आधुनिक भारत (विपिन चन्द्रा) | |
1. | अठारहवीं सदी का भारत |
2. | भारत में यूरोपीयों का प्रवेश और अंग्रेजों की विजय |
3. | भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की आर्थिक नीतियाँ और प्रशासनिक ढाँचा (1757-1857) |
4. | प्रशासनिक संगठन और सामाजिक तथा सांस्कृतिक नीति |
5. | उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में सामाजिक और सांस्कृतिक जागरण |
6. | 1857 का विद्रोह |
7. | 1858 के बाद प्रशासनिक परिवर्तन |
8. | ब्रिटिश शासन का आर्थिक प्रभाव |
9. | नए भारत का उदय-राष्ट्रवादी आंदोलन (1858- 1905) |
10. | नए भारत का उदय-1858 के बाद धार्मिक और सामाजिक सुधार |
11. | राष्ट्रवादी आंदोलन (1905-1918)-उग्र राष्ट्रवाद का विकास |
12. | स्वराज के लिये संघर्ष-1 (1919-1927) |
13. | स्वराज के लिये संघर्ष-11 (1927-1947) |
1. अठारहवीं सदी का भारत
- औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके तीनों बेटों के बीच गद्दी के लिये संघर्ष हुआ, जिसमें 65 वर्षीय बहादुरशाह विजयी रहा। उसने 1707 से 1712 की अवधि तक शासन किया।
- बहादुरशाह की मृत्यु के बाद उसके बेटे जहाँदारशाह ने तत्कालीन शक्तिशाली सामंत जुल्फिकार खाँ की सहायता से गद्दी प्राप्त की थी। यह नितांत अयोग्य शासक था। लोग उसे ‘लम्पट मूर्ख’ कहते थे।
- जहाँदारशाह को परास्त करके सैयद बंधुओं (अब्दुल्ला खाँ और हुसैनअली खाँ बाराह) की सहायता से उसका भतीजा फर्रुखसियर (1713 में) गद्दी पर बैठा। सैयद बंधुओं ने फर्रुखसियर की सत्ता पाने में सहायता की थी और बाद में उन्होंने ही उसकी हत्या कर दी। इसके बाद उन्होंने बारी-बारी से दो युवा शहजादों को गद्दी पर बैठाया जो बीमारी से मर गए। इसके बाद 18 वर्षीय मुहम्मदशाह को गद्दी पर बैठा दिया। भारतीय इतिहास में सैयद बंधुओं को ‘राजा बनाने वाले’ के नाम से जाना जाता है।
- शाह आलम द्वितीय 1759 में गद्दी पर बैठा था।
- नादिरशाह का आक्रमण (1738-39) मुहम्मदशाह के समय हुआ था। मुहम्मदशाह प्रशासन के प्रति उदासीन तथा मंदिरा और सुंदरी के प्रति अत्यधिक रुचि रखता था, जिस कारण लोग उसे ‘रंगीला’ कहा करते थे। मयूर सिंहासन पर बैठने वाला यह अंतिम शासक भी था।
मुगल शासक जहाँदारशाह के संदर्भ में
- जहाँदारशाह ने तत्कालीन सबसे शक्तिशाली शासक जुल्फिकार खाँ की सहायता से गद्दी प्राप्त की थी।
- जहाँदारशाह के समय जुल्फिकार खाँ वजीर बना और साम्राज्य को बचाने के लिये अनेक कदम उठाए। इसी क्रम में घृणित जजिया को समाप्त किया गया, आमेर के जयसिंह को मिर्जा राजा सवाई की पदवी दी गई और उन्हें मालवा का सूबेदार बना दिया गया
- इजारेदार उन्हें कहते थे जिससे शासक द्वारा लगान वसूलने का करार किया जाता था। इस व्यवस्था को इजारेदारी कहते थे। इसमें निश्चित दर पर भू-राजस्व वसूल करने के बदले शासक इजारेदारों (लगान के ठेकदारों) और बिचौलियों के साथ यह करार करते थे कि वे शासक को एक निश्चित मुद्रा राशि लगान के रूप में दें। मगर वे किसानों से जितना लगान वसूल कर सकें उतना करने के लिये उन्हें आजाद छोड़ दिया जाता था। इससे किसानों का उत्पीड़न बढ़ा।
- हालांकि मुगलों द्वारा इस व्यवस्था को नापसंद किया गया फिर भी जहाँदार शाह के काल में इसे बढ़ावा दिया गया।
नादिरशाह के आक्रमण के संदर्भ में
- नादिरशाह भारत के प्रति यहाँ के अपार धन के कारण आकर्षित हुआ था। निरंतर अभियानों ने फारस को वस्तुतः दिवालिया बना दिया। था। अतः उसे फौज के रख-रखाव के लिये धन की आवश्यकता थी।
- मुगल फौज से 13 फरवरी, 1739 को करनाल में उसका मुकाबला हुआ, जिसमें मुगल सेना बुरी तरह परास्त हुई। इसके बाद नादिरशाह ने राजधानी दिल्ली में भयंकर कत्लेआम और लूटपाट की। अनुमानतः उसने कुल मिलाकर 70 करोड़ रुपए का माल लूटा। उसने अपने राज्य में तीन सालों तक बिल्कुल कोई कर नहीं लगाया।
- वह प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा तथा शाहजहाँ का रत्नजड़ित मयूर सिंहासन (तख्ते ताऊस) भी साथ ले गया था।
- नादिरशाह ने मुहम्मदशाह को सिंधु नदी के पश्चिम के साम्राज्य के इलाकों को उसे दे देने के लिये मजबूर भी किया।
शाह आलम द्वितीय के संदर्भ में
- शाह आलम द्वितीय को अपने बजीर से जान का खतरा था, अतः ये अपने शासन के आरंभ के वर्षों में अपनी राजधानी से दूर एक स्थान से दूसरे स्थान घूमता रहा।
- उसने 1764 में बंगाल के मीर कासिम और अवध के शुजाउद्दौला के साथ मिलकर अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ बक्सर की लड़ाई में हिस्सा लिया, इसमें अंग्रेजों से हार जाने के बाद वह कई वर्षों तक इलाहाबाद में ईस्ट इंडिया कंपनी का पेंशनयापता बनकर रहा। वह 1772 में मराठों के संरक्षण में ब्रिटिश आश्रय छोड़कर दिल्ली लौटा, परंतु अंग्रेजों ने 1803 में दिल्ली पर कब्जा कर लिया। तब से लेकर 1857 तक जब मुगल वंश अंतिम रूप से खत्म हो गया, मुगल बादशाह अंग्रेजों के लिये केवल राजनीतिक मोहरा बने रहे।
- बादशाह मुहम्मदशाह के दुलमुलयन तथा शक्की मिजाज और दरबार में निरंतर झगड़ों से ऊबकर मुगल वजीर निजाम-उल-मुल्क ने अपना पद त्याग कर अपनी महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने का फैसला लिया। वह 1722 में वजीर बना था और अक्तूबर 1724 में अपना पद त्यागकर दक्कन में हैदराबाद रियासत की नींव डालने दक्षिण चला गया।
- अहमदशाह अब्दाली नादिरशाह के सबसे काबिल सेनापतियों में से एक था। उसने मुगल साम्राज्य में (खासकर दिल्ली-मथुरा) कई बार लूट-पाट की। उसने अपने स्वामी के मरने के बाद अफगानिस्तान पर अपनी सत्ता कायम करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। उसने 1761 में मराठों को पानीपत की तीसरी लड़ाई में हराया। इस हार से मराठों की इस महत्त्वाकांक्षा को बड़ा धक्का लगा कि वे मुगल बादशाह पर नियंत्रण रखेंगे और देश पर आधिपत्य कायम करेंगे।
- बहादुरशाह द्वितीय अथवा बहादुरशाह जफर अंतिम मुगल सम्राट था। इसके पिता का नाम अकबरशाह द्वितीय था।
निजाम-उल मुल्क आसफजाह के संदर्भ में
- निजाम-उल-मुल्क आसफजाह ने 1724 में हैदराबाद राज्य की स्थापना की। उसको दक्कन के वायसराय का खिताब प्राप्त हुआ था।
- उसने केंद्रीय सरकार से अपनी स्वतंत्रता की खुलेआम घोषणा कभी नहीं की, मगर उसने व्यवहार में स्वतंत्र शासक के रूप में काम किया।
- उसने दक्कन में मुगलों के नमूने पर जागीरदारी प्रथा चलाकर सुव्यवस्थित प्रशासन स्थापित कर अपनी सत्ता को मजबूत बनाया।
बंगाल के नवाबों का कालक्रम
मुर्शिद कुली खाँ→ शुजाउद्दीन→अलीवर्दी खाँ → सिराजउद्दौला |
- मुर्शिद कुली खाँ को 1717 में बंगाल का सूबेदार बनाया गया, मगर वह उसका वास्तविक शासक 1700 से ही था।
- 1727 में मुर्शिद कुली खाँ की मृत्यु के बाद उसके दामाद शुजाउद्दीन ने बंगाल पर 1739 तक शासन किया। उसकी जगह पर उसका बेटा सरफराज खाँ आया, जिसे उसी साल गही से हटाकर अलीवर्दी खाँ नवाब बन गया।
- सिराजउद्दौला अलीवर्दी खाँ का उत्तराधिकारी था।
तकावी ऋण’ के संदर्भ में
- तकावी ऋण’ मुख्य रूप से खेती के विस्तार और बेहतरी के लिये राज्य की ओर से दिया जाने वाला ऋण था। इससे गरीब खेतिहरों को अकाल, सूखे व बाद जैसी विपरीत परिस्थितियों से उबरने में सहायता मिलती थी। साथ ही यह उन्हें समय पर भू-राजस्व देने के लिये समर्थ बनाने का राज्य का एक प्रयास भी था।
- मुगल साम्राज्य के पतन के समय अवध के स्वायत्त राज्य का संस्थापक सआदत खाँ ‘बुरहान-उल-मुल्क’ था। इसके बाद उसकी जगह उसके भतीजे सफदरजंग ने ली सफदरजंग के बाद शुजाउद्दौला अवध का नवाब बना।
हैदरअली के संदर्भ में
- दक्षिण भारत में हैदराबाद के पास हैदरअली के अधीन मैसूर का उदय हुआ।
- हैदरअली पढ़ा-लिखा न होने के बावजूद बहुत ही कुशल प्रशासक था। अपने राज्य में मुगल शासन प्रणाली तथा राजस्व व्यवस्था उसी ने लागू की थी।
- वर्ष 1755 में डिंडिगुल में उसने एक आधुनिक शस्त्रागार स्थापित किया। इसमें उसने फ्राँसीसी विशेषज्ञों की मदद ली।
- उसने 1769 में अंग्रेजी फौजों को बार-बार हराया और मद्रास के पास तक पहुँच गया, परंतु द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के दौरान 1782 में वह मारा गया। उसके स्थान पर उसका बेटा टीपू गद्दी पर बैठा।
- टीपू सुल्तान के विषय में हैं। वह समय के साथ चलने वाला बहादुर और निर्भीक शासक था। टीपू के विषय में कुछ अन्य बातें निम्नलिखित हैं-
- उसे फ्राँसीसी क्रांति में गहरी दिलचस्पी थी। उसने श्रीरंगपट्टम में ‘स्वतंत्रता- वृक्ष’ लगाया और जैकोबिन क्लब का सदस्य भी बना।
- उसने वर्ष 1796 के बाद एक आधुनिक नौसेना खड़ी करने की भी कोशिश की थी।
- उसके समय मैसूर का किसान ब्रिटिश शासित राज्य मद्रास के किसान की तुलना में अधिक संपन्न और खुशहाल था।
- अंतिम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799) में वह श्रीरंगपट्टम के द्वार पर लड़ता हुआ मारा गया।
क्षेत्र | शासक |
त्रावणकोर राज्य | राजा मार्तंड वर्मा |
आमेर | जय सिंह |
जाट राज्य | सूरजमल |
रुहेलखंड | अली मुहम्मद खाँ |
- 1729 के बाद अठारहवीं सदी में एक अग्रणी राजनेता राजा | | भार्तंड वर्मा के नेतृत्व में त्रावणकोर राज्य खड़ा हुआ। राजा मार्तंड ने डब | लोगों को हराकर केरल में उनकी राजनीतिक सत्ता खत्म कर दी। सदी के उत्तरार्द्ध में त्रावणकोर की राजधानी त्रिवेंद्रम संस्कृत विद्वता का एक | प्रसिद्ध केंद्र बन गई। मार्तंड वर्मा का उत्तराधिकारी राम वर्मा था जो स्वयं कवि, विद्वान, संगीतज्ञ, प्रसिद्ध अभिनेता और सुसंस्कृत व्यक्ति था।
- आमेर का सवाई जयसिंह (1681-1743) अठारहवीं सदी का सबसे श्रेष्ठ राजपूत शासक था। वह विख्यात राजनेता, महान खगोलशास्त्री तथा समाज सुधारक था। उसने जाटों से लिये गए इलाके में जयपुर शहर की स्थापना की और उसे विज्ञान एवं कला का महान केंद्र बना दिया। उसने दिल्ली, जयपुर, उज्जैन और मथुरा में पर्यवेक्षणशालाएँ। बनाई। उसने युक्लिड की ‘रेखागणित के तत्त्व’ तथा त्रिकोणमिति की बहुत सी कृतियों और लघुगणकों को बनाने और उनके इस्तेमाल संबंधी नेपियर की रचना का अनुवाद संस्कृत में कराया।
- खेतिहरों की एक जाति जाट है। जाट दिल्ली, आगरा और मथुरा के इर्द-गिर्द के इलाके में रहते थे। औरंगजेब की मृत्यु के बाद जाटों द्वारा किया गया विद्रोह जमींदारों के नेतृत्व में मूलतः एक कृषक विद्रोह था, मगर जल्दी ही वह लूटमार तक सीमित हो गया। भरतपुर के जाट राज्य की स्थापना चूरामन और बदन सिंह ने की। जाट सत्ता सूरजमल के नेतृत्व में अपनी उच्चतम गरिमा पर पहुँची। सूरजमल ने 1756 से 1763 तक शासन किया।
- नादिरशाह के आक्रमण के बाद प्रशासन के ठप हो जाने पर अली मुहम्मद खाँ ने रुहेलखंड नामक राज्य स्थापित किया। यह राज्य हिमालय की तराई में दक्षिण में गंगा और उत्तर में कुमायूँ की पहाड़ियों तक फैला हुआ था। इसकी राजधानी पहले बरेली में आंवला थी और बाद में रामपुर बनी।
सिखों के संदर्भ में
- सिख धर्म की शुरुआत गुरु नानक ने पंद्रहवीं शताब्दी में की। यह पंजाब के जाट किसानों तथा अन्य छोटी जातियों में फैल गया। वहीं लड़ाकू समुदाय के रूप में सिखों को बदलने का काम गुरु हर गोविंद (1606-1645) ने आरंभ किया। मंगर अपने दसवें और आखिरी गुरु गोविंद सिंह (1666-1708) के नेतृत्व में सिख एक राजनीतिक और फौजी ताकत बने औरंगजेब की फौजों और पहाड़ी राजाओं के खिलाफ 1699 से लेकर गुरु गोविंद सिंह ने लगातार लड़ाइयाँ लड़ीं।
- 18वीं सदी के अंत में सुकरचकिया मिसल के प्रधान रणजीत सिंह ने प्रमुखता प्राप्त कर ली थी। वे एक ताकतवर, साहसी सैनिक, कुशल प्रशासक तथा चतुर कूटनीतिज्ञ थे। उन्होंने 1799 में लाहौर तथा 1802 में अमृतसर पर कब्जा कर लिया था। उन्होंने सतलुज नदी के पश्चिम के सभी सिख प्रधानों को अपने अधीन कर लिया और पंजाब में अपना राज्य कायम किया।
- दूसरा कथन गलत है। इन्होंने अपने जीते हुए प्रदेशों में मुगलों द्वारा (की गई भू-राजस्व व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया। भू-राजस्व लागू का हिसाब 50 प्रतिशत सकल उत्पादन के आधार पर लगाया गया।
- तीसरा कथन भी गलत है। रणजीत सिंह की फौज केवल सिखों तक सीमित नहीं थी, बल्कि इन्होंने गोरखा, बिहारी, उड़िया, पठान, डोगरा तथा पंजाबी मुसलमानों को भी अपनी सेना में भर्ती किया। रणजीत सिंह ने यूरोपीय प्रशिक्षकों की सहायता से यूरोपीय ढर्रे/पद्धति पर शक्तिशाली, अनुशासित और सुसज्जित फौज तैयार की।
- रणजीत सिंह धर्म के मामले में सहनशील तथा उदारवादी थे। वे न केवल सिख बल्कि मुसलमान संतों को भी आदर, सम्मान और संरक्षण देते थे। धर्मपरायण सिख होते हुए भी यह कहा जाता है कि ‘वे अपने सिंहासन से उतरकर मुसलमान फकीरों के पैर की धूल अपनी लंबी सफेद दाढ़ी से झाड़ते थे।’ वस्तुतः किसी भी दृष्टि से रणजीत सिंह द्वारा शासित पंजाब एक सिख राज्य नहीं था।
- जब 1809 में अंग्रेजों ने रणजीत सिंह को सतलुज नदी पार करने से मना कर दिया और नदी के पूरब के सिख राज्यों को अपने संरक्षण में ले लिया, तब उन्होंने चुप्पी साध ली, क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि उनके पास अंग्रेजों से मुकाबला करने की शक्ति नहीं है। इस प्रकार उन्होंने अपने राज्य को अंग्रेजों के अतिक्रमण से बचा लिया। मगर वह विदेशी खतरे को हटा नहीं सके तथा उस खतरे को अपने उत्तराधिकारियों के लिये छोड़ दिया।
- शिवाजी के पोते साहू को जब 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद रिहा किया गया, तब जल्दी ही उसके और कोल्हापुर में रहने वाली उसकी चाची ताराबाई के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया। इस झगड़े के फलस्वरूप मराठा शासन में एक नई व्यवस्था ने जन्म लिया जिसका नेता राजा साहू का पेशवा बालाजी विश्वनाथ था। इस परिवर्तन के साथ मराठा इतिहास में पेशवा आधिपत्य का नया काल प्रारंभ हुआ, जिसमें मराठा राज्य एक साम्राज्य के रूप में बदल गया। वस्तुतः बालाजी विश्वनाथ तथा उनके बेटे बाजीराव प्रथम ने पेशवा को मराठा साम्राज्य का कार्यकारी प्रधान बना दिया।
औरंगजेब का मकबरा – | खुलदाबाद (महाराष्ट्र) |
एतमादुद्दौला का मकबरा – | आगरा |
शेख सलीम चिश्ती का मकबरा – | फतेहपुर सीकरी |
अब्दुर्रहीम खानखाना का मकबरा – | दिल्ली |
- बालाजी विश्वनाथ की 1720 में मृत्यु हो गई उनकी जगह उनका 20 वर्षीय बेटा बाजीराव प्रथम पेशवा बना। | वह युवा होने के बावजूद एक निर्भीक और प्रतिभावान सेनापति तथा महत्त्वाकांक्षी राजनेता था। उसे शिवाजी के बाद गुरिल्ला युद्ध का सबसे बड़ा प्रतिपादक कहा गया है। बाजीराव ने पहले मुगल अधिकारियों को विशाल इलाके से चौथ वसूल करने का अधिकार देने और फिर वे इलाके मराठा राज्य को सौंप देने के लिये मजबूर किया।
- बाजीराव और दक्कन का निजाम उल मुल्क दो बार लड़ाई के मैदान में मिले और दोनों बार निजाम को मुँह की खानी पड़ी और उसे दक्कन प्रांत का चौथ और सरदेशमुखी मराठों को देने के लिये मजबूर होना पड़ा।
- बाजीराव ने पुर्तगालियों के खिलाफ भी अभियान आरंभ किया। अंत में सिलहट और बसई (बस्लीन) पर कब्जा कर लिया गया मगर पश्चिमी तट पर पुर्तगालियों का अपने इलाकों पर कब्जा बना रहा।
- पानीपत का तीसरा युद्ध 14 जनवरी, 1761 को मराठों तथा अफगान अहमदशाह अब्दाली के मध्य हुआ।
- 1761 ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठा फौज के पैर पूरी तरह उखड़ गए। अनगिनत मराठा सेनापति करीब 28,000 सैनिकों के साथ मारे गए। पानीपत की हार मराठों के लिये बहुत बड़ा आघात थी तथा उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा को बड़ा धक्का लगा।
- पानीपत में मराठों की हार ने अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल और दक्षिण भारत में अपनी सत्ता मजबूत करने का मौका दिया क्योंकि इन क्षेत्रों पर मराठों का प्रभाव था।
- पानीपत की तीसरी लड़ाई में अफगानों को भी अपनी जीत का कोई फायदा नहीं हुआ। वे पंजाब को अपने अधिकार में नहीं रख सके। वस्तुतः पानीपत की तीसरी लड़ाई ने यह फैसला नहीं किया कि भारत पर कौन राज करेगा बल्कि यह तय कर दिया कि भारत पर कौन राज नहीं करेगा। इससे भारत में ब्रिटिश सत्ता के उदय का रास्ता साफ हो गया।
आंग्ल-मराठा युद्धों के संदर्भ में
- प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध 1782 ई. में सालबाई की संधि के साथ समाप्त हुआ। देवगाँव की संधि द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-1805) में हुई।
- तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1816-1819) के बाद अंग्रेजों द्वारा पेशवा का वंशानुगत पद समाप्त कर दिया गया।
- प्रथम युद्ध में अंग्रेज (बड़गाँव में) पराजित हुए, जबकि अन्य दोनों युद्धों में मराठों की हार हुई।
- मराठा काल में सरंजामी प्रथा भू-राजस्व से संबंधित थी। इस काल में मराठा जागीरदारों को सरंजामी भूमि उनके निर्वहन के लिये दो जाती थी।
अठारहवीं सदी में महिलाओं की सामाजिक दशा के संदर्भ में
- पूरे भारत में पूरी अठारहवीं सदी को देखने पर पता चलता है। कि बाल विवाह प्रथा पूरे देश में प्रचलित थी। लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया गया। यद्यपि उच्च जातियों की कुछ महिलाएँ पढ़ी-लिखी थीं. जिसे एक अपवाद ही कहा जा सकता है।
- जाति प्रथा के अतिरिक्त अठारहवीं सदी के भारत की दो बड़ी सामाजिक कुरीतियाँ थीं- सती प्रथा और विधवाओं की खराब अवस्था । सती प्रथा अधिकतर राजपूताना, बंगाल और उत्तरी भारत के अन्य हिस्सों में प्रचलित थी। दक्षिण भारत में इसका प्रचलन नहीं था। मराठों ने इसे बढ़ावा नहीं दिया।
अठारहवीं सदी के साहित्यिक जीवन के संदर्भ में
- अठारहवीं सदी में ही मलयालम साहित्य में पुनर्जीवन देखा गया। यह विशेषकर त्रावणकोर शासकों मार्तंड वर्मा और राम वर्मा के संरक्षण में हुआ। केरल का एक महान कवि, कुंचन नबियार इसी समय हुआ, जिसने आम बोलचाल की भाषा में जनप्रिय कविता लिखी।
- अठारहवीं सदी के केरल में कथाकली साहित्य, नाटक और नृत्य का भी पूर्ण विकास हुआ। इस सदी के साहित्यिक जीवन का एक उल्लेखनीय पहलू था उर्दू भाषा का प्रसार और उर्दू कविता का जोरदार विकास।
- तायुमानवर (1706-1744) तमिल में सित्तर काव्य का एक उत्कृष्ट प्रवर्तक था।
- इस सदी के महान कवियों में से एक दयाराम ने इस सदी के उत्तरार्द्ध में अपनी रचनाएँ लिखीं। ये गुजरात के थे।
अठारहवीं सदी के संदर्भ में
- अठारहवीं सदी में मशहूर पंजाबी महाकाव्य ‘हीर रांझा’ की रचना वारिसशाह द्वारा की गई।
- इसी सदी के दौरान शाह अब्दुल लतीफ ने अपना प्रसिद्ध कविता संग्रह ‘रिसालो’ रचा। सिंधी साहित्य के लिये ये सदी विशाल उपलब्धियों की अवधि थी। ‘सचल’ और ‘सामी’ इस शताब्दी के अन्य महान सिंधी कवि थे।
