Ancient History Notes: FREE UPSC NCERT Class 12th History Notes Hindi Part-1

Ancient History Notes: Ancient History में आपको महत्वपूर्ण टॉपिक जैसे सिंधु सभ्यता बौद्ध धर्म जैन धर्म इत्यादि बहुत सारे महत्वपूर्ण टॉपिक इंपॉर्टेंस है जिसका शॉर्ट नोट्स इस आर्टिकल में बनाकर हम और हमारी टीम ने आप सभी के लिए बनाया है ।

भारतीय इतिहास के कुछ विषय [ भाग-1]

1.ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ
2.राजा, किसान और नगर
3.बंधुत्व, जाति तथा वर्ग
विचारक, विश्वास और इमारतें

Ancient History ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ

हड़प्पा के संदर्भ में

  • सिंधु घाटी सभ्यता को ‘हड़प्पा संस्कृति’ भी कहा जाता है। पुरातत्त्वविद् ‘संस्कृति’ शब्द का प्रयोग पुरावस्तुओं के ऐसे समूह के लिये करते हैं, जो एक विशिष्ट शैली के होते हैं और सामान्यतया एक साथ एक विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र तथा काल-खंड से संबद्ध पाए जाते हैं।
  •  हड़प्पा सभ्यता के संदर्भ में विशिष्ट शैली की पुरावस्तुओं में मुहरें, मनके, बाट, पत्थर के फलक और पकी हुई ईंटें सम्मिलित की जाती हैं।
  • यद्यपि हड़प्पाई शवाधानों में आभूषण तथा अन्य प्रयोग में लाई जाने वाली वस्तुओं को दफनाने के संकेत मिलते हैं, परंतु समकालीन मिस्र की सभ्यता के सापेक्ष (स्वतंत्र रूप से भी देखें तो) हड़प्पा के लोग मृतकों के साथ बहुमूल्य वस्तुओं को दफनाने में विश्वास नहीं करते थे।

Ancient History में हड़प्पा के काल निर्धारण के संदर्भ में

  • हड़प्पा काल का निर्धारण पुरातत्त्वविदों द्वारा 2600 से 1900 ईसा पूर्व के मध्य किया गया है।
  • उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में इस सभ्यता से पहले और बाद में भी संस्कृतियाँ अस्तित्त्व में थीं, जिन्हें क्रमशः आरंभिक तथा परवर्ती हड़प्पा संस्कृति कहा जाता है। इन संस्कृतियों से हड़प्पा सभ्यता को अलग करने के लिये कभी-कभी इसे विकसित हड़प्पा संस्कृति भी कहा जाता है।
  •  बी.सी. (B.C.)- बिफोर क्राइस्ट यानी ईसा पूर्व
  • ए.डी. (A.D.) – एनो डॉमिनी इसे हिंदी में ई. लिखा जाता है। इसका तात्पर्य ईसा मसीह के जन्म के वर्ष से है।
  • उल्लेखनीय है कि आजकल ए.डी. (A.D.) के स्थान पर सी.ई. (C.E.) तथा बी.सी. (B.C.) के स्थान पर बी.सी.ई. (B.C.E.) का प्रयोग किया जाता है। इसमें सी.ई. का प्रयोग ‘कॉमन एरा’ तथा बी.सी.ई. का प्रयोग ‘बिफोर कॉमन एरा’ के लिये किया जाता है। विश्व में अब इन शब्दों का प्रयोग सामान्य हो गया है।
  •  कभी-कभी अंग्रेजी में बी.पी. (B.P.) अक्षरों का प्रयोग किया जाता है, जिसका तात्पर्य है ‘बिफोर प्रजेंट’।

Ancient History में हड़प्पा संस्कृति के विस्तार के संदर्भ में

  • हड़प्पा संस्कृति में ‘चोलिस्तान’ शब्द का प्रयोग थार रेगिस्तान से लगे हुए पाकिस्तान के रेगिस्तानी क्षेत्र के लिये किया गया है। इसकी गिनती आरंभिक तथा विकसित हड़प्पा संस्कृतियों में की जाती है। यहाँ से 239 बस्तियाँ प्राप्त हुई।
  • हड़प्पा स्थलों से मिले अनाज के दानों में गेहूँ, जी, दाल, सफेद चना तथा तिल शामिल हैं। बाजरे के दाने गुजरात के स्थलों से मिले हैं। 
  •  हड़प्पा स्थलों से प्राप्त जानवरों की हड्डियों में मवेशियों, भेड़, बकरी, भैंस तथा सूअर की हड्डियाँ शामिल हैं। पुरा-प्राणिविज्ञानियों अथवा जीव-पुरातत्त्वविदों द्वारा किये गए अध्ययनों से संकेत मिलते हैं कि ये सभी जानवर पालतू थे। 
  • उल्लेखनीय है कि जंगली प्रजाति के जानवरों जैसे-हिरन, वराह (सूअर) तथा घड़ियाल की हड्डियाँ भी मिली हैं। परंतु, अभी तक यह नहीं कहा जा सकता कि हड़प्पा निवासी स्वयं इनका शिकार करते थे। अथवा अन्य आखेटक समुदायों से इनका मांस प्राप्त करते थे। मछली तथा पक्षियों की भी हड्डियाँ मिली हैं।

