदार अपनी जमींदारियों में बसे किसानों से घनिष्ठ रूप से प्रत्यक्ष जुड़े होते थे।
मुगलकालीन व्यापारी | संबंधित वर्ग |
अंतक्षेत्रीय स्तर के व्यापारी | बोहरा / मोदी |
स्थानीय एवं फुटकर व्यापारी | वणिक |
माल को एक स्थान से | बंजारा |
दूसरे स्थान ले जाने वाले व्यापारी परिवहन एजेंट | गुमाश्त |
- मुगलकाल में व्यापारियों के हर समुदाय का अपना एक नगर सेठ या अगुआ होता था जो स्थानीय अधिकारियों से बात करता था।
- मुगलकाल में सामान्य दर से चुंगी वसूल की जाती थी। सड़कों पर
- वसूल किये जाने वाले शुल्क को ‘राहदारी’ कहा जाता था।
- मुगलकाल में नदियों और समुद्री तटों पर नाथों के जरिये माल का परिवहन आज की अपेक्षा अधिक विकसित था। अतः जहाज बनाने हेतु गोदियाँ इन्हीं इलाकों में बनाई जाती थीं।
मुगलकालीन ‘व्यापार’ के संदर्भ में
- अठारहवीं सदी में कोरोमंडल तट के चेट्टी और मालाबार के मुसलमान व्यापारी, जिनमें हिन्दुस्तानी एवं अरब दोनों शामिल थे, दक्षिण भारत के सबसे प्रमुख व्यापारिक समुदाय थे।
मुगल शासकों के संदर्भ में
- मुगल शासक अकबर और औरंगजेब सभी तरह की तोप निर्माण में गहरी रुचि रखते थे।
- मुगलों ने चलती-फिरती तोपों का भी निर्माण कराया था।
- मुगल शासक शाहजहाँ ने 1651 ई. में समुद्री जहाजों के निर्माण का कार्यक्रम आरंभ किया था।
- भारत की इस्पात की तलवारों की मांग देश से बाहर भी थी। अतः इनका निर्यात भी किया जाता था।
▪︎ भारत में व्यापार हेतु पंद्रहवीं सदी के अंत में पुर्तगालियों का आगमन हुआ था। उसके बाद सत्रहवीं सदी में अनेक यूरोपीय व्यापारी भारत आए, जिसमें डच, अंग्रेज़ तथा फ्राँसीसी शामिल थे।
पुर्तगाली-डच अंग्रेज़-फ्राँसीसी |
▪︎ यह एक भारतीय कपड़ा था, जिसे अंग्रेज यूरोप को निर्यात करते थे और वहाँ इसे ‘केलिको’ कहा जाता था।
रेशमी कपड़ा | पटोला |
सशस्त्र सेनाओं का निवास स्थल | गढ़ी |
कृषि हेतु दिया गया ऋण | तक्कावी |
कारीगरों का मेहनताना | दस्तूर |
डचों’ के संदर्भ में
- 1600 ई. में डचों ने गोलकुंडा के शासक से फरमान हासिल कर मछलीपट्टम में अपनी पहली कोठी बनाई।
- डचों ने दक्षिण-पूर्व एशिया में मसालों के द्वीप (जावा और सुमात्रा) पर अपना वर्चस्व स्थापित किया था।
- डचों ने कोरोमंडल तट तक फैलाव करते हुए वहाँ के स्थानीय शासक से पुलीकट हासिल कर लिया था।
- सूरत में पहली फैक्ट्री अंग्रेजों ने बनाई थी।
यूरोपीय व्यापारियों के संदर्भ में
- यूरोपीय व्यापारियों की आपस में ही प्रतिस्पर्द्धा विकसित होने लगी और सत्रहवीं सदी के प्रथम चरण में डच और अंग्रेजों ने पुर्तगालियों के भारतीय व्यापार के एकाधिकार को खत्म कर दिया था।
- प्रारंभ में यूरोपीय व्यापारियों ने भारतीय व्यापारियों के माल को अपने जहाजों पर ढोना शुरू कर दिया था। साथ ही भारत में जहाजरानी का विकास हुआ जिसका प्रभाव विदेशी व्यापार और वस्तु-निर्माण के उद्योग की वृद्धि पर दिखाई देने लगा था।