18वीं सदी के भारत के संबंध में
- चूँकि अठारहवीं सदी में भारत हस्तशिल्प और कृषि के उत्पादनों में कुल मिलाकर स्वावलंबी था, इसलिये वह बड़े पैमाने पर विदेशी वस्तुओं का आयात नहीं करता था। दूसरी और भारत के औद्योगिक और कृषि उत्पादनों के लिये विदेशों में नियमित बाज़ार था, फलस्वरूप भारत का निर्यात उसके आयात से अधिक होता था।
- भारतीय संस्कृति की मुख्य कमजोरी विज्ञान के क्षेत्र में थी। अठारहवीं सदी के दौरान भारत पश्चिमी देशों से विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मामले में काफी पिछड़ा रहा था। पिछले दो सौ वर्षों से पश्चिमी यूरोप में एक वैज्ञानिक और आर्थिक क्रांति चल रही थी जिससे आविष्कारों और अनुसंधानों की बाढ़ सी आ गई थी।
2. भारत में यूरोपीयों का प्रवेश और अंग्रेजों की विजय
- पुर्तगालियों ने 1510 में गोवा पर अधिकार कर लिया, तब उस समय वायसराय अलफांसो-डी- अलबुकर्क था।
- इस समय फारस की खाड़ी में स्थित हरमुज से लेकर मलाया में स्थित मलक्का और इंडोनेशिया के स्पाइस आइलैंड तक एशिया के पूरे समुद्र तट पर पुर्तगालियों ने अधिकार जमा लिया था।
- पुर्तगालियों ने भारत के तटीय क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया था। चूँकि दक्षिण भारत इस समय मुगल साम्राज्य से बाहर था, इसलिये मुगलों की ताकत का सामना उनको नहीं करना पड़ा था।
16वीं सदी के यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों के संघर्ष के संबंध में
- 16वीं सदी के उत्तरार्द्ध में इंग्लैंड, हॉलैंड और फ्राँस जैसी उभरती हुई व्यापारिक शक्तियों ने विश्व व्यापार पर स्पेनी और पुर्तगाली एकाधिकार के खिलाफ एक कड़ा संघर्ष छेड़ दिया। इस संघर्ष में स्पेन और पुर्तगाल की हार हुई थी।
- इंडोनेशिया पर डच व्यापारियों का अधिकार हो। गया। डचों की खास दिलचस्पी भारत में नहीं बल्कि इंडोनेशिया के जावा, सुमात्रा और स्पाइस आईलैंड जैसे द्वीपों में थी. जहाँ मसाले खूब पैदा होते थे।
- भारत, श्रीलंका और मलाया पर अंग्रेजों का अधिकार स्थापित हुआ था।
- 1599 में मर्चेंट एडवेंचरर्स नाम से जाने जाने वाले कुछ व्यापारियों ने पूर्व से व्यापार करने के लिये एक कंपनी बनाई। इसे ही ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम से जाना जाता है।
- कंपनी ने कैप्टन हॉकिंस को जहाँगीर के दरबार में शाही आज्ञा लेने के लिये भेजा। परिणामस्वरूप एक शाही फरमान मिलने के बाद पश्चिमी तट की अनेक जगहों पर अंग्रेज कंपनी को फैक्टरियाँ खोलने की आज्ञा मिल गई। इस समय व्यापारिक केंद्रों को फैक्टरी के नाम से जाना जाता था।
- अंग्रेज़ इस छूट से संतुष्ट नहीं थे। 1615 में सर टॉमस रो मुगल दरबार पहुँचा। टॉमस रो मुगल साम्राज्य के सभी भागों में व्यापार करने और फैक्टरियाँ खोलने का अधिकार देने वाला शाही फरमान जारी कराने में सफल रहा।
- 31 दिसंबर, 1600 को महारानी एलिजाबेथ ने एक रॉयल चार्टर के द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी को पूर्व से व्यापार करने का एकाधिकार दे दिया। वर्ष 1608 में इस कंपनी ने भारत के पश्चिमी तट पर सूरत में एक फैक्टरी खोली।
- जब इंग्लैंड के सम्राट चार्ल्स द्वितीय ने एक पुर्तगाली राजकुमारी से शादी की तो पुर्तगालियों ने उसे बंबई का द्वीप दहेज में दे दिया। बबई के रूप में अंग्रेजों को एक बड़ा और आसानी से रक्षा कर सकने योग्य बंदरगाह प्राप्त हुआ। वर्ष 1668 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने ब्रिटिश सरकार से बंबई का द्वीप प्राप्त किया।
- अंग्रेजों ने दक्षिण में अपनी पहली फैक्टरी मसूलीपट्टनम में 1611 में स्थापित की।
- ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में राजनीतिक सत्ता स्थापित करके भारतीय राजस्व को प्राप्त करने और इस देश को इसी के साधनों से जीतने का प्रयास किया। इसी क्रम में जब 1686 में अंग्रेजों ने हुगली को तहस-नहस कर दिया और मुगल सम्राट के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी, तब दोनों के बीच शत्रुता की शुरुआत हो गई। अंग्रेजों ने स्थिति को गलत समझा और मुगलों की शक्ति को कम करके आँका। युद्ध का अंत अंग्रेजों के लिये घातक रहा। उन्हें बंगाल स्थित उनकी फैक्टरियों से खदेड़ दिया गया और उन्हें गंगा नदी के मुहाने पर एक द्वीप में शरण लेनी पड़ी।
16वीं – 17वीं सदी में ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा स्थापित फैक्टरी के संबंध में
- कंपनी ने उड़ीसा में 1633 में अपनी फैक्टरी स्थापित की।
- दूसरा कथन सत्य है। 1639 में मद्रास के राजा से अंग्रेजों ने पट्टा ले लिया। राजा ने उस जगह की किलेबंदी करने, उसका प्रशासन चलाने और सिक्के ढालने की अनुमति इस शर्त पर दी कि मद्रास बंदरगाह। से प्राप्त चुंगी का आधा भाग राजा को दिया जाएगा। यहाँ अंग्रेजों ने अपनी फैक्टरी के इर्द-गिर्द एक छोटा-सा किला बनाया जिसका नाम फोर्ट सेंट जॉर्ज पड़ा।
फ्राँसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी के संबंध में
- फ्राँसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी पूरी तरह फ्राँस सरकार पर निर्भर थी. जो अनुदान, कर्ज और दूसरी सुविधाएँ देकर उसकी सहायता करती रहती थी फलस्वरूप उस पर सरकार का बहुत अधिक नियंत्रण था।
- भारत में ब्रिटिश राजनीतिक सत्ता का आरंभ 1757 के प्लासी युद्ध से माना जाता है। इस युद्ध में अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हरा दिया था।
- केवल पहला व दूसरा कथन ही सत्य है। 1717 में के एक शाही फरमान द्वारा अंग्रेजों को बहुमूल्य विशेषाधिकार मिले। इस मुगल सम्राट फरमान के अनुसार कंपनी को बिना कर चुकाए बंगाल से अपने सामान का आयात-निर्यात करने की आजादी प्राप्त थी और इन मालों की आवाजाही पर पास या दस्तक जारी करने का अधिकार था। कंपनी के कर्मचारियों | को भी निजी व्यापार की छूट थी, हालांकि उनको फरमान की सुरक्षा प्राप्त न थी। उनको वही कर देने पड़ते थे जो भारतीय व्यापारियों को देने पड़ते थे।
- यह फरमान कंपनी और बंगाल के नवाब के बीच झगड़े की मूल वजह बन गया। इससे एक तो बंगाल की सरकार को राजस्व की हानि होती थी तो दूसरे कंपनी के कर्मचारी दस्तक का दुरुपयोग निजी व्यापार के कर न चुकाने के लिये करते थे।
प्लासी युद्ध के प्रमुख कारण
- 1756 में जब सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना तो उसने अंग्रेजों के सामने मांग रखी कि वे जिन शर्तों पर मुर्शिद कुली खाँ के जमाने में व्यापार करते थे, उन्हीं शर्तों पर अब व्यापार करें। अंग्रेजों ने इस बात को मानने से इनकार कर दिया। वे अपने माल पर नवाब को कर चुकाने को तैयार नहीं हुए, बल्कि उल्टे उन्होंने भारतीय माल पर भारी महसूल लगा दिये, जो कलकत्ता आते थे (कलकत्ता अब कंपनी के नियंत्रण में था।)
- कंपनी ने कलकत्ता की किलेबंदी शुरू की, क्योंकि उसे चंद्रनगर में जमे फ्राँसीसियों के साथ युद्ध की आशंका थी। सिराजुद्दौला ने इसे अपनी संप्रभुता पर चोट समझा और कंपनी को आज्ञा दी कि वे अपनी किलेबंदी को गिरा दें। कंपनी ने इसको मानने से इनकार कर दिया और नवाब की इच्छा के खिलाफ बंगाल में अपनी शर्तों पर व्यापार करने पर अड़ी रही।
- सिराजुद्दौला अंग्रेजों की चालों के दूरगामी प्रभाव को समझता था तथा उसने अंग्रेजों से अपने देश के कानूनों को मनवाने का निर्णय किया। इसके परिणामस्वरूप सिराज ने कासिम बाज़ार की अंग्रेज फैक्टरी पर कब्जा कर लिया और फिर कलकत्ता की ओर कूच करके 20 जून. 1756 को फोर्ट विलियम पर अधिकार कर लिया।
- विभिन्न घटनाओं के परिणामस्वरूप ही कंपनी और सिराजुद्दौला की सेनाएँ 23 जून, 1757 को प्लासी के मैदान में एक-दूसरे से टकराई। इस युद्ध में सिराजुद्दौला, मीर जाफर के बेटे मौरन के हाथों मारा गया।
▪︎ प्लासी के युद्ध के बाद अंग्रेजों ने मीर जाफर को बंगाल का नवाब घोषित किया और फिर उससे अपना इनाम मांगने लगे। कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा में मुक्त व्यापार का निर्विवाद अधिकार मिल गया। कंपनी को कलकत्ता के पास चौबीस परगना की जमीदारी भी मिली।
▪︎ प्लासी के युद्ध के बाद अंग्रेजों ने मीर जाफर को बंगाल का नवाब बनाया। मगर यह जल्दी ही पछताने लगा। मीर जाफर को जल्दी ही पता चल गया कि कंपनी और उसके अधिकारियों की सभी मांगे पूरी कर पाना असंभव है। परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने मीर जाफर की जगह मीर कासिम को बंगाल का नवाब बनाया।
● मीर कासिम भी अंग्रेजों की शोषणकारी नीतियों को जल्दी ही समझ गया और जल्द ही वह बंगाल में उनकी स्थिति और चालों के लिये खतरा बन गया। मीर कासिम एक योग्य और कुशल शासक था. इसलिये उसने सार्वजनिक अव्यवस्था को संभालने, राजस्व प्रशासन से भ्रष्टाचार मिटाकर अपनी आय बढ़ाने और यूरोपीय तर्ज पर एक आधुनिक सेना खड़ी करने का प्रयास किया।
• मीर कासिम ने 1717 के फरमान का दुरुपयोग रोकने की कोशिश की, क्योंकि कंपनी के नौकर अपने भारतीय व्यापारी मित्रों को दस्तक (पास) बेच देते थे और इस तरह से वे करों से बच जाते थे। इन दुरुपयोगों के कारण ईमानदार भारतीय व्यापारी बेईमानी से भरी प्रतियोगिता में बर्बाद होने लगे। इसलिये नवाब ने एक कड़ा कदम उठाया और आंतरिक व्यापार में सभी महसूल (कर) खत्म कर दिये। इस तरह उसने अपनी प्रजा को वहीं छूटें दे दी जो अंग्रेजों ने बलपूर्वक प्राप्त की थीं।
▪︎ अंग्रेजों के साथ अनेक लड़ाइयों के बाद कंपनी ने 1763 में मीर कासिम को बंगाल के नवाब के पद से हटा दिया। तब वह अवध भाग गया जहाँ उसने अवध के नवाब शुजाउद्दौला और भगोड़े मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय के साथ समझौता कर लिया। 22 अक्तूबर. 1764 को अंग्रेजों ने इन तीनों की सम्मिलित सेना को बक्सर के युद्ध में पराजित किया।
बक्सर की लड़ाई’ के परिणाम के संबंध में
- बक्सर की लड़ाई ने अंग्रेजी सेना की श्रेष्ठता को सिद्ध कर दिया। इस युद्ध ने अंग्रेजों को बंगाल, बिहार और उड़ीसा का निर्विवाद शासक बना दिया और अवध भी उनकी दया का मोहताज हो गया।
- 1765 में क्लाइव को पुनः बंगाल का गवर्नर बनाकर वापस लाया गया। उसने बंगाल में सत्ता और शासन के सारे अधिकार नवाब से छीनकर कंपनी को दे दिये।
- बक्सर की लड़ाई के बाद कंपनी ने शाह आलम द्वितीय से बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी (राजस्व वसूलने का अधिकार) प्राप्त कर ली। इस तरह बंगाल के ऊपर कंपनी के नियंत्रण को कानूनी मान्यता मिल गई क्योंकि मुगल बादशाह अभी भी साम्राज्य का नाममात्र का प्रमुख था। बदले में कंपनी ने शाह आलम द्वितीय को 26 लाख रुपए दिये और उसे कोरा और इलाहाबाद जिले भी जीतकर दिये।
18वीं सदी में कंपनी द्वारा बंगाल में लागू की गई ‘दोहरी’ या ‘द्वैध’ व्यवस्था के संबंध में
- बक्सर की लड़ाई के बाद 1765 से ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल की वास्तविक स्वामी बन गई। दीवान के रूप में कंपनी सीधे ही राजस्व वसूलने लगी।
- कंपनी को बंगाल में उप सूबेदार नामांकित करने का अधिकार मिल गया। इस तरह कंपनी का पुलिस और न्यायिक शक्तियों पर पूरा नियंत्रण स्थापित हो गया। इसी व्यवस्था को ‘दोहरी’ या ‘द्वैध’ शासन व्यवस्था कहा जाता है। इस व्यवस्था के अंतर्गत कंपनी का सत्ता पर तो पूरा अधिकार हो गया जबकि उसके ऊपर कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी। प्रशासन का दायित्व नवाब और उसके पदाधिकारियों पर था, परन्तु इनका निर्वाह करने की शक्ति उनके पास नहीं थी।
बंगाल के प्रशासन की दोहरी व्यवस्था के अंतर्गत कंपनी की लागत पूंजी के संबंध में
- बंगाल में प्रशासन की ‘दोहरी’ या ‘द्वैध’ व्यवस्था के अंतर्गत कंपनी के पदाधिकारियों ने बंगाल की संपदा को दोनों हाथों से लूटा। कंपनी ने भारतीय माल खरीदने के लिये इंग्लैंड से धन भेजना बंद कर दिया। इसके स्थान पर वे बंगाल से प्राप्त राजस्व से ही भारतीय माल खरीदते और इसे विदेशों में बेचते । इस धन को कंपनी की लागत पूंजी समझा जाता था। इसे कंपनी के लाभ के रूप में स्वीकार किया जाता था।
▪︎ 1775 से 1782 तक का समय भारत में ब्रिटिश शक्ति के | लिये बहुत अशुभ घड़ी थी। सभी मराठा सरदार, पेशवा और उसके प्रधानमंत्री नाना फड़नवीस की ओर से एक हो गए। दक्षिण भारत के शासक भी अपने बीच अंग्रेजों की उपस्थिति से चिढ़े हुए थे और इस घड़ी का फायदा उठाकर हैदर अली और निजाम ने कंपनी के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। इस तरह अब अंग्रेजों को मराठों, मैसूर और हैदराबाद के शक्तिशाली गठजोड़ का सामना करना पड़ा।
• 1776 में अमेरिकी जनता ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इस लड़ाई में अंग्रेजों की लगतार हार हो रही थी। फ्रांसीसी अपने प्रतिद्वंद्वियों की इन कठिनाइयों का फायदा उठाना चाहते थे और उसका भी मुकाबला अंग्रेजों को करना पड़ रहा था।
▪︎ प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध ‘सालबाई की संधि’ के साथ स्थगित हुआ। इस युद्ध में किसी की जीत नहीं हुई, किंतु अंग्रेज इससे 20 वर्षो के लिये मराठों की ओर से निश्चित हो गए। इस समय मराठा भारत की सबसे बड़ी शक्ति थी जो ब्रिटिश कंपनी को चुनौती दे सकती थी। इसके अलावा सालबाई की संधि के कारण अंग्रेज मैसूर पर दबाव डालने में सफल रहे, क्योंकि मराठों ने उनसे वादा किया कि वे हैदर अली से अपनी खोई हुई जमीन वापस लेने में अंग्रेजों की सहायता करेंगे। इस प्रकार अंग्रेज़ एक बार फिर भारतीय शासकों में फूट डालने में सफल रहे।
▪︎ भारत में ब्रिटिश शासन का दूसरा बड़ा प्रसार लॉर्ड वेलेजली (1798-1805) के काल में हुआ। वेलेजली ने फैसला किया कि जितने अधिक भारतीय राज्य संभव हो ब्रिटिश नियंत्रण में लाए जाएँ। अपने राजनीतिक उद्देश्य को पूरा करने के लिये वेलेजली ने तीन उपायों का सहारा लिया- सहायक संधि प्रथा, खुला युद्ध और पहले से अधीन बनाए जा चुके शासकों का इलाका हड़पना।
सहायक संधि प्रथा/ प्रणाली के संबंध में
- लॉर्ड वेलेजली द्वारा आरंभ की गई सहायक संधि प्रथा की नीति के अनुसार सहयोगी भारतीय राज्यों के शासकों को ब्रिटिश सेना अपने राज्य में रखनी पड़ती थी तथा उसके रखरखाव के लिये अनुदान देना पड़ता था।
- सहायक संधि के अनुसार आमतौर पर भारतीय शासक को यह भी मानना पड़ता था कि वह अपने दरबार में एक ब्रिटिश रेजीडेंट रखेगा तथा अंग्रेजों की स्वीकृति के बिना किसी यूरोपीय को अपनी सेवा में नहीं रखेगा।
- सहायक संधि पर हस्ताक्षर करके कोई भी भारतीय राज्य अपनी स्वाधीनता लगभग गँवा ही बैठता था। वह आत्मरक्षा, कूटनीतिक संबंध बनाने, विदेशी विशेषज्ञ रखने तथा पड़ोसियों के साथ आपसी झगड़े के अधिकार ही खो बैठता था। वास्तव में उस भारतीय शासक की बाहरी मामलों में सारी संप्रभुता समाप्त हो जाती थी।
- इस प्रथा के कारण सुरक्षा प्राप्त राज्य की सेनाएँ भंग कर दी गई। लाखों सैनिक और अधिकारी अपनी पैतृक जीविका से वंचित हो गए। जिससे देश में बदहाली और गरीबी फैल गई।
- मैसूर का टीपू सुल्तान कभी सहायक सौंध के लिये तैयार नहीं हुआ, बल्कि वह अंग्रेजों के साथ अपने अवश्यंभावी युद्ध के लिये अपनी सेना को लगातार मजबूत बनाता रहा।
- जब ईस्ट इंडिया कंपनी के शेयर होल्डरों को पता चला कि युद्ध के जरिये प्रसार की नीति बहुत महँगी पड़ रही है तथा उनका मुनाफा कम हो रहा है तथा कंपनी के डायरेक्टरों तथा ब्रिटिश राजनेताओं ने आगे प्रसार रोक देने, फिजूल खर्च बंद करने और भारत में ब्रिटेन की उपलब्धियों को सुरक्षित करने का फैसला किया। इसलिये वेलेजली को भारत से वापस बुला लिया गया और कंपनी ने जनवरी 1806 में राजघाट की संधि के द्वारा होल्कर के साथ शांति स्थापित करके उनके राज्य का एक बड़ा भाग वापस कर दिया।
- लॉर्ड वेलेजली ने 1798 और 1800 में हैदराबाद के निजाम के साथ सर्वप्रथम सहायक संधि की।
- 19वीं सदी में यूरोप और एशिया में अंग्रेजों और रूसियों की शत्रुता बढ़ रही थी और अंग्रेजों को भय था कि अफगानिस्तान या फारस के रास्ते रूसी भारत पर हमला कर सकते हैं। सिंध की विजय इसी का परिणाम थी।
- लॉर्ड डलहौजी ने देशी राज्यों के अधिग्रहण के लिये जिस साधन का सहारा लिया, वह था राज्य विलय का सिद्धांत (डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स)। इस सिद्धांत के अनुसार अगर किसी सुरक्षा प्राप्त राज्य का शासक बिना एक स्वाभाविक उत्तराधिकारी के मर जाए तो उसका राज्य उसके दत्तक उत्तराधिकारी को नहीं सौपा जाएगा, जैसा कि सदियों से इस देश में परंपरा चलती आ रही थी। इसके बजाय अगर उत्तराधिकारी गोद लेने के एकाधिकार को पहले से अंग्रेज़ अधिकारियों की सहमति प्राप्त न होगी तो वह राज्य ब्रिटिश राज्य में मिल जाएगा।
- लॉर्ड डलहौजी ने राज्य विलय सिद्धांत के तहत सर्वप्रथम 1848 में सतारा का अधिग्रहण किया। इसके बाद जैतपुर एवं संभलपुर, उदयपुर, झाँसी, नागपुर तथा करौली का अधिग्रहण किया।
- लॉर्ड डलहौजी की निगाहें अवध के साम्राज्य को हड़पने पर लगी थीं। अवध के नवाब के कई उत्तराधिकारी थे, इसलिये उस पर राज्य विलय का सिद्धांत लागू नहीं किया जा सकता था। अंत में डलहौजी ने अवध की जनता की दशा सुधारने के विचार का सहारा लिया। अवध के नवाब वाजिद अली शाह पर इल्जाम लगाया गया कि उन्होंने अपना शासन ठीक से नहीं चलाया और सुधार लागू करने से इनकार कर दिया है। इसके बाद अवध राज्य को 1856 में हड़प लिया गया।
- लॉर्ड डलहौजी ने भारत आते ही घोषणा की थी कि भारत के सभी देशी राज्यों का खात्मा अब कुछ ही समय की बात है। उसकी नीति का उद्देश्य भारत में ब्रिटेन द्वारा निर्मित वस्तुओं का निर्यात बढ़ाना था। दूसरे साम्राज्यवादी आक्रमणकारियों की तरह डलहौजी को भी विश्वास था कि भारत के देशी राज्यों के लिये ब्रिटेन का निर्यात इसलिये घट रहा था कि इन राज्यों के भारतीय शासक उनका शासन ठीक से नहीं चला रहे हैं। इसके अलावा वह समझता था कि भारतीय सहयोगी भारत में ब्रिटिश विजय में जितने सहायक हो सकते थे, उतने हो चुके हैं और अब उनसे छुटकारा पाने में ही लाभ है।
- डलहौजी का अवध पर नियंत्रण का कारण लालच था, क्योंकि अवध अपनी बेपनाह दौलत के साथ मैनचेस्टर में तैयार मालों के लिये अच्छा बाजार बन सकता था। और ऐसे ही कारणों के जरिये कच्चे कपास की ब्रिटेन की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिये डलहौजी ने 1853 में निजाम से बरार का कपास उत्पादक प्रांत ले लिया था।
3. भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की आर्थिक नीतियाँ और प्रशासनिक ढाँचा (1757-1857)
- 1773 के रेगुलेटिंग एक्ट के तहत कंपनी का पूर्व के साथ व्यापार पर एकाधिकार बना रहा।