हड़प्पा सभ्यता की कृषि प्रौद्योगिकी के संदर्भ में

  • हड़प्पाई मुहरों तथा मृण्मूर्तियों से इसके पर्याप्त साक्ष्य मिलते हैं कि हड़प्पावासी वृषभ से परिचित थे। पुरातत्त्वविद् भी यह मानते हैं कि खेत जोतने के लिये बैलों का प्रयोग किया जाता रहा होगा। 
  • मिट्टी के बने हल के प्रतिरूपों की प्राप्ति बनावली तथा चोलिस्तान के कई क्षेत्रों से हुई है। 
  • पुरातत्त्वविदों को कालीबंगन (राजस्थान) से जुते हुए खेत के साक्ष्य मिले हैं, जो हड़प्पा के आरंभिक स्तर से संबद्ध हैं। इस खेत में हल रेखाओं के दो समूह एक-दूसरे को समकोण पर काटते हुए मिलते। हैं, जो दर्शाता है कि एक साथ अलग-अलग फसलें भी उगाई जाती थीं।
  • हड़प्पावासियों ने कच्चा माल प्राप्त करने हेतु तांबे के लिये खेतड़ी तथा सोने के लिये दक्षिण भारत से संपर्क स्थापित किया। इन स्थानों से मिलने वाली हड़प्पाई वस्तुएँ ऐसे संपर्कों की सूचक हैं। खेतड़ी क्षेत्र से मिले साक्ष्यों को पुरातत्त्वविदों ने ‘गणेश्वर – जोधपुरा’ संस्कृति का नाम दिया है। इस संस्कृति के मृदभांड हड़प्पा से भिन्न हैं तथा ऐसा संभव है कि इस क्षेत्र के निवासी हड़प्पा सभ्यता के लोगों को तांबा भेजते थे।
  • हड़प्पावासी शिल्प उत्पादन हेतु कच्चा माल विभिन्न स्थानों से प्राप्त करते थे। उदाहरण- नागेश्वर तथा बालाकोट से शंख, अफगानिस्तान में शोर्तुघई से अत्यंत कीमती माने जाने वाले नीले रंग के लाजवर्द पत्थर, लोयल कानलियन (गुजरात में भडोच से) सेलखड़ी (दक्षिणी राजस्थान तथा उत्तरी गुजरात से) और धातु (राजस्थान से) के स्रोतों के निकट स्थित था।
  • इसमें बस्ती दो भागों में विभाजित थी एक भाग ऊँचा किंतु छोटा तथा दूसरा भाग नीचे, किंतु बड़ा बनाया गया। इन्हें क्रमशः दुर्ग तथा निचले शहर का नाम दिया गया।
  • इसमें एक बार चबूतरों को यथास्थान पर बनाने के बाद शहर के भवनों का निर्माण एक निश्चित क्षेत्र तक सीमित किया गया तथा भवन निर्माण में भट्टी में पकाई गई एक निश्चित अनुपात की ईंटों का प्रयोग बृहद स्तर पर किया गया है, जो नियोजन का सबसे प्रमुख उदाहरण है।
  • मोहनजोदड़ो से विशाल स्नानागार प्राप्त हुआ है जिसका विशेष आनुष्ठानिक स्नान के लिये प्रयोग किया जाता था।
  • हड़प्पाई शहरों में सड़कों तथा गलियों को ‘ग्रिड पैटर्न’ पर बनाया गया था, जो एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। मोहनजोदड़ो का निचला शहर आवासीय भवनों का उदाहरण प्रस्तुत करता है। इनमें से कई एक आँगन केंद्रित भवन थे, जिनके चारों ओर कमरे बने थे। 
  •  हड़प्पावासी एकांतता को बहुत महत्त्व देते थे, जो उनकी भवन निर्माण पद्धति से भी परिलक्षित होता है। यहाँ भूमि तल पर बनी दीवारों में खिड़कियाँ नहीं मिलतीं। इसके अतिरिक्त मुख्य द्वार से आंतरिक भाग अथवा आँगन का सीधा अवलोकन नहीं किया जा सकता था
  • फुयॉन्स (घिसी हुई रेत अथवा बालू तथा रंग और चिपचिपे पदार्थ के मिश्रण को पका कर बनाया गया पदार्थ) के छोटे पात्र हड़प्पाई समाज में सामाजिक विलासिता की वस्तु मानी जाती रही होगी, क्योंकि संभवतः ये कीमती थे और इन्हें बनाना कठिन था।
  • उल्लेखनीय है कि महँगे पदार्थों से बनी दुर्लभ वस्तुएँ सामान्यतः मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा जैसी बड़ी बस्तियों में केंद्रित मिलती हैं। 
  •  संभवतः सोना भी आज की ही तरह कीमती व दुर्लभ था। हड़प्पा स्थलों से मिले सभी स्वर्णाभूषण संचयों से मिले थे।

हड़प्पा सभ्यता में शिल्प उत्पादन के संदर्भ में

  • कार्नीलियन लाल रंग का पत्थर था, जिसका प्रयोग मनकों के निर्माण में किया जाता था। इसके अतिरिक्त जैस्पर, स्फटिक, क्वार्ट्ज तथा सेलखड़ी जैसे पत्थर तांबा, कांसा, तथा सोने जैसी धातुएँ तथा शंख, फयॉन्स और पकी मिट्टी सभी का प्रयोग मनके बनाने के लिये होता था।
  •  चन्हूदड़ो शिल्प उत्पादन में संलग्न हड़प्पाई स्थल था।
  • नागेश्वर (गुजरात) तथा बालाकोट (पाकिस्तान) समुद्री बस्तियाँ थीं। ये शंख से बनी वस्तुओं, जिनमें चूड़ियाँ, करछियाँ तथा पच्चीकारी की वस्तुएँ सम्मिलित हैं, के निर्माण के विशिष्ट केंद्र थे। यहाँ से माल दूसरी बस्तियों तक ले जाया जाता था।
  • शिल्प उत्पादन केंद्रों की पहचान के लिये पुरातत्त्वविद् सामान्यतः प्रस्तर पिंड, पूरे शंख तथा तांबा अग्रस्क जैसा कच्चा माल, औजार, अपूर्ण वस्तुएँ, त्याग दिया गया माल तथा कूड़ा-करकट को आधार बनाते हैं। 
  •  उपर्युक्त आधारों पर ही हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो को भी शिल्प उत्पादन का केंद्र माना गया है।
  • मेसोपोटामिया के लेखों में मगान, जो संभवतः ओमान के लिये प्रयुक्त नाम था, नामक क्षेत्र से तांबे के आगमन के साक्ष्य मिलते हैं।
  •  उल्लेखनीय है कि हाल ही में हुई पुरातात्विक खोजें संकेत करती हैं। कि तांबा संभवतः अरब के दक्षिणी-पश्चिमी छोर पर स्थित ओमान से भी लाया जाता था।
  • रासायनिक विश्लेषण भी दर्शाते हैं कि ओमानी तांबे तथा हड़प्पाई पुरावस्तुओं दोनों में ‘निकिल’ के अंश मिले हैं। 
  •  इसके अतिरिक्त ओमान से एक हड़प्पाई मर्तबान की प्राप्ति हुई है. जिसके ऊपर काली मिट्टी की मोटी परत चढ़ाई गई थी।