- एशियाई व्यापार में बढ़ती हिस्सेदारी से अंग्रेज़ और डच ऐसी चीजों की तलाश में थे जिसे यूरोप निर्यात किया जा सके। प्रारंभ में नील और मिर्च का निर्यात किया गया। नील गुजरात के ‘सरखेज’ और आगरा के निकट ‘बयाना’ में सबसे अच्छा पैदा होता था।
अंग्रेज़ों के संदर्भ में
- अंग्रेज़ों ने 1618 ई. में जहाँगीर से फरमान प्राप्त कर सूरत में स्थापित फैक्ट्री को स्थायी बना लिया।
- 1622 ई. में अंग्रेजों ने फारसी फौज की मदद से ओरमुज पर कब्जा कर लिया था, जो पहले पुर्तगालियों के अधिकार क्षेत्र में था।
यूरोपीय व्यापारियों के संदर्भ में
(निर्यातित वस्तुएँ) | (संबंधित स्थान ) |
नील | गुजरात |
कपड़ा | कोरोमंडल |
कच्चा रेशम | बालासोर (उड़ीसा) |
साल्ट पीटर | बिहार |
- यूरोपीय व्यापारी गुजरात से नील का निर्यात करते थे।
- कोरोमंडल से कपड़े का निर्यात करते थे।
- हुगली और बालासोर से कच्चा रेशम तथा शक्कर का निर्यात करते थे।
- बिहार से ‘साल्ट पीटर’ निर्यात करते थे।
अठारहवीं सदी के भारतीय विदेश व्यापार के संदर्भ में
- अठारहवीं सदी की प्रारंभिक स्थिति में सर्वाधिक भारतीय विदेश व्यापार यूरोप के साथ हो रहा था।
- यूरोपीय व्यापारियों का भारत आने और यूरोप में बाजार विकसित होने से भारत के साथ यूरोप के अच्छे परिणाम दिखे जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी से विकास हुआ।
- उस समय वस्तुओं की अपेक्षा भारत में सर्वाधिक तेजी से सोना और चांदी आया जिससे सत्रहवीं सदी के अंत में वस्तुओं की कीमत बढ़ने लगीं। जिसका असर समाज के विभिन्न वर्गों पर पड़ा।
अंग्रेज़ व्यापारियों के संदर्भ में
- अंग्रेज सर्वप्रथम नील का निर्यात गुजरात से और कपड़े का निर्यात कोरोमंडल से करते थे उन्होंने मछलीपट्टनम में केंद्र बनाया कुछ समय बाद मद्रास में फोर्ट सेंट जॉर्ज को व्यापार का मुख्य केंद्र स्थापित किया था।
- अंग्रेजों ने पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में हुगली (पं. बंगाल) तथा उत्तर में सिंधु नदी से लेकर दक्षिण में मछलीपट्टनम तक अपना व्यापारिक वर्चस्व कायम किया था।
Satish Chandra Medieval History: सांस्कृतिक तथा धार्मिक गतिविधियाँ
मुगलकालीन बाग | संबंधित स्थान |
निशात बाग | कश्मीर |
शालीमार बाग | लाहौर |
पिंजोर बाग | पंजाब |
- आगरा स्थित लाल किला अकबर द्वारा बनवाया गया था। यह लाल बलुई पत्थर से बना है। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए शाहजहाँ ने दिल्ली में लाल किले का निर्माण कराया था।
बुलंद दरवाजा के संदर्भ में
- अकबर ने गुजरात विजय के बाद 1602 ई. में फतेहपुर सीकरी में इसका निर्माण करवाया था।
- बुलपे दरवाजे में जिस शैली का प्रयोग किया गया है उसे अर्द्धगुदीच दरवाजा कहते हैं।