- इस कानून के कारण कंपनी के कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के गठन में परिवर्तन हुआ तथा उनकी गतिविधियाँ ब्रिटिश सरकार की निगरानी में आ गई।
- भारत में अपने अधिकारी नियुक्त करने का कंपनी का बहुमूल्य अधिकार उसी के हाथ में बना रहा।
1784 के पिट का इंडिया एक्ट के संबंध में
- रेगुलेटिंग एक्ट के दोषों तथा ब्रिटिश राजनीति के उतार-चढ़ाव के कारण 1784 में एक कानून बनाना पड़ा जिसे ‘पिट का इंडिया एक्ट’ कहा जाता है। इस कानून ने बंबई और मद्रास प्रेसिडेंसियों को युद्ध, कूटनीति और राजस्व के मामलों में स्पष्ट | शब्दों में बंगाल के अधीन कर दिया। इस कानून के साथ भारत में ब्रिटिश विजय का एक नया युग आरंभ हुआ।
- 1813 के चार्टर एक्ट के अनुसार भारतीय व्यापार पर कंपनी का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया और सभी ब्रिटिश नागरिकों को भारत के साथ व्यापार करने की छूट दे दी गई। परन्तु चाय के व्यापार और चीन के साथ व्यापार पर कंपनी का एकाधिकार बना रहा।
- भारत की सरकार तथा उसका राजस्व भी कंपनी के हाथों में बना रहा।
- आगे 1833 चार्टर एक्ट के द्वारा चाय के व्यापार तथा चीन के साथ व्यापार पर भी कंपनी का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया।
1813 में ब्रिटिश सरकार द्वारा अपनाई गई मुक्त व्यापार की नीति के प्रभावों के संबंध में
- ब्रिटिश सरकार द्वारा 1813 में भारत के संदर्भ में अपनाई गई मुक्त व्यापार की नीति का मुख्य उद्देश्य भारत को ब्रिटेन के कारखानों के माल का उपभोक्ता तथा कच्चे माल का निर्यातक बनाना था। इस नीति के कारण खेतिहर भारत को अब औद्योगिक इंग्लैंड का आर्थिक उपनिवेश बनना पड़ा।
- भारत पर लादी गई मुक्त व्यापार की नीति एकतरफा थी। भारत के दरवाजे तो विदेशी सामानों के लिये खुले छोड़ दिये गए, मगर जो भारतीय माल ब्रिटिश मालों से प्रतियोगिता कर सकते थे, उन पर ब्रिटेन में प्रवेश के लिये भारी आयात शुल्क लगा दिये गए।
- अनेक ब्रिटिश अधिकारियों, राजनीतिक नेताओं तथा व्यापारियों ने जमीन का लगान घटाने की पैरवी की ताकि किसान बेहतर स्थिति में हों और विदेशी कारखानों में बना माल खरीद सकें। उन्होंने भारत के पश्चिमीकरण का समर्थन भी किया ताकि अधिकाधिक भारतीयों में पश्चिमी मालों के प्रति रुचि का विकास हो सके।
- अंग्रेजों ने भारत में एक कुशल और आधुनिक डाक प्रणाली कायम की तथा तार की व्यवस्था की शुरुआत की। 1853 में कलकत्ता और आगरा के बीच पहली तार लाइन को आरंभ किया गया।
- लॉर्ड डलहौजी के समय ही डाक टिकटों एवं तार लाइनों को आरंभ किया गया।
- भारत में रेलवे लाइन के विकास का कार्य सर्वप्रथम डलहौजी के समय में शुरू हुआ। 1849 में भारत का गवर्नर-जनरल बनने वाला लॉर्ड डलहौजी भारत में तेजी से रेल लाइन बिछाने का समर्थक था।
- बंबई और ठाणे के बीच पहली रेल लाइन यातायात के लिये 1853 में शुरू की गई।
- ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप तथा विभिन्न उपनिवेशों के कारण वहाँ के उद्योगपतियों एवं अधिकारियों के पास काफी पूंजी इकट्ठा हो गई थी। इस कारण से भारत सरकार ने उनको निश्चित लाभांश का आश्वासन देकर उनकी पूंजी को रेलवे के विकास में लगाया। जिस कारण से ब्रिटेन के उद्योग धंधों के साथ-साथ वहाँ के लोगों को रोजगार के रूप में काफी लाभ हुआ।
- रेलों की योजना तैयार करने, उनका निर्माण तथा प्रबंध में भारत और उसकी जनता के आर्थिक और राजनीतिक विकास को महत्त्व नहीं दिया गया। इसके विपरीत खास ध्यान भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक हितों की पूर्ति का रखा गया।
- रेल भाड़े को इस प्रकार तय किया गया था कि आयात-निर्यात को बढ़ावा मिले तथा वस्तुओं के आंतरिक आवागमन को हतोत्साहित किया जा सके।
- लॉर्ड कॉर्नवालिस ने 1793 में इस्तमरारी बंदोबस्त का आरंभ किया। इसे स्थायी बंदोबस्त, जागीरदारी आदि भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है।
- कॉर्नवालिस ने 1793 में बंगाल और बिहार में इस्तमरारी (स्थायी) बंदोबस्त की प्रथा का आरंभ किया।
इस्तमरारी (स्थायी) व्यवस्था के संबंध में
- कार्नवालिस द्वारा शुरू की गई इस्तमरारी (स्थायी बंदोवस्त) के अंतर्गत जमींदारों और मालगुजारों को भू-स्वामी बना दिया गया। जमींदार अब अपने इलाके की सारी जमीन के मालिक बन गए। उनके स्वामित्व के अधिकार को वंशानुगत और हस्तांतरणीय बना दिया गया।
- किसानों से लगान (कर) वसूलने की जिम्मेदारी जमींदारों को थी। जमींदारों को किसानों से जो भी लगान मिलता. उसका 10/11 भाग उन्हें सरकार को देना पड़ता था और केवल 1/11 भाग अपने पास रख सकते थे।
- इस व्यवस्था के तहत लगान की रकम हमेशा के लिये निश्चित कर दी गई थी। अगर किसी कारण से फसल नष्ट हो जाए तो भी जमींदार को लगान की निश्चित रकम सरकार को तय तिथि को नियमपूर्वक चुकानी पड़ती थी, वरना उसकी जमीन बेच दी जाती थी।
- ब्रिटिशों ने भारत के दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में कर की एक नई व्यवस्था लागू की जिसे रैयतवाड़ी बंदोबस्त कहते हैं। ब्रिटिश | अधिकारियों का मत था कि इन क्षेत्रों में बड़ी जागीरों वाले ऐसे जमींदार नहीं हैं जिनके साथ मालगुजारी (लगान) के बंदोबस्त किये जा सकें और इसलिये वहाँ जमींदारी प्रथा लागू करने से स्थिति उलट-पुलट जाएगी। इसलिये उन्होंने सीधे वास्तविक काश्तकारों के साथ बंदोबस्त किया। अंग्रेज अधिकारियों को यह भी अहसास हुआ कि स्थायी बंदोवस्त की प्रथा में कंपनी वित्तीय दृष्टि से घाटा उठा रही है, क्योंकि उन्हें मालगुजारी में जमींदारों को हिस्सा देना पड़ता था और वे जमीन से होने वाली अतिरिक्त आय से वंचित रह जाते थे।
रैयतवाड़ी बंदोबस्त के संदर्भ में
- ब्रिटिश सरकार द्वारा दक्षिण तथा दक्षिण-पश्चिम भारत में जमींदारों के अभाव में रैयतवाड़ी व्यवस्था लागू की गई। इस व्यवस्था में किसान (काश्तकार) जमीन के जिस टुकड़े को जोतता-बोता था उसका मालिक मान लिया जाता था। शर्त यह थी कि वह उस जमीन का लगान देता रहे।
- इस व्यवस्था के अंतर्गत कोई स्थायी बंदोबस्त नहीं किया गया। प्रत्येक बीस-तीस वर्ष पर इसका पुनर्निर्धारण किया जाता था और तब आमतौर पर मालगुजारी (लगान) बढ़ा दी जाती थी।
- गंगा के दोआब में पश्चिमोत्तर प्रांत में, मध्य भारत के कुछ भागों में और पंजाब में जमींदारी प्रथा का एक संशोधित रूप लागू किया गया जिसे महालवाड़ी प्रथा कहा जाता है। इस व्यवस्था में मालगुजारी का बंदोबस्त अलग-अलग गाँवों या जागीरों (महालों) के आधार पर उन जमींदारों या उन परिवार के मुखियाओं के साथ किया गया जो सामूहिक रूप से उस गाँव या जागीर का भू-स्वामी होने का दावा करते थे।
ब्रिटिश भू-राजस्व नीतियों के संबंध में
- ब्रिटिशों द्वारा शुरू की गई स्थायी बंदोबस्त तथा रैयतवाड़ी बंदोबस्त देश की परंपरागत भूमि प्रथाओं से मूलतः भिन्न थीं। अंग्रेजों ने भूमि में एक नए प्रकार की निजी संपत्ति इस प्रकार पैदा की कि उसका लाभ काश्तकारों को नहीं मिला। पूरे देश में अब भूमि को बेचने, गिरवी रखने और हस्तांतरित की जा सकने वाली वस्तु बना दिया गया। ऐसा मुख्यतः सरकार के राजस्व को सुरक्षित रखने के लिये किया गया।
- अनेक अंग्रेज अधिकारियों का मानना था कि इस्तमरारी (स्थायी) बंदोबस्त की प्रथा में कंपनी वित्तीय दृष्टि से घाटा उठा रही थी. क्योंकि उसे कर में जमींदारों को हिस्सा देना पड़ता था और वह जमीन से होने वाली आमदनी के बढ़ने पर उसमें से हिस्सा नहीं मांग सकती थी। इस कारण दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम भारत में टॉमस मुनरो और कैप्टन रोड के नेतृत्व में मद्रास के अन्य अधिकारियों ने यह सिफारिश की कि सीधे वास्तविक काश्तकारों के साथ बंदोबस्त किया जाए जिसके परिणामस्वरूप रैयतवाड़ी बंदोबस्त शुरू किया गया।
4. प्रशासनिक संगठन और सामाजिक तथा सांस्कृतिक नीति
- नागरिक सेवा (सिविल सर्विस) का जन्मदाता कॉर्नवालिस था। कंपनी की नागरिक सेवा (सिविल सर्विस) उस समय संसार में सबसे अधिक भुगतान पाने वाली सेवा थी।
- लॉर्ड वेलेजली ने 1800 में नागरिक सेवा में आने वाले युवा लोगों के प्रशिक्षण के लिये कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज खोला। कंपनी के निदेशकों ने उसकी कार्यवाही को पसंद नहीं किया और 1806 में उन्होंने कलकत्ता के कॉलेज की जगह इंग्लैंड में हैलीबरी में अपने ईस्ट इंडिया कॉलेज में प्रशिक्षण का काम आरंभ किया।
- कॉर्नवालिस के समय भारतीय नागरिक सेवा में भारतीयों को बड़ी सख्ती से पूरी तरह अलग रखा जाता था, किंतु 1853 में एक चार्टर एक्ट द्वारा यह कानूनी व्यवस्था लागू कर दी गई कि नागरिक सेवा में सारे प्रवेश प्रतियोगी परीक्षाओं के द्वारा किये जाएंगे।
- पुलिस व्यवस्था भारत में ब्रिटिश शासन का एक प्रमुख स्तंभ थी। इसका सृजन करने वाला कॉर्नवालिस था। उसने जमींदारों को पुलिस कार्यों से मुक्त कर दिया और कानून तथा व्यवस्था बनाए रखने के लिये एक नियमित पुलिस दल की स्थापना की।
- कॉर्नवालिस ने थानों की व्यवस्था स्थापित की थी। हर थाने का प्रधान दरोगा होता था जो भारतीय होता था।
- दीवानी और फौजदारी कचहरियों के श्रेणीबद्ध संगठन के जरिये न्याय प्रदान करने की नई व्यवस्था को वारेन हेस्टिंग्स ने आरंभ किया मगर कॉर्नवालिस ने इसे सृदृढ़ बनाया। कॉर्नवालिस ने हर जिले में एक दीवानी अदालत कायम की जिसका प्रमुख जिला जज होता था, जो नागरिक सेवा का सदस्य होता था। इस तरह कॉर्नवालिस ने दीवानी जज और कलेक्टर ओहदों को अलग-अलग कर दिया।
- भारत में सदर दीवानी अदालत और सदर निजामत अदालत की जगह 1865 में कलकत्ता, मद्रास और बंबई में उच्च न्यायालय (हाई कोर्ट) स्थापित किये गए।
- ब्रिटिश सरकार ने 1833 में लॉर्ड मैकाले के नेतृत्व में भारतीय कानूनों को संहिताबद्ध करने के लिये एक विधि आयोग नियुक्त किया था।
भारत में ब्रिटिश राज दौरान विधि प्रणाली के संबंध में
- अंग्रेजी राज के दौरान भारतीय विधि प्रणाली कानून के सम्मुख समानता की अवधारणा पर आधारित थी। अर्थात् जाति, धर्म या वर्ग के आधार पर बिना किसी भेदभाव के एक ही कानून सब पर लागू होता था। इसके पहले की न्यायप्रणाली जातिगत भेदभाव करती थी।
- भारत में यूरोपवासियों और उनके वंशजों के लिये अलग अदालत तथा अलग कानून थे। उनके खिलाफ फौजदारी मुकदमों की सुनवाई केवल यूरोपीय जज ही कर सकते थे।
- आधुनिक न्याय प्रणाली काफी खर्चीली थी क्योंकि कोर्ट फीस का भुगतान करना पड़ता था, वकील करने पड़ते थे और गवाहों के खर्च को पूरा करना होता था।
- ब्रिटिश अधिकारियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था का पुनर्गठन और विनियमन ब्रिटिश व्यापार और उद्योगों के हितों में किया और व्यवस्था और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये आधुनिक प्रशासनिक व्यवस्था की। स्थापना की।
- ब्रिटिशों ने 1813 तक भारतीयों के धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में अहस्तक्षेप की नीति अपनाई।
- 1813 तक अंग्रेजों ने देश के धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में अहस्तक्षेप की नीति अपनाई, किंतु 1813 के बाद उन्होंने भारतीय समाज और संस्कृति के | रूपांतरण के लिये सक्रिय कदम उठाए। इससे पहले 19वीं सदी के दौरान ब्रिटेन में नए हितों और नए विचारों का उदय हुआ था। औद्योगिक क्रांति अठारहवीं सदी के मध्य में आरंभ हुई थी जिसके फलस्वरूप औद्योगिक पूंजीवाद का विकास ब्रिटिश समाज के सभी पहलुओं को बदल रहा था। उदीयमान औद्योगिक हितों ने भारत को अपनी वस्तुओं के लिये बड़े बाजार के रूप में बदलना चाहा। ऐसा केवल शांति बनाए रखने की नीति के जरिये नहीं हो सकता था बल्कि इसके लिये भारतीय समाज के आशिक रूपांतरण और आधुनिकीकरण की आवश्यकता थी।
- अठारहवीं और उन्नीसवीं सदियों के दौरान विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने मानवीय प्रगति की नई प्रत्याशाएँ उत्पन्न कर दीं। इस दौरान यूरोप तथा ब्रिटेन में नए विचारों का एक नया ज्वार देखा गया जिसने भारतीय समस्याओं के प्रति ब्रिटिश दृष्टिकोण को प्रभावित किया।
- नया चिंतन अठारहवीं शताब्दी की बौद्धिक क्रांति, फ्रांसीसी क्रांति और औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न हुआ था। स्वाभावतया इस नए चिंतन का प्रभाव भारत में महसूस किया गया तथा उसने सरकार को शासकीय धारणाओं को भी कुछ हद तक प्रभावित किया।
- भारत स्थित ब्रिटिश प्रशासकों की मूल दुविधा यह थी कि कुछ सीमा तक आधुनिकीकरण के बिना भारत में ब्रिटिश हितों को नहीं साधा जा सकता था परंतु पूर्ण आधुनिकीकरण ऐसी शक्तियों को जन्म देता। जो उनके हितों के विरुद्ध जाती और आगे चलकर ब्रिटिश सत्ता के लिये खतरे पैदा करती। इसलिये उन्हें आशिक आधुनिकीकरण की अत्यंत सावधानी से संतुलित नीति अपनानी पड़ी थी।
▪︎ 18वीं सदी में यूरोप में चिंतन की नई लहरों का पुराने दृष्टिकोण से टकराव हुआ। पुराने दृष्टिकोण को रूढ़िवादी या परंपरागत दृष्टिकोण कहा जाता था। यह दृष्टिकोण भारत में यथासंभव कम से कम परिवर्तन करने का पक्षपाती था। शुरुआत में इस दृष्टिकोण के प्रतिनिधि वारेन हेस्टिग्स और प्रसिद्ध लेखक तथा सांसद एडमंड बर्क थे। वे भारतीय दर्शन और संस्कृति की इज्जत करते थे। उन्होंने प्रस्ताव दिया कि कुछ पश्चिमी विचारों और रिवाजों को लागू करना जरूरी हो सकता है। किंतु उन्हें बड़ी सावधानीपूर्वक धीरे-धीरे लागू किया जाए। उन्होंने महसूस किया कि व्यापक या जल्दीबाजी में किये गए परिवर्तन देश में तीव्र प्रतिक्रिया उत्पन्न करेंगे।
• 1800 ई. तक रूढ़िवादी दृष्टिकोण की जगह पर बड़ी तेजी से नया दृष्टिकोण आने लगा था जो भारतीय समाज और संस्कृति का कटु आलोचक था। भारतीय सभ्यता को गतिहीन कहकर उसकी निंदा की गई और उसे घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा।
▪︎ अंग्रेजों ने आधुनिकीकरण की नीति को 1858 के बाद धीरे-धीरे छोड़ दिया, क्योंकि भारतीय अपने समाज के आधुनिकीकरण तथा अपनी संस्कृति पर जोर देने की दिशा में बढ़े। भारतीयों ने मांग की कि उन पर स्वतंत्रता, समानता और राष्ट्रीयता के आधुनिक सिद्धांत के अनुसार शासन किया जाए। ब्रिटिश लोगों ने सुधारकों को अपना समर्थन देना बंद कर दिया। धीरे-धीरे उन्होंने समाज के कट्टरपंथियों का पक्ष लेना शुरू किया। उन्होंने जातिवाद तथा सांप्रदायिकता को भी बढ़ावा दिया।
▪︎ विलियम बैंटिक ने 1829 में सती प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया। बैंटिक ने घोषणा की कि पति की चिता पर विधवा के जल मरने की कार्रवाई में जो भी सहयोगी होंगे उन्हें भी अपराधों माना जाएगा।
▪︎ शिशु हत्या को रोकने के कानून 1795 और 1802 में बनाए गए थे मगर उन्हें सी में बैंटिक और हार्डिंग ने ही लागू किया। हार्डिंग में नर बलि प्रथा को खत्म करने के लिये भी कानून बनाया। यह प्रथा गोड नाम की आदिम जाति में प्रचलित थी।
▪︎ ब्रिटिश सरकार ने ईश्वरचंद्र विद्यासागर और अन्य सुधारकों द्वारा विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में लगातार चलाए गए आंदोलन के कारण 1856 में हिंदू विधवाओं के पुनर्विवाह के लिये कानून पास किया।
▪︎ 19वीं सदी में अंग्रेज भारत में आधुनिक शिक्षा आरंभ करने में अधिक सफल रहे। आधुनिक शिक्षा के प्रसार में ब्रिटिश सरकार, ईसाई धर्मप्रचारक और बड़ी संख्या में प्रबुद्ध भारतीयों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।
▪︎ 1781 में वारेन हेस्टिंग्स ने मुस्लिम कानून और संबद्ध विषयों के अध्ययन और पढ़ाई के लिये कलकत्ता में मदरसा स्थापित किया जिसका उद्देश्य था, कि कंपनी की अदालतों में न्याय प्रशासन के लिये योग्य भारतीय नियमित रूप से मिल सकें।
▪︎ जोनाथन डकन ने 1791 में हिंदू कानून और दर्शन के अध्ययन के लिये वाराणसी में संस्कृत कॉलेज स्थापित किया।
▪︎ 1813 के चार्टर एक्ट में विद्वान भारतीयों को बढ़ावा देने तथा देश में आधुनिक विज्ञानों के ज्ञान को प्रोत्साहित करने का सिद्धांत शामिल किया गया। इस एक्ट के तहत ईस्ट इंडिया कंपनी को इस उद्देश्य के लिये एक लाख रुपए खर्च करने का निर्देश दिया गया। मगर 1823 तक कंपनी के अधिकारियों ने इस काम के लिये यह तुच्छ रकम भी नहीं दी।
▪︎ ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में आधुनिक शिक्षा के प्रसार का | मुख्य कारण था प्रशासन का खर्च कम करना। इसके लिये ब्रिटिश सरकार शिक्षित भारतीयों की संख्या बढ़ाना चाहती थी जिससे प्रशासन और बढ़ते ब्रिटिश व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के छोटे कर्मचारियों की बढ़ी हुई जरूरतों को पूरा किया जा सके। शिक्षित भारतीय अपेक्षाकृत सस्ते पड़ते थे।
▪︎ अंग्रेजों की शिक्षा नीति का एक अन्य प्रयोजन इस धारणा से निकला था कि शिक्षित भारतीय इंग्लैंड में बनी वस्तुओं के बाज़ार का भारत में विस्तार करेंगे। अंत में पाश्चात्य शिक्षा भारतीय जनता को ब्रिटिश शासन स्वीकार करने के लिये प्रेरित करेगी।
▪︎ औपनिवेशिक काल में शिक्षा पर खर्च की कमी को पूरा करने के लिये ब्रिटिश अधिकारियों ने तथाकथित अधोगामी निस्यंदन सिद्धांत या नीचे की ओर छन जाने के सिद्धांत का सहारा लिया। चूँकि शिक्षा के मद् में दी गई धनराशि के द्वारा मुट्ठी भर लोगों को ही शिक्षित किया जा सकता था, इसलिये यह तय हुआ कि उसे उच्च और मध्यम वर्गों के थोड़े से लोगों पर खर्च किया जाए। उन लोगों से आशा की जाती थी कि वे जनसाधारण को शिक्षित करने और उनके बीच आधुनिक विचारों का प्रचार करने का काम अपने ऊपर लेंगे।
▪︎ देश में सर्वप्रथम इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना रुड़की में हुई।
5. उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में सामाजिक और सांस्कृतिक जागरण
▪︎ राजा राममोहन राय भारतीय पुनर्जागरण के मुख्य नेता थे। जिन्हें आधुनिक भारत का प्रथम नेता मानना एकदम उचित है। वे पहले भारतीय थे जिन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों के विरोध में आंदोलन चलाया। अपने देश और जनता के प्रति गहरे प्रेम से प्रेरित होकर आजीवन उनके सामाजिक, धार्मिक, बौद्धिक और राजनीतिक नवोत्थान के लिये राजा राममोहन राय ने कठिन परिश्रम किया। राजा राममोहन राय को ‘भारतीय पुनर्जागरण का पिता’ माना जाता है।
राजा राममोहन राय के संबंध में
- राजा राममोहन राय जीवन भर बंगाल के हिन्दुओं में प्रचलित धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ जोरदार संघर्ष चलाया। विशेष रूप से उन्होंने मूर्तिपूजा, जाति की कट्टरता और निरर्थक धार्मिक कृत्यों के प्रचलन का जोरदार विरोध किया।
- राजा राममोहन राय ने सती प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आजीवन संघर्ष किया। इन्हीं के प्रयासों के फलस्वरूप ही विलियम बैंटिक ने सती प्रथा को गैर-कानूनी घोषित किया।