मेसोपोटामिया से प्राप्त लेखों के संदर्भ में

  • मेसोपोटामिया के लेखों से दिलमुन (संभवत: बहरीन द्वीप), मगान तथा मेलुहा (संभवत: हड़प्पाई क्षेत्र) के आपसी संपर्कों की जानकारी मिलती है। 
  •  इन लेखों में मेलुहा से प्राप्त कार्नीलियन, लाजवर्द मणि, तांबा, सोना तथा विविध प्रकार की लकड़ियों का उल्लेख मिलता है। 
  • मेलुहा के विषय में मेसोपोटामियाई मिथक बताता है: ‘तुम्हारा पक्षी हाजा हो, उसकी आवाज राजप्रसाद में सुनाई दे।’ कई पुरातत्त्वविदों का मानना है कि हाजा पक्षी मोर था। 
  •  मेसोपोटामियाई लेख में मेलुहा को नाविकों का देश कहा गया है।
  •  उल्लेखनीय है कि व्यापार में लंबी दूरी के संपर्कों को सुविधाजनक बनाने के लिये मुहरों तथा मुद्रांकनों का प्रयोग किया जाता था।

हड़प्पाई लिपि के संदर्भ में

  • हड़प्पाई लिपि भाव चित्रात्मक लिपि थी न की वर्णमालीय (जहाँ प्रत्येक चिह्न एक स्वर अथवा व्यंजन को दर्शाता है)। इसमें चिह्नों की संख्या कहीं अधिक है- लगभग 375 से 400 के मध्य। 
  •  ऐसा प्रतीत होता है कि यह लिपि दाई से बाईं ओर लिखी जाती थी, क्योंकि मुहरों पर दाई ओर चौड़ा अंतराल है और बाईं ओर यह संकुचित है, जिससे प्रतीत होता है कि लिखने वाले ने दाई ओर से लिखना प्रारंभ किया और बाद में बाईं ओर स्थान कम पड़ गया। 
  • मुहरों पर एक पंक्ति में कुछ लिखा मिलता है। संभवतः यह मालिक के नाम व पदवी को दर्शाता है। इन पर बना चित्र (आमतौर पर एक जानवर) अनपढ़ लोगों को सांकेतिक रूप से इसका अर्थ बताता था। 
  •  हड़प्पाई लेख अधिकांशतः संक्षिप्त हैं। सबसे लंबे अभिलेख में लगभग 26 चिह्न मिलते हैं।

हड़प्पाई बाटों के संदर्भ में

  • हड़प्पा काल में विनिमय वाटों की एक सूक्ष्म या परिशुद्ध प्रणाली द्वारा नियंत्रित थे। ये बाट सामान्यतः चर्ट पत्थर के बने होते थे तथा आमतौर पर ये किसी भी तरह के निशान रहित घनाकार होते थे। इन बाटों के निचले मानदंड द्विआधारी (1,2,4, 18, 16, 32 इत्यादि 12, 800 तक) थे जबकि ऊपरी मानदंड दशमलव प्रणाली का अनुसरण करते थे। उल्लेखनीय है कि धातु से बने तराजू के पलड़े भी प्राप्त हुए हैं।

हड़प्पा सभ्यता के पतन के संदर्भ में

  • हड़प्पा सभ्यता के पतन का सर्वाधिक प्रचलित मत जलवायु परिवर्तन है, जिसका कारण वनों की कटाई रहा होगा, जिससे अत्यधिक बाढ़ तथा अत्यधिक सूखे की स्थितियाँ उत्पन्न हुई होंगी तथा सभ्यता का शनै-शनै पतन हो गया होगा। उल्लेखनीय है कि इसके अतिरिक्त एक सुदृढ़ एकीकरण के तत्त्वों का अंत भी हड़प्पा सभ्यता के पतन का कारण माना जाता है। मुहरों, लिपियों, विशिष्ट मानकों तथा मृदभांडों का लोप.