- इस दरवाजे में प्रयुक्त शैली को ईरान से मुगलों ने ग्रहण किया था। जो बाद में मुगल इमारतों की खास विशेषता बन गई
- मुगल बादशाह औरंगजेब ने दिल्ली में मोती मस्जिद का निर्माण कराया था।
- जहाँगीर के शासनकाल के अंतिम वर्षों से संगमरमर की इमारतें बनवाने और दीवारों को अर्द्ध-मूल्यवान पत्थरों से बनी फूल-पत्तियों की आकृतियों से सजाने का चलन प्रारंभ हुआ जिसे ‘प्येत्रा द्यूरा’ कहते हैं। शाहजहाँ ने इसका प्रयोग ताजमहल में भी किया था।
शाहजहाँ के संदर्भ में
- शाहजहाँ के शासनकाल में मस्जिद निर्माण पराकाष्ठा पर पहुँच गया था। इसने आगरे के किले में मोती मस्जिद का निर्माण कराया था। जो ताज की तरह बनी हुई है।
- इसने लाल बलुआ पत्थर से दिल्ली में जामा मस्जिद का निर्माण कराया था जिसमें गुंबद मुख्य आकर्षण का केंद्र है।
- सिक्ख गुरु अर्जन देव को अकबर के दरबार में संरक्षण प्राप्त था।
मुगल चित्रकला के संबंध में
- चित्रकारी के क्षेत्र में मुगलों ने विशिष्ट योगदान दिया। इसे हुमायूँ से लेकर शाहजहाँ ने विशेष संरक्षण प्रदान किया था।
- मुगलों ने चित्रकारी में नए विषयों का समावेश किया, जैसे- दरबार के चित्र, शिकार के चित्र और युद्धों के दृश्यों को चित्रकारी में चित्रित करवाते थे।
- जसवंत और दसावन अकबर के दरबार के दो प्रसिद्ध चित्रकार थे।
- जहाँगीर चित्रकला का पारखी विद्वान था। उसके काल में चित्रकला अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच गई थी। वह दावा करता था कि वह किसी भी चित्र में अलग-अलग चित्रकारों की कला को पहचान सकता है।
- चित्रकारी की परंपरा शाहजहाँ के काल तक ही जारी रही क्योंकि औरंगजेब को चित्रकला में कोई रुचि नहीं थी।
- मंसूर जहाँगीर के दरबार का प्रसिद्ध चित्रकार था जिसे मानव व पशु की एकल आकृति बनाने में महारत हासिल थी।
फैजी’ के संदर्भ में
- फैजी फारसी का बहुत बड़ा विद्वान था और अबुल फजल का भाई था। यह अकबर के अनुवाद विभाग से संबंधित था।
- महाभारत का फारसी अनुवाद फैजी की देखरेख में किया गया था।
मुगलकालीन संगीत के संबंध में
- तानसेन को अकबर का संरक्षण प्राप्त था। इसे कई रागों की रचना का श्रेय भी दिया जाता है।
- औरंगजेब को संगीत में रुचि नहीं थी उसने अपने दरबार से गायन को खत्म कर दिया था, लेकिन वाद्ययंत्रों के वादनों को नही। वह एक कुशल वीणावादक था।
- औरंगजेब के शासनकाल में ही भारतीय शास्त्रीय संगीत पर फारसी में पुस्तकों की सर्वाधिक रचना की गई थी।
सिखों के संदर्भ में
- सिख आंदोलन का मूल गुरु नानक की शिक्षाओं में निहित था तथा उनका विकास गुरु परंपरा से घनिष्ठ रूप से संबंधित था।
- पाँचवे गुरु अर्जन देव ने सिखों के धर्मग्रंथ ‘आदिग्रंथ’ का संकलन पूरा किया था।
- अर्जन देव ने कहा कि गुरु में आध्यात्मिक और आधिभौतिक दोनों प्रकार का नेतृत्व समाहित है। इस विचार पर जोर देते हुए ऐश्वर्यपूर्ण जीवन शैली अपनाने पर जोर दिया था।