- राजा राममोहन राय की धारणा थी कि सभी प्रमुख प्राचीन हिन्दू धर्मग्रंथों ने एकेश्वरवाद की शिक्षा दी है। उन्होंने एकेश्वरवाद के समर्थन में कई पुस्तक पुस्तिकाएँ भी लिखीं।
- राजा राममोहन राय ने 1828 में ब्रह्म सभा नाम की एक नई धार्मिक संस्था की स्थापना की जिसको बाद में ग्रहा समाज कहा गया। इसका उद्देश्य हिंदू धर्म को स्वच्छ बनाना और एकेश्वरवाद की शिक्षा देना था। नई संस्था के दो आधार थे तर्कशक्ति और वेद तथा उपनिषद् । उसे अन्य धर्मों की शिक्षाओं को भी समाहित करना था। ब्रह्म समाज ने मानवीय प्रतिष्ठा पर जोर दिया, मूर्तिपूजा का विरोध किया तथा सती प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों की आलोचना की।
- डेविड हेअर ने 1817 में कलकत्ता में प्रसिद्ध हिंदू कॉलेज की स्थापना की। वह 1800 में एक घड़ीसाज के रूप में भारत आया था, मगर उसने अपनी सारी जिंदगी देश में आधुनिक शिक्षा के प्रसार में लगा दी।
- राजा राममोहन राय ने 1825 में एक वेदांत कॉलेज की स्थापना की जिसमें भारतीय विद्या और पाश्चात्य सामाजिक तथा भौतिक विज्ञान की पढ़ाई की सुविधाएँ उपलब्ध थीं।
- राजा राममोहन राय ने 1809 में फारसी में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गिफ्ट टू मोनोथेसिस्ट’ (एकेश्वरवादियों को उपहार) लिखी, जिसमें उन्होंने अनेक देवताओं में विश्वास के विरुद्ध और एकेश्वरवाद के पक्ष में वजनदार तर्क दिये।
- उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक के अंतिम वर्षों के दौरान बंगाली बुद्धिजीवियों के बीच एक आमूल परिवर्तनकारी प्रवृत्ति पैदा हुई। यह प्रवृत्ति राजा राममोहन राय की अपेक्षा अधिक आधुनिक थी, जिसे यंग बंगाल आंदोलन के नाम से जाना जाता है। इस आंदोलन का नेता और प्रेरक नौजवान एंग्लो इंडियन हेनरी विवियन डेरोजियो था।
- राजा राममोहन राय के विचारों के प्रचार के लिये रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने 1839 में तत्त्वबोधिनी सभा की स्थापना। की। तत्त्वबोधिनी सभा और उसके मुख्य पत्र ‘तत्त्वबोधिनी पत्रिका’ ने बांग्ला भाषा में भारत सुव्यवस्थित अध्ययन को बढ़ावा दिया।
यंग बंगाल आंदोलन’ के संदर्भ में
- यंग बंगाल आंदोलन के प्रेरक और नेता हेनरी विवियन डेरोजियो ने महान फ्राँसीसी क्रांति से प्रेरणा ली और अपने जमाने के अत्यंत क्रांतिकारी विचारों को अपनाया। वह एक अत्यंत प्रतिभाशाली शिक्षक था।
- डेरोजियो को उसकी क्रांतिकारिता के कारण 1831 में हिंदू कॉलेज से हटा दिया गया। उसके अनुयायियों ने पुरानी और हासोन्मुख प्रथाओं, कृत्यों और रिवाजों की घोर आलोचना की। उन्होंने नारी शिक्षा की मांग की किन्तु वे किसी आंदोलन को जन्म देने में सफल नहीं हुए क्योंकि उनके विचारों के फलने-फूलने के लिये सामाजिक स्थितियाँ उपयुक्त नहीं थी। उस समय भारतीय समाज | में ऐसा कोई और वर्ग या समूह नहीं था जो उनके प्रगतिशील विचारों का समर्थन करता। यही नहीं, वे जनता के साथ अपने संपर्क नहीं बना सके। वस्तुतः उनकी क्रांतिकारिता किताबी थी।
आधुनिक भारत के निर्माण में ईश्वरचंद्र विद्यासागर के योगदान के संबंध में
- आधुनिक भारत निर्माण में ईश्वरचंद्र विद्यासागर का योगदान कई प्रकार से था-
- विद्यासागर ने संस्कृत पढ़ाने की नई तकनीक विकसित की। उन्होंने एक बांग्ला वर्णमाला लिखी जो आज तक इस्तेमाल की जाती है। उन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा बांग्ला में आधुनिक गद्य शैली के विकास में सहायता दी।
- ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने संस्कृत कॉलेज के दरवाजे गैर-ब्राह्मण विद्यार्थियों के लिये खोल दिये क्योंकि वे संस्कृत के अध्ययन पर ब्राह्मण जाति के तत्कालीन एकाधिकार के विरोधी थे।
- सबसे अधिक, विद्यासागर को देशवासी, भारत की पददलित नारी जाति को ऊँचा उठाने में उनके योगदान के कारण आज भी याद करते हैं। उन्होंने विधवा-पुनर्विवाह के लिये लंबा संघर्ष चलाया। हमारे देश की उच्च जातियों में पहला कानूनी हिंदू विधवा-पुनर्विवाह कलकत्ता में 7 दिसंबर, 1856 को विद्यासागर की प्रेरणा और उनकी देख-रेख में हुआ।
- विद्यासागर ने बाल विवाह का विरोध किया। वे नारी शिक्षा में गहरी दिलचस्पी रखते थे। स्कूलों के सरकारी निरीक्षक की हैसियत से उन्होंने 35 बालिका विद्यालयों की स्थापना की. जिनमें से कई को उन्होंने अपने खर्चे पर चलाया।
- महाराष्ट्र में नई शिक्षा और नए सामाजिक सुधारों के प्रवक्ता गोपाल हरि देशमुख थे, जो आगे चलकर ‘लोकहितवादी’ उपनाम से विख्यात हुए। आधुनिक, मानवतावादी तथा धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और विवेकसंगत सिद्धांतों के आधार पर भारतीय समाज के पुनर्गठन की उन्होंने वकालत की।
19वीं सदी में पश्चिमी भारत में सुधार आंदोलन के संबंध में
- 1849 में महाराष्ट्र में ‘परमहंस मंडली’ की स्थापना की गई। इसके संस्थापक एक ईश्वर में विश्वास रखते थे तथा उनकी दिलचस्पी जात-पात के बंधनों को तोड़ने में थी। जब इसकी बैठक होती थी तब इसके सदस्य तथाकथित नीची जातियों के हाथ का पकाया हुआ भोजन करते थे।
- दादाभाई नौरोजी बंबई के प्रमुख समाज सुधारकों में से एक थे। ये ‘पारसी धर्म सुधार संगठन’ के संस्थापकों में से एक थे। पारसी कानून संघ के जन्मदाताओं में भी वे थे।
- 1850 में विष्णु शास्त्री पंडित ने ‘विधवा-विवाह समाज’ की स्थापना की।
ज्योतिबा फुले के संबंध में
- ज्योतिबा फुले महाराष्ट्र के समाज सुधार आंदोलन से संबंधित हैं। उन्होंने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की।
- ज्योतिबा फुले नीची मानी जाने वाली माली जाति में पैदा हुए थे। महाराष्ट्र के गैर-ब्राह्मण और अछूत जातियों की दयनीय सामाजिक स्थिति को वे भी अच्छी तरह समझते थे। उन्होंने ऊँची जातियों के प्रभुत्व और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के खिलाफ जीवन भर अभियान चलाया।
- 1851 में ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी ने पूना में लड़कियों के लिये एक स्कूल खोला।
6. 1857 का विद्रोह
1857 के विद्रोह के कारण
- ब्रिटिश शासन के प्रति व्याप्त जन असंतोष ने ही एक जन-विद्रोह का रूप ले लिया जिसकी परिणति 1857 की क्रांति के रूप में सामने आई। जन-असंतोष का संभवतः सबसे महत्त्वपूर्ण कारण अंग्रेजों द्वारा देश का आर्थिक शोषण तथा देश के परंपरागत आर्थिक ढाँचे का विनाश था।। जिसने बड़ी संख्या में परंपरागत जमींदारों, किसानों, दस्तकारों तथा हस्तशिल्पियों को निर्धनता के मुँह में झोंक दिया।
- निचले स्तर पर प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार ने साधारण जनता को बुरी तरह प्रभावित किया। विद्रोह के कारणों की चर्चा करते हुए 1859 में एक ब्रिटिश अधिकारी विलियम एडवर्ड ने लिखा कि ‘पुलिस को जनता कोढ़ के समान समझती थी।
- लॉर्ड डलहौजी ने 1856 में अवध को ब्रिटिश शासन में मिला लिया। पूरे भारत में तथा खासतौर पर अवध में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। विशेष रूप से, इसके कारण अवध में और कंपनी की सेना में विद्रोह का वातावरण बन गया।
- 1857 के विद्रोह के समय भारत का गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग था।
1857 की क्रांति के धार्मिक कारणों के संबंध में
- 1857 में ब्रिटिश शासन के विरोध में जनता के खड़े होने का एक प्रमुख कारण लोगों की यह धारणा थी कि इस शासन के कारण उनका धर्म खतरे में है। इस भय का कारण था ईसाई मिशनरियों द्वारा भारतीय लोगों को ईसाई बनाने का प्रयास करना तथा ये लोग हिंदू धर्म और इस्लाम पर सार्वजनिक रूप से तीखा और भोंडा प्रहार करते थे।
- पहले के भारतीय शासकों ने मंदिर और मस्जिद से जुड़ी जमीन को, उनके पुजारियों या सेवा संस्थाओं को कर से मुक्त रखा था। अब इनसे कर वसूलने की सरकारी नीति से भी लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट लगी।
- अनेक लोगों की रूढ़िवादी धार्मिक और सामाजिक भावनाएँ उन मानवतावादी उपायों के कारण भड़कीं जो सरकार ने भारतीय समाज सुधारकों की सलाह पर किये। सती-प्रथा का उन्मूलन, विधवा-पुनर्विवाह संबंधी कानून तथा लड़कियों के लिये पश्चिमी शिक्षा की व्यवस्था इन लोगों को ऐसे ही अनधिकृत हस्तक्षेप की तरह लगे।
1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण
- 1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण धार्मिक था। नई एनफील्ड राइफल का उपयोग सबसे पहले सेना में ही आरंभ किया गया। | इसकी कारतूसों पर चर्बी सने कागज का खोल चढ़ा होता था और कारतूस को राइफल में भरने से पहले उसके सिरों को दाँतों से काटना पड़ता था। सिपाहियों का मानना था कि इस खोल में गाय और सुअर की चर्बी का प्रयोग किया गया था। इससे हिंदू तथा मुसलमान सिपाही दोनों भड़क उठे।
- विद्रोह का आरंभ 10 मई, 1857 को दिल्ली से 36 मील दूर मेरठ में हुआ। फिर यह तेजी से बढ़ता हुआ पूरे उत्तर भारत में फैल गया।
▪︎ मंगल पांडे बैरकपुर छावनी के एक नौजवान सिपाही थे, जिनको अकेले विद्रोह करने तथा अपने अधिकारियों पर हमला करने के कारण फाँसी दे दी गई।
• 1857 के बागी सिपाहियों ने बूढ़े और शक्तिहीन बहादुर शाह जफर को भारत का सम्राट घोषित कर दिया। दिल्लीजल्द ही इस महान विद्रोह का केन्द्र बन गई तथा बहादुर शाह इसके महान प्रतीक बन गए।
▪︎ दिल्ली, 1857 के विद्रोह का केन्द्र थी। दिल्ली में प्रतीक रूप में कहने को विद्रोह के नेता बादशाह बहादुरशाह थे. परंतु वास्तविक नियंत्रण एक सैनिक समिति के हाथों में था क्योंकि बहादुर शाह बूढ़ा और एक शक्तिहीन शासक था। इस समिति के प्रमुख जनरल बख्त खाँ थे। इन्होंने बरेली के सैनिकों का नेतृत्व किया था तथा उनको दिल्ली ले आए थे। ब्रिटिश सेना में वे तोपखाने के एक मामूली सूबेदार थे।
क्रांतिकारियों के नाम | स्थान |
नाना साहब | कानपुर |
बेगम हजरतमहल | लखनऊ |
महारानी लक्ष्मीबाई | झाँसी |
कुँवर सिंह | बिहार |
- कानपुर में विद्रोहियों के नेता नाना साहब थे, जो अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। सिपाहियों की सहायता से अंग्रेजों को कानपुर से खदेड़कर नाना साहब ने स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया।
- लखनऊ में विद्रोह का नेतृत्व अवध की बेगम हजरत महल कर रही थीं। उन्होंने अपने नाबालिग बेटे बिरजिस कद्र को अवध का नवाव घोषित कर दिया। लखनऊ के सिपाहियों तथा अवध के किसानों और जमींदारों की सहायता से बेगम ने अंग्रेजों के खिलाफ चौतरफा युद्ध छेड़ दिया।
- 1857 के विद्रोह के महान नेताओं में भारतीय इतिहास की महानतम वीरांगनाओं में से एक थीं झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई, झाँसी की गद्दी के उत्तराधिकार के मसले पर रानी विद्रोहियों से आ मिलीं।
- बिहार में विद्रोह के प्रमुख नेता कुँवर सिंह थे, जो आरा के पास जगदीशपुर के एक जमींदार थे।
- अंग्रेजों ने एक लंबे तथा भयानक युद्ध के बाद सबसे पहले 20 सितंबर, 1857 को दिल्ली पर दोबारा कब्जा कर लिया। बूढ़े सम्राट बहादुर शाह बंदी बना लिये गए। उनके राजकुमार पकड़कर वहीं मार दिये गए। सम्राट पर मुकदमा चला तथा उन्हें निर्वासित कर रंगून भेज दिया गया।
- भारतीय रजवाड़ों के अधिकांश शासक तथा बड़े जमींदार स्वार्थी थे एवं अंग्रेज़ों की शक्ति से भयभीत थे और वे विद्रोह में शामिल नहीं हुए। इसके विपरीत ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होल्कर, हैदराबाद के निजाम, जोधपुर के राजा तथा दूसरे राजपूत शासक, भोपाल के नवाब पटियाला, नाभा और जींद के सिख शासक तथा पंजाब के दूसरे सिख सरदार, कश्मीर के महाराजा, नेपाल के राणा और अनेक बड़े जमींदारों ने विद्रोह को कुचलने में अंग्रेजों की सक्रिय सहायता की। वास्तव में भारतीय शासकों में एक प्रतिशत से भी अधिक शासक विद्रोह में शामिल नहीं हुए।
1857 के विद्रोह की असफलता के कारण-
- 1857 के विद्रोह को जनता का व्यापक समर्थन प्राप्त था। फिर भी यह पूरे देश को या भारतीय समाज के सभी अंगों तथा वर्गों को अपनी चपेट में नहीं ले सका। इस विद्रोह में केवल बेदखल तथा असंतुष्ट शासक जो एक प्रतिशत से भी कम थे शामिल हुए। इसके अलावा उच्च तथा मध्य वर्गों के अधिकांश लोग विद्रोहियों के आलोचक थे। आधुनिक शिक्षा प्राप्त भारतीयों ने भी विद्रोहियों का साथ नहीं दिया। विद्रोही जिस प्रकार अंधविश्वासों का प्रयोग करते या प्रगतिशील सामाजिक उपायों का विरोध करते थे, उससे ये भारतीय बिदककर दूर हो गए।
- इसी तरह बंबई, कलकत्ता तथा मद्रास के बड़े व्यापारियों ने भी अंग्रेजों का साथ दिया। कारण कि उनका अधिकांश मुनाफा अंग्रेज व्यापारियों के साथ होने वाले विदेशी व्यापार तथा आर्थिक संबंधों से होता था।
- 1857 का विद्रोह दक्षिण भारत तथा पूर्वी और पश्चिमी भारत के अधिकांश भागों में नहीं फैल सका क्योंकि इन क्षेत्रों में पहले ही अनेक विद्रोह हो चुके थे।
- विद्रोहियों के पास आधुनिक अस्त्र-शस्त्र तथा अन्य युद्ध सामग्री का अभाव था। सिपाही बहादुर तथा स्वार्थ रहित तो थे मगर उनमें अनुशासन की कमी थी।
- विद्रोहियों के पास एक भविष्योन्मुख कार्यक्रम, सुसंगत विचारधारा, राजनीतिक परिप्रेक्ष्य या भावी समाज और अर्थव्यवस्था के प्रति एक स्पष्ट दृष्टिकोण का अभाव था। विद्रोह सत्ता पर अधिकार के बाद लागू किये जाने वाले किसी सामाजिक विकल्प से रहित था
- चौथा कथन असत्य हैं। भारत इस समय आधुनिक राष्ट्रवाद से अपरिचित था। विद्रोहियों में अपने क्षेत्र या राजसत्ता के प्रति प्रेम अधिक था। किसी अखिल भारतीय हित की चेतना का उदय अभी नहीं हुआ था।
7. 1858 के बाद प्रशासनिक परिवर्तन
▪︎ 1858 में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित एक कानून के तहत शासन का अधिकार ईस्ट इंडिया कंपनी से लेकर ब्रिटिश सम्राट को दे दिया।
• 1858 के कानून से पहले भारत पर सत्ता कंपनी के डायरेक्टरों और बोर्ड ऑफ कंट्रोल की थी, पर अब शासन का भार ब्रिटिश सरकार के एक मंत्री जिसे भारत मंत्री अथवा सेक्रेटरी ऑफ स्टेट (भारत सचिव) कहा जाता था, को दे दिया गया। यह भारत सचिव ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य होता था और संसद के प्रति उत्तरदायी होता था। इस तरह भारत पर सत्ता अंततः ब्रिटिश संसद के हाथों में थी।
1858 में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित कानून के संबंध में
- भारत के लिये 1858 के कानून के तहत यह व्यवस्था की गई थी की गवर्नर जनरल के साथ एक एक्जिक्यूटिव काउंसिल (कार्यकारी परिषद्) होगी जिसके सदस्य विभिन्न विभागों के प्रमुख और गवर्नर जनरल के आधिकारिक सलाहकार होंगे। यह कांउसिल सारे महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार करके बहुमत से निर्णय लेती थी, हालाँकि गवर्नर-जनरल कांउसिल के किसी भी महत्त्वपूर्ण फैसले को रद्द कर सकता था।
- शासन की सुविधा के लिये अंग्रेजों ने भारत को कई प्रांतों में बाँट रखा था। इनमें से बंगाल, मद्रास और बंबई प्रांतों को प्रेसीडेंसी कहा जाता था। इन प्रेसीडेंसियों का प्रशासन गवर्नर तीन सदस्यों वाली एक कांउसिल की सहायता से चलाता था और उनकी नियुक्ति सम्राट करता था।
19वीं सदी की प्रेसीडेंसियों और प्रांतीय सरकारों के संबंध में
- भारत में शासन की सुविधा के लिये अंग्रेजों ने इसे प्रांतों में बाँटा हुआ था जिसमे से बंगाल, मद्रास और बंबई प्रांतों को प्रेसीडेंसी कहा जाता था। प्रेसीडेंसियों की सरकारों को दूसरी प्रांतीय सरकारों से अधिक अधिकार और शक्तियाँ प्राप्त थीं।
- प्रेसीडेंसियों का प्रशासन एक गवर्नर तीन सदस्यों वाली एक काउंसिल की सहायता से चलाता था। जबकि दूसरे प्रांतों का शासन गर्वनर जनरल द्वारा नियुक्त लेफ्टिनेंट गवर्नर और चीफ कमिश्नर चलाते थे।
▪︎ अफगानिस्तान के साथ भारत की ब्रिटिश सरकार के दो युद्ध हुए। ब्रिटिश दृष्टिकोण से अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति बहुत ही महत्त्वपूर्ण थी। रूस की ओर से संभावित सामरिक चुनौती का सामना करना तथा मध्य एशिया में ब्रिटेन के व्यापारिक हितों को आगे बढ़ाने के | लिये अफगानिस्तान भारत की सीमा के बाहर एक महत्त्वपूर्ण देश था।
▪︎ सबसे पहले 1864 और 1868 के बीच स्थानीय संस्थाओं की स्थापना हुई। पर लगभग हर मामले में इनके सदस्य नामजद होते थे और इनका अध्यक्ष जिला मजिस्ट्रेट होता था। इसलिये ये संस्थाएँ किसी तरह से स्थानीय स्वशासन नहीं कही जा सकती थीं। स्थानीय स्वशासन की दिशा में बहुत हिचकिचाते हुए एक कदम 1882 में लॉर्ड रिपन की सरकार ने उठाया। एक सरकारी प्रस्ताव में ग्रामीण, नगरीय और स्थानीय संस्थाओं द्वारा जिनके अधिकांश सदस्य गैर-अधिकारी हों, स्थानीय मामलों के प्रबंध की एक नीति निर्धारित की गई।
1857 की क्रांति के बाद सेना के पुनर्गठन के
- ब्रिटिशों ने 1858 के बाद सेना का सावधानी के साथ पुनर्गठन किया, जिसका उद्देश्य था विद्रोह न होने देना। अधिकारी वर्ग से भारतीयों को बाहर रखने की पुरानी नीति का सख्ती से पालन किया गया। 1914 तक कोई भी भारतीय कभी सूबेदार के पद से ऊपर नहीं उठ सका।
- 1857 की क्रांति के बाद सेना की भर्ती में जाति, क्षेत्र और धर्म के आधार पर भेदभाव किया जाने लगा। यह कहानी गढ़ी गई कि भारतीयों में कुछ ‘लड़ाकू’ जातियाँ और कुछ ‘गैर- लड़ाकू’ जातियाँ हैं। अवध, बिहार, मध्य भारत और दक्षिण भारत के सैनिकों ने ही आरंभ में अंग्रेजों की भारत विजय में सहायता की थी, पर 1857 के विद्रोह में उनके भाग लेने के कारण उनको गैर-लड़ाकू घोषित कर दिया गया। अब बड़ी संख्या में उनको सेना में भर्ती करना बंद कर दिया गया। दूसरी ओर विद्रोह को कुचलने में सहायता देने वाले पंजाबियों, गोरखों और पठानों को लड़ाकू जाति घोषित किया गया और इनको बड़ी संख्या में सेना में भर्ती किया जाने लगा।
- ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में प्रशासन में अधिकार और उत्तरदायित्व के सारे पदों पर इंडियन सिविल सर्विस के सदस्य ही नियुक्त होते थे। 1863 में यह परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले पहले भारतीय सत्येन्द्रनाथ ठाकुर थे, जो रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बड़े भाई थे।
1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिशों द्वारा भारतीय रजवाड़ों के संबंध में
- 1857 के पहले अंग्रेज़ भारतीय राज्य हड़पने का कोई अवसर नहीं चूकते थे। 1857 के विद्रोह के बाद यह नीति छोड़ दी गई। अनेक भारतीय शासक अंग्रेज़ों के वफादार ही नहीं रहे बल्कि विद्रोह को कुचलने में उनकी सक्रिय सहायता भी की। इन शासकों की वफादारी का ब्रिटिश सरकार ने इनाम इस घोषणा के रूप में दिया कि उनके उत्तराधिकारी गोद लेने के अधिकार को मान्यता जाएगी तथा भविष्य में उनके राज्यों का कभी भी अधिग्रहण नहीं किया जाएगा।