मानकीकृत बाट प्रणाली के स्थान पर स्थानीय बाटों का प्रयोग, शहरों के पतन तथा परित्याग जैसे परिवर्तनों से इस तर्क को बल मिलता है।

हड़प्पा सभ्यता के धर्म के संदर्भ में

  • हड़प्पाई मुहरों तथा अन्य वस्तुओं पर पेड़-पौधे उत्कीर्णित है, जो प्रकृति पूजा के संकेत माने जाते हैं। 
  •  हड़प्पा सभ्यता में उसकी समकालीन सभ्यताओं की भाँति किसी मंदिर या विशाल पूजा स्थलों के संकेत नहीं मिलते। मोहनजोदड़ो से प्राप्त विशाल स्नानागार तथा विशाल भवन को धार्मिक स्थान मानने में पुरातत्त्वविद् अभी तक एकमत नहीं हैं। 
  •  हड़प्पावासी जादू-टोने पर विश्वास करते थे।
  • द स्टोरी ऑफ इंडियन आर्कियोलॉजी एस.एन. रॉय ने लिखी है।
  •  इसके अतिरिक्त ‘मोहनजोदड़ो एंड द इंडस सिविलाइजेशन’ जॉन मार्शल ने लिखी है।
  •  ‘द मिथिकल मैसेकर एट मोहनजोदड़ो’ जॉन डेल्स ने लिखी है।
  • माई आर्कियोलॉजिकल मिशन टू इंडिया एंड पाकिस्तान’ ई. एम. व्हीलर ने लिखी है।
  • 1955: एस.आर. राव द्वारा लोथल में उत्खनन आरंभ किया गया।
  •  1960: बी.बी. लाल तथा बी.के. थापर के नेतृत्व में कालीबंगन का उत्खनन प्रारंभ।
  •  1990: आर.एस. बिष्ट द्वारा धौलवीरा का उत्खनन आरंभ किया गया।
  • 1921 माधोस्वरूप वत्स द्वारा हड़प्पा में उत्खनन का आरंभ किया गया।
हड़प्पाई स्थलउत्खननकर्त्ता
लोथलएस. आर. राव
कालीबंगनबी. बी. लाल
धौलावीराआर. एस. बिष्ट
हड़प्पामाधोस्वरूप वत्स

Ancient History राजा, किसान और नगर

• छठी शताब्दी ई. पू. में लगभग पूरे उपमहाद्वीप में नए नगरों के साथ राज्यों, साम्राज्यों तथा रजवाड़ों का विकास हुआ। इस राजनीतिक परिवर्तन की प्रक्रिया की शुरुआत नदियों के किनारे पर स्थित क्षेत्रों से हुई।

• लोहे के व्यापक उपयोग से कृषि उपज में वृद्धि हुई, जिससे कृषि अधिशेष अधिक हुआ तथा कृषि उपज को संगठित करने के नए तरीके ईजाद किये गए। इस आर्थिक प्रक्रिया ने साम्राज्यों की नींव पड़ने में मदद की। 

• इस प्रक्रिया का विभिन्न संस्कृतियों से कोई संबंध नहीं था।

• 1830 के दशक में जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी तथा खरोष्ठी लिपियों का अर्थ निकाला। इन लिपियों का उपयोग सबसे आरंभिक अभिलेखों और सिक्कों में किया गया। 

• प्राचीनतम अभिलेख प्राकृत भाषाओं में लिखे जाते थे। प्राकृत उन भाषाओं को कहा जाता था, जो जनसामान्य की भाषाएँ होती थीं। 

• तमिल, पाली और संस्कृत भाषाओं में भी अभिलेख मिलते हैं। यह संभव है कि लोग अन्य भाषाएँ भी बोलते थे, लेकिन इनका उपयोग लेखन कार्य में नहीं किया जाता था।

Ancient History में महाजनपदों के संदर्भ में

  • बौद्ध तथा जैन धर्म के आरंभिक ग्रंथों में (अंगुत्तर निकाय) महाजनपद नाम से सोलह राज्यों का उल्लेख मिलता है। वज्जि, मगध, कौशल, कुरू, पांचाल, गांधार और अवंति जैसे राज्यों का इन ग्रंथों में स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
  • अधिकांश महाजनपदों पर राजा का शासन होता था, लेकिन गण और संघ नाम से प्रसिद्ध राज्यों में कई लोगों का समूह शासन करता था। इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था। भगवान महावीर तथा बुद्ध इन्ही गणों से संबंधित थे।

छठी शताब्दी ई. पू. के संदर्भ में

  • जनपद का अर्थ ऐसा भूखंड था, जहाँ कोई जन अर्थात् लोग, कुल या जनजाति बस जाती थी। इस शब्द का प्रयोग प्राकृत तथा संस्कृत दोनों में मिलता है। 
  • छठी शताब्दी ई. पू. में संस्कृत में ब्राह्मणों ने धर्मशास्त्र नामक ग्रंथों की रचना शुरू की। इनमें शासक सहित अन्य के लिये नियमों का निर्धारण किया गया और अपेक्षा की जाती थी कि शासक क्षत्रिय वर्ण से ही होगा।
  •  उस समय संपत्ति जुटाने का एक वैध उपाय पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण करके धन एकत्र करना भी माना जाता था। 
  • शासकों का काम किसानों, व्यापारियों तथा शिल्पकारों से कर तथा भेंट वसूलना माना जाता था।
  • छठी से चौथी शताब्दी ई. पू. में मगध सबसे शक्तिशाली महाजनपद के रूप में उभरा। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
  •  मगध क्षेत्र में खेती की उपज खास तौर पर अच्छी होती थी। 
  • लोहे की खदानें भी आसानी से उपलब्ध थीं, जिससे उपकरण तथा हथियार बनाना सरल होता था।
  • जंगली क्षेत्रों में हाथी उपलब्ध थे, जो सेना के लिये महत्त्वपूर्ण थे।
  •  गंगा तथा इसकी उपनदियों से आवागमन सस्ता व सुलभ होता था।