मुगल- सिख संघर्ष के संदर्भ में
- अकबर सिख गुरुओं से बहुत प्रभावित था वह उनसे मिलने अमृतसर जाया करता था परंतु जहाँगीर के समय दोनों के बीच संघर्ष प्रारंभ हो गया था।
- जहाँगीर ने आरोप लगाया कि गुरु अर्जन देव ने शाहजादा खुसरो की मदद पैसे और प्रार्थना से की। अतः उसने अर्जन देव और उनके उत्तराधिकारी गुरू हरगोविंद को भी कुछ समय के लिये कैद में रखा था।
- सिख और मुगल शासकों के बीच संघर्ष का कारण धार्मिक न होकर व्यक्तिगत और राजनीतिक था।
- गुजरात में जन्में संत दादू ने ‘निपख’ (निष्पक्ष) यानी ‘असांप्रदायिक पंथ’ की शिक्षा दी तथा ब्रह्म की अखण्डता पर जोर दिया। अतः युग्म । सुमेलित नहीं है।
- बंगाल के नादिया जिले के रघुनंदन ने रूढ़िवादी हिंदुओं की भावनाओं को स्वर दिया। इनके अनुसार धर्मग्रंथों का अध्ययन तथा धर्म की शिक्षा देने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को है।
- नक्शबंदी सिलसिले के अनुयायी शेख अहमद सरहिंदी अकबर के काल में भारत आए और ‘तौहीद’ अर्थात् ईश्वर की एकता की अवधारणा का विरोध किया और उसे इस्लाम के खिलाफ बताकर उसकी तीव्र अलोचना की।
- मुगल बादशाह औरंगजेब को चित्रकला में रुचि नहीं थी। अतः उसने अपने दरबार से चित्रकारों को बेदखल कर दिया था जिसके परिणामस्वरूप मुगल चित्रकारों ने अपने-अपने क्षेत्रों में चित्रकला का | विकास किया। उसी संदर्भ में राजस्थानी और पंजाबी पहाड़ी शैली का विकास हुआ।
राजस्थानी शैली की चित्रकला’ के संदर्भ में
- राजस्थानी शैली की चित्रकारी में पश्चिम भारतीय या जैन शैली की पूर्ववर्ती परम्पराओं का मिश्रण मुगल शैली की चित्रकारी में किया गया।
- इसमें पुराने विषयों का समावेश किया गया, जैसे- शिकार के दृश्य, राधा-कृष्ण की प्रेम लीला जैसे मिथकीय विषयों, बारहमासा और रागों का चित्रण प्रमुख रूप से हुआ है।
- पहाड़ी शैली ने भी राजस्थानी शैली की परम्पराओं को जारी रखा।
दाराशिकोह’ के संदर्भ में
- मुगल शासक दाराशिकोह स्वभाव से विद्वान और सूफी था। उसे धर्मतत्त्वों के ज्ञाताओं के साथ चर्चा में आनंद मिलता था। उसने काशी के पंडितों की मदद से गीता का ‘फारसी भाषा’ में अनुवाद कराया था।
- दारा ने वेदों का संकलन भी कराया और वेदों को ‘दिव्य ग्रंथ’ की संज्ञा दी थी और उन्हें ‘पाक कुरान से मेल खाता हुआ’ बताया। वह हिन्दू व इस्लाम धर्म में मूलभूत अंतर नहीं मानता था।
Satish Chandra Medieval History: मुगल साम्राज्य का चरमोत्कर्ष और विघटन-1
• मुगल शासक अपने उत्तराधिकारी को ‘वली अहद’ कहते थे. शाहजहाँ के काल में उत्तराधिकारी को लेकर संकट उत्पन्न हो गया था। तथा शाहजहाँ दाराशिकोह को अपना वली अहद (उत्तराधिकारी) बनाना चाहता था।
• 15 अप्रैल, 1658 ई. में दाराशिकोह और औरंगजेब के बीच धरमट में लड़ाई लड़ी गई, जिसमें औरंगजेब की विजय हुई।