ब्रिटिशों द्वारा 1858 के बाद अपनाई गई नीतियों के संबंध में
- अंग्रेजों ने भारत पर विजय, भारतीय | शासकों की फूट का लाभ उठाकर और उन्हें एक-दूसरे से लड़ाकर प्राप्त की थी। 1858 के बाद उन्होंने जनता के खिलाफ राजाओं को एक जाति के खिलाफ दूसरी जाति को और सबसे अधिक मुसलमानों के विरुद्ध हिंदुओं को खड़ा करके ‘बाँटो और राज करो’ की नीति को जारी रखने का फैसला किया।
- अंग्रेजों ने समाज सुधारकों की सहायता करने की पुरानी नीति छोड़ दी। उनका मत था कि समाज सुधार का कदम 1857 के विद्रोह का एक प्रमुख कारण था। इसलिये धीरे-धीरे उन्होंने रूढ़िवादियों का पक्ष लेना आरंभ कर दिया और समाज सुधारकों का समर्थन बंद कर दिया।
- अंग्रेजों ने भारतीयों के सबसे प्रतिक्रियावादी वर्गों जैसे- राजाओं, जमींदारों और भूस्वामियों की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। इन वर्गों का ब्रिटिशों ने उभरते हुए जन-आंदोलनों और राष्ट्रवादी आंदोलनों के खिलाफ उपयोग करने का प्रयास किया।
- 1833 के बाद भारत सरकार ने आधुनिक शिक्षा को जमकर प्रोत्साहन दिया। 1857 के विद्रोह में शिक्षित भारतीयों के भाग न लेने पर अनेक अंग्रेज अधिकारियों ने उनकी प्रशंसा की थी, परन्तु शिक्षित भारतीयों के प्रति यह अनुकूल सरकारी दृष्टिकोण जल्द ही बदल गया। इसका कारण था कि अनेक लोग हाल में प्राप्त आधुनिक ज्ञान का उपयोग करके ब्रिटिश शासन के साम्राज्यवादी चरित्र का विश्लेषण करने लगे थे और उन्होंने प्रशासन में भारतीयों की भागीदारी की मांगें सामने रखी थीं। इसलिये जब वे जनता के बीच राष्ट्रवादी आंदोलन का संगठन करने लगे और 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस की स्थापना की तो अधिकारी उच्च शिक्षा के पक्के दुश्मन बन बैठे।
- भारत में पहला इंडियन फैक्टरी एक्ट 1881 में बनाया गया। यह कानून मुख्यतः बाल श्रम से संबंधित था। इसमें कहा गया कि 7 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को कारखानों में नहीं लगाया जाएगा और 7 से 12 वर्ष तक के बच्चों से प्रतिदिन 9 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जाएगा।
- 19वीं सदी में आधुनिक कारखानों और बागानों के मजदूरों की हालत बहुत दयनीय थी। यूँ तो भारत की ब्रिटिश सरकार पूंजीपतियों की समर्थक थी, फिर भी उसे आधुनिक कारखानों की बुरी स्थिति के प्रभावों को कम करने के लिये आधे मन से कुछ कदम उठाने पड़े, जो एकदम अपर्याप्त थे। इन कारखानों में से अधिकांश भारतीयों के थे। ब्रिटेन के उद्योपति श्रम सुधारों के लिये दबाव डाल रहे थे क्योंकि उन्हें डर था कि भारत में मजदूरी कम होने के कारण भारतीय उद्योगपति भारतीय बाजार में उन्हें जल्द ही प्रतियोगिता में पीट देंगे।
- श्रम सुधार के क्षेत्र ब्रिटिश सरकार द्वारा पहला इंडियन फैक्टरी एक्ट 1881 में बनाया गया जो बाल श्रम से संबंधित था तथा दूसरा इंडियन फैक्टरी एक्ट 1891 में बनाया गया जो मजदूरों को साप्ताहिक छुट्टी तथा महिलाओं को काम के घंटे सुनिश्चित करने से संबंधित था। चाय और कॉफी के जिन बागानों के मालिक अंग्रेज़ थे, उन पर इन दोनों में से कोई भी कानून नहीं लागू किया गया उल्टे विदेशी बागान मालिकों को मजदूरों का अत्यधिक निर्मम शोषण करने में सरकार ने हर तरह से सहायता दी।
- 1835 में चार्ल्स मेटकाफ ने भारतीय प्रेस को प्रतिबंधों से मुक्त कर दिया था। इस कदम का शिक्षित भारतीयों ने उत्साहपूर्वक स्वागत किया था। इसी कारण चार्ल्स मेटकाफ को भारतीय प्रेस का मुक्तिदाता कहा जाता है।
- भारतीय राष्ट्रवादी लोग धीरे-धीरे प्रेस का इस्तेमाल जनता में राष्ट्रवादी चेतना जगाने के लिये और सरकार की प्रतिक्रियावादी नीतियों की कड़ी आलोचना करने के लिये करने लगे। इस कारण भारतीय प्रेस की आजादी को कम करने के लिये 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट बनाया गया। इस कानून ने भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों की आजादी पर कड़ी बंदिशें लगाई।
- लॉर्ड लिटन द्वारा लागू किया गया वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट 1878 मुख्यतः अमृत बाज़ार पत्रिका के लिये लाया गया था, जो बांग्ला समाचार पत्र था। इससे बचने के लिये यह पत्रिका रातों-रात अंग्रेज़ी भाषा की पत्रिका में बदल गई।
- भारतीय साम्राज्य को उसकी प्राकृतिक भौगोलिक सीमा तक फैलाने की अंग्रेजों की धुन के साथ पहले उनका उत्तर में स्थित नेपाल से टकराव हुआ। 1814 में दोनों के बीच युद्ध आरंभ हो गया। अंग्रेज नेपालियों से हर मामले में श्रेष्ठ थे। अंत में नेपाल की सरकार को ब्रिटेन की शर्तों पर बातचीत करनी पड़ी। नेपाल को गढ़वाल तथा कुमाऊँ के जिले छोड़ने पड़े तथा तराई के क्षेत्रों पर भी अपना दावा त्यागना पड़ा। उसे सिक्किम से भी हट जाना पड़ा। इस समझौते से भारतीय साम्राज्य हिमालय तक फैल गया। ब्रिटिशों को हिल स्टेशन बनाने के लिये शिमला, मसूरी और नैनीताल जैसे महत्त्वपूर्ण स्थान भी मिल गए।
- 1824 में ब्रिटिश भारत के शासकों ने बर्मा के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। मई 1824 में ब्रिटिश नौसेना ने समुद्र के रास्ते रंगून पर अधिकार कर लिया और राजधानी अवा से 45 मील दूर तक पहुँच गए। यांडबू की संधि के द्वारा फरवरी 1826 में दोनों के बीच शांति स्थापित हुई।
- 19वीं सदी में बर्मा और ब्रिटिश भारत का टकराव सीमा संबंधी टकराव से शुरू हुआ। बर्मा के सम्राट के उत्तराधिकारी बोदावपाय ने 1785 में अराकान और 1813 में मणिपुर के सीमावर्ती राज्यों पर अधिकार किया और इस प्रकार वर्मा की सीमा को ब्रिटिश भारत की सीमा तक फैला दिया। पश्चिम की ओर बढ़ना जारी रखते हुए बर्मियों ने 1822 में असम को जीत लिया। अराकान और असम पर वर्मा की विजय के बाद वर्मा और बंगाल की अस्पष्ट सीमाओं पर लगातार झड़पों का एक युग आरंभ हो गया, जिसके परिणामस्वरूप 1824 में ब्रिटिश भारत के शासकों ने बर्मा के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।
- 1852 में जो दूसरा बर्मा युद्ध छिड़ा, वह लगभग पूरी तरह ब्रिटेन के व्यापारिक लोभ का परिणाम था। बर्मा के जंगल संबंधी संसाधनों पर ब्रिटिश व्यापारियों की लालची निगाहें बहुत पहले से लगी हुई थीं। लकड़ी का व्यापार करने वाले ब्रिटिश फर्मों ने अब ऊपरी बर्मा के जंगलों की इमारती लकड़ी में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी।
- अंग्रेजों को लगा कि बर्मा की विशाल जनसंख्या ब्रिटेन के सूती कपड़ों और दूसरे औद्योगिक मालों की बिक्री के लिये बहुत बड़ा बाजार उपलब्ध करा सकती है। इस कारण से भी अंग्रेज वर्मा के व्यापारिक क्षेत्रों पर अपना कब्जा चाह रहे थे।
8. ब्रिटिश शासन का आर्थिक प्रभाव
▪︎ अंग्रेजों द्वारा 1813 में भारत के ऊपर एकतरफा मुक्त व्यापार की नीति लाद दी गई।
भारतीय दस्तकारों और शिल्पकारों के पतन के प्रमुख कारण थे-
- इंग्लैंड से आयात की जाने वाली मशीन निर्मित वस्तुओं के साथ भारतीय वस्तुओं की प्रतिद्वंद्विता। जिसके कारण सूत कातने तथा सूती कपड़ा बुनने के उद्योगों को सबसे अधिक धक्का लगा।
- अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के दौरान ब्रिटेन तथा यूरोप में भारतीय वस्तुओं के आयात पर उच्च आयात शुल्क तथा अन्य प्रतिबंध लगाए गए।
- भारतीय शासक और उनके राजदरबारी जो शहरी हस्तशिल्प की वस्तुओं के मुख्य ग्राहक थे, धीरे-धीरे उनके लुप्त हो जाने से इन उद्योगों को बड़ा धक्का लगा। जैसे सैनिक सामान तथा हथियार जिनकी आपूर्ति भारतीयों द्वारा की जाती थी, उनकी ब्रिटिश सरकार द्वारा इनकी आपूर्ति होने लगी जिससे भारतीय हस्तशिल्पियों का पतन हुआ।
- भारतीय उद्योगों, विशेषकर ग्रामीण दस्तकार उद्योगों की बर्बादी रेलवे के बनते ही काफी तेजी से हुई। रेलवे द्वारा ब्रिटिश विनिर्मित वस्तुओं को सुदूर गाँवों में पहुँचाने में सहायता मिली।
ब्रिटिश शासन के अंतर्गत किसान धीरे-धीरे दरिद्र हो गए. जिसकेप्रमुख कारण थे–
- ब्रिटिश शासकों की आरंभ से ही अधिकतम भू-राजस्व वसूलने की नीति रही। उच्च भू-राजस्व का निर्धारण इसलिये विनाशकारी साबित हुआ क्योंकि उसके बदले किसानों को कोई प्रतिफल प्राप्त नहीं हुआ तथा सरकार ने कृषि सुधार पर बहुत कम धन खर्च किया।
- नई कानून प्रणाली तथा नई कानून नीति से महाजनों को किसानों के शोषण में बहुत मदद मिली। अंग्रेजी राज से पहले महाजन ग्राम समुदाय के अधीन होता था। वस्तुतः ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था ने जमीन को हस्तांतरण के योग्य बनाकर महाजनों या जमींदारों को जमीन हड़पने तथा मनमाना भू-राजस्व वसूलने में समर्थ बना दिया। उन्नीसवीं सदी के अंत तक महाजन ग्रामीण क्षेत्र के लिये मुख्य अभिशाप तथा किसानों की दरिद्रता का प्रमुख कारण बन गया।
- कृषि के बढ़ते हुए वाणिज्यीकरण ने भी महाजन सह-सौदागर को किसान का शोषण करने में मदद दी। गरीब किसान को फसल तैयार होते ही जो भी कीमत मिले उसी पर अपनी पैदावार बेचने के लिये मजबूर किया जाता था।
- भारत में अव-औद्योगीकरण होने तथा आधुनिक उद्योगों के अभाव के कारण कृषि पर अत्यधिक बोझ बढ़ गया, क्योंकि दस्तकार, शिल्पकार व अन्य क्षेत्रों में कार्यरत लोग जीविका चलाने के लिये कृषि की ओर मुड़े। फलतः उत्पादन में वृद्धि तो नहीं हुई बल्कि उस पर निर्भर लोगों की संख्या जरूर बढ़ गई। फलतः पतनशील कृषि अर्थव्यवस्था और भी जर्जर हो गई।
- ब्रिटिश शासन के आरंभिक दशकों में बंगाल तथा मद्रास के पुराने जमींदार तबाह हो गए। ऐसा खासकर सबसे ऊँची बोली लगाने वालों को ही राजस्व वसूली के अधिकार नीलाम करने की वारेन हेस्टिंग्स की नीति के कारण हुआ। भू-राजस्व का भारी बोझ और वसूली संबंधी सख्त कानून, जिसके तहत राजस्व की अदायगी में विलंब होने पर जमींदारों की संपत्तियाँ बड़ी कठोरता से नीलाम कर दी गई।
- जमींदारी प्रथा के प्रसार की एक उल्लेखनीय विशेषता थी बिचौलियों का उदय जमींदारों तथा नए भू-स्वामियों ने लगान वसूल करने के अपने अधिकार को लाभदायक शर्तों पर अन्य इच्छुक लोगों को दे दिया। अतः इस प्रक्रिया की एक श्रृंखला बन गई जिससे वास्तविक किसान तथा सरकार के बीच लगान पाने वाले अनेक बिचौलिये आ गए।
- जमींदार तथा भू-स्वामी संरक्षित राज्यों के राजाओं के साथ विदेशी शासकों के राजनीतिक समर्थक बन गए तथा इन्होंने उदीयमान राष्ट्रीय आंदोलन का विरोध किया क्योंकि इनको महसूस हुआ कि इनका अस्तित्व ब्रिटिश शासन से ही है।
- ब्रिटिश सरकार ने कृषि के आधुनिकीकरण की कोई भी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने से इनकार कर सुधार और दिया। ब्रिटिश सरकार का सारा ध्यान केवल भू-राजस्व प्राप्त करने का था।
- ब्रिटिश शासन काल में कृषि शिक्षा पूर्णतया उपेक्षित थी। 1939 में पूरे भारत में केवल छः कृषि कॉलेज थे। बंगाल, बिहार, उड़ीसा और सिंध में एक भी कृषि कॉलेज नहीं था।
- भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान अधिकतर आधुनिक भारतीय उद्योगों पर ब्रिटिश पूंजी का स्वामित्व या नियंत्रण था। क्योंकि ब्रिटिश पूंजीपति भारतीय उद्योगों में ऊँचे मुनाफे की संभावनाओं के कारण उसकी ओर आकर्षित हुए थे। भारत में श्रम अत्यंत सस्ता था, कच्चा माल तुरंत | और सस्ती दरों पर उपलब्ध था तथा तैयार वस्तुओं के लिये भारत और उसके पड़ोसियों का विशाल बाजार उपलब्ध था।
- भारतीय पूंजीपतियों को आरंभ से ही ब्रिटिश मैनेजिंग एजेंसियों के सामने झुकना पड़ता था। अनेक स्थितियों में भारतीय कंपनियों पर भी विदेशी स्वामित्व और नियंत्रण वाली मैनेजिंग एजेंसियों का दबदबा होता था।
- भारतीय उद्योगपतियों को बैंकों से ऋण मिलने में भी कठिनाई होती थी। अधिकतर बैंकों पर ब्रिटिश पूंजीपतियों का प्रभाव था। अगर भारतीयों को कर्ज मिलते भी तो उन्हें ऊँची दरों पर ब्याज देना पड़ता था, जबकि विदेशी काफी आसान शर्तों पर कर्ज ले सकते थे।
- भारत सरकार की रेलवे नीति ने भी भारतीय उद्योगों के प्रति भेदभाव किया। आयातित वस्तुओं की अपेक्षा भारतीय वस्तुओं का वितरण कठिन और खर्चीला था।
- भारतीयों द्वारा उद्योग स्थापित करने में एक अन्य गंभीर कठिनाई यह थी कि देश में भारी या पूंजीगत वस्तुओं के उद्योगों का लगभग पूरा अभाव था। इन उद्योगों के बिना अन्य उद्योगों का तेज व स्वतंत्र विकास नहीं हो सकता था।
- नील से रंग बनाने का उद्योग भारत में अठारहवीं सदी के अंत में शुरू हुआ। नील उत्पादक किसानों पर अत्याचार का सजीव चित्रण प्रसिद्ध बांग्ला लेखक दीनबंधु मित्र ने 1860 में अपने नाटक ‘नील दर्पण’ में किया।
- जर्मनी में संश्लिष्ट रंग (कृत्रिम रंग) के आविष्कार से भारतीय नील उद्योग को बड़ा धक्का लगा और धीरे-धीरे इसका ह्रास हो गया।
9. नए भारत का उदय-राष्ट्रवादी आंदोलन (1858-1905)
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना बहुत तेजी से विकसित हुई और भारत में एक संगठित राष्ट्रीय आंदोलन आरंभ हुआ।
- राष्ट्रीय आंदोलन की जड़ें भारतीय जनता के हितों तथा भारत में ब्रिटिश हितों के टकराव में थीं। ब्रिटिश शासन भारत के आर्थिक पिछड़ेपन का प्रमुख कारण था और भारत में राष्ट्रीय आंदोलन का आधार यही तथ्य था। यह भारत के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक तथा राजनीतिक विकास में प्रमुख बाधक तत्त्व बन चुका था।
- प्रेस तथा साहित्य वह प्रमुख साधन था, जिनके द्वारा राष्ट्रवादी भारतीयों ने भारत देश के लोगों में देश भक्ति की भावनाओं, आधुनिक आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक विचारों का प्रचार किया तथा एक अखिल भारतीय चेतना जगाई।
- अधिकांश ब्रिटिश अधिकारी और लेखक लगातार यह बात दोहराते रहते थे कि भारतीय लोग कभी भी अपना शासन चलाने के योग्य नहीं थे, वे हमेशा भारतीय परंपरा एवं संस्कृति की निंदा करते रहते थे। इस प्रचार का जवाब देकर अनेक राष्ट्रवादी नेताओं ने जनता में आत्मविश्वास और आत्म सम्मान जगाने का प्रयत्न किया। राष्ट्रवादियों ने बड़े गर्व से भारत की सांस्कृतिक धरोहर की ओर संकेत करते हुए आलोचकों का ध्यान अशोक, अकबर जैसे शासकों की ओर खींचने का प्रयत्न किया।
- उन्नीसवीं सदी में आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा और विचारधारा के प्रसार के फलस्वरूप बहुत बड़ी संख्या में भारतीयों ने एक आधुनिक बुद्धिसंगत, धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक तथा राष्ट्रवादी राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाया।
- उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में भारत का एकीकरण हो चुका था और वह एक राष्ट्र के रूप में उभर चुका था। इसलिये भारतीय जनता में राष्ट्रीय भावनाओं का विकास आसानी से हुआ। अंग्रेजों ने धीरे-धीरे पूरे देश में सरकार की एकसमान आधुनिक प्रणाली लागू कर दी थी और इस तरह उसका प्रशासकीय एकीकरण हो चुका था। इसके अलावा रेलवे, तार तथा एकीकृत डाक व्यवस्था ने भी देश को एकजुट बना दिया था और जनता, खासकर नेताओं के पारस्परिक संपर्क को बढ़ा दिया था।
- 1866 में लंदन में दादाभाई नौरोजी ने ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की स्थापना की
- 1825 में जन्मे दादाभाई नौरोजी ने अपना पूरा जीवन राष्ट्रीय आंदोलन को समर्पित कर दिया। दादाभाई नौरोजी को तीन बार भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस ने अपना अध्यक्ष चुनकर उनका सम्मान किया।
संस्थापक | सभा |
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी | इंडियन एसोसिएशन |
जस्टिस रानाडे | पूना सार्वजनिक सभा |
वीर राघवाचारी | मद्रास महाजन सभा |
फिरोजशाह मेहता | बॉम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन |
- सेफ्टी वाल्व’ के सिद्धांत का संबंध भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस की स्थापना से है। कहा जाता है कि कॉन्ग्रेस की स्थापना के पीछे ए.ओ. ह्यूम का प्रमुख उद्देश्य शिक्षित भारतीयों में बढ़ रहे असंतोष की सुरक्षित निकासी के लिये एक ‘सेफ्टी वाल्व’ बनाना था। वे असंतुष्ट राष्ट्रवादी शिक्षित वर्गों तथा असंतुष्ट किसान जनता के आपसी मेल को रोकना चाहते थे।
- भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस की स्थापना एक सेवानिवृत्त अंग्रेज़ सिविल सर्वेट ए. ओ. ह्यूम द्वारा 1885 में की गई। भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के पहले अधिवेशन का आयोजन बंबई। में किया गया।
- भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता डब्ल्यू.सी. बनर्जी ने की थी।
आरंभिक राष्ट्रवादी नेताओं के कार्यक्रम और कार्यकलाप के संबंध में
- आरंभिक राष्ट्रवादी नेताओं का विश्वास था कि देश की राजनीतिक मुक्ति के लिये सीधी लड़ाई लड़ना अभी व्यावहारिक नहीं है। जो कुछ व्यावहारिक था. वह यह था कि राष्ट्रीय भावनाओं को जगाया जाए तथा मजबूत किया जाए। बड़ी संख्या में भारतीय जनता को राष्ट्रवादी राजनीति की धारा में लाया जाए और राजनीतिक आंदोलन के लिये उन्हें शिक्षित किया जाए।
- आरंभिक राष्ट्रवादी नेता ब्रिटिश सरकार तथा ब्रिटिश जनमत को प्रभावित करना चाहते थे। नरमपंथी राष्ट्रवादियों का विश्वास था कि ब्रिटिश जनता और संसद भारत के साथ न्याय करना चाहती थीं, मगर उन्हें यहाँ की वास्तविक स्थिति की जानकारी नहीं थी। इस उद्देश्य से नरमपंथी राष्ट्रवादियों ने ब्रिटेन में जमकर प्रचार कार्य किया। भारतीय पक्ष को सामने रखने के लिये प्रमुख भारतीयों के दल ब्रिटेन भेजे गए। 1889 में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस की एक ब्रिटिश समिति बनाई गई। इस समिति ने 1890 में ‘इंडिया’ नामक एक पत्रिका निकालना प्रारंभ किया ताकि ब्रिटिश संसद तथा जनता को भारतीय स्थिति से अवगत कराया जा सके।
- लॉर्ड कर्जन ने विदेश सचिव को बतलाया कि ‘कॉन्ग्रेस का महल भरभरा रहा है और भारत में रहते हुए मेरी मुख्य महत्त्वाकांक्षा यह है कि मैं शांति के साथ इसे मरने में सहयोग दे सकूँ।’
- 1905 तक भारत के राष्ट्रीय आंदोलन पर उन लोगों का वर्चस्व था जिनको प्रायः नरमपंथी राष्ट्रवादी कहा जाता है। ‘कानून की सीमा में रहकर सांविधानिक आंदोलन तथा धीरे-धीरे, व्यवस्थित ढंग से राजनीतिक प्रगति’ इन शब्दों में नरमपंथियों की राजनीतिक कार्यपद्धति को संक्षेप में समझा जा सकता है।
- नरमपंथी राष्ट्रवादियों के आंदोलन के दबाव में ब्रिटिश सरकार को 1892 में भारतीय परिषद् कानून पास करना पड़ा। इस कानून द्वारा शाही विधायी परिषद् तथा प्रांतीय परिषदों में सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई।