मौर्य साम्राज्य के संदर्भ में

  • मौर्य साम्राज्य से संबंधित अभिलेखों में से अरामेइक और यूनानी लिपियों का प्रयोग दक्षिण भारत से प्राप्त अभिलेखों में नहीं हुआ है। पश्चिमोत्तर से प्राप्त शाहबाज गढ़ी तथा मानसेहरा अभिलेख खरोष्ठी लिपि में हैं, जबकि अफगानिस्तान से प्राप्त अभिलेख अरामेइक तथा यूनानी दोनों में हैं। 
  • मौर्य सम्राज्य के पाँच प्रमुख राजनीतिक केंद्र थे राजधानी पाटलिपुत्र और चार प्रांतीय केंद्र तक्षशिला, उज्जयिनी, तोसलि और सुवर्णगिरि । इन सबका उल्लेख अशोक के अभिलेखों में मिलता है।

मौर्य काल के संदर्भ में

  • तक्षशिला और उज्जयिनी दोनों लंबी दूरी वाले महत्त्वपूर्ण व्यापार मार्ग पर स्थित थे, जबकि सुवर्णगिरि (अर्थात सोने का पहाड़) कर्नाटक में स्थित सोने की खदान थी।
  • मेगस्थनीज ने सैनिक गतिविधियों के संचालन के लिये एक समिति तथा छः उपसमितियों का उल्लेख किया है। इनमें से एक का काम नौसेना का संचालन करना था, तो दूसरी यातायात और खान-पान का संचालन करती थी, तीसरी का काम पैदल सैनिकों का संचालन, चौथी का अश्वारोहियों, पाँचवी का रथरोहियों तथा छठी का काम हाथियों का संचालन करना था। दूसरी उपसमिति का दायित्व विभिन्न प्रकार का था- उपकरणों को ढोने के लिये बैलगाड़ियों की व्यवस्था, सैनिकों के लिये भोजन और जानवरों के लिये चारे की व्यवस्था करना तथा सैनिकों की देखभाल के लिये सेवकों तथा शिल्पकारों की नियुक्ति करना।
  • अशोक के अनुसार धम्म के माध्यम से लोगों का जीवन इस संसार में और इसके बाद के संसार में अच्छा रहेगा। उल्लेखनीय है कि धम्म के प्रचार के लिये धम्म महामात्त जैसे अधिकारियों की नियुक्ति की गई।

दक्षिण के राजाओं और सरदारों के संदर्भ में

  • सरदार के कार्यों में विशेष अनुष्ठान का संचालन, युद्ध के समय नेतृत्व करना, विवादों को सुलझाने में मध्यस्थता की भूमिका निभाना शामिल था। वह अपने अधीन लोगों से भेंट लेता था, जबकि राजा कर वसूली करता था। सरदारी में सामान्यतया कोई स्थायी सेना या अधिकारी नहीं होता था। 
  • राजाओं के लिये उच्च स्थिति प्राप्त करने का एक साधन विभिन्न देवी-देवताओं के साथ जुड़ना था। मध्य एशिया से पश्चिमोत्तर शासकों तक ने इसे अपनाया। कुषाण शासक इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं।
  •  इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश में मथुरा के पास माट के एक देवस्थान पर कुषाणों द्वारा मूर्तियाँ स्थापित की गई। कुषाण स्वयं को देवतुल्य प्रस्तुत करना चाहते थे।
  •  इसके अतिरिक्त कई शासकों ने देवतुल्य स्थान प्राप्ति के लिये ‘देवपुत्र’ की उपाधि भी धारण की।
  •  संभवतः कुषाण शासक चीनी शासकों से प्रेरित हुए होंगे, जो कि स्वयं को ‘स्वर्गपुत्र’ कहते थे।
  • सिलप्पादिकारम् तमिल महाकाव्य है। 
  • कनिष्क के सिक्कों पर अग्रभाग में राजा तथा पश्च भाग में देवता की आकृति अंकित है।

प्रयाग प्रशस्ति के संदर्भ में

  • इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख के नाम से प्रसिद्ध प्रयाग प्रशस्ति की रचना हरिषेण ने संस्कृत में की, जो समुद्रगुप्त का राजकवि था।
  • यद्यपि लोहे के फाल वाले हल की वजह से फसलों की उपज बढ़ने लगी, लेकिन ऐसे हलों का उपयोग महाद्वीप के कुछ ही हिस्से में सीमित था। पंजाब और राजस्थान जैसी अर्धशुष्क जमीन वाले क्षेत्रों में लोहे का प्रयोग 20वीं सदी में शुरू हुआ।
  • उपज बढ़ाने का एक तरीका कुओं, तालाबों और कहीं-कहीं नहरों के माध्यम से सिंचाई करना था।
शब्दसंबंधित अर्थ
गहपतिजमींदार तथा छोटे किसान
वेल्लालरबड़े जमींदार
उल्वरहलवाहा

•बौद्ध ग्रंथों में भूमिहीन खेतिहर श्रमिकों, छोटे किसानों तथा बड़े जमींदारों का उल्लेख मिलता है। पाली भाषा में गहपति शब्द का प्रयोग छोटे किसानों और जमींदारों के लिये किया जाता था।

• बड़े-बड़े जमींदार और ग्राम प्रधानों का पद प्रायः वंशानुगत होता था। 

आरंभिक तमिल संगम साहित्य में भी गाँवों में रहने वाले विभिन्न वर्गों के लोगों का उल्लेख है। जैसे वेल्लालर या बड़े जमींदार, हलवाहा (उल्वर) और दास (अणिमई)।

• उल्लेखनीय है कि गहपति घर के मुखिया को भी कहा जाता था। कभी-कभी नगरों में रहने वाले संभ्रांत व्यक्तियों के लिये तथा व्यापारियों के लिये भी इस शब्द का प्रयोग किया जाता था।

• प्रभावती गुप्त चंद्रगुप्त द्वितीय (375-415 ई. पू.) की पुत्री थी. जिसका विवाह दक्कन पठार के वाकाटक वंश में हुआ। 