• 29 मई, 1658 ई. में दाराशिकोह और औरंगजेब के बीच लड़ी गई। सामूगढ़ की लड़ाई थी, जिसमें औरंगजेब विजय हुआ था।
• मार्च 1659 ई. में अजमेर के निकट ‘देवराल’ में दाराशिकोह और औरंगजेब के बीच लड़ाई लड़ी गई, जिसमें दाराशिकोह पराजित हुआ।
औरंगजेब के संदर्भ में
- औरंगजेब ने लगभग पचास वर्षों तक शासन किया था और उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में जिंजी तक तथा पश्चिम में हिंदुकुश से लेकर पूर्व में चटगाँव तक साम्राज्य का विस्तार किया था।
- औरंगजेब की ख्याति एक कट्टरवादी और ईश्वर से डरने वाले मुसलमान के रूप में थी। इसे ‘जिंदा पीर’ कहा जाता था।
- औरंगजेब ने मुस्लिम कानून की ‘हनीफी’ व्याख्या को अपनाया जिसका पालन भारत में पारंपरिक रूप से किया जा रहा था।
मुहतसिब’ के संदर्भ में
- औरंगजेब ने अपने शासनकाल में नागरिकों के नैतिक धर्म को संरक्षण प्रदान करने हेतु मुहतसिब की नियुक्ति प्रत्येक सूबे में की थी।
- मुहतसिब का कार्य ‘शरा’ और ‘जवाबित’ में निषिद्ध कार्य खुल्लम-खुल्ला न किये जाएँ इसकी देखभाल करना था ताकि लोग शराब, भाँग का प्रयोग न करें।
- मुहतसिबों की नियुक्ति के पीछे औरंगजेब का यह मानना था कि राज्य नागरिकों के नैतिक कल्याण के लिये जिम्मेदार है।
- मथुरा का केशवराय मंदिर बीरसिंह बुंदेला द्वारा बनवाया गया था।
औरंगजेब की सामाजिक-सांस्कृतिक नीति के संदर्भ में
- औरंगजेब ने नौरोज के त्यौहार पर प्रतिबंध लगा दिया था। क्योंकि वह जरथुस्त्री रिवाज था जिसका ईरान के सफावी शासक पालन करते थे।
- अकबर द्वारा प्रारंभ की गई झरोखा प्रथा को औरंगजेब ने बंद करा दिया था, क्योंकि इसे वह अंधविश्वासपूर्ण रिवाज और इस्लाम के विरुद्ध मानता था।
- औरंगजेब ने अबवाव नामक ‘कर’ न लगाकर आमदनी के एक बड़े जरिये की इसलिये तिलांजलि दी क्योंकि इसका प्रावधान शरा में नहीं था। उसने हिंदुओं पर जजिया कर लगाया था।
▪︎ मुस्तैद खाँ ने ‘मआसिर-ए-आलमगीरी’ नामक ग्रंथ लिखा जिसमें उसने मथुरा के केशवराय मंदिर के विध्वंस की चर्चा की थी।
Satish Chandra Medieval History: मुगल साम्राज्य का चरमोत्कर्ष और विघटन-II
▪︎ 1665 ई. में मराठा शासक शिवाजी और औरंगजेब के विश्वासपात्र सलाहकार जयसिंह के बीच ‘पुरंदर की संधि’ हुई थी।
शिवाजी के राज्याभिषेक’ के संदर्भ में
- 1674 ई. में शिवाजी ने राजगढ़ में विधिवत् राजमुकुट ग्रहण करने के बाद छत्रपति की उपाधि धारण की थी
- राजतिलक का संस्कार संपादित कराने वाले पुरोहित गंगा भट्ट ने यह घोषणा की कि शिवाजी उच्चवर्गीय क्षत्रिय हैं।
मराठों की प्रशासनिक व्यवस्था और उनसे संबंधित अधिकारियों के संबंध में
वित्त व्यवस्था | पेशवा |
सैन्य प्रशासन | सर-ए-नौबत |
लेखपाल | मजुमदार |
गुप्तचर और डाक विभाग | वाक-ए-नवीस |
- शिवाजी के प्रशासन में वित्त व्यवस्था और सामान्य प्रशासन पेशवा की देखरेख में था।
- सेना के लिये जिम्मेदार सेनापति को ‘सर-ए-नौबत’ कहा जाता था।