- आरंभिक राष्ट्रीय आंदोलन की बुनियादी कमजोरी संकुचित सामाजिक आधार थी। वास्तव में जनता में नेताओं की कोई राजनीतिक आस्था नहीं थी।
- भारत में सर्वप्रथम परोक्ष (अप्रत्यक्ष) निर्वाचन प्रणाली की शुरुआत इंडियन काउंसिल एक्ट, 1892 के द्वारा हुई ।
10. नए भारत का उदय-1858 के बाद धार्मिक और सामाजिक सुधार
ब्रह्म समाज के संबंध में
- राजा राममोहन राय की ब्रह्म समाज की परंपरा को 1843 के बाद देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने आगे बढ़ाया। 1866 के बाद इस आंदोलन को केशवचन्द्र सेन ने आगे जारी रखा।
- ब्रह्म समाज का प्रभाव अधिकांश नगरीय शिक्षित वर्ग तक ही सीमित रहा। फिर भी 19वीं तथा 20वीं सदी में बंगाल एवं शेष भारत के बौद्धिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक जीवन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा।
- बंबई प्रांत में सामाजिक-धार्मिक सुधार कार्य का आरंभ 1840 में परमहंस मंडली ने आरंभ किया। इसका मुख्य उद्देश्य मूर्तिपूजा तथा जाति प्रथा का विरोध करना था। पश्चिम भारत के पहले धार्मिक सुधारक संभवतः गोपाल हरि देशमुख थे, जिन्हें जनता ‘लोकहितवादी’ कहती थी।
- प्रार्थना समाज’ की स्थापना केशवचन्द्र सेन की प्रेरणा से 1867 में आत्माराम पांडुरंग ने बंबई प्रांत में की।
प्रार्थना समाज’ के संबंध में
- केशवचन्द्र सेन की प्रेरणा से डॉ. आत्माराम पांडुरंग ने प्रार्थना समाज की स्थापना की थी इसलिये इस पर ब्रह्म समाज का गहरा प्रभाव था।
- प्रार्थना समाज ने एक ईश्वर की पूजा का प्रचार किया तथा धर्म को जाति प्रथा की रूढ़ियों से और पुरोहितों के वर्चस्व से मुक्त करने का प्रयास किया
- तेलुगू सुधारक वीरेशलिंगम के प्रयासों से प्रार्थना समाज का प्रसार दक्षिण भारत में हुआ।
▪︎ मानवतावादी राहत कार्य तथा समाज कल्याण के कार्य को करने के लिये 1896 में विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। देश के विभिन्न भागों में इस मिशन की अनेक शाखाएँ थीं और इसने स्कूल. अस्पताल, दवाखाने, अनाथालय, पुस्तकालय आदि खोलकर समाज सेवा के कार्य किये। इस तरह इसका जोर व्यक्ति की मुक्ति नहीं बल्कि सामाजिक कल्याण और समाज सेवा पर था।
संस्था / संगठन | संस्थापक |
आर्य समाज | स्वामी दयानंद सरस्वती |
थियोसोफिकल सोसायटी | मैडम एच.पी. ब्लावात्सकी तथा कर्नल एच.एस.ओलकॉट |
मुहम्मडन एंग्लो-ओरियंटलकॉलेज | सैयद अहमद खान |
स्वामी दयानंद सरस्वती के संबंध में
- स्वामी दयानंद सरस्वती ने उत्तर भारत में हिंदू धर्म के सुधार हेतु 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। उनका मानना था कि तमाम झूठी शिक्षाओं से भरे पुराणों की सहायता से स्वार्थी व अज्ञानी पुरोहितों ने हिंदू धर्म को भ्रष्ट कर रखा था। दयानंद ने वेदों से प्रेरणा प्राप्त की तथा ‘वेदों की ओर लौटों’ का नारा दिया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने बाद के उन सभी धार्मिक विचारों को रद्द कर दिया। जो वेदों से मेल नहीं खाते थे।
- थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना संयुक्त राज्य अमेरिका में मैडम एच.पी. ब्लाषात्सकी तथा कर्नल एच. एस. ओलकॉट द्वारा की गई। बाद में ये भारत आ गए तथा 1886 में मद्रास के करीब, अडियार में उन्होंने सोसायटी का मुख्यालय स्थापित किया।
- थियोसोफिस्ट प्रचार करते थे कि हिंदुत्व, जरथुस्त्र मत (पारसी धर्म) तथा बौद्ध मत जैसे प्राचीन धर्मों को पुनर्स्थापित तथा मजबूत किया जाए। यह पश्चिमी देशों के ऐसे लोगों द्वारा चलाया जा रहा एक आंदोलन था जो भारतीय धर्मों तथा दार्शनिक परंपरा का महिमामंडन करते थे।
- भारत में श्रीमती एनी बेसेंट के प्रमुख कार्यों में एक था बनारस में केंद्रीय हिंदू विद्यालय की स्थापना करना जिसे बाद में मदनमोहन मालवीय ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया।
- मुसलमानों में धार्मिक सुधार आंदोलन का आरंभ कुछ देर से हुआ। उच्च वर्गों के मुसलमानों ने पश्चिमी शिक्षा व संस्कृति के संपर्क से बचने की ही कोशिश की। धार्मिक सुधार दिशा में आरंभ 1863 में मुहम्मडन लिटरेरी सोसायटी ने किया। इस सोसायटी ने आधुनिक विचारों के प्रकाश में धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श को बढ़ावा दिया तथा पश्चिमी शिक्षा अपनाने के लिये उच्च एवं मध्य वर्गों के मुसलमानों को प्रेरित किया।
- सैयद अहमद खान का विश्वास था कि मुसलमानों का धार्मिक और सामाजिक जीवन, पाश्चात्य, वैज्ञानिक ज्ञान और संस्कृति को अपनाकर ही सुधर सकता है। उन्होंने 1875 में अलीगढ़ में मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना, पाश्चात्य विज्ञान तथा संस्कृति का प्रचार करने वाले एक केंद्र के रूप में की। बाद में इस कॉलेज का विकास अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में हुआ।
- पारसी लोगों में धार्मिक सुधार की शुरुआत बंबई में 19वीं सदी के आरंभ में हुई। 1851 में रहनुमाई मज्दायासन सभा (रिलीजस रिफॉर्म एसोसिएशन) का आरंभ नौरोजी फरदूनजी दादाभाई नौरोजी, एस.एस. बंगाली तथा अन्य लोगों ने किया। इन सभी ने धर्म के क्षेत्र में हावी रूढ़िवाद के खिलाफ आंदोलन चलाया और स्त्रियों की शिक्षा तथा विवाह और कुल मिलाकर स्त्रियों की सामाजिक स्थिति के बारे में पारसी सामाजिक रीति-रिवाजों के आधुनिकीकरण का आरंभ किया।
- सिख लोगों में धार्मिक सुधार का आरंभ 19वीं सदी के अंत में हुआ जब अमृतसर में खालसा कॉलेज की स्थापना हुई। लेकिन सुधार के प्रयासों को बल 1920 में मिला जब पंजाब में अकाली आंदोलन आरंभ हुआ। अकालियों का मुख्य उद्देश्य गुरुद्वारों के प्रबंध का शुद्धीकरण करना था। इन गुरुद्वारों को भक्त सिखों की ओर से जमीनें और धन दान स्वरूप मिलते थे, परंतु इनका प्रबंध भ्रष्ट तथा स्वार्थी महंतों द्वारा मनमाने ढंग से किया जाता था। अकालियों के नेतृत्व में 1921 में सिख जनता ने इन महंतों तथा इनकी सहायता करने वाली सरकार के खिलाफ एक शक्तिशाली सत्याग्रह आंदोलन छेड़ दिया।
- आधुनिक युग के धार्मिक सुधार आंदोलनों की मुख्य बात यह थी कि ये आंदोलन बुद्धिवाद तथा मानवतावाद के सिद्धांतों पर आधारित थे, हालाँकि लोगों को अपनी और खींचने के लिये कभी-कभी आस्था तथा प्राचीन ग्रंथों का सहारा भी लेते थे।
- इन धार्मिक आंदोलनों ने उभरते हुए मध्यवर्ग तथा आधुनिक शिक्षा प्राप्त प्रबुद्ध लोगों को सबसे अधिक प्रभावित किया। इन आंदोलनों ने भारतीय धर्मों के कर्मकांडी, अंधविश्वासी, बुद्धिविरोधी तथा पुराणपंथी पक्षों का विरोध किया।
धार्मिक सामाजिक सुधार आंदोलन के नकारात्मक पक्षों के संबंध में
- सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन के कुछ नकारात्मक पक्ष भी थे। ये सभी समाज के बहुत छोटे भाग की यानी नगरीय उच्च और मध्य वर्गों की आवश्यकताएँ पूरी करते थे। इनमें से कोई भी बहुसंख्यक किसानों तथा नगरों की गरीब जनता तक नहीं पहुँचा और ये लोग अधिकांशत: परंपरागत रीति-रिवाजों में ही जकड़े रहे। | इसका कारण यह था कि ये आंदोलन मूलतः भारतीय समाज के शिक्षित व नगरीय भागों की आकांक्षाओं को ही प्रतिबिंबित करते थे।
- इन आंदोलनों की दूसरी कमी अतीत की महानता का गुणगान करना तथा धर्म ग्रंथों को आधार बनाने की प्रवृत्ति थी। यह बात इन आंदोलनों की अपनी सकारात्मक शिक्षाओं की विरोधी बन गई। इससे मानव बुद्धि तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण की श्रेष्ठता के विचार को धक्का पहुँचा। इससे नए-नए रूपों में रहस्यवाद तथा नकली वैज्ञानिक चिंतन को बल मिला। अतीत की महानता के गुणगान ने एक झूठे गर्व तथा दंभ को बढ़ावा दिया।
- सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन आंदोलनों से हिंदू, मुसलमान, सिख और पारसी आपसी फूट के शिकार होने लगे। ऊँची तथा नीची जाति के हिन्दुओं में भी दरार पड़ने लगी। अनेक धर्मों वाले एक देश में धर्म पर ज़रूरत से ज्यादा जोर देने से फूट की प्रवृत्ति बढ़नी स्वाभाविक थी। इसके अलावा हर एक हिंदू सुधारक ने भारतीय अतीत के गुणगान को प्राचीन काल तक ही सीमित रखा। ये इतिहास के मध्य काल को मूलतः पतन का काल मानते थे। यह सुधारक भारतीय विचार अनैतिहासिक ही नहीं था बल्कि सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से हानिकारक भी था।
- ब्रिटिश शासन ने ऐसी अनेक शक्तियों को जन्म दिया जिन्होंने धीरे-धीरे जाति की जड़ों को कमज़ोर किया। आधुनिक उद्योगों, रेलों व बसों के आरंभ ने तथा बढ़ते नगरीकरण के कारण खासकर शहरों में विभिन्न जातियों के लोगों के बीच संपर्क को अपरिहार्य बना दिया। आधुनिक व्यापार-उद्योग ने आर्थिक कार्यकलाप के नए क्षेत्र सभी के लिये पैदा किये। एक आधुनिक औद्योगिक समाज में जाति और व्यवसाय का पुराना संबंध चलाना कठिन था।
- प्रशासन के क्षेत्र में, अंग्रेजों ने कानून के सामने सबकी समानता का सिद्धांत लागू किया, जातिगत पंचायतों से उनके न्यायिक काम छीन लिये गए और प्रशासकीय सेवाओं के दरवाजे सबके लिये खोल दिये गए। इसके अलावा नई शिक्षा प्रणाली पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष थी इसलिये वह मूलतः जातिगत भेदों तथा जातिगत दृष्टिकोण की विरोधी थी।
- राष्ट्रीय आंदोलन के विकास ने जाति प्रथा को कमज़ोर बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। राष्ट्रीय आंदोलन उन तमाम संस्थाओं का विरोधी था जो भारतीय जनता को बाँटकर रखती थीं। जन-प्रदर्शनों, विशाल जनसभाओं तथा सत्याग्रह के संघर्षो में सबकी भागीदारी ने भी जातिगत चेतना को कमज़ोर बनाया।
- गांधीजी अपनी सार्वजनिक गतिविधियों में छुआछूत के खात्मे को जीवन भर एक प्रमुख काम मानते रहे। 1932 में उन्होंने इस उद्देश्य से ‘अखिल भारतीय हरिजन संघ’ की स्थापना की। उनका तर्क था कि हिंदू शास्त्रों में छुआछूत को कोई मान्यता नहीं दी गई है।
- ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ दक्षिण भारत में ब्राह्मणों द्वारा लादी गई निर्योग्यताओं का मुकाबला करने के लिये गैर-ब्राह्मणों द्वारा 1920 के दशक में चलाया गया।
- डॉ. भीमराव अम्बेडकर जो खुद एक अनुसूचित जाति के थे. उन्होंने अपना पूरा जीवन जातिगत अत्याचार विरोधी संघर्ष को समर्पित | कर दिया। इसके लिये उन्होंने ‘अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ’ की स्थापना की।
- केरल में श्री नारायण गुरु ने जाति प्रथा के खिलाफ जीवन भर संघर्ष चलाया। उन्होंने ही ‘मानव जाति के लिये एक धर्म, एक जाति और एक ईश्वर’ का प्रसिद्ध नारा दिया।
- महाराष्ट्र में 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में निचली जाति में जन्मे ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मणों की धार्मिक सत्ता के खिलाफ जीवन भर आंदोलन चलाया। वे आधुनिक शिक्षा को निचली जातियों की मुक्ति का सबसे शक्तिशाली अस्त्र समझते थे। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने निचली जातियों की लड़कियों के लिये अनेक स्कूल खोले ।
11. राष्ट्रवादी आंदोलन (1905-1918) :उग्र राष्ट्रवाद का विकास
- 20वीं सदी के आरंभ में भारत में उग्र राष्ट्रवाद के विकास के प्रमुख कारण थे-
- ब्रिटिश शासन के सही चरित्र की पहचान।
- शिक्षा और बेरोजगारी में वृद्धि।
- आत्मसम्मान और आत्मविश्वास का प्रसार।
- अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव (1896 में इथियोपिया के हाथों इटली की सेना की हार तथा 1905 में जापान के हाथों रूस की हार ने यूरोपीय अपराजेयता का भ्रम तोड़ दिया।)
- उग्र राष्ट्रवादी विचार-संप्रदाय का अस्तित्व।
- प्रशिक्षित नेतृत्वा
- महाराष्ट्र में उग्र राष्ट्रवादी संप्रदाय के सबसे प्रमुख प्रतिनिधि बाल गंगाधर तिलक थे। 1893 से उन्होंने एक परंपरागत धार्मिक उत्सव, अर्थात् गणपति उत्सव में गीतों और भाषणों के द्वारा राष्ट्रवादी विचारों का प्रचार प्रसार किया।
- बाल गंगाधर तिलक ने अंग्रेज़ी में ‘मराठा’ तथा मराठी में ‘केसरी’ नामक समाचार-पत्र निकाले।
- 1895 में उन्होंने शिवाजी उत्सव का आयोजन आरंभ किया। जिसका उद्देश्य महाराष्ट्रीय युवकों के आगे अनुकरण के लिये शिवाजी का उदाहरण सामने रखकर उनमें राष्ट्रवाद की भावना पैदा करना था।
- 1896-97 में उन्होंने महाराष्ट्र में कर न चुकाने का अभियान चलाया। उन्होंने महाराष्ट्र के अकाल पीड़ित किसानों से कहा कि अगर उनकी फसल चौपट हो जाए तो वे मालगुजारी न दें।
- राष्ट्रीय आंदोलन के उदारवादी / नरमपंथी नेताओं में प्रमुख थे- दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, बदररुद्दीन तैयबजी, व्योमेश चंद्र बनर्जी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, आनंद मोहन बोस, रमेश चंद्र दत्त ।
- उग्र राष्ट्रवाद के प्रमुख नेता बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, अरविंद घोष और लाला लाजपत राय थे। इस विचारधारा के प्रतिनिधि बंगाल में राज नारायण बोस और अश्विनी कुमार दत्त तथा महाराष्ट्र में विष्णु शास्त्री चिपलुणकर जैसे नेता थे।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में उग्र राष्ट्रवादियों की विचारधारा एवं कार्य पद्धति के संबंध में
- उग्र राष्ट्रवादियों का मत था कि भारत अंग्रेजों के ‘कृपापूर्ण मार्गदर्शन’ और नियंत्रण में कभी भी प्रगति नहीं कर सकता है। वे विदेशी शासन से दिल से नफरत करते थे और उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की कि राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य स्वराज या स्वाधीनता है।
- उग्र राष्ट्रवादियों का मत था कि भारतीयों को मुक्ति स्वयं अपने प्रयासों से प्राप्त करनी होगी। उन्हें जनता की शक्ति में असीम विश्वास था और उनकी योजना जनता की कार्यवाही द्वारा स्वराज प्राप्त करने की थी। इसलिये उन्होंने जनता के बीच राजनीतिक कार्य पर और जनता की सीधी राजनीतिक कार्यवाही पर जोर दिया।
- उग्र राष्ट्रवादियों ने भारत के इतिहास व संस्कृति से प्रेरणा ली तथा भारतीय विरासत के प्रति गौरवान्वित महसूस किया।
- 20 जुलाई, 1905 को लॉर्ड कर्जन ने एक आदेश जारी करके बंगाल को दो भागों में बाँट दिया। पहले भाग में पूर्वी बंगाल और असम थे और उनकी आबादी 3.1 करोड़ थी. जबकि दूसरे भाग में शेष बंगाल था और उसकी जनसंख्या 5.4 करोड़ थी जिसमें बंगाली, बिहारी और उड़िया लोग शामिल थे।
बंगाल विभाजन के विरोध में बंगाल में
- भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस और बंगाल के राष्ट्रवादियों ने विभाजन का जमकर विरोध किया। बंगाल के भीतर भी जमींदार, व्यापारी, वकील, छात्र, नगरों के गरीब लोग और स्त्रियाँ तथा समाज के विभिन्न वर्ग अपने प्रांत के विभाजन के विरोध में स्वतः स्फूर्त ढंग से उठ खड़े हुए।
- बंगाल विभाजन (1905) के विरोध में बंगाल में चलाए गए आंदोलन का नेतृत्व सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और कृष्ण कुमार मित्र जैसे नरमपंथी नेताओं ने किया। मगर बाद में इसका नेतृत्व उग्र और क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों ने संभाल लिया। वास्तव में आंदोलन के दौरान नरमपंथी और उग्र राष्ट्रवादियों दोनों ने एक- दूसरे से सहयोग किया।
बंग-भंग विरोधी आंदोलन संबंध में
- बंगाल विभाजन विरोधी आंदोलन 7 अगस्त, 1905 को आरंभ हुआ। उस दिन कलकत्ता के टाउनहाल में विभाजन के खिलाफ एक बहुत बड़ा प्रदर्शन हुआ।
- विभाजन को 16 अक्टूबर, 1905 को लागू किया गया। आंदोलन के नेताओं ने इस दिन को पूरे बंगाल में शोक दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की। इस अवसर पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपना प्रसिद्ध गीत ‘आमार सोनार बांग्ला’ लिखा, जिसे सड़कों पर चलने वाली भीड़ गाती थी। बाद में इस गीत को बांग्लादेश ने 1971 में अपनी मुक्ति के बाद अपने राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया।
- स्वदेशी आंदोलन के दौरान कलकत्ता की सड़कें ‘वंदे मातरम’ से गूँज उठी थीं। बाद में यही गीत पूरे राष्ट्रीय आंदोलन का राष्ट्रगान बन गया।
- बंगाल विभाजन के परिणामस्वरूप बंगाल के नेताओं को लगा कि केवल प्रदर्शनों, सार्वजनिक सभाओं और प्रस्तावों से ब्रिटिश शासकों पर बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। इसके लिये और भी सकारात्मक उपाय करने होंगे जिससे जनता की भावनाओं की तीव्रता का पता चल सके। इसी का परिणाम था स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन।
स्वदेशी आंदोलन के संदर्भ में
- स्वदेशी आंदोलन के दौरान सरकार ने छात्रों को दबाने की हर सम्भव कोशिश की। जिन स्कूलों और कॉलेजों के छात्र स्वदेशी आंदोलन में सक्रिय रहे उन्हें दण्डित करने के आदेश जारी किये गए, उन्हें प्राप्त सहायताएँ व विशेषाधिकार छीन लिये गए, उन्हें विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया। आंदोलन में शामिल छात्रों की छात्रवृत्ति रोक दी गई तथा उन्हें सरकारी नौकरी से वंचित रखने का फैसला किया गया।
- स्वदेशी आंदोलन की एक महत्त्वपूर्ण बात इसमें स्त्रियों की सक्रिय भागीदारी थी। शहरी मध्यवर्ग की सदियों से घरों में कैद महिलाएँ जुलूसों और धरनों में शामिल हुईं। इसके बाद से राष्ट्रवादी आंदोलन में वे बराबर सक्रिय रहीं।
- स्वदेशी और स्वराज की गूँज जल्द ही बंगाल के बाहर देश के दूसरे प्रांतों भी में गूँजने लगी थी। बंबई, मद्रास और उत्तर भारत में बंगाल की एकता के समर्थन में तथा विदेशी मालों के बहिष्कार हेतु आंदोलन चलाए गए थे।
नेतृत्वकर्ता | स्थान |
सैयद हैदर रजा | दिल्ली |
चिदंबरम पिल्लै | मद्रास |
लाला लाजपत राय | पंजाब |
हरि सर्वोत्तम राव | आंध्र प्रदेश |
- बंगाल से प्रारंभ हुए स्वदेशी आन्दोलन को देश के दूसरे भागों विशेषकर बंबई, मद्रास और उत्तर भारत में फैलाने में प्रमुख भूमिका तिलक की रही। स्वदेशी आंदोलन का नेतृत्व पंजाब में लाला लाजपत राय एवं सरदार अजीत सिंह ने दिल्ली में सैयद हैदर रजा ने मद्रास में चिदंबरम पिल्लै और आंध्र प्रदेश में हरि सर्वोत्तम राव ने संभाला।
- 1904 में विनायक दामोदर सावरकर ने ‘अभिनव भारत’ नाम से क्रांतिकारियों का एक गुप्त संगठन बनाया था।
▪︎ बंगाल के दो क्रांतिकारी खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी ने अप्रैल 1908 को मुजफ्फरपुर में एक बग्घी पर बम फेंका जिसमें वे समझते थे कि बदनाम जज, किंग्सफोर्ड बैठा है। इस घटना में किंग्सफोर्ड बच गया। इस घटना के बाद खुदीराम बोस को 1908 में में फाँसी दे दी गई। वे सबसे कम उम्र में फाँसी के सजा पाने वाले क्रांतिकारी थे।