• उल्लेखनीय है कि संस्कृत धर्मशास्त्रों के अनुसार, महिलाओं को भूमि जैसी संपत्ति पर स्वतंत्र अधिकार नहीं था, लेकिन एक अभिलेख के अनुसार प्रभावती भूमि की स्वामिनी थी और उसने दान भी किया था।

भूमिदान के परिणामों के संदर्भ में

  • भूमिदान से राजनीतिक प्रभुत्व के दुर्बल होने के संकेत मिलते हैं न की मजबूत होने के। 
  •  राजा का शासन सामंतों पर दुर्बल होने लगा तो उन्होंने भी भूमिदान के माध्यम से अपने समर्थक जुटाने आरंभ किये। 
  •  भूमिदान के प्रचलन से राज्य तथा किसानों के मध्य संबंध स्पष्ट हो गए, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन पर सामंतों या अधिकारियों का नियंत्रण नहीं था, जैसे- पशुपालक, संग्राहक, शिकारी आदि। संभवतः ऐसे लोग अपने जीवन तथा आदान-प्रदान का विवरण नहीं रखते थे।

भूमिदान के संदर्भ में

  • अग्रहार उस भू-भाग को कहते थे, जो ब्राह्मणों को दान किया जाता था। इस पर भूमि कर नहीं वसूला जाता था। ब्राह्मणों को स्वयं स्थानीय लोगों से कर वसूलने का अधिकार था। 
  • दान की गई भूमि (गाँव) में पुलिस तथा सैनिकों का प्रवेश वर्जित था।
  • सातवीं सदी ई. में जब हह्वेनसांग भारत आया तो उसने पाटलिपुत्र का वर्णन एक खंडहर के रूप में किया। 
  • मौर्य काल में प्रायः सभी नगर संचार मार्गों के किनारे बसे थे। पाटलिपुत्र जैसे कुछ नगर नदी मार्ग के किनारे तथा उज्जयिनी भूतल मार्ग के किनारे बसा था।
  •  पुहार समुद्र तट पर बसा नगर था।
  • मथुरा मौर्य काल में व्यावसायिक, सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र था।

श्रेणी के संदर्भ में

  • उत्पादकों तथा व्यापारियों के संघ को श्रेणी कहा जाता था। ये कच्चा माल खरीदने तथा वस्तुओं के निर्माण के लिये स्वतंत्र थे। 
  • यह संभव है कि शिल्पकारों ने नगर में रहने वाले संभ्रांत लोगों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिये कई प्रकार के लौह उपकरणों का प्रयोग किया होगा।

छठी शताब्दी ई. पू. की अर्थव्यवस्था के संदर्भ में

  • छठी शताब्दी ई. पू. में नदी मार्गों तथा भूमार्गों का प्रयोग बड़े पैमाने पर व्यापार के लिये किया जाने लगा। मध्य एशिया तथा उससे भी आगे के भूमार्ग का वर्णन मिलता है।
  •  समुद्र तट के कई बंदरगाहों से जलमार्ग अरब सागर से होते हुए उत्तरी अफ्रीका से पश्चिम एशिया और बंगाल की खाड़ी से चीन तथा दक्षिण पूर्व एशिया तक फैल गया था। शासकों ने प्रायः इन मार्गों पर नियंत्रण करने की कोशिश की और वे इन मार्गों पर व्यापारियों से उनकी सुरक्षा के बदले धन वसूलते थे।
  •  तमिल भाषा में मसत्थुवन और प्राकृत भाषा में सत्थवाह और सेट्ठी व्यापारी को कहा जाता था।
  •  रोमन साम्राज्य में काली मिर्च जैसे मसालों तथा कपड़ों और जड़ी-बूटियों की भारी मांग थी। इन सभी वस्तुओं को अरब सागर के रास्ते भूमध्य सागर क्षेत्र तक पहुँचाया जाता था।

छठी शताब्दी ई. पू. के सिक्कों के संदर्भ में

  • सिक्के राजा के अलावा व्यापारियों, धनपतियों और नागरिकों द्वारा भी जारी किये जाने की संभावना व्यक्त की गई है। अन्य सभी कथन सही हैं।
  • उल्लेखनीय है कि कुषाण राजाओं के सिक्कों का आकार तथा वजन तत्कालीन रोमन सम्राटों तथा ईरान के पार्थियन शासकों के समान था।
  • दक्षिण भारत में बड़ी संख्या में रोमन सिक्के मिले, जिससे यह स्पष्ट होता है कि व्यापारिक तंत्र राजनीतिक सीमाओं से बंधा नहीं था।
  • यौधेय पंजाब तथा हरियाणा के कबायली गणराज्य थे। इनके द्वारा भारी संख्या में तांबे के सिक्के जारी करने के प्रमाण मिले हैं, जो इनकी व्यापारिक अभिरुचि तथा सहभागिता को दर्शाते हैं।
  •  छठी शताब्दी ई. से सोने के सिक्के मिलने कम हो गए। इतिहासकारों का मानना है कि रोमन साम्राज्य के पतन के बाद दूरवर्ती व्यापार में कमी आई, जिससे उन राज्यों, समुदायों और क्षेत्रों की संपन्नता पर असर पड़ा, जिन्हें दूरवर्ती व्यापार से लाभ मिलता था।
घटनाएँतिथि
जेम्स प्रिंसेप द्वारा अभिलेखों का पढ़ा जाना1838 ई.
बंगाल एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना1784 ई.
गुप्त शासन का आरंभ – 320 ई.320 ई.
अरबों की सिंध विजय712 ई.