- मजुमदार राज्य का लेखपाल (अकाउंटेंट) होता था।
- वाक-ए-नवीस गुप्तचर व डाक विभाग और राजकीय गृहस्थी की देखरेख करता था।
शिवाजी के शासनकाल के संबंध में
- शिवाजी ने अपने मंत्रिमंडल में पंडितराव की नियुक्ति की थी, जो पारमार्थिक दानों के लिये जिम्मेदार था।
- स्थायी सेना को ‘पागा’ कहा जाता था, जिसमें तीस से चालीस हजार घुड़सवार शामिल थे।
- अस्थायी सैनिक को ‘सिलहदार’ कहा जाता था
शिवाजी की प्रशासनिक व्यवस्था के संदर्भ में
- शिवाजी ने अपने शासनकाल में एक ठोस शासन प्रणाली की नींव डाली थी जिसमें उन्होंने आठ मंत्री नियुक्त किये जिन्हें ‘अष्टप्रधान’ कहा गया था।
- अष्टप्रधान में शामिल सभी आठ मंत्री राजा के प्रति उत्तरदायी थे।
- शिवाजी ने राजस्व व्यवस्था के मामले में मलिक अंबर द्वारा अपनाई गई तद्विषयक व्यवस्था का अनुकरण किया था।
- शिवाजी ने अपने राज्य के निकट मुगल इलाकों से चौथ वसूलकर अपनी आय में वृद्धि की। यह भूराजस्व का एक-चौथाई होता था।
- 1679 ई. में अन्नाजी दत्तो ने नए सिरे से राजस्व निर्धारित करने का काम किया।
मुगल साम्राज्य के पतन के संदर्भ में
- नादिरशाह ने मुहम्मद शाह के शासनकाल में आक्रमण करके मुगल साम्राज्य में खूब लूटपाट की।
- औरंगजेब के दक्षिण अभियान से धन-जन को काफी क्षति पहुँची जिस कारण वह उत्तर भारत की ओर ध्यान नहीं दे सका जो मुगल पतन का कारण बना।
- औरंगजेब मराठों को सही से न ही अपना विश्वासपात्र बना पाया और न ही शत्रु, जिस कारण उसे मराठों की छापामार युद्ध नीति का सामना करना पड़ा. मराठे मुगलों को दक्षिण में हराने पर कामयाब रहे और मुगल पतन का कारण बने।
मुगल शासन प्रणाली के संदर्भ में
- मुगल शासन प्रणाली अत्यधिक केन्द्रीकृत थी। औरंगजेब के समय इसे एक सुयोग्य शासक की आवश्यकता थी जिसे बजीरों ने संभालने की कोशिश की थी। जो असफल रहे।
Satish Chandra Medieval History: मूल्यांकन और समीक्षा
मध्यकालीन भारत के संदर्भ में
- मध्यकालीन भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना यह थी कि तुकों ने भारत का राजनीतिक एकीकरण संपादित किया जिसे बाद में मुगलों ने लम्बे समय तक बनाए रखा।
- तेरहवीं से चौदहवीं सदी के दौरान तुर्की ने मंगोल हमलों से भारत की रक्षा की थी। बाद में 200 वर्षों तक मुगलों ने उत्तर-पश्चिम सीमा को विदेशी आक्रमण से सुरक्षित रखा।
- कुछ इतिहासकारों ने मध्यकालीन भारतीय राज्यों में सामंती व्यवस्था का होना माना है।
ददनी प्रथा’ के संदर्भ में
- सत्रहवीं और अठारहवीं सदी में ‘ददनी प्रथा’ अधिक चलन में थी, जिसके अनुसार देशी-विदेशी दोनों व्यापारी कारीगरों को काम करने के लिये थोड़ी-बहुत पूंजी दे दिया करते थे और माल तैयार हो जाने के बाद उनसे ले लिया करते थे। इसे ही ‘ददनी प्रथा’ कहा जाता था।
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