• 20वीं सदी के आरंभ में क्रांतिकारियों का हौसला इतना बढ़ चुका था कि जब वायसराय लॉर्ड हार्डिग्ज कलकत्ता से दिल्ली राजधानी परिवर्तन के समय एक सरकारी जुलूस में हाथी पर बैठा था तो उस समय उस पर बम फेंका गया। लॉर्ड हार्डिंग्ज की हत्या की योजना रासबिहारी बोस द्वारा बनाई गई थी। यह घटना इतिहास में ‘दिल्ली षड्यंत्र’ के नाम से चर्चित है।
• विनायक दामोदर सावरकर द्वारा स्थापित ‘अभिनव भारत समाज’ के एक प्रमुख सदस्य अनंत लक्ष्मण कान्हरे ने नासिक के जिला मजिस्ट्रेट जैक्सन की हत्या कर दी। इतिहास में यह घटना ‘नासिक षड्यंत्र केस’ के नाम से प्रसिद्ध है।
20वीं सदी के आरंभ में क्रांतिकारी आंदोलनकारियों के संबंध में
- क्रांतिकारियों ने अपनी गतिविधियों के केंद्र विदेशों में भी खोले। इसकी पहल लंदन में श्यामजी कृष्ण वर्मा, विनायक दामोदर सावरकर और हरदयाल ने की, जबकि मैडम भीकाजी कामा ने पेरिस में ‘पेरिस इंडियन सोसायटी’ की नींव रखी। अमेरिका में क्रांतिकारी गतिविधियों के प्रसार के लिये सोहन सिंह भकना ने हिन्द एसोसिएशन तथा तारकनाथ दास ने इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की।
- एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में हिंसक साधनों की असफलता निश्चित थी। इसने जनता को गतिमान नहीं बनाया और वास्तव में जनता में इसका कोई आधार नहीं था। लेकिन भारत के राष्ट्रवाद के विकास में क्रांतिकारियों का बहुमूल्य योगदान रहा।
- 1905 के बाद अनेकों समाचार-पत्र क्रांतिकारी गतिविधियों की पैरवी करने लगे थे। इनमें बंगाल के ‘संध्या’ और ‘युगांतर’ तथा महाराष्ट्र के ‘काल’ प्रमुख थे।
- 1905 में कॉन्ग्रेस के बनारस अधिवेशन की अध्यक्षता गोपाल कृष्ण गोखले ने की थी। गोखले ने बंगाल विभाजन और कर्जन के प्रतिक्रियावादी शासन की खुलकर निंदा की।
- 1905 के अधिवेशन में कॉन्ग्रेस ने बंगाल के स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन का समर्थन किया।
- इस अधिवेशन में नरमपंथी व गरमपंथी कॉन्ग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच जमकर बहसें हुई और मतभेद उभरे। नरमपंथी कार्यकर्ता बहिष्कार को बंगाल तक और वहाँ भी केवल विदेशी मालों तक सीमित रखना चाहते थे जबकि गरमपंथी कार्यकर्ता स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन को बंगाल के बाहर देश भर में फैलाना तथा औपनिवेशिक सरकार के साथ वे किसी भी रूप में जुड़ने का बहिष्कार करना चाहते थे।
- वर्ष 1906 में कलकत्ता अधिवेशन में राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष दादाभाई नौरोजी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में घोषणा की कि भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का उद्देश्य ‘ग्रेट ब्रिटेन या उपनिवेशों की तरह का स्वशासन या स्वराज’ है।
- दिसंबर 1907 में सूरत अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस दो टुकड़ो में विभाजित हो गई। नरमपंथी नेता कॉन्ग्रेस संगठन पर कब्जा करने तथा उससे गरमपंथियों को निष्कासित करने में सफल रहे।
- 1907 में कॉन्ग्रेस के सूरत अधिवेशन के बाद पार्टी के विभाजन से लाभ किसी भी दल को नहीं हुआ। ब्रिटिश सरकार ने ‘बाँटो और राज करो’ का खेल खूब खेला। ब्रिटिश सरकार ने गरमपंथी राष्ट्रवादियों का दमन किया तथा इसके लिये उन्होंने नरमपंथी राष्ट्रवादियों को अपने पक्ष में लाने का प्रयत्न किया। नरमपंथी राष्ट्रवादियों को खुश करने के लिये उन्होंने 1909 के इंडियन काउंसिल एक्ट के रूप में सांविधानिक सुधारों की घोषणा की। इसी कानून को 1909 के मार्ले-मिंटो सुधार के नाम से जाना जाता है।
- 1907 के सूरत अधिवेशन के बाद नरमपंथी नेता कॉन्ग्रेस संगठन पर कब्जा करने तथा उससे गरमपंथियों को निष्कासित करने में सफल रहे।
- ब्रिटिश सरकार ने 1911 में बंगाल विभाजन को रद्द कर दिया। पश्चिमी और पूर्वी बंगाल फिर से मिला दिये गए तथा बिहार और उड़ीसा नाम से दो प्रांत अलग बना दिये
- बंगाल विभाजन को 16 अक्तूबर, 1905 को लागू किया गया।
- मुस्लिम लीग का गठन 1906 में किया गया।
- कॉन्ग्रेस का विभाजन दिसंबर 1907 में सूरत अधिवेशन के दौरान हुआ।
- 1911 में ब्रिटिश सरकार ने केंद्र सरकार की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित की।
▪︎ 1909 के इंडियन काउंसिल एक्ट जिसे मार्ले-मिंटो सुधार के नाम से जाना जाता है। वास्तव में यह हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने और भारत में ब्रिटिश शासन को बनाए रखने की नीति का ही अंग था। इस सुधार के द्वारा अलग-अलग चुनाव मंडल की प्रणाली आरंभ की गई। इसमें सभी मुसलमानों को मिलाकर उनके लिये अलग चुनाव क्षेत्र बनाए गए थे और इन क्षेत्रों में केवल मुसलमान ही चुने जा सकते थे। अलग-अलग चुनाव मंडलों की यह प्रणाली इस धारणा पर आधारित थी कि हिन्दुओं और मुसलमानों के राजनीतिक और आर्थिक हित अलग-अलग हैं।
1909 के इंडियन काउंसिल एक्ट के संबंध में
- 1909 के इंडियन काउंसिल एक्ट में इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल और प्रांतीय परिषदों में चुने हुए सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई।
- ब्रिटिश राजनेता भारत में अपने साम्राज्य की सुरक्षा तथा देश में एकजुट राष्ट्रीय भावना के विकास को रोकने के लिये ‘बाँटो और राज करो’ की नीति पर और सक्रियता से काम करने लगे। जनता को धार्मिक आधारों पर बाँटने का अर्थात् भारत की राजनीति में सांप्रदायिक और अलगाववादी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करने का फैसला किया।
- धार्मिक अलगाववाद की प्रवृत्ति के विकास में सैय्यद अहमद खान की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। सैय्यद अहमद खान अपने जीवन के अंतिम दिनों में रूढ़िवादी विचारधारा का समर्थन करने लगे थे। 1880 के दशक में उन्होंने घोषणा की कि हिंदुओं और मुसलमानों के राजनीतिक हित समान न होकर एकदम अलग-अलग हैं और इस प्रकार उन्होंने मुस्लिम सांप्रदायिकता की नींव डाली।
- मुसलमानों में सांप्रदायिक और अलगाववादी विचार विकसित होने का एक कारण उनका शिक्षा, व्यापार और उद्योग में तुलनात्मक पिछड़ापन था।
- दुर्भाग्य से उग्र राष्ट्रवाद जहाँ दूसरी बातों में आगे की ओर बढ़ा हुआ एक कदम था, वहीं राष्ट्रीय एकता के विकास की दृष्टि से यह एक पिछड़ा हुआ कदम था। कुछ उग्र राष्ट्रवादियों के भाषण और लेखन धार्मिक और हिंदू रंगत में रंगे हुए होते थे। उन्होंने मध्यकालीन भारतीय | संस्कृति को नकारकर प्राचीन भारतीय संस्कृति पर जोर दिया। उग्र राष्ट्रवादियों ने समन्वित संस्कृति के तत्त्वों को छोड़ने के प्रयत्न किये। उदाहरण के लिये, तिलक ने शिवाजी और गणपति उत्सवों का प्रचार किया, अरविंद घोष ने अर्धरहस्यवादी ढंग से भारत को माता और राष्ट्रवाद को धर्म बतलाया, क्रांतिकारी काली देवी के आगे शपथ लेते थे।
- 1906 में ढाका के नवाब सलीमुल्लाह खान के नेतृत्व में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना की गई। आगा खान और नवाब मोहसिन-उल-मुल्क भी इसके संस्थापक सदस्यों में थे।
- 1906 में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना एक ब्रिटिश वफादार, सांप्रदायिक और रूढ़िवादी राजनीतिक संगठन के रूप में हुई और उसने उपनिवेशवाद की कोई आलोचना नहीं की। मुस्लिम लीग ने बंगाल विभाजन का समर्थन किया। इस तरह जब राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस साम्राज्यवाद विरोधी आर्थिक और राजनीतिक प्रश्न उठा रही थी, तब मुस्लिम लीग और प्रतिक्रियावादी नेता यह प्रचार कर रहे थे कि मुसलमानों के हित हिन्दुओं के हितों से अलग हैं। मुस्लिम लीग की राजनीतिक गतिविधियाँ विदेशी शासन के खिलाफ नहीं बल्कि हिन्दुओं और राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के खिलाफ थीं।
- मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अपने समाचार-पत्र ‘अल-हिलाल’ में बुद्धिवादी और राष्ट्रीय विचारों का प्रचार किया।
अहरार आंदोलन’ के संबंध में
- 20वीं सदी के आरंभ में मौलाना मुहम्मद अली, हकीम अजमल खान और मजहरुल हक के नेतृत्व में उग्र राष्ट्रवादी अहरार आंदोलन की | स्थापना हुई। स्वशासन के आधुनिक विचारों से प्रेरित होकर उन्होंने उग्र राष्ट्रवादी आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के पक्ष में प्रचार किया।
- होमरूल लीग आंदोलन के दौरान बाल गंगाधर तिलक ने अपना प्रसिद्ध नारा दिया था कि ‘ स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा।’
- 1915-16 में दो होमरूल लीगों की स्थापना हुई। इनमें एक के नेता लोकमान्य तिलक थे तथा दूसरा श्रीमती एनी बेसेंट और एस. सुब्रह्मण्यम अय्यर के नेतृत्व में था।
- लाला हरदयाल का संबंध गदर आंदोलन से था
- अमेरिका और कनाडा में बसे भारतीय क्रांतिकारियों ने 1913 में गदर पार्टी की स्थापना की। इस पार्टी के अधिकांश सदस्य पंजाब के सिख किसान और भूतपूर्व सैनिक थे।
- लाला हरदयाल, मुहम्मद बरकतुल्लाह, भगवान सिंह, रामचंद्र और सोहन सिंह भखना गदर पार्टी के कुछ प्रमुख नेताओं में से थे।
- गदर पार्टी का आधार उसका साप्ताहिक पत्र ‘गदर’ था जिसके सिरे पर ‘अंग्रेजी राज का दुश्मन’ शब्द लिखे होते थे।
- गदर पार्टी की विचारधारा बहुत ही धर्मनिरपेक्ष थी। सोहन सिंह भकना, जो बाद में पंजाब के एक प्रमुख किसान नेता बने के शब्दों में ‘हम सिख या पंजाबी नहीं हैं। हमारा धर्म देशभक्ति है।”
- कॉन्ग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच 1916 में प्रसिद्ध लखनऊ समझौता हुआ था।
1916 के कॉन्ग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के संबंध में
- 1916 के कॉन्ग्रेस के लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता अंबिका चरण मजूमदार ने की थी।
- कॉन्ग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में कॉन्ग्रेस के दोनों हिस्से फिर से एक साथ हो गए अर्थात नरमदल एवं गरमदल के बीच पुनः एकता स्थापित हो गई।
- 1916 के कॉन्ग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में कॉन्ग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच एकता कॉन्ग्रेस लीग समझौतों के साथ स्थापित हुई। इसे आमतौर पर लखनऊ समझौता के नाम से जाना जाता है। लखनऊ समझौता हिंदू-मुस्लिम एकता के विकास में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। कॉन्ग्रेस ने इस अधिवेशन में मुस्लिमों के पृथक निर्वाचन मंडल के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया।
12. स्वराज के लिये संघर्ष-1 (1919-1927)
▪︎ 1919 के भारत सरकार अधिनियम के द्वारा प्रांतों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना के लिये द्वैध शासन की शुरुआत हुई। दोहरी शासन प्रणाली के तहत प्रांतीय सरकारों को अधिक अधिकार दिये गए।
▪︎ भारत सरकार अधिनियम, 1919 मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार के नाम से जाना जाता है। 1919 में मॉन्टेग्यू ब्रिटिश सरकार के भारत मंत्री थे एवं लॉर्ड चेम्सफोर्ड भारत के वायसराय थे।
▪︎ ब्रिटिश सरकार के भारत मंत्री मॉन्टेग्यू तथा वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने 1918 में संविधान सुधारों की योजना सामने रखी जिसके आधार पर 1919 का भारत सरकार कानून बनाया गया। अगस्त 1918 में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस ने बंबई में एक विशेष सत्र बुलाया ताकि सुधारों के प्रस्तावों पर विचार किया जा सके। इस सत्र में कॉन्ग्रेस के अधिकांश नेताओं ने इन प्रस्तावों को ‘निराशाजनक और असंतोषजनक’ बतलाकर प्रभावी स्वशासन की मांग रखी। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस के कुछ वयोवृद्ध नेता सरकार के प्रस्ताव को स्वीकार करने के पक्ष में थे। उन्होंने कॉन्ग्रेस छोड़कर ‘इंडियन लिबरल एसोसिएशन’ की स्थापना की। ये लोग उदारवादी कहे गए तथा भारत की राजनीति में आगे चलकर इनकी बहुत नगण्य भूमिका रही।
▪︎ ब्रिटिश सरकार ने स्वयं को ऐसी भयानक शक्तियों से लैस करने का फैसला किया जो कानून के शासन के स्वीकृत सिद्धांतों के | प्रतिकूल थीं. ताकि 1919 के सरकारी सुधारों से संतुष्ट न होने वाले राष्ट्रवादियों को कुचल सके। मार्च 1919 में केंद्रीय विधान परिषद् में भारतीय सदस्यों के विरोध के बावजूद रॉलेट एक्ट बनाया गया। इस कानून में सरकार को अधिकार प्राप्त था कि वह किसी भी भारतीय को अदालत में बिना मुकदमा चलाए जेल में बंद कर सकती थी एवं दंड दे सकती थी।
▪︎ गांधीजी ने सत्याग्रह का अपना पहला बड़ा प्रयोग बिहार के चंपारन जिले में 1917 में किया। यहाँ नील के खेतों में काम करने वाले किसानों पर यूरोपीय निलहे बहुत अधिक अत्याचार करते थे। गांधीजी के संघर्ष के कारण अंततः किसान जिन समस्याओं से पीड़ित थे उनमें कमी आई।
20वीं सदी के बिहार के नील किसानों के संबंध में
- बिहार के चंपारन जिले के नील उत्पादक किसानों पर यूरोपीय निलहे बहुत अधिक अत्याचार करते थे। किसानों को अपनी जमीन के कम-से-कम 3/20 भाग पर नील की खेती करना तथा निलहों द्वारा तय दामों पर बेचना पड़ता था।
- 1917 में गांधीजी, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, मजहरूल हक, जे. बी. कृपलानी. नरहरि पारिख और महादेव देसाई के साथ चंपारन पहुँचे और किसानों के हालात की विस्तृत जाँच पड़ताल करने लगे। अंततः सरकार ने मजबूर होकर एक जाँच समिति बनाई जिसके एक सदस्य गांधीजी भी थे।
गांधीजी के संदर्भ में
- गांधीजी 46 वर्ष की आयु में 1915 में अफ्रीका से भारत लौटे। पूरे एक वर्ष तक उन्होंने देश का भ्रमण किया और भारतीय जनता की दशा को समझा। फिर उन्होंने 1916 में अहमदाबाद के पास साबरमती आश्रम की स्थापना की।
- गांधीजी द्वारा दक्षिण अफ्रीका से लौटने के पश्चात् भारत में आरंभ किया गया प्रथम सफल सत्याग्रह चंपारन सत्याग्रह था।
- सन 1918 में गुजरात के खेड़ा जिले के किसानों की फसल चौपट हो गई। मगर सरकार ने लगान छोड़ने से एकदम इनकार कर दिया और पूरा लगान वसूल करने पर उतारू हो गई। गांधीजी ने किसानों का साथ दिया और आह्वान किया कि जब तक लगान में छूट नहीं मिलती किसान लगान देना बंद कर दें। जब यह खबर मिली कि सरकार ने केवल उन्हीं किसानों से लगान वसूलने के आदेश दिये हैं। जो लगान देने में सक्षम हैं। उसके बाद यह संघर्ष वापस ले लिया गया।
- सरदार वल्लभ भाई पटेल खेड़ा के किसान संघर्ष के दौरान गांधीजी के अनुयायी बने थे।
- सन् 1918 में गांधीजी ने अहमदाबाद में मजदूरों और मिल मालिकों के एक विवाद में हस्तक्षेप किया। गांधीजी ने मजदूरों की मजदूरी में 35 प्रतिशत वृद्धि की मांग करने तथा इसके लिये। | हड़ताल पर जाने की राय दी। मजदूरों की हड़ताल को जारी रखने के संकल्प को बल देने के लिये उन्होंने आमरण अनशन किया। उनके अनशन ने मिल मालिकों पर दबाव डाला और वे नरम पड़कर 35 प्रतिशत मजदूरी | बढ़ाने पर सहमत हो गए।
- दूसरे राष्ट्रवादियों की तरह गांधीजी को भी रॉलेट कानून से धक्का लगा। फरवरी 1919 में उन्होंने एक सत्याग्रह सभा बनाई जिसके सदस्यों ने इस कानून का पालन न करने तथा गिरफ्तारी और जेल जाने का सामना करने की शपथ ली।
- गांधीजी ने रॉलेट एक्ट के विरोध में 6 अप्रैल, 1919 को एक व्यापक हड़ताल का आह्वान किया। जनता ने अभूतपूर्व उत्साह से इसका अनुसरण किया। ब्रिटिश सरकार ने इस जन प्रतिरोध का सामना, खासकर पंजाब में, दमन से करने का निश्चिय किया। पंजाब में अमृतसर के जलियाँवाला बाग में 13 अप्रैल, 1919 को एक निहत्थी भीड़ अपने लोकप्रिय नेता डॉ. सैफुद्दीन किचलू और डॉ. सत्यपाल की गिरफ्तारी का विरोध करने के लिये एकत्रित हुई थी।
- जलियाँवाला बाग नरसंहार के विरोध में रवींद्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदान की गई नाइट की उपाधि लौटा दी थी। जनता के कष्टों का वर्णन करते हुए उन्होंने घोषणा की कि- “वह समय आ गया। है जब सम्मान के प्रतीक अपमान अपने बेमेल संदर्भ में हमारी शर्म को उजागर करते हैं और मैं, जहाँ तक मेरा सवाल है, सभी विशिष्ट उपाधियों से रहित होकर अपने उन देशवासियों के साथ खड़ा होना चाहता हूँ जो अपनी तथाकथित क्षुद्रता के कारण मानव जीवन के अयोग्य अपमान को सहने के लिये बाध्य हो सकते हैं। “
- मुहम्मद अली, शौकत अली, मौलाना आजाद, हकीम अजमल खान और हसरत मोहानी के नेतृत्व में खिलाफत कमेटी का गठन किया गया और देशव्यापी आंदोलन छेड़ा गया।
- गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन को हिंदुओं और मुसलमानों में एकता स्थापित करने का ऐसा अवसर जाना जो कि आगे सौ वर्षों तक नहीं मिलेगा। गांधीजी ने 1920 के आरंभ में घोषणा की कि खिलाफत का प्रश्न सांविधानिक सुधारों तथा पंजाब के अत्याचारों से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
घटना | तिथि |
कॉन्ग्रेस का लखनऊ अधिवेशन | 1916 |
चंपारन सत्याग्रह | 1917 |
खेड़ा सत्याग्रह | 1918 |
जलियाँवाला बाग हत्याकांड | 1919 |
- 1921-22 में असहयोग आंदोलन के समय भारतीय जनता एक |अभूतपूर्व हलचल के दौर से गुजरी। हजारों की संख्या में छात्रों ने सरकारी स्कूल-कॉलेज छोड़कर राष्ट्रीय स्कूलों और कॉलेजों में प्रवेश ले लिया। इसी समय अलीगढ़ के जामिया मिलिया इस्लामिया (राष्ट्रीय मुस्लिम विश्वविद्यालय), बिहार विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ और गुजरात विद्यापीठ की स्थापना हुई। जामिया मिलिया बाद में दिल्ली स्थानांतरित हो गया।
असहयोग आंदोलन के संबंध में
- अगस्त 1920 में असहयोग आंदोलन आरंभ हुआ।
- असहयोग आंदोलन को चलाने के लिये तिलक स्वराज कोष स्थापित किया गया और छः माह के अंदर इसमें एक करोड़ रुपए जमा हो गए।
- खादी असहयोग आंदोलन के दौरान स्वतंत्रता का प्रतीक बन गई थी।
- संयुक्त प्रांत के गोरखपुर जिले में चौरी-चौरा नामक गाँव में किसानों के एक जुलूस पर पुलिस ने गोली चलाई। गुस्साई भीड़ ने पुलिस थाने पर हमला करके उसमें आग लगा दी. जिसमें 22 पुलिस कर्मी मारे गए। गांधीजी को भय था कि जन उत्साह और जोश के इस वातावरण में आंदोलन आसानी से एक हिंसक मोड़ ले सकता है। इस कारण से गांधीजी ने चौरी-चौरा की घटना के बाद आंदोलन को वापस ले लिया।
1920 से 1922 तक चले असहयोग आंदोलन के संबंध में
- असहयोग आंदोलन में खिलाफत आंदोलन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। इस आंदोलन के कारण नगरों के मुसलमान राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हुए।।
- देखने में तो असहयोग आंदोलन असफल था. मगर इसके कारण राष्ट्रीय आंदोलन अनेक अर्थों में और मजबूत हुआ था। लाखों-लाख किसान, दस्तकार और शहरी गरीब राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हुए थे। स्त्रियाँ एवं पुरुष दोनों आंदोलन में शामिल हुए। लाखों-लाख स्त्री-पुरुषों के इसी राजनीतिकरण तथा सक्रियता ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को क्रांतिकारी चरित्र प्रदान किया। इस आंदोलन से भारतीय समाज के सभी वर्गों का राजनीतिकरण हुआ।