Ancient History बंधुत्व, जाति तथा वर्ग

  • 1919 ई. में संस्कृत विद्वान, वी.एस. सुकथांकर के नेतृत्व में एक महत्वाकांक्षी परियोजना की शुरुआत हुई जिसमें कई विद्वानों ने मिलकर महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण लिखने की जिम्मेदारी ली। 
  •  सातवाहनों के कई अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनके आधार पर इतिहासकारों ने पारिवारिक तथा वैवाहिक रिश्तों का खाका तैयार किया है।
  • सातवाहन शासक गौतमीपुत्र सातकर्णी ने स्वयं को अनूठा ब्राह्मण कहा।
  • मंदसौर (मध्य प्रदेश) से मिले अभिलेख में रेशम बुनकरों की श्रेणी का उल्लेख मिलता है, जो मूलतः लाट (गुजरात) प्रदेश के निवासी थे और वहाँ से मंदसौर चले गए थे, जिसे उस समय दशपुर के नाम से जाना जाता था।
  • शूद्रक रचित मृच्छकटिकम् में (चौथी शताब्दी ईस्वी) में नायक चारुदत्त को ब्राह्मण-वणिक बताया गया है, जबकि शास्त्रों में व्यापार को वैश्यों की जीविका का साधन बताया जाता है।
  • मनुस्मृति में चांडालों के ‘कर्त्तव्यों’ की सूची मिलती है। उन्हें गाँव के बाहर रहना होता था। वे फेंके हुए बर्तनों का इस्तेमाल करते थे। रात्रि। में वे गाँव और नगरों में चल-फिर नहीं सकते थे।
  • चीन से आए बौद्ध भिक्षु फाह्यान (5वीं शताब्दी ई.) का कहना था। कि अस्पृश्यों को सड़क पर चलते हुए करताल बजाकर अपने होने की सूचना देनी पड़ती थी। ह्वेनसांग (सातवीं शताब्दी ई.) का कहना था कि वधिक और सफाई करने वालों को नगर से बाहर रहना पड़ता था।
  •  मनुस्मृति के अनुसार पैतृक जायदाद का माता-पिता की मृत्यु के बाद सभी पुत्रों में समान रूप से बँटवारा किया जाना चाहिये, किंतु ज्येष्ठ पुत्र विशेष भाग का अधिकारी था।
  •  बौद्धों ने इस बात को अंगीकार किया कि समाज में विषमता मौजूद थी, किंतु यह भेद न तो नैसर्गिक थे और न ही स्थायी। बौद्धों ने जन्म के आधार पर सामाजिक प्रतिष्ठा को अस्वीकार किया।
  • मनुस्मृति का संकलन 200 ई.पू. से 200 ई. के मध्य हुआ।
  •  1951-50 में पुरातत्त्ववेत्ता बी.बी. लाल ने मेरठ जिले (उ.प्र.) के हस्तिनापुर नामक गाँव में उत्खनन किया।
  •  महाभारत की कथा कुरु-पांचाल राज्यों से संबंधित है।

Ancient History विचारक, विश्वास और इमारतें

 • कुटागारशालाओं’ का संबंध वाद-विवाद से संबंधित बौद्ध स्थल से हैं। बौद्ध ग्रंथों में 64 संप्रदायों या चिंतन परंपराओं का उल्लेख मिलता है।

• बौद्ध शिक्षक एक जगह से दूसरी जगह घूम-घूमकर अपने दर्शन या विश्व के विषय में अपनी समझ से लेकर एक-दूसरे से तथा सामान्य लोगों से तर्क-वितर्क करते थे।

• ये चर्चाएँ कुटागारशालाओं (नुकीली छत वाली झोपड़ी) या ऐसे उपवनों में होती थी, जहाँ घुमक्कड़ मनीषी ठहरते थे।

• बुद्ध ने शिक्षा मौखिक रूप में दी, इन प्रवचनों को बुद्ध के पश्चात् लिपिबद्ध किया गया। उनकी मृत्यु के बाद उनके शिष्यों ने ‘ज्येष्ठों’ या वरिष्ठ श्रमणों की एक सभा वेसली (वैशाली) में बुलाई। वहाँ पर उनकी शिक्षाओं का संकलन किया गया। इन संग्रहों को ‘त्रिपिटक’ कहा गया।

• जब बौद्ध धर्म श्रीलंका पहुँचा तो दीपवंश (द्वीप का इतिहास) तथा महावंश (महान इतिहास) जैसे क्षेत्र-विशेष का इतिहास लिखा गया।