- असहयोग आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय भावना और राष्ट्रीय आंदोलन का देश के दूर-दराज के स्थानों तक प्रसार हुआ था।
- दिसंबर 1922 में चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू ने स्वराज पार्टी (कॉन्ग्रेस-खिलाफत स्वराज पार्टी) की स्थापना की। इसके अध्यक्ष चितरंजन दास थे और मोतीलाल नेहरू इसके सचिवों में से एक थे।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में स्वराजवादियों के संबंध में
- नवंबर 1923 के चुनावों में स्वराजवादियों को अच्छी सफलता मिली। केंद्रीय एवं प्रांतीय विधानमंडलों में स्वराज पार्टी द्वारा बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य किये गए। विट्ठलभाई पटेल को सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली का अध्यक्ष बनवाना स्वराज पार्टी की एक महत्त्वपूर्ण सफलता थी।
- स्वराज पार्टी को कॉन्ग्रेस के अंदर ही एक समूह के रूप में कार्य करना था। इसने कॉन्ग्रेस के सभी कार्यक्रमों को स्वीकार किया, एक बात को छोड़कर कि यह पार्टी कौंसिल के चुनावों में भाग लेगी।
घटनाएँ | कालक्रम |
रॉलेट सत्याग्रह | अप्रैल 1919 |
असहयोग आंदोलन | अगस्त 1920 |
चौरी-चौरा कांड | फरवरी 1922 |
स्वराज पार्टी का गठन | दिसंबर 1922 |
13. स्वराज के लिये संघर्ष – II ( 1927-1947)
▪︎ मानवेंद्रनाथ रॉय कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के नेतृत्व-वर्ग में चुने जाने वाले पहले भारतीय थे।
▪︎ भारत में 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। इसके अलावा देश के अनेक भागों में मजदूर-किसान पार्टियाँ बनीं। इन पार्टियों और समूहों ने मार्क्सवादी और कम्युनिस्ट विचारों का प्रचार किया।
▪︎ अगस्त 1925 में क्रांतिकारी आतंकवादियों ने लखनऊ के पास काकोरी गाँव में चलती ट्रेन से सरकारी खजाने को लूट लिया। काकोरी षड्यंत्र केस में सत्रह लोगों को लंबी-लंबी जेल सजाएँ हुईं, चार को आजीवन कारावास का दंड मिला तथा रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खाँ समेत चार लोगों को फाँसी दे दी गई।
▪︎ 9 अगस्त, 1925 को क्रांतिकारियों ने लखनऊ के पास काकोरी गाँव में रेलवे की तिजोरी को लूट लिया। इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के नाम से जानी जाती है।
• 1926 में भगत सिंह ने पंजाब में नौजवान भारत सभा की स्थापना में भाग लिया था और इसके प्रथम सचिव बने थे।
▪︎ गुजरात के किसानों ने मालगुजारी बढ़ाने के सरकारी प्रयासों का विरोध किया। 1928 में सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में किसानों ने टैक्स न देने का आंदोलन चलाया जो बारदोली सत्याग्रह के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
• बंगाल के चटगाँव में 1930 में मास्टर सूर्यसेन के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने सरकारी शास्त्रागार पर योजनाबद्ध ढंग से छापा मारकर उसे लूट लिया था।
▪︎ 30 अक्तूबर, 1928 को साइमन कमीशन विरोधी एक प्रदर्शन पर पुलिस के बर्बर लाठी चार्ज के कारण पंजाब के महान नेता लाला लाजपत राय शहीद हो गए। 17 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और राजगुरु ने लाठी चार्ज का नेतृत्व करने वाले ब्रिटिश पुलिस अधिकारी सांडर्स को गोलियों से भून दिया।
• हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ के कार्यकर्ता भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय विधानसभा में बम फेंका। बम से किसी को नुकसान नहीं पहुँचा क्योंकि क्रांतिकारियों का उद्देश्य किसी की हत्या करना नहीं था, बल्कि उनके एक पर्चे के अनुसार ‘बहरों को सुनाना’ था।
1929 के मेरठ षड्यंत्र केस के संबंध में
- बीसवीं शताब्दी के दूसरे व तीसरे दशक के दौरान उभरते मजदूर और कम्युनिस्ट आंदोलनों को ब्रिटिश सरकार ने बड़ी निर्ममता से कुचलने का प्रयास किया। मार्च 1929 में 31 प्रमुख मजदूर और कम्युनिस्ट नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया, इनमें तीन अंग्रेज़ भी थे। फिर इन पर चार वर्षों तक मुकदमा चलाया गया, जिसे मेरठ षड्यंत्र का मुकदमा कहा जाता है।
- नवंबर 1927 में ब्रिटिश सरकार ने इंडियन स्टेट्यूटरी कमीशन का गठन किया, जिसे आमतौर पर इसके अध्यक्ष साइमन के नाम पर साइमन कमीशन कहा जाता है। इसका उद्देश्य 1919 के आगे सांविधानिक सुधार के प्रश्न पर विचार करना था।
साइमन कमीशन के संबंध में
- साइमन कमीशन के सभी सदस्य अंग्रेज थे। सभी वर्गों के भारतीयों ने इस घोषणा का विरोध किया। भारतीयों को सबसे अधिक इस बात का क्रोध था कि कमीशन में एक भी भारतीय को नहीं रखा गया था और इसके पीछे यह धारणा काम कर रही थी कि स्वशासन के लिये भारतीयों की योग्यता-अयोग्यता का फैसला विदेशी करेंगे।
- 1927 में कॉन्ग्रेस ने मद्रास अधिवेशन में घोषणा की कि वह ‘हर कदम पर और हर रूप में इस कमीशन के बहिष्कार’ का निर्णय करती है। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा ने भी कॉन्ग्रेस के फैसले का समर्थन किया।
- साइमन कमीशन के साथ सहयोग करने के लिये बनाई गई कमेटी में डॉ. भीमराव अम्बेडकर भी एक सदस्य के रूप में शामिल थे।
- सभी महत्त्वपूर्ण भारतीय नेताओं और दलों ने परस्पर एकजुट | होकर तथा संविधानिक सुधारों की एक वैकल्पिक योजना बनाकर साइमन कमीशन की चुनौती का जवाब देने का प्रयास किया। इसका परिणाम नेहरू रिपोर्ट के रूप में सामने आया। इसे अगस्त 1928 में अंतिम रूप | दिया गया। दुर्भाग्य से कलकत्ता में 1928 में आयोजित सर्वदलीय सम्मेलन नेहरू रिपोर्ट को स्वीकार न कर सका। मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा और सिख लीग जैसे सांप्रदायिक रुझान वाले संगठन के नेताओं ने इसका विरोध किया।
1929 के कॉन्ग्रेस के लाहौर अधिवेशन के संबंध में
- 1929 के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू को कॉन्ग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था।
- लाहौर अधिवेशन में पारित एक प्रस्ताव ने पूर्ण स्वराज को कॉन्ग्रेस का उद्देश्य घोषित किया।
- इस अधिवेशन के दौरान 26 जनवरी, 1930 को पहला स्वाधीनता दिवस घोषित किया गया। उसके बाद यह दिवस हर साल मनाया जाने लगा, जब लोग यह शपथ लेते थे कि ब्रिटिश शासन की अधीनता अब और आगे स्वीकार करना मानवता और ईश्वर के प्रति अपराध होगा।
- 1929 के लाहौर अधिवेशन में कॉन्ग्रेस ने एक नागरिक अवज्ञा आंदोलन छेड़ने की घोषणा की। लेकिन कॉन्ग्रेस ने संघर्ष का कोई कार्यक्रम तैयार नहीं किया, यह काम महात्मा गांधी पर छोड़ दिया गया और पूरे कॉन्ग्रेस संगठन को उनकी आज्ञा के अधीन कर दिया गया। गांधीजी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन एक बार फिर ब्रिटिश सरकार से मुकाबला करने को खड़ा हुआ।
- नागरिक अवज्ञा आंदोलन अर्थात् सविनय अवज्ञा आंदोलन 12 मार्च, 1930 को गांधीजी के प्रसिद्ध दांडी मार्च के साथ आरंभ हुआ।
- 12 मार्च, 1930 को महात्मा गांधी अपने 78 चुने हुए अनुयायियों के साथ साबरमती आश्रम से अपना ऐतिहासिक दांडी मार्च प्रारंभ किया।
- गांधीजी 5 अप्रैल, 1930 को लगभग 375 किलोमीटर लंबी पद-यात्रा के बाद गुजरात के समुद्र तट पर स्थित | दांडी गाँव पहुँचे। गांधीजी ने 6 अप्रैल को समुद्र तट से मुट्ठी भर नमक उठाया और नमक कानून को तोड़ा। इसके बाद आंदोलन तेजी से फैला और पूरे देश में नमक कानून तोड़ा गया।
- सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्य भारत में लोगों ने जंगल कानून तोड़कर अपना विरोध प्रदर्शित किया।
- सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान पूर्वी भारत में ग्रामीण जनता ने चौकीदारी कर अदा करने से इनकार कर दिया। देश में हर जगह जनता हड़तालों, प्रदर्शनों और विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार में भाग लेने लगी और कर अदा करने से इनकार करने लगी।
- सविनय अवज्ञा आंदोलन की एक प्रमुख विशेषता स्त्रियों की भागीदारी थी। हजारों स्त्रियाँ घरों से बाहर निकलीं और सत्याग्रह में भाग लिया। विदेशी वस्त्र या शराब बेचने वाली दुकानों पर धरना देने में उनकी सक्रिय भूमिका रही।
- इसी तरह आंदोलन की गूँज देश के एकदम पूर्वी कोनों में सुनाई पड़ी। इसमें मणिपुरी जनता की बहादुरी से भरपूर भागीदारी रही। नागालैंड की रानी गैडिन्ल्यू ने पूर्वोत्तर भारत में इस आंदोलन की कमान संभाली।
खुदाई खिदमतगार संगठन’ के संबंध में
- सविनय अवज्ञा आंदोलन बढ़कर भारत के एकदम उत्तर-पश्चिमी छोर तक पहुँच गया और बहादुर और शेरदिल पठानों में जोश भर दिया। ‘सीमांत गांधी’ के नाम से प्रख्यात खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में पठानों ने खुदाई खिदमतगार (ईश्वर के सेवक) नामक संगठन बनाया जो जनता के बीच ‘लाल कुर्ती वाले’ कहलाते थे। ये लोग अहिंसा और स्वाधीनता संघर्ष को समर्पित थे।
- 1930 में ब्रिटिश सरकार ने लंदन में भारतीय नेताओं और सरकारी प्रवक्ताओं का पहला गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया। इसका उद्देश्य साइमन कमीशन की रिपोर्ट पर विचार करना था।
- वायसराय लॉर्ड इरविन और गांधीजी के बीच मार्च 1931 में एक समझौता हुआ जिसे इतिहास में ‘गांधी-इरविन समझौता’ के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के तहत सरकार ने अहिंसक रहने वाले राजनीतिक बंदियों को रिहा करने पर तैयार हुई।
- इस समझौते के तहत उपयोग के लिये नमक बनाने का अधिकार तथा विदेशी वस्त्रों और शराब की दुकानों पर धरना देने का अधिकार भी मान लिया गया। इस समझौते के तहत कॉन्ग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन रोक दिया।
- गांधी-इरविन समझौते के पश्चात् कॉन्ग्रेस ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया था। कॉन्ग्रेस की ओर से गांधीजी दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने इंग्लैण्ड गए।
घटनाएँ | कालानुक्रम |
नेहरू रिपोर्ट | 1928 |
सविनय अवज्ञा आंदोलन | 12 मार्च, 1930 |
गांधी-इरविन समझौता | 5 मार्च, 1931 |
भगत सिंह को फाँसी | 23 मार्च, 1931 |
- 1935 के भारत सरकार कानून में एक नए अखिल भारतीय संघ की स्थापना तथा प्रांतों में प्रांतीय स्वायत्तता के आधार पर एक नई शासन प्रणाली की व्यवस्था की गई। यह संघ ब्रिटिश भारत के प्रांतों तथा रजवाड़ों पर आधारित था। इस कानून के द्वारा केंद्र में दो सदनों वाली एक संघीय विधायिका की व्यवस्था की गई. | जिसमें रजवाड़ों को भिन्न-भिन्न प्रतिनिधित्व दिया गया। मगर रजवाड़ों के प्रतिनिधियों का चुनाव जनता द्वारा नहीं किया जाता था, बल्कि उन्हें वहाँ के शासक मनोनीत करते थे।
- 1935 के भारत सरकार कानून के संघीय पक्ष को कभी लागू नहीं किया गया, पर प्रांतीय पक्ष जल्द ही लागू कर दिया गया। 1935 के नए कानून का कड़ा विरोध करने के बावजूद कॉन्ग्रेस ने इसके अंतर्गत होने वाले चुनावों में भाग लेने का निर्णय किया हालाँकि गांधीजी ने एक भी चुनाव सभा को संबोधित नहीं किया। फरवरी 1937 में हुए चुनावों में कॉन्ग्रेस ने अधिकांश प्रांतों में भारी जीत हासिल की। ग्यारह में से सात प्रांतों में जुलाई 1937 में कॉन्ग्रेसी मंत्रिमंडल बने। बाद कॉन्ग्रेस ने दो प्रांतों में साझी सरकारें भी बनाईं। इस तरह कॉन्ग्रेस ने कुल 9 प्रांतों में अपनी सरकार बनाई जिसमें से उसे 7 प्रांतों में पूर्ण बहुमत हासिल था।
- 1937 के प्रांतीय चुनावों में केवल बंगाल और पंजाब प्रांत में ही गैर-कॉन्ग्रेसी मंत्रिमंडल बन सके। पंजाब में कम्युनिस्ट पार्टी ने एवं बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी और मुस्लिम लीग ने मिलकर सरकार बनाई।
- 1938 में हरिपुरा अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस कॉन्ग्रेस के निर्विरोध अध्यक्ष चुने गए और उन्होंने जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय योजना समिति बनाई।
- 1934 में आचार्य नरेंद्र देव तथा जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में ‘कॉन्ग्रेस समाजवादी पार्टी’ की स्थापना हुई।
- 1936 में स्वामी सहजानंद सरस्वती की अध्यक्षता में पहला अखिल भारतीय किसान संगठन बना।
- 1940 में मुस्लिम लीग ने एक प्रस्ताव पारित करके मांग की कि स्वाधीनता के बाद देश के दो भाग कर दिये जाएँ और पाकिस्तान नाम का एक अलग राज्य बनाया जाए।
- भारत की ब्रिटिश सरकार ने 1939 में शुरू हुए द्वितीय विश्वयुद्ध में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस या केंद्रीय विधानसभा के चुने हुए सदस्यों से | परामर्श किये बिना ही एकपक्षीय घोषणा करके भारत को युद्ध में शामिल कर लिया। मगर कॉन्ग्रेस के नेताओं का सवाल यह था कि एक गुलाम राष्ट्र के द्वारा दूसरों के मुक्ति संघर्ष में साथ देना किस प्रकार संभव है? इसलिये उन्होंने मांग की कि भारत को स्वाधीन देश घोषित किया जाए या कम-से-कम भारतीयों को समुचित अधिकार दिये जाएँ, ताकि वे युद्ध में सक्रिय रूप से भाग ले सकें। ब्रिटिश सरकार ने इस मांग को मानने से इनकार कर दिया। इसलिये कॉन्ग्रेस ने अपने मंत्रिमंडलों को आदेश दिया कि वे त्यागपत्र दे दें।
- अक्तूबर 1940 में गांधीजी ने कुछ चुने हुए व्यक्तियों को साथ लेकर सीमित पैमाने पर सत्याग्रह चलाने का निर्णय किया, जिसे सीमित इसलिये रखा गया कि देश में व्यापक उथल-पुथल न हो। व्यक्तिगत सत्याग्रह करने वाले पहले व्यक्ति विनोबा भावे थे।
- द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत का सहयोग प्राप्त करने के लिये ब्रिटिश सरकार ने एक कैबिनेट मंत्री स्टैफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में मार्च 1942 में एक मिशन भेजा। क्रिप्स लेबर पार्टी के उग्र सदस्य और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के पक्के समर्थक थे।
- क्रिप्स ने घोषणा की कि भारत में ब्रिटिश नीति का उद्देश्य यहाँ ‘जितनी जल्दी संभव हो स्वशासन की स्थापना करना था, फिर भी क्रिप्स तथा कॉन्ग्रेसी नेताओं की लंबी बातचीत टूट गई।
- अखिल भारतीय कॉन्ग्रेस कमेटी की मीटिंग 8 अगस्त, 1942 को बंबई में हुई, जिसमें ‘भारत छोड़ो प्रस्ताव’ स्वीकार किया गया तथा इस उद्देश्य को पाने के लिये गांधीजी के नेतृत्व में एक अहिंसक जनसंघर्ष चलाने का फैसला किया गया।
- 8 अगस्त 1942 की रात, जिस दिन कॉन्ग्रेस द्वारा भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित किया गया. गांधीजी ने भारतवासियों से कहा कि “मैं आपको छोटा-सा मंत्र दे रहा हूँ; आप इसे अपने दिलों में संजोकर रख लें और हर एक साँस में इसका जाप करें। वह मंत्र है ‘करो या मरो’। हम या तो भारत को स्वतंत्र कराएंगे या इस प्रयास में मारे जाएंगे, मगर हम अपनी पराधीनता को जारी रहते देखने के लिये जीवित नहीं रहेंगे।”
भारत छोड़ो आंदोलन के संबंध में
- कॉन्ग्रेस ने 8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित किया तथा अगले ही दिन 9 अगस्त को बहुत तड़के ही गांधीजी तथा अन्य कॉन्ग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार करके अनजानी जगहों पर ले जाकर कैद कर दिया गया तथा कॉन्ग्रेस को एक बार पुनः गैर-कानूनी संस्था घोषित कर दिया गया। इन गिरफ्तारियों की खबर ने पूरे देश को सकते में डाल दिया और हर जगह विरोध में एक स्वतः स्फूर्त आंदोलन उठ खड़ा हुआ। पूरे देश में कारखानों में, स्कूल-कॉलेजों में हड़तालें हुई, प्रदर्शन हुए जिनमें शामिल लोगों पर लाठीचार्ज व फायरिंग भी हुई। बार-बार के दमन से क्रुद्ध होकर जनता ने अनेक जगहों पर हिंसक कार्यवाहियाँ भी कीं। अतः यह आंदोलन अहिंसात्मक नहीं था।
- भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उच्च वर्ग के लोग तथा नौकरशाह सरकार के वफादार रहे।
- 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान संयुक्त प्रांत, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र, तमिलनाडु और महाराष्ट्र के अनेक भागों में ब्रिटिश शासन लुप्त हो गया। पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में, बंगाल के मिदनापुर जिले में तामलुक और बंबई के सतारा जिले जैसे। कुछ क्षेत्रों में क्रांतिकारियों ने ‘समानांतर सरकारें’ बना लीं।
- 1939 में कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र के बाद सुभाष चंद्र बोस और उनके वामपंथी समर्थकों ने फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की।
- ब्रिटिश सरकार ने आजाद हिंद फौज के जनरल शाहनवाज, जनरल जी.एस. ढिल्लों और जनरल प्रेम सहगल पर दिल्ली के लाल किले में मुकदमा चलाने का फैसला किया, जिसे इतिहास में ‘लाल किला मुकदमा’ के नाम से जाना जाता है।
- पूरे देश में उनकी रिहाई की मांग को लेकर विशाल जन प्रदर्शन हुए। हालांकि, कोर्ट मार्शल में आजाद हिंद फौज के इन बंदियों को दोषी पाया गया, मगर सरकार ने उन्हें छोड़ देने में भलाई समझी।
घटनाएँ | तिथि |
क्रिप्स मिशन | मार्च 1942 |
भारत छोड़ो आंदोलन | अगस्त 1942 |
लाल किला मुकदमा | नवंबर 1945 |
नौसेना विद्रोह | फरवरी 1946 |
कैबिनेट मिशन 1946 के संबंध में
- ब्रिटिश सरकार ने मार्च 1946 में कैबिनेट मिशन भारत भेजा, ताकि भारतीय नेताओं से भारतीयों को सत्ता सौंपने की शर्तों के बारे में बातचीत की जाए।
- कैबिनेट मिशन ने दो स्तरों वाली एक संघीय योजना का प्रस्ताव किया. जिससे आशा की गई कि बड़ी मात्रा में क्षेत्रीय स्वायत्तता देकर भी राष्ट्रीय एकता को बनाए रखा जा सकेगा।
- कैबिनेट मिशन योजना में प्रांतों और रजवाड़ों का एक संघ होता और संघीय केंद्र का केवल प्रतिरक्षा विदेशी मामलों एवं संचार विषयों पर नियंत्रण होता। साथ ही प्रांत अपने-अपने क्षेत्रीय संगठन भी बना सकते थे।
- भारत की स्वतंत्रता के समय ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार थी तथा वहाँ के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली थे।
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FAQ-
(Q)सिख साम्राज्य का संस्थापक किसे माना जाता है?
Ans.-महाराजा रणजीत सिंह (1799 ई.)
(Q)महाराजा रणजीत सिंह किस मिसल से सम्बंधित थे?
Ans.-सुकरचकिया
(Q)महाराजा रणजीत सिंह के राज्य की राजधानी कहाँ स्थित थी?
Ans.-लाहौर
(Q)महाराजा रणजीत सिंह ने सुप्रसिद्ध कोहिनूर हीरा किससे प्राप्त किया था?
Ans.-शाहशुजा से
(Q)प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध किस संधि द्वारा समाप्त हुआ?
Ans.-लाहौर की संधि (1846 ई.)