बौद्ध धर्म के त्रिपिटकों के संदर्भ में

  • बुद्ध की शिक्षाओं के संग्रह को ‘त्रिपिटक’ कहा जाता है।
  •  विनय पिटक में संघ या बौद्ध मठों में रहने वाले लोगों के लिये नियमों का संग्रह था।
  • बुद्ध की शिक्षाएँ सुत्त पिटक में रखी गईं तथा दर्शन से जुड़े विषय अभिधम्म पिटक में रखे गए।
  • इसके प्रमुख विद्वान अजित केसकंबलिन एक दार्शनिक थे।
  •  इस संप्रदाय के समर्थकों को ‘भौतिकवादी’ कहा जाता है।
  • उल्लेखनीय है कि मक्खलि गोशाल आजीवक परंपरा के विद्वान थे, उन्हें अक्सर ‘नियतिवादी’ कहा जाता था। इनका विश्वास था, कि सब कुछ पहले से निर्धारित है।
  • इसकी सबसे महत्त्वपूर्ण अवधारणा यह है कि संपूर्ण विश्व प्राणवान ने है। अहिंसा इस धर्म का केंद्र बिंदु है।
  •  जन्म और पुनर्जन्म का चक्र कर्म के द्वारा निर्धारित होता है, कर्म के को चक्र से मुक्ति के लिये त्याग और तपस्या की जरूरत होती है जो संसार के त्याग से ही संभव है। इसलिये मुक्ति के लिये विहारों में निवास करना एक अनिवार्य नियम बन गया।
  • जैन भिक्षु तथा भिक्षुणी पाँच व्रतों पर विश्वास करते थे हत्या न करना. चोरी न करना, झूठ न बोलना, ब्रह्मचर्य (अमृषा) और धन संग्रह न करना।
  • श्रमण’ ऐसे लोगों को कहा जाता था जिन्होंने सांसारिक जीवन को त्याग दिया हो । सुत्त पिटक में कहा गया है कि लोगों को पाँच तरह से ब्राह्मणों तथा श्रमणों की देखभाल करनी चाहिये-कर्म, वचन, मन से अनुराग द्वारा, उनके स्वागत में हमेशा घर खुले रखकर और उनकी दिन-प्रतिदिन की जरूरतों को पूरा करके ।
  • बौद्ध धर्म की प्रारंभिक परंपराओं में भगवान का होना न होना अप्रासंगिक था। 
  • थेरीगाथा, सुत पिटक का हिस्सा है। इसमें भिक्षुणियों द्वारा रचित छंदों। का संकलन है। इससे महिलाओं के सामाजिक तथा आध्यात्मिक अनुभवों के विषय में अंतर्दृष्टि मिलती है।

बौद्ध दर्शन के संदर्भ में

  • बौद्ध दर्शन के अनुसार विश्व अनित्य है और लगातार बदल रहा है। यह आत्माविहीन है, क्योंकि यहाँ कुछ भी स्थायी या शाश्वत नहीं है। इस क्षणभंगुर दुनिया में दुःख मनुष्य के जीवन का अंतर्निहित तत्त्व है।
  •  घोर तपस्या और विषयासक्ति के बीच मध्यम मार्ग अपनाकर मनुष्य दुनिया के दुखों से मुक्ति पा सकता है।
  • आनंद के समझाने पर बुद्ध ने महिलाओं को संघ में आने की अनुमति प्रदान की। बुद्ध की अनुमति से उपमाता महाप्रजापति गौतमी संघ में प्रवेश पाने वाली पहली भिक्खुनी बनीं।
  •  उल्लेखनीय है कि संघ में प्रवेश के बाद सभी को समान समझा जाता था तथा संघ की संचालन पद्धति गणों तथा संघों की परंपरा पर आधारित होती थी। असहमति की स्थिति में मतदान द्वारा निर्णय लिया जाता था। 
  •  बुद्ध ने जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति, आत्मज्ञान और निर्वाण के लिये व्यक्ति केंद्रित हस्तक्षेप और सम्यक् कर्म की कल्पना की। निर्वाण का अर्थ था अहं और इच्छा का खत्म हो जाना जिससे गृहत्याग करने वालों के दुख के चक्र का अंत हो सकता था।
  • बुद्ध के जीवनकाल तथा मृत्यु के बाद बौद्ध धर्म के तेजी से फैलाव के संदर्भ में उपर्युक्त तीनों कथन सही हैं। इसके साथ ही खुद से छोटे तथा कमजोर लोगों की तरफ मित्रता व करुणा के भाव को महत्त्व देने के आदर्श लोगों को पसंद आए।
स्थानप्राप्ति
बोधगयाज्ञान प्राप्ति
सारनाथप्रथम उपदेश
कुशीनगरनिर्वाण प्राप्ति
  • स्तूप बनाने की परंपरा बुद्धकाल से पूर्व भी मौजूद थी, लेकिन कालांतर में यह बौद्ध धर्म से जुड़ गई। 
  •  उल्लेखनीय है कि, चूँकि इसमें ऐसे अवशेष रहते थे जिन्हें पवित्र समझा जाता था, इसलिये समूचे स्तूप को ही बुद्ध तथा बौद्ध धर्म के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठा मिली।
  • स्तूपों की वेदिकाओं और स्तंभों पर मिले अभिलेखों से इन्हें बनाने और सजाने के लिये दिये गए दान का पता चलता है। कुछ दान राजाओं द्वारा दिये गए थे (जैसे सातवाहन वंश के राजा). तो कुछ दान शिल्पकारों और व्यापरिक श्रेणियों द्वारा दिये गए। स्तूप निर्माण में भिक्खुओं और भिक्खुनियों ने भी दान दिया।
  • स्तूप की संरचना मिट्टी के टीले जैसी होती है, जिसे बाद में अंड कहा गया। अंड के ऊपर एक हर्मिका होती थी। यह छज्जे जैसा ढाँचा देवताओं के घर का प्रतीक था। हर्मिका से एक मस्तूल निकलता था, जिसे यष्टि। कहते थे, जिस पर एक छतरी लगी रहती थी।
  • शालभंजिका की मूर्ति का संबंध साँची के स्तूप से है। लोक परंपरा में यह माना जाता था कि इस स्त्री द्वारा छुए जाने से वृक्षों में फूल खिल उठते थे और फल लगने लगते थे।
  •  उल्लेखनीय है कि महायान के अनुयायी दूसरी बौद्ध परंपराओं के समर्थकों को हीनयान का अनुयायी कहते थे। लेकिन, पुरातन परंपरा के अनुयायी खुद को थेरवादी कहते थे। अर्थात् वे लोग जो पुराने, प्रतिष्ठित शिक्षकों (जिन्हें थेर कहते थे) के बतलाए रास्ते पर चले, थेरवादी कहलाए।
मंदिरस्थान
महाबलिपुरम्तमिलनाडु
देवगढ़उत्तर प्रदेश
कैलाशनाथ मंदिरएलोरा (महाराष्ट्र)

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